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Saturday, August 30, 2008

मुझे क्या मिलेगा?

हमारे एक सहकर्मी थे। निहायत ही भले और सुसंस्कृत। कभी किसी ने ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना। प्रबंधक थे, कार्यालय की सारी खरीद-फरोख्त उनके द्वारा ही होती थी। कभी भी बेईमानी नहीं की। न ही किसी विक्रेता से भेदभाव किया। सबसे बराबर का कमीशन ही लेते थे। कम-ज़्यादा का सवाल ही नहीं। जब होली के मौके पर सबके लिए उपयुक्त शीर्षक चुने गए तो उनका शीर्षक भी उनकी महानता के अनुरूप ही था:

इस ब्रांच में मेरी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलेगा,
कुछ खरीदने से पहले यह बताओ कि मन्नै के मिलेगा।

अफ़सोस की बात यह है कि "मन्नै के मिलेगा" की यह सोच सार्वभौमिक सी होती जा रही है। हर बात में हम "मुझे क्या मिलेगा" से ही चलायमान होते हैं। आरक्षण इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी जाति को मिलता है तो अच्छा है, मुझे नहीं मिलता तो अन्याय है।

मेरी पत्नी खाना अच्छा बना लेती हैं। जब भी कोई नया (भारतीय) व्यक्ति हमारे घर पहली बार खाता है, उसका पहला सवाल यही होता है, "आप अपना रेस्तराँ क्यों नहीं खोल लेते?"

"क्यों भाई?"

"पैसा बहुत मिलेगा!"

घर खरीदने निकले तो एजेंट बताता कि हमें वह घर खरीदने चाहिए जिनमें लकडी जलाने वाले असली फायरप्लेस हों। सुरक्षा की दृष्टि से मैं आग से खेलने के विचार से बहुत प्रभावित नहीं था। यह जानकर एजेंट ने बताया, "बेचने में आसानी होती है। "

बेचना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, मगर आम मध्यम वर्ग के लिए घर खरीदने का पहला उद्देश्य उसमें रहना है - न कि बेचना। मगर हमारी सोच यही है। कार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।