फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।
जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।
मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"
"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।
"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।
जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।
पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।
घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।
इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"
जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।
मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"
"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।
"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।
जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।
पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।
घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।
इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"
30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन[समाप्त]