Thursday, February 26, 2009

खून दो - खंड दो

आज 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के संस्थापक सदस्य श्री चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि है। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में एक मुखबिर की सहायता से अंग्रेजी राज की पुलिस ने आजाद को घेर लिया था। लगभग आधे घंटे तक गोलियों का आदान प्रदान हुआ और एक ही गोली बचने पर आजाद ने उससे स्वयं को शहीद कर लिया परन्तु मृत्युपर्यंत "आजाद" ही रहे। अपने नाम आजाद को सार्थक करने वाले इस वीर की आयु प्राण देते समय केवल पच्चीस वर्ष थी। आइये आज इस बात पर विचार करें कि हमने इस उम्र तक अपने देश को अपनी माँ को क्या दिया है।

"खून दो" के पिछले अंक में आपने पढा कि मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। रेड्डी की प्रसिद्धि से चिढ़कर उन्होंने रक्त-दान की बात सोची। वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

कागजी कार्रवाई के बाद उन्हें एक मेज़ पर लिटा दिया गया। जब नर्स से उनकी बांह में अप्रत्याशित रूप से बड़ा सूजा भोंका तब उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ। मगर अब पछताए का होत जब चिडिया चुग गई खेत। उनकी बांह में इतनी जलन हुई कि वे तकलीफ से चिल्ला ही पड़ते मगर पड़ोस में ही एक 60 वर्षीया महिला को आराम से खून देते देखकर उनकी चीख त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटक गयी। मौका और हालत की नजाकत देखकर उन्होंने होठ सी लेने और अश्क पी लेने में ही भलाई समझी।

पूरी प्रक्रिया में काफी देर लग रही थी। मिल्की सिंह जी के मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे। न जाने उनका खून किसके काम आयेगा। उन्हें पता ही न था कि वे एक व्यक्ति की जान बचा रहे थे कि ज़्यादा लोगों की। हो सकता है कि उनका खून रणभूमि में घायल सिपाहियों के लिए ले जाया जाए. सिर्फ उनके खून की वजह से एक वीर सैनिक की जान बचेगी और वह वीर युद्ध की बाजी पलट देगा। इतना सोचकर मिल्की सिंह को अपने ऊपर बड़ा गर्व हुआ। वे अब तक अपने अन्दर छिपे पड़े युद्ध-वीर को पहचान चुके थे। उन्होंने तो अपनी कल्पना में इतनी देर में राष्ट्रपति के हाथों परमवीर चक्र भी कबूल कर लिया था।

बहादुरी के सपनों के बीच-बीच में उन्हें बुरे-बुरे खयालात भी आ रहे थे। उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा था कि उनके शरीर से इतना ज़्यादा खून क्यों निकाला जा रहा था। पड़ोस की बूढी महिला तो जा भी चुकी थी। क्या उनसे इतना ज़्यादा खून इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि वे वीरों के दस्ते में से हैं?

तभी नर्स मुस्कराती हुई उनके पास आयी और पूछा, "आप ठीक तो हैं? रेलेक्सिंग?"

"माफ़ कीजिये, मैं मिल्की सिंह, रिलेक मेरा छोटा भाई है" मिल्की ने पहले तो नर्स का भूल सुधार किया। फिर अपनी दुखती राग पर हाथ रखकर झल्लाते हुए से पूछा, "और कितनी देर लगेगी? हाथ जला जा रहा है।"

"बस हो गया" नर्स ने उसी मधुर मुस्कान के साथ कहा और अपने नाज़ुक हाथों से सुई निकालकर घाव को रुई से दबा दिया।

मिल्की सिंह के होठ सूख रहे थे। नर्स का हाथ हटते ही वे जल्दी से कूदे और पास ही पडी उस मेज़ की और लपके जिस पर फलों के रस से भरी हुई बोतलें रखी थीं। खड़े होते ही उन्हें भयानक चक्कर आया और मेज़ तक पहुँचने से पहले ही वे धराशायी हो गए। आगे की कोई बात उन्हें याद नहीं है। जब होश आया तो वे डॉक्टरों और नर्सों से घिरे एक बिस्तरे पर लेते हुए थे। माथे और गर्दन पर बर्फ की पट्टियां लगी हुई थीं और हाथ में एक सुई चुभी हुई थी।

"यह क्या? आप लोगों ने पहले ही इतना खून निकाल लिया कि मैं गिर गया। अब फिर क्यों?" उन्होंने मिमियाते हुए पूछा।

जवाब उसी सुस्मिता ने दिया, "अभी तो आपको खून चढाया जा रहा है ताकि आप बिना गिरे अपने घर जा सकें।"

अगर उस दिन मिल्की सिंह की कार हमारा चालक सुनील नहीं चला रहा होता तो मुझे यह बात कभी भी पता न लगती। श्रीमती खान उनके घर "ठीक-हो-जाएँ" कार्ड के साथ फूलों का गुलदस्ता लेकर पहुँचीं। नहीं ... कुछ लोग कहते हैं कि वे पांच किलो कीमा लेकर गयी थीं। उस दिन के बाद जब मिल्की ने दफ्तर में वापस कदम रखा तो वे पूरी तरह से बदले हुए थे। अगले हफ्ते की कर्मचारी सभा में न सिर्फ उन्होंने रेड्डी साहब की जनसेवा को मुक्त-कंठ से सराहा बल्कि उनके लिए एक प्रमाण-पत्र और नकद पुरस्कार भी स्वीकृत किया।
[समाप्त]

Wednesday, February 25, 2009

खून दो...

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मिल्की सिंह उनका असली नाम नहीं है। मगर उनको यही नाम पसंद है क्योंकि माता-पिता द्वारा दिया गया नाम उनके पिछडेपन का प्रतीक है। उनका असली नाम यानी दूधनाथ सिंह उनकी एक आधुनिक अधिकारी वाली उनकी छवि से कहीं भी मेल नहीं खाता है। कुमारी चाको ने पहली बार उन्हें इस विसंगति का अहसास दिलाकर उनका नया नामकरण किया था और तभी से कुछ ऐसा हुआ कि लोग उनका वास्तविक नाम ही भूल गए।

मिल्की सिंह का व्यवहार मेरे प्रति काफी रूखा और कड़क है। मगर मैं यह जानता हूँ कि एक उनका जंगलीपन एक कड़े नारियल की तरह ही ऊपरी और दिखावटी है। ऊपर से वे भले ही मिल्की सिंह हो जाएँ मगर अन्दर से वे आज भी दूधनाथ सिंह ही हैं दूधिया गरी जैसे नरम। दूसरों की सहायता का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। अब उनकी रग-रग में बह रही इस भलमनसाहत को मैं नहीं पहचानूंगा तो और कौन समझेगा। न सिर्फ़ वे मेरे साथ काम करते हैं, दुर्भाग्य से वे मेरे बॉस भी हैं। इसलिए मैं अक्सर उनकी महानता और दयालुता के किस्से इतनी बार सुनता रहा हूँ कि मेरे कान पाक गए हैं।

कडाके की सर्दी पड़ रही थी। सिंह साहब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास से गुज़र रहे थे। उन्होंने एक कमज़ोर बूढे आदमी को चीथड़ों में लिपटे देखा। कितने ही लोग वहाँ से निकले मगर यह हमारे मिल्की सिंह ही थे जिन्हें उस बूढे पर दया आयी और उन्होंने पास के ठेले वाले को एक रुपया देकर उस गरीब को चाय के एक कुल्हड़ की बदौलत ठण्ड में जमने से बचा लिया। इस बात को बीते हुए कई वर्ष हो गए हैं मगर मुझे आज भी गाहे-बगाहे यह गाथा सुननी पड़ती है।

ऐसा नहीं कि हम-आप जैसे आम लोगों की तरह उनकी दयालुता का घेरा भी सिर्फ़ मनुजों तक ही सीमित हो। मिल्की सिंह आला दर्जे के पशु-प्रेमी हैं। एक बार उनके बच्चे ने क़त्लगाहों में चल रहे पशु-अत्याचारों के बारे में बनी कोई विडियो-क्लिप इन्टरनेट से उतार ली थी। उसे देखने के बाद दयालु मिल्की सिंह ने एक हफ्ते तक मटन नहीं खाया था। सिर्फ़ चिकन पर ही ज़िंदा रहे। यही किस्से बार-बार सुनने पर मेरे मन में कई प्रश्न उठते हैं मगर मैं उनसे कभी पूछ नहीं सकता क्योंकि बॉस हमेशा सही होता है।

वैसे तो मेरा बॉस होने के नाते मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। फिर भी, एक बात मिल्की सिंह को कभी समझ में कभी नहीं आयी। दफ्तर में उनके नहीं बल्कि रेड्डी साहब की दयालुता के किस्सों की चर्चा होती है। आज मिल्की सिंह कुछ ज़्यादा ही अनमने से हैं। होना भी चाहिए। सारे कर्मचारी पैसे और कपड़े इकट्ठे कर के रेड्डी साहब को दे रहे हैं जिन्होंने यह सब उडीसा के चक्रवात-पीडितों तक पहुँचाने का प्रबंध किया है। मिल्की सिंह के दिमाग में भी एक चक्रवात घूम रहा है। वे भी रेड्डी साहब की तरह कुछ बड़ा नाम (काम नहीं) करना चाहते हैं। हर सफल बॉस की तरह मिल्की सिंह भी जानते हैं कि आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक असफल पर बुद्धिमान मातहत से कुछ गुह्य-सूत्र लेने पड़ेंगे। निश्चित है कि मेरे पास ही आयेंगे।

"मैं सफल हूँ, अक्लमंद हूँ, पैसे और बचत के महत्त्व को समझता हूँ ..." वह मेरे इतना पास आकर बोले कि चाय सड़ने की महक ने मुझे अन्दर तक चीर दिया। मगर क्या करता, बॉस हैं।

"... ऐसा क्या करुँ कि दान भी हो जाए और अंटी भी ढीली न हो?" उन्होंने सकुचाते हुए फुसफुसाया।

"पैसा दिए बगैर?" मैंने अपने आप से पूछा और त्वरित-विचार के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। खिड़की के बाहर दीवार पर कुछ दीवाने नौजवानों का लिखा हुआ सुभाष चन्द्र बोस का नारा दिखाई दिया, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। "

"हम अपने खून से आसमान पे क्रान्ति लिख देंगे..."

"क्या बकते हो, मैं कोई पागल हत्यारा हूँ क्या?" मिल्की सिंह बौखलाए हुए से बोले।

"रक्तदान, सर!" मैंने उछालते हुए कहा, "कहावत भी है, खून का खून, पानी का पानी। "

मेरा इतना कहना था कि पड़ोस से मिसेज़ खान आकर मेरे और मिल्की सिंह के बीच एक दीवार की तरह खड़ी हो गयीं, "खून देना बहुत खतरनाक होता है, मेरे खाविंद ने एक दफा अपने अब्बू को दिया था, बेहोश हो गए थे । उनके भाई ने तो खून दिया भी नहीं, वह हो बस उनको देखने भर से ही बेहोश हो गया। उन्हें ठीक होने में दो हफ्ते और कई किलो कीमा लगा।"

मिसेज़ खान की बात सुनकर मिल्की सिंह बिदकने के बजाय उछल पड़े, "अरे मुझे बेहोश होने का कोई ख़तरा नहीं है, मैं तो खूब कीमा खाता हूँ।"

उनके निर्देश पर मैंने रक्त-बैंक से उनके लिए अगले दिन का समय ले लिया और अगले दिन वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

सामान्य जांच पड़ताल और कागजी कारवाई के बाद नर्स ने जब उनसे पूछा, "आप (खून देने के लिए) रेडी हैं क्या?"

"जी नहीं, मैं सिंह हूँ" मिल्की ने सफाई देते हुए कहा, "रेड्डी तो मेरा सहकर्मी है. हमारी शक्ल काफी मिलती है, लोगों को अक्सर शक हो जाता है।"
[क्रमशः]

Monday, February 16, 2009

दिमागी जर्राही बरास्ता नाक [इस्पात नगरी से - खंड 9]

जब औद्योगिक विकास सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, पिट्सबर्ग स्वाभाविक रूप से ही विश्व के सबसे धनी नगरों में से एक था. धीरे-धीरे जब पर्यावरण के प्रति जागृति आनी शुरू हुई और क़ानून कड़े होने लगे तब बहुत से व्यवसाय यहाँ से बाहर जाने लगे. पिट्सबर्ग की जनसंख्या सिकुड़नी शुरू हुई और उसके साथ ही पिट्सबर्ग ने नए क्षेत्रों को अपनाना शुरू किया. जहाँ एक तरफ़ इस नगर में कम्प्युटर संबन्धी शिक्षा और व्यवसाय पर ज़ोर दिया गया वहीं स्वास्थ्य शिक्षा और अस्पतालों ने नए रोज़गार पैदा किए. स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिट्सबर्ग पहले ही काफी झंडे गाढ़ चुका था. मसलन, डॉक्टर जोनास साल्क द्वारा पोलियो के टीके की खोज यहाँ हुई थी और वर्षों बाद अमेरिका में पहला "बीटिंग हार्ट" प्रत्यारोपण यहीं हुआ.

मगर आज हम बात कर रहे हैं एक साधारण सी लगने वाली मगर क्रांतिकारी चिकित्सा तकनीक की. यह तकनीक है "न्यूरोएंडोपोर्ट" जिसमें नाक के रास्ते से जाकर ऐसे दिमागी ट्यूमर की शल्यक्रिया होती है जिसे खोपडी खोलकर आसानी से नहीं छुआ जा सकता है. यूपीएमसी पिट्सबर्ग (जो कि मेरे नियोक्ता भी हैं) के डॉक्टर अमीन कासम ने विश्व में पहली बार "न्यूरोएंडोपोर्ट" का सफल प्रयोग किया था.

१२ फरवरी को यूपीएमसी चिकित्सकों के एक दल ने छः घन्टे की शल्यक्रिया द्वारा भारत से आए जैन संत आचार्य यशोविजय सूरीश्वर जी के मस्तिष्क के एक गोल्फ की गेंद के आकार के ट्यूमर को निकाला जिसके दवाब के कारण आचार्य के दृश्य तंत्रिका काम नहीं कर पा रही थीं और आचार्य कुछ भी देख या पढ़ सकने में असमर्थ हो गए थे.

६३ वर्षीय आचार्य की पहली शल्य चिकित्सा भारत में हुई थी मगर सर के रास्ते से उस ट्यूमर को सफलतापूर्वक हटाया नहीं जा सका था. बाद में यूरोप में रह रहे उनके एक चिकित्सक अनुयायी ने पिट्सबर्ग के बारे में जानने के बाद उनको यहाँ लाने की बात शुरू की. उल्लेखनीय बात यह है कि यह आचार्य जी की पहली हवाई यात्रा भी थी. वे अभी पिट्सबर्ग में ही स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं और यहाँ की व्यवस्था से प्रसन्न हैं. स्थानीय अखबारों में उनकी यात्रा और इलाज के बारे में जिस प्रमुखता से समाचार छपे हैं उससे स्थानीय लोगों को भी जैन संस्कृति के बारे में पहली बार काफी जानकारी मिली है.


[इस शृंखला के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा लिए गए हैं. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]
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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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Sunday, February 15, 2009

सुभद्रा कुमारी चौहान - सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि

हिन्दी साहित्य जगत हो या भारत के स्वाधीनता संग्राम की गाथा, हमारे देश का इतिहास ऐसे नर-नारियों से भरा पडा है जो कलम के धनी तो थे ही, राष्ट्र-सेवा में प्राण अर्पण करने में भी किसी से पीछे रहने वाले नहीं थे। इन्हीं कवि-सेनानियों की शृंखला के एक महामना पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को सिलसिलेवार प्रकाशित करने का महान कार्य हमारे अपने डॉक्टर अमर कुमार अपने ब्लॉग काकोरी के शहीद पर बखूबी कर रहे हैं। यदि आप की रूचि एक अद्वितीय स्वाधीनता संग्राम सेनानी द्वारा लिखे लोमहर्षक और प्रामाणिक विवरण को विस्तार से जानने में है तो कृपया एक बार वहाँ जाकर ज़रूर पड़ें और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करे।

इस परमोच्च श्रेणी के साहित्यकारों की बात चलती है तो एक और नाम बरबस ही याद आ जाता है। सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं. उन्होंने १९२१ के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं जैसे आजादी के पूर्व के दिनों में. "सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं. वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। आइये उनकी पुण्यतिथि पर याद करें उन सभी वीरों को जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में हँसते हँसते अपना तन-मन-धन न्योछावर कर दिया. प्रस्तुत है सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत" जिसे मैंने बचपन में खूब पढा है:

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* वीरों का कैसा हो वसंत - ऑडियो
* खूब लड़ी मर्दानी...
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* सुभद्रा कुमारी चौहान - विकिपीडिया

Thursday, February 12, 2009

खाली प्याला - समापन किस्त

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. वह हमेशा चाय पीकर खाली प्याले मेरी मेज़ पर छोड़ देता था. आगे पढिये कि मैंने उसे कैसे झेला। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी; चौथी कड़ी]
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मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों पर आए हुए मेरे गुस्से से कहीं भारी था।

उस शाखा में मेरा कार्यकाल कब पूरा हो गया, पता ही न चला। मेरा तबादला महाराष्ट्र में सात पर्वतों से घिरे एक सुदूर ग्राम में हो गया था। मेरी विदाई-सभा में सारे सहकर्मियों ने मेरी प्रशंसा में कोई कसर न छोड़ी। जिन लोगों को आरम्भ में मैं फूटी आँख न सुहाता था जब उन्होंने तारीफ़ के पुल बांधे तो मेरा सीना गर्व से फूल गया। शाखा की ओर से और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी मुझे उपहारों से लाद दिया। सभी दिख रहे थे परन्तु नीलाम्बक्कम नदारद था। उस दिन वह छुट्टी पर था। पूछने पर अमर ने बताया कि उसका इकलौता स्वेटर उसे आगरा की ठण्ड से नहीं बचा सका। मैंने नीलाम्बक्कम की अनुपस्थिति के बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। शायद मेरे मन में उसके प्रति दयाभाव से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। वैसे भी मैं अपनी नयी शाखा के बारे में बहुत उत्साहित था।

नयी जगह आकर मैं बहुत खुश था। मेरी नयी शाखा बहुत अच्छी थी। गाँव हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी एक सुंदर घाटी में स्थित था। शाखा में कागजी काम तो कम था मगर बाहर घूम-फिरकर करने के लिए कामों की कमी नहीं थी। छोटी सी शाखा थी जिसमें मेरे अलावा केवल पाँच लोग थे। सभी बहुत खुशमिजाज़ और मित्रवत थे, विशेषकर मोहिनी जिसने अपने आप ही मुझे मराठी सिखाने की जिम्मेदारी ले ली थी।

वहाँ रहकर मैंने पहली बार भारत के ग्रामीण विकास में सरकारी बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को करीब से देखा। हमारी शाखा के सहयोग से क्षेत्र के 12 गाँवों की काया पलट हुयी थी। दूध के लिए गाय-भैसें, ईंधन के लिए गोबर गैस, और सिंचाई के लिए सामूहिक जल-संरक्षण परियोजनाओं ने किसानों के जीवन-स्तर को बहुत सुधारा था। इस गाँव में ही पहली बार मैंने गरीबी-रेखा से नीचे रह रहे लोगों को भी बेधड़क बैंक आते-जाते देखा।

पूरा गाँव एक बड़े परिवार की तरह था। हम छः लोग भी इस परिवार का अभिन्न अंग थे। गाँव में किसी न किसी बहाने से आए-दिन दावतें होती रहती थीं। न जाने क्यों, गाँव की हर दावत मांसाहार पर केंद्रित होती थी। जब मोहिनी को मेरी खानपान की सीमाओं का पता लगा तो उसने मुझे इन दावतों से बचाने की जिम्मेदारी भी ले ली। वह मुझे अपने घर ले जाती और कुछ नया पकाकर खिलाती थी। मुझे यह मानना पड़ेगा कि उस गाँव के लोग बहुत ही सहिष्णु और उदार थे। खासकर मोहिनी मेरे प्रति बहुत ही सहनशील थी।

गाँव में रहते हुए भी अमर के साथ मेरा पत्र-व्यवहार जारी रहा। एक दिन शाखा में उसका ट्रंक-कॉल आया। पता लगा कि आगरा में काम करते हुए जब एक दिन मैंने अपने खाते से पैसे निकाले तो मेरा चेक गलती से किसी ग्राहक के खाते में घटा दिया गया था। बाद में जब विदाई पर मैंने अपना खाता बंद करके बचा हुआ पैसा निकाला तो बैलेंस शून्य होने के बजाय असलियत में ऋण में बदल गया था। जब उस ग्राहक ने अपने खाते में पैसा कम पाया तो गलती का पता लगा।

मैं चिंतित हुआ। इतने दिनों के प्रशिक्षण में मैं यह जान चुका था कि किसी कर्मचारी के बचत खाते में किसी भी कारण से उधार हो जाना एक बहुत ही गंभीर त्रुटि थी जिसकी सज़ा निलंबन तक हो सकती थी। लेकिन साथ ही मुझे आगरा शाखा में अपनी लोकप्रियता का ध्यान आया। शाखा से मेरी विदाई के भाषणों में कहे गये शब्द भी कान में मधुर संगीत की भांति झंकृत हुए। मेरी आंखों के सामने ऐसा चित्र साकार हुआ जिसमें कई सहकर्मी मेरे खाते में पैसा डालने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे थे। मैं यह जानने को उत्सुक था कि अंततः मेरे मित्रों में से कौन सफल हुआ। आख़िर मेरा मधुर व्यवहार और मेरी लोकप्रियता बेकार थोड़े ही जाने वाली थी।

"कोई आगे नहीं आया ..." अमर ने कहा, "... कुछ लोग तो मामले को तुंरत ही ऊपर रिपोर्ट कराना चाहते थे।"

"यह कल के लड़के समझते क्या हैं अपने को?"

"अफसर बन गए तौ बैंक खरीद ली क्या इन्ने?"

"क़ानून सबके लिए बराबर है। रिपोर्ट करो।"

अमर ने बताया कि उपरोक्त जुमले मेरे कई "नज़दीकी" मित्रों ने उछाले थे। उसकी बातें सुनकर मैं सन्न रह गया। हे भगवान्! कितने झूठे थे वे पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत लोग। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि दोस्ती का दम भरने वाले वे लोग मेरी अनुपस्थिति में ऐसा व्यवहार करेंगे। मैं अपने भविष्य को दांव पर लगा देख पा रहा था। एक छोटी सी भूल मेरा आगे का करियर चौपट कर सकती थी।

"फ़िर क्या हुआ? क्या उन्होंने ऊपर रिपोर्ट किया? मेरे सामने क्या रास्ता है अब?" मुझे पता था कि अमर के खाते में कभी भी इतना पैसा नहीं होता था कि वह इस मामले में मेरी सहायता कर सका हो।

"जल्दी बताओ, मैं क्या करूँ?" मैंने उद्विग्न होकर पूछा।

"बेफिक्र रहो ..." अमर ने मुझे दिलासा देकर कहा, "नीलाम्बक्कम ने ज़रूरी रक़म अपने खाते से चुपचाप तुम्हारे खाते में ट्रांसफर कर दी।"

अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तो यह भी चाहता था कि मुझे इस बात का पता ही न लगे लेकिन अमर ने सोचा कि मुझे बताना चाहिए।

"इस दुनिया में अच्छे लोगों के साथ कभी भी बुरा नहीं होना चाहिए" अमर ने मेरे बारे में नीलाम्बक्कम के शब्द दोहराए तो कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।

मैंने रात भर सोचकर नीलाम्बक्कम को एक सुंदर सा "धन्यवाद" पत्र लिखा और पैसों के साथ भेज दिया। नीलाम्बक्कम की और से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मुझे पता भी नहीं कि आज वह कहाँ है मगर मेरी शुभकामनाएँ हमेशा उसके और अशोक के साथ हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर ने उनके सब सपने ज़रूर साकार किए होंगे। सच्चाई के प्रति मेरे विश्वास को आज भी बनाए रखने में नीलाम्बक्कम जैसे लोगों का बहुत योगदान है।

[समाप्त]

Wednesday, February 11, 2009

खाली प्याला - चौथी कड़ी

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके. उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी]
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एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी। मेरे नमस्कार के उत्तर में उन्होंने उत्साह से उछालते हुए कार्ड मेरी और बढ़ाया और फिर शब्दों को सहेजते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में जो कहा उससे मुझे समझ आया कि उनका बेटा हाई स्कूल पास हो गया था। मैंने उनके हाथ से कार्ड लिया, पढा और वापस करते हुए खुश होकर उन्हें बधाई भी दी। कुछ देर तक वे भाव-विह्वल होकर अपने बेटे अशोक के बारे में बताते रहे। जितना कुछ मैं समझ सका उससे पता लगा कि अपनी इस होनहार इकलौती संतान को उन्होंने बड़े जतन से पाला है। उसकी माँ तो जन्म देते ही चल बसी थी। तब से नीलाम्बक्कम अशोक का माँ-बाप दोनों ही बन गया। अशोक बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता था। उसके परीक्षा-परिणाम से यह स्प्पष्ट था कि उसके लिए यह काम ज़्यादा कठिन नहीं होगा। इस छोटी सी मुलाक़ात के बाद नीलाम्बक्कम जी अपना पोस्टकार्ड और अशोक की यादें साथ लेकर वापस अपनी सीट पर चले गए मगर जोश में चाय पीकर छूटा हुआ खाली प्याला मेरी मेज़ पर छोड़ गए।

इसके बाद तो वे रोजाना ही मेरी मेज़ पर आ जाते थे और कुछ देर बात करके ही जाते थे। शायद तब तक उन्हें भी यह अहसास हो गया था कि मैं वह बादल था जो सिर्फ़ छाया देना जानता था, गरजना नहीं। कभी कभार वे काम से सम्बंधित बातें भी करते थे मगर उनकी अधिकांश बातें उनकी दिवंगत पत्नी या उनके पुत्र के चारों और ही घूमती थीं। मैं दावे से कह सकता हूँ कि एक हफ्ते के अन्दर मैंने नीलाम्बक्कम के बारे में जितना जाना था उतना उस शाखा के अन्य कर्मी उनके साथ महीनों रहकर भी नहीं जान सके होंगे। इतना स्पष्ट था कि उस व्यक्ति का भूत उसकी मृत पत्नी थी और उसका भविष्य मीलों दूर बैठा उसका प्रिय बेटा। ऐसा लगता था जैसे उसके जीवन की एकमात्र प्रेरणा उसका बेटा ही था। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अशोक को जीवन की सारी खुशियाँ देना ही रह गया था। कभी-कभी यह सोचकर दुःख भी होता था कि बेचारा बूढ़ा अपने अकेले प्रियजन से इतनी दूर इन बेरहम और स्वार्थी अजनबियों के बीच क्या पाने के लिए पड़ा हुआ है।

समय बीतने के साथ उनके मुझसे बात करने की आवृत्ति बढ़ती गयी। और उसके साथ ही बढ़ती गयी, मेरी मेज़ पर छोड़े गए उनके जूठे खाली प्यालों की संख्या। मैं बचपन से ही अपने संयम और शांत स्वभाव के लिए ख्यात हूँ। सब जानते हैं कि जिन परिस्थितियों में सामान्यजन क्रोध से पागल हो जाते हैं, मैं उनमें भी प्राकृतिक रूप से सहज रहता हूँ। मेरी इस प्रकृति का एक धुर-विरोधी पक्ष भी है जो सिर्फ़ मैं बेहतर जानता हूँ। वह यह कि मैं बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ भले ही बड़ी आसानी से नज़रंदाज़ कर सकता होऊँ, छोटी-छोटी बदतमीजियाँ भी अगर लगातार होती रहें तो मुझे बहुत गुस्सा दिलाती हैं। एक बेशऊर व्यक्ति द्वारा बार-बार मेरी मेज़ पर जूठे प्याले छोड़ जाना भी ऐसी ही छोटी सी बदतमीजी थी जिसे कोई भी अन्य व्यक्ति शायद आसानी से नज़रंदाज़ कर देता। मगर मैं तो मैं ही हूँ - क्या करूँ?

मेरे मित्र कहते हैं कि मेरा चेहरा तो शीशे की तरह साफ़ है जिसके भाव कोई अंधा भी पढ़ सकता है। मगर नीलाम्बक्कम शायद भाव पढने की कला का इकलौता अपवाद था। उसका छोड़ा हुआ हर जूठा प्याला मेरे रक्तचाप को और अधिक बढ़ाता जाता था। कभी-कभी मेरा मन करता था कि उसे सामने बिठाकर पूरी विनम्रता से यह समझाऊँ कि उसके हर जूठे कप की जिम्मेदारी भी उसकी ही है, मेरी नहीं। अगर वह उसे काउंटर पर नहीं रख सकता है तो कहीं और रखे, या फिर चाय पीये ही नहीं। जब मैं अच्छे मूड में नहीं होता था तब तो दिल करता था कि उस खाली प्याले को घुमाकर उसीके सर पर दे मारूँ। मैं किसी को आसानी से बख्शता नहीं हूँ लेकिन न जाने क्यों यह दोनों विकल्प मेरे मन में ही रखे रह गए। न मैंने कभी उसे प्याला मारा और न ही उसकी इस परेशान करने वाली आदत का ज़िक्र उससे किया। मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों के कारण आने वाले गुस्से से कहीं भारी था।

[क्रमशः]

Tuesday, February 10, 2009

खाली प्याला - भाग ३

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी]
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झंडूखेड़ा-प्रवास नीलाम्बक्कम के जीवन का सबसे कठिन तप सिद्ध हुआ। वह लखनऊ की उर्दू भी नहीं समझ सकता था, झंडूखेड़ा की ब्रजभाषा का तो कहना ही क्या। उसे शहर के मामूली जेबकतरे का सामना करना भी नहीं आता था, तो फ़िर आगरा देहात के लठैतों को कैसे झेलता? झंडूखेडा में उसे उत्तर-प्रदेश के गाँव के क़ानून-व्यवस्था एवं मूलभूत सुविधाओं से रहित कठिन जीवन का अनुभव पहली बार हुआ था। उस अकेले विधुर के लिए उम्र के इस पड़ाव पर ऐसी असुविधाओं का पहली बार सामना करना आसान नहीं था। ऊपर से उसे यह भी पता नहीं था कि व्यवहार कुशलता किस चिडिया का नाम है। वह लेन-देन, बख्शीश-व्यवहार के मामले में भी बिल्कुल कोरा था।

न वह प्रबंधन में निपुण था, और न ही उसे ग्रामीण बैंकिंग से जुडी राजनीति ही आती थी। गाँव वालों और बैंक-कर्मी, दोनों का ही उस पर दवाब था। साथ ही खंड विकास अधिकारी को भी उसके आने से काफी असुविधा होने लगी थी। नतीजा, महीने भर में ही उसका जीवन नरक हो गया। हालत यह हो गयी कि बैंक के आगरा क्षेत्रीय कार्यालय के बड़े अधिकारियों के घर आकर घंटों रोना उसके सप्ताहांत का आवश्यक नियम बन गया। जब उसने वापस क्लर्क बनने की संभावनाएं तलाशीं तो कहा गया कि पदावनति तो हो जायेगी मगर दो साल तो उसे उत्तर भारत में ही पूरे करने पड़ेंगे। उसी समय किसी सहृदयी ने आगरा छावनी शाखा में बहुत दिनों से खाली पड़े एक पद को ढूंढ निकाला और नीलाम्बक्कम जी यहाँ आकर सुशोभित हो गए। इस शाखा में भी उसके प्रति व्यवहार में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। कोई भी उसे इज्ज़त से नहीं देखता था। वह फ़िर भी खुश था क्योंकि यहाँ कम से कम उसकी जान तो खतरे में नहीं थी।

उसकी अल्प-शिक्षा का भी मज़ाक उड़ता था और उसके रंग-रूप का भी, कभी-कभार उसकी अंग्रेजी का भी। मगर सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ता था उसकी वेश-भूषा का। उसे शायद कभी यह पता नहीं चला कि उसकी हवाई चप्पल, ढीली-ढाली कमीज़ और लिफाफे जैसी पतलून उसके सबसे बड़े दुश्मन थे। अमर के अलावा कोई भी उससे बात नहीं करता था। दोपहर का खाना भी वह अकेला अपनी सीट पर बैठकर खाता था। और तो और, प्रबंधक को भी जब उसके विभाग में कोई काम होता था तो वह नीलाम्बक्कम को दरकिनार कर अमर को ही बताता था।

मैंने नीलाम्बक्कम को कभी इस व्यवहार का बुरा मानते या शिकायत करते नहीं देखा। करता भी किससे? इस शाखा में तो शायद उसका दुखड़ा सुनने वाला कोई था भी नहीं। शायद इस भेदभाव को उसने झंडूखेडा से अपने बचाव का भुगतान समझकर आत्मसात कर लिया था।

समय बीतता गया। देखते-देखते मेरे आगरा-प्रवास का एक महीना पूरा हो गया। इस बीच में वहाँ मेरे लिए काफी परिवर्तन हुए। अमर के अतिरिक्त भी बहुत से सहकर्मी मेरे मित्र बने। खान को मेरी उर्दू पसंद आयी तो मिश्रा जी को मेरा निर्व्यसन होना। बाकी लोगों को भी मुझमें कोई अनुकरणीय सूत्र मिल ही गया था। जिन्हें नहीं भी मिला उन्हें भी इतने दिनों में इतना विश्वास तो हो ही गया था कि मैं उनको कोई हानि नहीं पहुँचाने वाला हूँ। खाली समय में वे लोग अक्सर मुझे घेरकर खड़े हो जाते थे और काम से सम्बंधित या व्यक्तिगत बातें करते थे। कोई मुझे अपनी मजदूर युनियन में लेना चाहता था तो कोई अपनी दूर की भतीजी का रिश्ता चाहता था। अपने स्थानीय होने के दम पर वे मेरी हर तरह से सहायता करने में भी एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते दिखाई देते थे।

एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी।

[क्रमशः]

Friday, February 6, 2009

खाली प्याला - भाग २

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे सहकर्मी मेरे आने से खुश नहीं थे। आगे पढिये कि वहाँ एक अपवाद भी था - अमर सहाय सब्भरवाल।
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उस पूरी शाखा में अगर कोई एक व्यक्ति मेरे साथ बात करता था तो वह था अमर सहाय सब्भरवाल। अमर एक पतला दुबला खुशमिजाज लड़का था जोकि अपने ऊपर भी व्यंग्य कर सकता था। एक दिन उसने अंग्रेजी में अपने नाम का संक्षिप्तीकरण किया तो हम दोनों खूब हँसे। अपने उत्सुक व्यक्तित्व के अनुरूप ही मैं अपने आस-पास के माहौल को अच्छी तरह से जानना-परखना चाहता था। अमर की सांगत से यह काम सरल हो गया था। हम दोनों एक साथ भोजन करते थे। चूंकि मुझे टाइप करना नहीं आता था, अमर मुझे अपनी प्रगति-रिपोर्ट टाइप करने में सहायता करने लगा।

बचत खाते के काउंटर के ठीक पीछे मुझे कागज़-पत्र और खातों से भरी हुई एक बड़ी सी मेज़ दे दी गयी। कम्प्यूटर तो उस ज़माने में प्रचलित नहीं थे - कम से कम भारतीय बैंकिंग व्यवसाय में तो उनकी घुसपैठ नहीं हो पायी थी। सारे लेखे-जोखे बड़े-बड़े बही खातों में लिखे जाते थे। इन खातों में लकडी के मुखपृष्ठ होते थे और अन्दर के लेखा पृष्ठों को एक चाभी द्वारा सुरक्षित कर देने की व्यवस्था थी।

अमर मेरे सामने ही बचत बैंक काउंटर पर बैठता था। उसके साथ में दो अन्य लिपिक भी थे। इन तीनों के पीछे एक वयस्थ व्यक्ति भी बैठता था। बाद में पता लगा कि उस व्यक्ति का नाम नीलाम्बक्कम था और वह अमर का अधिकारी था, कभी-कभार मैं सोचता था कि नौजवानों से घिरी उस शाखा में सेवानिवृत्ति की आयु वाला वह व्यक्ति क्या कर रहा है।

हमेशा की तरह इस बार भी अमर ने मेरी उत्सुकता को शांत किया। उसीसे पता लगा कि नीलाम्बक्कम दरअसल उतना वृद्ध नहीं है जितना दिखता है। अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तमिलनाडु के एक गाँव से था। वह एक विधुर था और इस शाखा के अन्य कर्मियों जैसा उच्च शिक्षित भी नहीं था। वह लिपिक भारती हुआ था और बहुत इच्छा के बावजूद कभी प्रोन्नति-परीक्षा पास नहीं कर सका था। मगर देखिये किस्मत भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है। बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा और बैंक ने अपनी प्लेटिनम जुबली के उपलक्ष्य में अपने उन कर्मचारियों को प्रोन्नति देकर पुरस्कृत करने का निर्णय किया जिन्होंने तीस वर्षों तक इसी बैंक में निष्कलंक सेवा की हो और वे अधिकारी बनकर अपने प्रदेश से बाहर जाने को तैयार हों।

अंधा क्या चाहे, दो आँखें। नीलाम्बक्कम जी ने फ़टाफ़ट इस अवसर का लाभ उठाया और अधिकारी बनकर आगरा के पास के एक डकैतियों के लिए बदनाम गाँव झंडूखेड़ा में विराजमान हो गए। अपने जीवन के सबसे बड़े सपने को सार्थक करने के लिए उन्हें अपने इकलौते बेटे को तमिलनाडु में ही एक हॉस्टल में छोड़ना पडा। झंडूखेड़ा आने तक उन्हें हिन्दी का एक अक्षर भी लिखना, पढ़ना या बोलना नहीं आता था। दुर्भाग्य से झंडूखेड़ा के ग्रामीणों को उनकी तमिलीकृत अंग्रेजी का एक शब्द भी समझ नहीं आता था। इतनी बात सुनाकर अमर ने अपने स्वभाव के अनुसार मज़ाक करते हुए कहा कि नीलाम्बक्कम की अंग्रेजी समझने के लिए उसे एक साल तक तमिल सीखनी पडी थी।
[क्रमशः]

Thursday, February 5, 2009

खाली प्याला - कहानी

उस दफ्तर में काम कर पाना कोई आसान बात नहीं थी। वहाँ मेरी बात सुनने का वक़्त किसी के पास नहीं था। न ही किसी को यह जानने की ज़रूरत थी कि मैं उनकी शाखा का कर्मचारी नहीं था। न तो मैं उनके अस्त-व्यस्त लेखे संतुलित करने वहाँ गया था और न ही उनकी महीनों से लम्बित पडी कानूनी विवरणी बनाने। उनके असंतुष्ट ग्राहकों के प्रति भी मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी। मैं तो एक परिवीक्षाधीन अधिकारी था जो कि उस शाखा में कुछ महीने सिर्फ़ प्रशिक्षण के लिए पहुँचा था और चार महीने बाद किसी और शहर में उड़ जाने वाला था। अभी दो साल तक मुझे देश भर में अलग-अलग जगहों की ख़ाक छाननी थी। ग्रामीण बैंकिंग सीखने किसी ठेठ देहात जाना था तो कॉर्पोरेट बैंकिंग सीखने किसी महानगर की बड़ी शाखा में भी समय बिताना था। और इन तबादलों के बीच में कई बार बंगलोर भी जाना होता था बैंकिंग और प्रबंधन की सैद्धांतिक कक्षाओं के लिए, जहाँ मेरे बाकी बैचमेट्स भी होते थे। सीखते भी थे, मस्ती भी करते थे और एक दूसरे से अपने अनुभव भी बांटते थे।

बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।

यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।

हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]

नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले





Tuesday, February 3, 2009

पिट्सबर्ग या सिक्सबर्ग [इस्पात नगरी 8]


अमेरिकी जीवन में खेलों का बहुत महत्त्व है। स्कूल, कोलेज, विशिष्ट विद्यालय, सभी की खेल की अपनी टीम होती हैं। पिट्सबर्ग में भी इस तरह के अनेकों दल हैं। नगर की बेसबाल टीम का नाम "पाइरेट्स" है और उनका प्रतीक भी एक आँख वाला समुद्री डाकू है। आइस हॉकी की स्थानीय टीम का नाम "पेंगुइन्स" है। इस्पात के उल्टे कटोरे जैसा उनका स्टेडियम मेरे दफ्टर के साथ में ही है और मेरी खिड़की से किसी खिलौने जैसा दिखता है। अमेरिकन फुटबाल का खेल पिट्सबर्ग में न सिर्फ़ बहुत लोकप्रिय है, इस खेल में यहाँ की स्थानीय फौलादी टीम "स्टीलर्स" देश भर में अग्रणी है।


पिछले रविवार को नेशनल फुटबाल लीग (NFL) द्वारा प्रायोजित वार्षिक विश्व चैंपियनशिप में फिर से विजय पाकर "स्टीलर्स" छठी बार यह गौरव पाने वाली देश की अकेली टीम बन गयी है। जब यह खेल चल रहा था, सारे शहर में स्टीलर्स का जादू छाया हुआ था। हमारे दफ्तर में भी एक दिन बहुत से लोग स्टीलर्स की जर्सीयाँ, मफलर, टोपे आदि पहनकर आए थे। भवन के अन्दर स्टीलर्स के आधिकारिक रंग के काले-पीले गुब्बारे सजाये गए थे। नीचे के चित्र में मेरे अमेरिकी सहकर्मी अपनी स्टीलर्स टाई में नज़र आ रहे हैं।


स्टीलर्स की इस अभूतपूर्व विजय के सम्मान में आज नगर में एक विशाल विजय शोभा यात्रा का आयोजन किया गया था। नगर की हर शोभा-यात्रा की तरह यह यात्रा भी मेरे कार्यालय के बाहर से होकर गुज़री। शून्य से नीचे तापमान में हजारों लोगों ने सुबह से खड़े होकर इस यात्रा-जुलूस का आनंद उठाया। भोजनावकाश में मैं भी अपने साथियों के साथ बाहर आया और अद्भुत भीड़ के इस उत्साह को देखा।



[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]

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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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Sunday, February 1, 2009

जावेद मामू - समापन किस्त

जावेद मामू - पिछले अंश: खंड 1; खंड 2]
जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
"गाडी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह तरह की हरकतें जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे ..."
अब पढिये आगे की कहानी:


कभी-कभी शीरे की चाहत में बच्चे किसानों की खिदमत में अपने आप ही कुछ बाजीगरी या शेरो-शायरी करने को उत्सुक रहते थे। बैलगाड़ी वाले किसान लोग अक्सर कोई विषय देते थे और शीरा पाने के इच्छुक बच्चे उस शब्द पर आधारित शायरी गाकर सुनाते थे। और जनाब, शायरी तो ऐसी गज़ब की होती थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब सुन लें तो ख़ुद अपनी कब्र में पलटियाँ खाने लग जाएँ। ऐसे समारोहों के समय छोटे बच्चे तो मजमा लगाते ही थे, राहगीर भी रूककर भरपूर मज़ा लेते थे। मैं भी ऐसी कई मजलिसों का चश्मदीद गवाह रहा हूँ इसलिए बरसों बीतने के बाद भी बहुत सी लाजवाब शायरी हूबहू प्रस्तुत कर सकता हूँ। प्रस्तुत है ऐसी ही एक झलक, मुलाहिज़ा फ़रमाएँ - विषय है "गंजी चाँद":

पहला बच्चा, "हम थे जिनके सहारे, उन्ने जूते उतारे, और सर पे दे मारे, क्या करें हम बेचारे, हम थे जिनके सहारे..."

दूसरा बच्चा, "गंजी कबूतरी, पेड़ पे से उतरी, कौव्वे ने उसकी चाँद कुतरी..."

एक दोपहरी को जब मैं जावेद मामू से बात कर रहा था उस समय कुछ उद्दंड बच्चों ने पत्थर मारकर एक गाड़ीवान के कई सारे घड़े एक साथ तोड़ दिए और गाडी के पीछे लटककर उनमें से बहता हुआ शीरा बर्तनों में इकठ्ठा करने लगे। एकाध घड़े की बात पर कोई भी किसान कुछ नहीं कहता था मगर तीन-चार घड़े टूटते देखकर इस किसान को काफी गुस्सा आया और उसने ग्रामीण बोली में उन बच्चों को जमकर खरी-खोटी सुनाईं। जब उसे लगा कि बच्चों पर उसकी बोली का कोई असर नहीं हुआ तो उसने शहरी ज़ुबान में चिल्लाकर ज़ोर आजमाया, "ज़रा देखो तो इन छुटके डकैतन को, कोई तो बतावै जे मुसलमान बालक ही काहे हमार घड़ा फोड़त हैं?

हालांकि उस गाडीवान की व्यथा, शिकायत और आरोप तीनों में सच्चाई थी, उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा असहज हो गया था। मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ। जब तक मैं शब्द ढूंढ पाता, जावेद मामू ने पलटकर जवाब दिया, "भाई तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो, हिन्दू अपने बच्चों की और उनकी पढ़ाई की परवाह करते हैं। हमारे लोग तो इन दोनों से ही लापरवाह रहते हैं।"

किसान जवाब में कुछ कहे बिना अपनी गाड़ी में चलता गया। बच्चे जावेद मामू की आवाज़ सुनकर छितर गए। मैं पाषाणवत खडा था कि मामू मेरी ओर उन्मुख हुए और एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म का गीत गुनगुनाने लगे, "तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी, मालूम क्या किसी को दर्द ऐ निहाँ हमारा..."

मैं सोचने लगा कि उन पंक्तियों में उनके तत्कालीन समाज का कितना सजीव चित्रण था। शायद मेरा ध्यान पाकर उनको आगे की पंक्तियाँ गाने का हौसला मिला। निम्न पंक्तियों तक पहुँचने तक तो उनकी आँख से अश्रुधार बहने लगी, "मिल जुल के इस वतन को ऐसा बनायेंगे हम, हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा..."

वे रूंधे हुए गले से बोले, "राजू बेटा, मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान को दुनिया के सामने शान से सर ऊँचा करके खड़ा कराने वालों में हिंद के मुसलमान सबसे आगे खड़े हों।"

मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे। और वे भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बल्कि डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन के बाद दूसरे थे। उनकी पत्नी बेगम आबिदा अहमद ने बाद में बरेली से चुनाव भी लड़ा और सांसद बनीं। ऐवान-ऐ-गालिब की प्रमुख बेगम बाद में महिला कॉंग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।

इस घटना के तीन दशक बाद, आज जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ था तब मुझे इस इत्तेफाक पर खुशी हुई कि देश के वर्तमान राष्ट्रपति ऐ पी जे अब्दुल कलाम न सिर्फ़ मुस्लिम थे बल्कि एक वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने देश का सर ऊँचा करने में बहुत योगदान दिया था। बिल्कुल वैसे ही, जैसा सपना जावेद मामू देखा करते थे। तीस साल में कितना कुछ बदल गया, मगर अफ़सोस कि इतना कुछ बदलना बाकी है। बरेली के आसपास के ग्रामीण मुस्लिम इलाकों में गुस्साई भीड़ ने अज्ञानवश पोलियो निवारण के लिए आने वालों पर हमले किए क्योंकि उनके बीच ऐसी अफ़वाहें फैलाई गयीं कि इस दवा से उनके बच्चे निर्वंश हो जायेंगे। छोटी-छोटी बातों पर फ़तवा जारी कर देने वाले धार्मिक नेताओं में से किसी ने भी अपने समाज के लिए घातक इन घटनाओं को संज्ञान में नहीं लिया है। न ही पुलिस द्वारा अभी तक इन हमलों के लिए किसी जिम्मेदार आदमी को पकड़ा गया है।

मैं विचारमग्न था कि, "हाशिम का सुरमा..." और "दीनानाथ की लस्सी..." की आवाजों ने मेरा ध्यान भंग किया। मेरा बरेली स्टेशन आ गया था। मैं ट्रेन से उतरा तो देखा कि टिल्लू मुझे लेने स्टेशन पर आया था। इतने दिन बाद उसे देखकर खुशी हुई। हम गले लगे। टिल्लू के साथ उसका पाँच-वर्षीय बेटा पाशू भी था। पाशू बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा कि तीस साल पहले टिल्लू दिखता था।

घर के आसपास सब कुछ बदल गया था। इतना बदलाव था कि अगर मैं अकेला आता तो शायद उस जगह को पहचान भी न पाता। घर की शक्ल भी बदल चुकी थी और उसके सामने की इमारतें भी एकदम चकाचक दिख रही थीं। खंडसाल की ज़मीन बेचकर लाला जी ने बाहर कहीं बड़ा व्यवसाय लगाया था। खंडसाल की जगह पर एक शानदार इमारत बन गयी थी। टिल्लू ने बताया कि यह भव्य इमारत जावेद मामू की है जहाँ उन्होंने एक आधुनिक आटा चक्की लगाई है। वे अभी भी परचूनी की दूकान चलाते हैं मगर नई दुकान उनकी पुरानी बित्ते भर की दुकान से कहीं बड़ी और बेहतर है।

मैं मामू की फ्लोर मिल की ओर चल रहा था। जब तक मैं जावेद मामू को देख पाता, टिल्लू ने मुझे उनके बारे में बहुत सी नयी बातें बताईं। जावेद मामू हर साल दो बच्चों के स्कूल की किताबों का प्रबंध करते हैं। बीस साल पहले जब यह अफवाह उड़ी कि किसी ने मुहर्रम के जुलूस पर पत्थर फेंका है और गुस्साई मुस्लिम भीड़ हिन्दुओं की दुकानें जलाने के लिए दौड़ पड़ी थी तो जावेद मामू सीना तानकर उन लोगों के सामने खड़े हो गये और उन्हें चुनौती दी कि एक भी हिन्दू की दूकान जलाने से पहले उन्हें मामू की दुकान जलानी पड़ेगी। बाद में उन्होंने सबको समझाया कि लूट और आगज़नी किसी एक समुदाय को नहीं जलाती है, यह देश का चैनो-अमन जलाती है और इसमें अंततः सभी को जलना पड़ता है। भीड़ ने उनकी बात को ध्यान से सुना और मामूली हील-हुज्जत के बाद माना भी। उनकी उस तक़रीर के बाद से मुहल्ले में कभी भी टकराव की नौबत नहीं आयी। टिल्लू ने बताया कि मामू के बेटे ने हाल ही में मेडिकल शिक्षा पूरी की है और दिल्ली में एक महंगे अस्पताल की नौकरी को ठुकराकर पास के मीरगंज क्षेत्र में ग्रामीणों की सेवा का प्राण लिया है।

जावेद मामू की बूढ़ी आँखों ने मुझे पहचानने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाई, "अरे राजू बेटा तुम, आओ, आओ मेरे हिन्दी के मास्साब!" वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ मेरी ओर बढ़े। अपनी बाहें फैलाकर वे बोले, "बेटा पास आओ, इतने दिनों बाद तुम्हें ठीक से देख तो लूँ ..."

जब मैंने आगे बढ़कर उनके चरण छुए तो उनकी आँखों से आँसू टप-टप बह रहे थे।
[समाप्त]