Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]

Thursday, November 24, 2011

थैंक्सगिविंग - एक अनूठा आभार! - इस्पात नगरी से 52

आज नवम्बर मास का चौथा गुरुवार होने के कारण हर वर्ष की तरह आज संयुक्त राज्य अमेरिका में थैंक्सगिविंग का पर्व मनाया जा रहा है। यह उत्सव है परिवार मिलन का और अपने सुख और समृद्धि के लिये ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिये। इस पर्व की परम्परा यूरोप से आये आप्रवासियों और अमेरिका के मूल निवासियों के समारोहों की सम्मिलित परम्परा का संगम है। आधुनिक थैंक्सगिविंग के आरम्भ के बारे में बहुत सी कहानियाँ हैं। सबसे ज़्यादा प्रचलित कथा के अनुसार इस परम्परा की जड़ें आधुनिक मासाचुसेट्स राज्य के प्लिमथ स्थान में 1621 में अच्छी फसल की खुशियाँ मनाने के लिये हुए एक समारोह में छिपी हैं। समारोह वार्षिक हो गया और यूरोपीय निवासियों के पास पर्याप्त भोजन न होने की दशा में वम्पानोआग जाति के मूल निवासियों ने उन्हें बीज देकर उनकी सहायता की।

टर्की (चित्र: अपार शर्मा द्वारा)
जैसे इस पर्व के उद्गम के बारे में किसी को ठीक से नहीं पता है वैसे ही किसी को यह नहीं पता कि धन्यवाद या आभार प्रकट करने के इस दिन पर टर्की पक्षी खाने की परम्परा कब से शुरू हुई। अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि आरम्भिक आभार दिवसों पर टर्की नहीं खाई जाती थी। जो भी हो, कालांतर में टर्की इस पारिवारिक पर्व का आधिकारिक भोजन बन गयी। संयुक्त राज्य जनगणना विभाग के एक अनुमान के अनुसार आज के आभार दिवस के लिये पूरे देश में लगभग 24 करोड़ अस्सी लाख टर्कियाँ पोषित की गयीं।

ऐसा नहीं कि आज सारे अमेरिका ने टर्की खाई हो। कुछ समय से लोगों ने टर्की के शाकाहारी विकल्पों के बारे में सोचना आरम्भ किया है। टोफ़र्की एक ऐसा ही विकल्प है। इसके साथ सामान्यतः कद्दू की मिठाई, आलू और करी जैसी सह-डिशें प्रयुक्त होती हैं। बहुत से अमेरिकी परिवारों में आजकल नई पीढी शाकाहारी जीवन शैली अपना रही है। इस वजह से कई जगह बुज़ुर्गों की टर्की के साथ में टोफ़र्की बनाने का प्रचलन भी बढ रहा है। शाकाहारी और वीगन परिवारों द्वारा प्रयुक्त टोफ़र्की मुख्यतः गेहूँ और सोयाबीन के प्रोटीन से बनाया जाता है। हाँ, हमारे जैसे परिवार तो टर्की और टोफ़र्की से दूर भारतीय भोजन की सुगन्ध से ही संतुष्ट हैं।

लेकिन आज की पोस्ट का केन्द्रबिन्दु टर्की या टोफ़र्की नहीं है। आज की यह आभार पोस्ट पिट्सबर्ग निवासी 72 वर्षीय श्री महेन्द्र पटेल के सम्मान में लिखी गयी है जिन्होंने स्थानीय भोजन-भंडार (Pittsburgh food bank) को दस हज़ार डॉलर का अनुदान दिया है। लगभग पाँच वर्ष पहले अपनी पत्नी नीला के कैंसर ग्रस्त होने का समाचार मिलने पर महेन्द्र जी ने प्रभु से उनके ठीक होने की मन्नत मांगी थी। अब पत्नी के स्वस्थ होने पर आभारदिवस पर उन्होंने पिट्सबर्ग के भोजन-भंडार को एक चेक लिखकर प्रभु के प्रति अपना आभार व्यक्त किया है।

आज के कठिन समय में जब बेरोज़गारों की संख्या बढ रही है और मध्यवर्गीय लोग भी भोजन-भंडारों में दिख रहे हैं, मैंने 10,000 डॉलर (फ़ुडबैंक को) देने का निश्चय किया। ~ श्री महेन्द्र पटेल
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* Gift of thanks to food bank - स्थानीय समाचार
* काला जुमा, बेचारी टर्की
* थैंक्सगिविंग - लिया का हिन्दी जर्नल
* 24 करोड़ 80 लाख टर्कियाँ
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Pumpkin Pie - कद्दू की मिठाई
* Thanksgiving - a poem

Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Saturday, November 19, 2011

ये क्या हो रहा है भाई? मेरा ब्लॉग कहाँ गया?

खतरा
पिछले दिनों में हमने कई मित्रों के ब्लॉग्स को अकाल-मृत्यु पाते हुए देखा। ईमेल तक पहुँच कठिन हो गयी, ब्लॉग पर जाने पर "यह ब्लॉग हटा दिया गया है" जैसे सन्देश देखने को मिले। कई मित्रों तक पहुँचना भी कठिन था क्योंकि उनसे सम्पर्क, चैट आदि का माध्यम उनका प्रमुख ईमेल खाता ही चला गया था। यह समस्या केवल गूगल खातों के साथ देखी जा रही है।

गूगल की ओर से कोई अधिकारिक स्पष्टीकरण न मिलने के कारण सामान्य मान्यता यही है कि यह किसी हैकर समूह का काम हो सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि यह गूगल/ब्लॉगर में चल रही किसी बड़ी सॉफ्टवेयर समस्या का एक पक्ष हो सकता है। जीमेल, ब्लॉगर तथा अनैलेटिक्स आदि में कई नये प्रयोग चल रहे हैं। बज़ को फ़ेज़ ऑउट कर गूगल प्लस में समाहित किया जा रहा है। ऑर्कुट की भी शायद वही गति हो। क्या इन परिवर्तनों के दौरान आयी बड़ी समस्याओं के कारण ऐसा हो रहा है? या फिर किसी गुप्त समूह द्वारा कुछ विशेष लोगों को निशाना बनाया जा रहा है? पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है।

जब मैं किसी ब्लॉग पर किसी मित्र की टिप्पणी पर उनके चित्र की जगह एक श्वेत-श्याम त्रिकोण के अन्दर एक विस्मयबोधक चिह्न देखता हूँ तो यह अन्दाज़ लग जाता है कि मित्र का गूगल खाता इस नई महामारी का शिकार हो गया है।

अपने गूगल खातों को सुरक्षित रखने के लिये कृपया अपने खाते में सिक्योरिटी प्रश्न व सेलफ़ोन को लिंकित कर लीजिये ताकि परेशानी की स्थिति में आप अपने खाते पर अपना पुख्ता दावा कर सकें। साथ ही अपना पासवर्ड व सिक्योरिटी प्रश्न के उत्तर जटिल, कठिन और किसी के भी अनुमान से बाहर रखने की चेष्टा कीजिये। हर सत्र के बाद लॉग ऑउट कीजिये। साथ ही अपने ब्रॉउज़र की "पासवर्ड याद रखने" की सुविधा का प्रयोग करने से यथासम्भव बचिये।

ब्लॉग निर्यात का विकल्प डैशबोर्ड में
अपने ब्लॉग का बैकअप लेकर रखना भी एक अच्छी आदत है। साथ ही अपने टेम्प्लेट को भी एक्सपोर्ट करके रखिये। यह दोनों विकल्प ब्लॉगर डैशबोर्ड में "सैटिंग्स" नामक टैब के अंतर्गत उपलब्ध हैं। यदि सम्भव हो तो जीमेल के कॉंटेक्ट पृष्ठ का प्रिंट लेकर भी सुरक्षित जगह रख सकते हैं। निराश न हों। याद रहे कि गूगल को आपसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। यदि आपके ब्लॉग में सामग्री आपकी अपनी है और आप स्पैम भी नहीं कर रहे हैं तो फिर उनकी अपील प्रक्रिया आसानी से आपका ब्लॉग वापस कर देगी।

इसके साथ एक और समस्या देखने में आ रही है, वह है टिप्पणियों का न दिखना। इस स्थिति में टिप्पणियाँ "स्पैम" के रूप में चिह्नित हो जाती हैं और वहीं पड़ी रहती हैं जब तक कि ब्लॉगर उन्हें "स्पैम नहीं" बताकर प्रकाशित नहीं करते। "कहना पड़ता है" पर आदरणीय प्रबोध जी ने मेरे न आने की बात कही है। जबकि मैं न केवल उनका ब्लॉग नियमित पढ रहा हूँ, बल्कि वहाँ नियमित टिप्पणी भी करता रहा हूँ। कई बार एक ही पोस्ट पर 3-4 बार भी टिप्पणी की पर वे सब स्पैम में चली गयी लगती हैं। वहीं नहीं, कई अन्य ब्लॉग्स पर मेरी टिप्पणियाँ दिखाई नहीं दे रही हैं। इस समस्या का हल काफ़ी आसान है। स्पैम में आयी टिप्पणियों के लिये, ब्लॉगर डैशबोर्ड में अपना ब्लॉग चुनकर टिप्पणी का टैब चुनकर "स्पैम" टैब पर जाइये। जो टिप्पणी स्पैम न हों, उन्हें चुनकर "स्पैम नहीं" करके प्रकाशित कर दीजिये। दूसरा तरीका टिप्पणियों का मॉडरेशन ईमेल द्वारा करना है। ईमेल में पढकर आप अ-स्पैम टिप्पणियों को पढकर "प्रकाशित करें" लिंक क्लिक करके उन्हें क्रमशः प्रकाशित कर सकते हैं।

आप सभी को शुभकामनायें। शायद यह साधारण सी टिप्स आपके काम आ सकें, इसी आशा के साथ, आपका मित्र,
अनुराग शर्मा।

Monday, November 14, 2011

क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है - सारांश

ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह नामक चार प्रमुख पाप चिह्नित किये गये हैं। क्रोध का दुर्गुण असहायता, कमजोरी और कायरता का लक्षण है। पिछली प्रविष्टियों: 1. क्रोध पाप का मूल है एवम् 2. मन्युरसि मन्युं मयि देहि के बाद आइये कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों में मन्यु को पहचानने का प्रयास करें।
अब आगे:

भक्त प्रह्लाद के रक्षक नृसिंह भगवान
गुरु तेगबहादुर जी के समय के सिख भाई कन्हैया जी जब गुरु गोविन्द सिंह के दर्शन करने आनंदपुर साहब आये उसी समय मुग़लों के पहाड़ी क्षत्रपों ने सिखों पर हमला कर दिया। सिख अपने शस्त्र लेकर मुकाबला करने लगे परंतु भाई कन्हैया जी पानी से भरी मशक लेकर युद्धरत व घायल सैनिकों की प्यास बुझाने लगे। बाद में कुछ सैनिकों ने गुरुजी से उनकी शिकायत की कि वे मुग़ल सैनिकों को भी बराबरी से पानी पिला रहे थे। गुरुजी ने सबके सामने उनसे वार्ता की। भाई कन्हैया जी ने स्वीकार करते हुए कहा कि उन्हें तो हर व्यक्ति में परमात्मा दिखता है सो वे सिख, मुग़ल का भेद किये बिना सबको जल पिला देते हैं। कहते हैं कि गुरुजी ने उनके सेवाभाव और समदृष्टि का सम्मान करते हुए उन्हें घायलों की शुश्रूषा के लिये औषधि भी प्रदान की। सेवापंथी के संस्थापक भाई कन्हैया जी ने युद्धभूमि में भी अपना पराया भूलकर सेवाकार्य कर सकने की उदात्त प्रवृत्ति का जीता जागता ऐतिहासिक उदाहरण हमारे सामने रखा है।
कई लोग सोचते हैं कि धैर्य कमज़ोरी का चिह्न है। मेरी दृष्टि में यह सोच ग़लत है। क्रोध कमज़ोरी का चिह्न है जबकि धैर्य बलवान का लक्षण है। ~ महामहिम दलाई लामा

भगवान की गदा और निर्भय बच्चे
एक देवासुर संग्राम से विजयी होकर लौटे सेनापति के स्वागत समारोह में जब इन्द्र ने उन्हें अपना पुरस्कार स्वयं चुनने को कहा तब उन्होंने पुरस्कार में एक जिज्ञासा के समाधान के लिये प्रश्न पूछा कि यदि देव समदृष्टा हैं तो फिर उनका असुरों से हिंसक संघर्ष क्यों होता है? इन्द्र का उत्तर था कि आसुरी हिंसा का प्रतिकार करके देव संसार में अन्याय फैलने से रोकते हैं परंतु उन्हें किसी असुर-विशेष से कोई द्वेष नहीं है, किसी असुर पर क्रोध नहीं है।

अपने प्रति अन्याय होता दिखे तो पशु भी प्रतिकार करते हैं परंतु बाकी चारों ओर अन्याय की बाढ़ आने पर भी लोग अक्सर कन्नी काटते दिखें तो कहा जाता है कि क्या तुम्हारा खून नहीं खौलता? शास्त्रों में ऐसे अन्याय का प्रतिकार मन्यु करता है। खून का अस्थाई उबाल क्रोध है परंतु जैसा कि पिछली कड़ियों में कहा गया, मन्यु का भाव एक मानसिक अवस्था है, जोकि न तो अस्थाई है, न "स्व" से सम्बद्ध है और न ही उसके लिये क्रोध की कोई आवश्यकता है। मन्यु का भाव बालक प्रह्लाद की रक्षा के लिये नृसिंह अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु का काल भी बन सकता है और तेलंगाना की मानवीय-आर्थिक समस्या देखकर विनोबा के रूप में विश्व का सबसे बड़ा भूदान यज्ञ भी कर सकता है। यही मन्यु भाई कन्हैया के रूप में शत्रुपक्ष की शुश्रूषा भी कर सकता है। रूप रौद्र हो, सौम्य हो या करुणामय, मन्यु के साथ बल, धैर्य, समता और सहनशीलता तो है परंतु क्रोध, द्वेष आदि कहीं नहीं हैं। मन्यु को सात्विक क्रोध कहना या तो इस जटिल गुण की प्रकृति के बारे में नासमझी  है या इस जटिल उद्गार को सहज-सम्प्रेषणीय बनाना मात्र है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण ऐसा नहीं लगता कि मन्यु को क्रोध के निकट रखा जाये।
समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः। समुद्रायेव सिन्धव:।। (ऋग्वेद 8/6/4)
जैसे नदियाँ सागर को नमनपूर्वक आकर्षित होती हैं, मन्युमय इन्द्र के लिए समस्त कृष्टियाँ (विकसित मानव) वैसे ही नमनपूर्वक आकर्षित होते हैं। यहाँ सायणाचार्य द्वारा मन्यु का अर्थ नमन/स्तुति लिया गया है। ग्रंथों में जब मन्युदेव का रौद्र मानवीकरण किया गया है तब "धी" उनकी संगिनी हैं जिससे मन्यु और विवेक का सहकार सिद्ध होता है। महादेव शिव का एक नाम तिग्म-मन्यु भी है जहाँ तिग्म का अर्थ तेजस्वी या तीक्ष्ण है। अखिल भारतीय गायत्री परिवार के अनुसार अनीति से संघर्ष करने के साहस का नाम ही "मन्यु" है।
क्रोधी स्वयं अस्थिर हो जाता है। मन्युशील व्यक्ति स्वयं संतुलित मनःस्थिति में रहते हुए दुष्टता का प्रतिकार करते हैं। ~पंडित श्रीराम शर्मा
इस सप्ताहांत किसी समारोह में कुछ पुराने मित्रों से मुलाक़ात होने पर मैंने पूछा कि क्या क्रोध सकारात्मक हो सकता है। जहाँ सबने एक पल भी लिये बिना नकारात्मक उत्तर दिया वहीं एक मित्र ने बात आगे बढ़ाते हुए यह भी कहा कि क्रोध वह है जिसे करने के बाद बुद्धिमान व्यक्ति को दुःख अवश्य होता है। जहाँ नेताजी की बेटी अनिता बोस फ़ैफ़ अल्पायु में अपने पिता के चले जाने के बाबत पूछने पर अपने त्याग को मामूली बताती हैं वहीं हरिलाल गांधी ने माता-पिता को सज़ा देने के लिये अपना खान-पान व चाल-चलन तो दूषित किया ही, अंततः अपना धर्म-परिवर्तन भी किया। मुझे पहले उदाहरण में शांत मन्यु दिखता है जबकि दूसरे उदाहरण में उग्र क्रोध। अनिटा को अपने पिता पर गर्व है जबकि हरिलाल को अपने पिता के राष्ट्रपिता होने से शिकायत है।
विजेषकृदिन्द्रइवानवब्रवोSस्माकं मन्यो अधिपा भवेह।
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ॥ (ऋग्वेद 10/84/5)
इन्द्र के समान विजेता, हे मन्यु! असंतुलित न बोलने वाले आप हमारे अधिपति हों! हे सहिष्णु मन्यु! हम आपके निमित्त प्रिय स्तोत्र का उच्चारण करते हैं। हम उस विधा के ज्ञाता हैं जिससे आप प्रकट होते हैं।

सदा संतुलित बोलने वाले भी क्रोधित होने पर असंतुलित हो जाते हैं। सदा सहिष्णु दिखने वाले भी क्रोधित होने पर असहिष्णु दिखने लगते हैं। परंतु मन्यु में वाक-संतुलन भी है और सहिष्णुता भी।
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुण्श्च मन्यु:।
भियं दधाना हृदयेषु शत्रव: पराजितासो अप नि लयन्ताम्‌॥ (ऋग्वेद 10/84/7)
हे वारणीय मन्यु! आप सृजित व संरक्षित ऐश्वर्य प्रदान करें। भयभीत हृदय वाले शत्रु पराभूत होकर दूर चले जायें!

उपरोक्त व कुछ अन्य सम्बन्धित मंत्रों की व्याख्या के आधार पर निम्न सारणी में मन्यु के लक्षण व तुलनात्मक रूप में क्रोध के लक्षण समाहित करने का प्रयास है। कृपया देखिये और अपने विचारों से अवगत कराइये।
 
क्रोध मन्यु टिप्पणी
परवश समर्थ असहाय महसूस करने की अवस्था में भी क्रोध आता है। समर्थ को वह स्थिति नहीं आती
अशिष्ट विनम्र क्रोध में शिष्टाचार खो जाता है
क्षणिक आवेश स्थायी भाव क्रोध रक्त का उबाल है, मन्यु मन की धारणा/अवस्था है
क्षणिक आवेश विवेक, बुद्धि क्रोध रक्त का उबाल है, मन्यु में मन, बुद्धि, विवेक, धी है
बुद्धिनाश धी ग्रंथों में विवेकबुद्धि धी को मन्यु की सहयोगी बताया है
अहंकार निर्मम क्रोध के मूल में "मैं/मेरा" का भाव है जबकि मन्यु में परहित, जनकल्याण है
झुंझलाहट उत्साह क्रोध असंतोष का मित्र है
कायरता वीरता स्वार्थ के लिये कायर भी गाली दे सकते हैं। अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने की वीरता के लिये क्रोध की आवश्यकता नहीं है।
वीभत्स/दयनीय रौद्र मन्यु रौद्र हो सकता है मगर क्रोध जैसा दयनीय (पिटियेबल) या वीभत्स नहीं
क्रूर दयालु क्रोध के मूल में अपने लिये दूसरों का अहित है, मन्यु के मूल में जनकल्याण है
विनाश रक्षण/सृजन क्रोध विनाशकारी है, मन्यु सृजनकारी है
स्वार्थ परमार्थ क्रोध आत्मकेन्द्रित होता है
अन्याय न्याय मेरा-तेरा से कहीं ऊपर, मन्यु न्यायप्रिय है
मेरा पक्ष साक्षी भाव मन्यु में "मेरा पक्ष" नहीं है
लिप्तता तटस्थ मैं और मेरा बनाम निष्पक्षता, न्यायप्रियता
बड़े बोल संतुलित बात ऋग्वेद 10/84/5
सूरां वाणी सारथक, कायर उपजै ताव|
कायर वाणी जोसरी, सूर न आवै साव||
(~स्व.आयुवानसिंह शेखावत)
वीरों की वाणी सदैव सार्थक होती है| कायर को केवल निष्फल क्रोध आता है| कायर मात्र जोशीले बोल बोलते है परन्तु शूरवीर थोथी बड़ाई नहीं करते|

क्रोधी आदमी कायर होता है। आपने भय को छुपने के लिए हिंसा करता है, ताकि उसे पता न चले की मैं कमजोर हूं। आपके ये हिटलर, मुसोलनी ,नादिर शाह….कायर है। बुद्ध महावीर प्रेम से भरे है उनके पास कोई हिंसा नहीं है। ~स्वामी आनंद प्रसाद "मनसा"

[सम्पन्न]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* क्रोधोपचार - निशांत मिश्र (हिन्दीज़ेन)
* मन्यु - पुराण विषय अनुक्रमणिका
* उपमन्यु - पुराण विषय अनुक्रमणिका
* दिव्य लाभ मिल गए यज्ञ से, मन्यु और सामर्थ्य भरे
* मन्यु सूक्त (यूट्यूब)

मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग

पिछली पोस्ट क्रोध पाप का मूल है में हमने देखा कि ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह नामक चार प्रमुख पाप चिन्हित किये गये हैं। क्रोध का दुर्गुण असहायता, कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
अब आगे:
क्रोध के दुर्गुण होते हुए कुछेक जगह उसके लाभ की बात सुनने में आयी है। लेकिन थोड़ा ध्यान देते ही ऐसे कथनों का झोल स्पष्ट हो जाता है। ऐसा लगता है कि कुछ लेखक-लेखिकायें मन्यु को क्रोध से विभ्रमित कर रहे हैं। शायद वे दैवी गुण "मन्यु" को सात्विक क्रोध समझने के भुलावे में हैं। क्रोध एक अवांछनीय दुर्गुण है। सात्विक क्रोध जैसी कोई चीज़ नहीं होती। सच्चाई यह है कि मन्यु की उपस्थिति में क्रोध कोई स्थान नहीं पा सकता। स्पष्ट करना आसान नहीं है परंतु फिर भी प्रयास करता हूँ। विषय को परिभाषित करने में जिन आत्मीयजनों ने मेरी सहायता की उनका आभारी हूँ।

देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय का श्रेय अन्य दैवी गुणों के साथ "मन्यु" को भी दिया जा सकता है। संग्राम हो, क्षमा हो या कृपा, सज्जन अपना कार्य अक्रोध के साथ करते हैं। उदाहरण के लिये एक न्यायाधीश जब न्याय करे और निर्णय सुनाये, सज़ा, बरी, चेतावनी या क्षमा - उसमें कोई क्रोध नहीं होना चाहिये परंतु निर्णय में दमन का अंश फिर भी हो सकता है। इसी प्रकार जहाँ क्रोध का पक्षधर अहिंसा, करुणा, क्षमा आदि को कायरता के समकक्ष रखता है वहां मन्युधारी इन सब गुणों को सर्वोपरि रखेगा। वह अहिंसक के प्रति होती हिंसा को रोकने आगे भी आयेगा लेकिन इसके साथ ही अपने मन में जीवदया रखे रह सकेगा।

कृष्ण हों या बलराम, परशुराम हों या रघुवंशी राम उन्होंने डटकर अन्याय का प्रतिकार किया परंतु इस सदुद्देश्य में भी इन सबने अपने हाथ से हुई हिंसा का प्रायश्चित किया - जबकि उनके कर्म में क्रोध, द्वेष, द्रोह, लाभ, अहंकार, यश की आकांक्षा, या विजय की लालसा आदि कुछ भी नहीं था। मन्युवान को क्रोध नहीं आता। मन्यु में आक्रोश भी नहीं है, न झुंझलाहट न आँख दिखाना। आत्मरक्षा हो भी सकती है, नहीं भी। हाँ, आत्मत्याग की भावना अवश्य है। जिस इन्द्र ने दधीचि पर आक्रमण किया उसी के मांगने पर दधीचि अपने प्राण खुशी-खुशी त्याग देते हैं। उन्हें न अपने जीवन की परवाह है न इन्द्र के प्रति रोष, द्वेष या क्रोध है। केवल एक कामना है सो है जगत कल्याण की।  मन्यु में शरणागत-रक्षा भी है  और धर्म-रक्षा भी पर है अक्रोध के साथ। देव एक सीमा तक सहते हैं, फिर प्रतिकार करते हैं। मगर न तो उनके सहने में शिकायत है और न ही उनके प्रतिकार में अहंकार, द्रोह, क्रोध या द्वेष है।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।
(श्रीमद्भग्वद्गीता 16, 4)
दम्भ, दर्प और अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान, ये सब आसुरी सम्पदा के लक्षण हैं।
भगवान परशुराम ने जब 21 बार आतताइयों का विनाश किया तो राज्यप्रथा समाप्त करके ग्राम बसाये जिनमें ग्रामणी सभा होती थी और वहाँ निर्णय ज्ञानी लोग करते थे जो आपराधिक मामले आने पर सबको ही क्षमा करते रहे क्योंकि हर अपराध के पीछे वे सत्पुरुष कोई न कोई कारण देख सके, मसलन भूखा पेट तो चोरी करेगा ही। अपराधियों पर होने वाली इस दया के परिणामस्वरूप अंततः धरती पर अराजकता फैलने लगी। कहते हैं कि जब राम और परशुराम मिले तब राम ने परशुराम को उनकी करनी का यह पक्ष दिखाया और परशुराम ने स्वीकार किया। तब परशुराम ने गुरुकुलों में ऋषियों द्वारा पाले जा रहे पितृहीन राजकुमारों को राज्यसत्ता फिर से सौंपकर खुद समरकलायें सिखाने का काम किया। इस प्रकार न्याय व शासन व्ययवस्था का नया हाइब्रिड मॉडल भारत में बना जिसमें क्षत्रिय राजा के साथ ब्राह्मण मंत्रिमण्डल भी होता था और प्रशासन अब पहले सा निरंकुश नहीं रहा।

इसी प्रकार बलराम जी व कृष्ण जी जब रणछोड़ थे तब वे परशुराम के पास आये थे और परशुराम ने दोनों भाइयों को दिव्य शस्त्र और प्रशिक्षण दिया, तब वे लड़े और जीते। मन्यु में अक्रोध तो है ही बढ़ी हुई सहनशीलता + क्षमाशीलता (टॉलरेंस व एंड्यूरेंस) भी है। मतलब यह कि मन्युवान युद्धप्रिय नहीं होते, वे जल्दी भड़कते नहीं। उन्हें उकसाना पड़ता है। मन्यु को परिभाषित करते हुए कुछ विद्वान मन के प्रबुद्ध रूप को ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए प्रेमभाव, मातृभाव, या वात्सल्य आवश्यक है। वात्सल्य भाव के बिना मन्यु क्षीण होकर असहायता और क्रोध जैसी भावनाओं को स्थान दे देगा। अतृप्त, आहत भावनायें जहाँ रहती हैं वहीं विनाश है जैसे अम्ल अपने बर्तन की धातु को भी नष्ट करता है, वैसे ही क्रोध पहले क्रोधित व्यक्ति को हानि पहुँचाता है।

गीता का आरम्भ अर्जुन के विषाद से हुआ है, वह मोहग्रस्त है पर बात अहिंसा, त्याग और वैराग्य की करता है। कृष्ण उसे दिखाते हैं कि उसके मन में अहिंसा नहीं बल्कि मोहजनित विषाद है। उसने पहले भी हिंसा की है और यहाँ से भागकर भी वह जहाँ जाएगा वहाँ हिंसा करेगा। इसके उलट यही वह जगह है जहाँ यदि उसका विवेक जागृत हुआ तो वह विश्वरूप को समझकर बेहतर मानव बनेगा। मन्यु शब्द शायद नहीं आया है यहाँ, परन्तु युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए भी अहिंसा, प्रेम, करुणा, समभाव, अद्रोह आदि पर जोर बार-बार दिया गया है। मेरे प्रिय श्लोक "सुख दुखे समे कृत्वा ..." में कहा गया है कि सुख, विजय, लाभ, यश की कामना के बिना किया गया युद्ध ही पापहीन हो सकता है। मन्यु में अनाचार का प्रतिकार लक्षित है - मगर बड़बोलापन या क्रोध से अधिक यह तेज व ओज के निकट है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता २- ३८)
आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा। और इसके साथ विजयाकांक्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है। अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। और कुछ न भी हो तो यश या महिमामंडन ही युद्ध का कारण बन जाता है। तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला वह युद्ध जिसमें क्रोध का तत्व आवश्यक नहीं है। सच यह है कि ऐसे युद्ध अक्रोधी मनुष्यों ने ही लड़े हैं। क्रोध रक्त का अस्थाई उबाल है, जबकि मन्यु मन में न्यायप्रियता की निर्भय अवस्था है।

एक वेदमंत्र का उदाहरण नीचे है। अर्थ अंतर्जाल से ही लिया गया है:
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः||
(ऋग्वेद 10/84/1 अथर्ववेद 4.31.1)
मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले, हे मन्यु, उत्साह! तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित और प्रसन्न चित्त हो कर हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेतृत्व प्राप्त हो।

मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले मन्यु, स्पष्ट है कि यहाँ मन्यु में जिजीविषा और प्रतिकार की शक्ति की उपस्थिति अवश्य है। ध्यान देने योग्य दूसरी बात है आनन्दित और प्रसन्नचित्त होना। क्रूर लोग क्रोध में विकृत अट्टहास भले लगा लें परंतु आनन्द और प्रसन्नता का क्रोध से विलोम सम्बन्ध है। लेकिन क्या हम साहस और आवेश में अन्तर कर पाते हैं? वीरता और क्रूरता को भिन्न समझते हैं? जिस प्रकार क्षमा और द्वेष साथ रह ही नहीं सकते, उसी प्रकार मन्यु और क्रोध साथ नहीं रह सकते। क्रोध में भावुकता है जबकि मन्यु में भावनात्मक परिपक्वता (इमोशनल इंटैलिजेंस) के साथ दृढ़ता और सहनशीलता है। क्रोध अविवेकी है और उसके कारक विषाद, विभ्रम, भय, अज्ञान या अहंकार हो सकते हैं।

मुझे नहीं लगता कि शास्त्रों में क्रोध के दुर्गुण को कभी इस लायक समझा हो कि किसी के नाम में क्रोध प्रयुक्त हुआ हो। मुझे तो अभी ऐसा कोई खलनायक भी याद नहीं आ रहा जिसके नाम में क्रोध आया हो। यदि आपको कोई नाम याद आये तो अवश्य बतायें। शास्त्रों पर एक नज़र डालने पर मन्युदेव के अतिरिक्त भी ऐसे नाम सामने आते हैं जिनमें मन्यु का प्रयोग हुआ है, युधामन्यु, उपमन्यु और अभिमन्यु।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:।। (श्रीमद्भग्वद्गीता 1-6)
युधामन्यु (अर्थ: युद्ध में मन्यु की भावना) पाण्डवों के पक्ष में लड़ने वाला एक राजा।

उपमन्यु (अर्थ: मन्यु के साथ, मन्यु के निकट) एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि रहे हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में उनका गोत्र आज भी है। शायद अन्य क्षेत्रों और वर्णों में भी हो। वे आयोदधौम्य के शिष्य थे। शब्दकोष के अनुसार उनके नाम का अर्थ बुद्धिमान, मेधावी, उत्साही व उद्यमी है।

अभिमन्यु (अभि=निर्भय) के नाम से ऐसा लगता है जिसमें मेधा, उत्साह, उद्यमी प्रवृत्ति के साथ निर्भयता भी हो।

जहाँ तक मैं समझता हूँ, तेज, बल, वीरता, अक्रोध, सहनशीलता और ओज की सहयोगी शक्ति है मन्यु। मन्यु में दूसरों की मामूली भूलों से अविचलित रहने की भावना है। इसमें अन्याय के प्रतिकार का भाव तो है ही परंतु प्रतिकार पापी का नहीं पाप का है। इस पवित्र और ग्राह्य गुण में चिड़ियों से बाज़ तुड़ाने की क्षमता तो है पर चिड़ियों को बाज़ जैसा हिंसक या क्रूर बनाने का भाव कतई नहीं है। इसमें सहनशीलता और सहिष्णुता अवश्य है परंतु उसकी सीमायें स्पष्ट हैं। जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को 100 अपशब्दों तक कुछ नहीं कहा। कोई और होता तो शायद 1 या 10 अपशब्दों में भी आहत हो जाता और क्रोधवश प्रतिकार कर बैठता। क्या पता कोई अन्य होता तो पाँच सौ गालियाँ भी वहीँ छोड़कर चल देता। कोई अन्य चरित्र सारे हालाहल को पी लेता। हर कृत्य के अपने पार्श्व प्रभाव (साइड एफ़ेक्ट) होते लेकिन इतना तय है कि मन्युवान में न केवल सहनशक्ति होती है बल्कि उसे अक्सर अपनी सहनशक्ति की सीमायें भी स्पष्ट होती हैं। एक सीमा तक अन्यायी सुरक्षित भी रह पाता है। यदि शिशुपाल समझदार होता तो अपने अपराध को 100 अपशब्दों से पहले ही पहचानकर पश्चात्ताप करके अपने आगत को टाल भी सकता था। लेकिन वह अपने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी सीमा से आगे निकल गया और अंततः न्याय को प्राप्त हुआ।

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ..." में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष या क्रोध न होकर केवल दुष्कृत्यों के (अक्रोधी) विनाश की बात है। यदि दुष्कृत्य करने वाले "मामेकम् शरणम व्रज" का आह्वान सुनकर अपना मार्ग बदल देते हैं तो वे भी "परित्राणाय साधूनाम्" की परिधि के अंतर्गत ही आयेंगे। हमने देखा कि जिस मन्यु को कभी ग़लती से और कभी सटीक तुलना या समानार्थी शब्द के अभाव में सात्विक क्रोध कह दिया जाता है उस दैवी गुण में क्रोध, द्वेष या द्रोह जैसे अवगुण बिल्कुल नहीं है। क्रोध अगर नंगी तलवार है तो मन्यु कवच और ढाल के साथ वह जंज़ीर है जो तलवार को लपेटकर छीनने की ताकत रखती है परंतु न आसानी से आहत होती है न अपने स्वार्थ के लिये रक्तपात करती है।

महानायक रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* के वंशज डॉ राजेश टोपे के साथ अनुराग
मन्यु में क्या है?
बल, सहनशक्ति, अन्याय का प्रतिकार, संतत्व से प्रेम, उदारता, दया, करुणा, वात्सल्य, अहंकार का अभाव, उत्साह, मेधा

मन्यु के सहयोगी क्या हैं
बल, तेज, वीरता, ओज, सहनशक्ति, सत्यनिष्ठा, जनकल्याण की भावना

मन्यु के विरोधी क्या हैं
आवेश, अहंकार, नियंत्रण, स्वार्थ, संकीर्णता, क्रोध, शारीरिक या मानसिक कमज़ोरी, भावुकता, अकारण आहत होना, बड़बोलापन

आइये मिलकर द्वेष व क्रोध जैसी कमज़ोरियों को त्यागकर ऐसे छः सद्गुणों की कामना करें जो हमें जीवनी शक्ति तो दें ही, समाज के लिये भी लाभकारी हों:
ॐ तेजोSसि तेजम् मयि देहि। वीर्यमसि वीर्यं मयि देहि। बलंसि बलम् मयि देहि।
मन्युरसि मन्युं मयि देहि। ओजोSसि ओजोमयि देहि। सहोSसि सहोमयि देहि।
(यजुर्वेद 19:9)
रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* = तात्या टोपे

अगली कड़ी में देखिये
[क्रोध कायरता है, मन्यु शक्ति है - सारांश]


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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अखंड ज्योति
* मन्यु का महत्व
* मन्यु - सुबोध कुमार
* करें मन्यु से कलुष निवारण (सुमित्रानंदन पंत)
* तिरंगा (डॉ. कविता वाचक्नवी)
* मैं मन्यु लिखता हूं - दिनकर
* कर्म से असुर (स्वामी चक्रपाणि)
* नायकत्व क्या है?

Sunday, November 6, 2011

क्रोध पाप का मूल है ...

काम क्रोध मद लोभ की, जब लौ मन में खान।
तब लौ पण्डित मूर्खौ, तुलसी एक समान॥
~ तुलसीदास
त्स्कूबा में एक समुराई वीर
भाई मनोज भारती की चार पुरुषार्थों पर सुन्दर पोस्ट पढी। उन्होंने शास्त्रों में वर्णित चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का विस्तार से ज़िक्र किया। सन्दर्भ में काम, क्रोध आदि दोषों की बात भी सामने आयी। उससे पहले पिछले दिनों क्रोध एवम अन्य दुर्गुणों पर ही शिल्पा मेहता की तीन प्रविष्टियाँ  दिखाई दीं। इन स्थानों पर जहाँ क्रोध के दुष्परिणामों की बात कही गयी है वहीं एक बिल्कुल अलग ब्लॉग पर लिखी प्रविष्टियों और टिप्पणियों में क्रोध का बाकायदा महिमामण्डन किया गया है। सच यह है कि क्रोध सदा विनाशक ही होता है। क्रोध जहाँ फेंका जाये उसकी तो हानि करता ही है, जिस बर्तन में रहता है उसे भी छीलता रहता है। इसी विषय पर स्वामी बुधानन्द की शिक्षाओं पर आधारित मानसिक हलचल की एक पुराने आलेख में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने क्रोध से बचने या उसपर नियंत्रण पाने के उपायों का सरल वर्णन किया है।
दैव संशयी गांठ न छूटै, काम-क्रोध माया मद मत्सर, इन पाँचहु मिल लूटै। ~ रविदास
भारतीय संस्कृति में जहाँ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ काम्य हैं, उसी प्रकार बहुत से मौलिक पाप भी परिभाषित हैं। कहीं 4, कहीं 5, कहीं 9, संख्या भिन्न हो सकती है लेकिन फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, यह चार दुर्गुण सदा ही पाप की सूची में निर्विवाद रहे हैं।

वांछनीय = चार पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
अवांछनीय = चार पाप = काम, क्रोध, लोभ, मोह

क्रोध, लोभ, मोह जैसे दुर्गुणों के विपरीत कामना अच्छी, बुरी दोनों ही हो सकती है। जीते-जी क्रोध, लोभ, और मोह जैसे दुर्गुणों से बचा जा सकता है परंतु कामना से पीछा छुड़ाना कठिन है, कामना समाप्त तो जीवन समाप्त। इसलिये सत्पुरुष अपनी कामना को जनहितकारी बनाते हैं। जहाँ हम अपनी कामना से प्रेरित होते हैं, वहीं संत/भक्त प्रभु की कामना से - जगत-हितार्थ। बहुत से संत तब आत्मत्याग कर देते हैं जब उन्हें लगता है कि या तो उद्देश्य पूरा हुआ या समय। इसलिये काम अवांछनीय व काम्य दोनों ही सूचियों में स्थान पाता रहा है।
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल।
जेहिबस जन अनुचित करहिं चलहिं विश्व प्रतिकूल॥
~ तुलसीदास
गीता के अनुसार रजोगुणी व्यक्तित्व की अतृप्त अभिलाषा 'क्रोध' बन जाती है। गीता में ही क्रोध, अहंकार, और द्रोह को अवांछनीय बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भी क्रोध हमारे आंतरिक शत्रुओं में से एक है। ॠग्वेद में असंयम, क्रोध, धूर्तता, चौर कर्म, हत्या, प्रमाद, नशा, द्यूतक्रीड़ा आदि को पाप के रुप में माना गया है और इन सबको दूर करने के लिए देवताओं का आह्वान किया गया है। ईसाइयत में भी क्रोध को सात प्रमुख पापों में गिना गया है। मनुस्मृति के अनुसार धर्म के दस मूल लक्षणों में एक "अक्रोध" है। धम्मपद की शिक्षा अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्टता को, दान से कृपणता को और सत्य से झूठ को जीतने की है। संत कबीर ने क्रोध के मूल में अहंकार को माना है।
कोटि करम लोग रहै, एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार॥
~ कबीरदास
क्रोध के विषय में एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अक्रोध के साथ किसी आततायी का विवेकपूर्ण और द्वेषरहित प्रतिरोध करना क्रोध नहीं है। इसी प्रकार भय, प्रलोभन अथवा अन्य किसी कारण से उस समय क्रोध को येन-केन दबा या छिपाकर शांत रहने का प्रयास करना अक्रोध की श्रेणी में नहीं आएगा। स्वयं की इच्छा पूर्ति में बाधा पड़ने के कारण जो विवेकहीन क्रोध आता है वह अधर्म है। अत: जीवन में अक्रोध का अभ्यास करते समय इस अत्यंत महत्वपूर्ण अंतर को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। अंतर बहुत महीन है इसलिये हमें अक्सर भ्रम हो जाते हैं। क्रोध शक्तिहीनता का परिचायक है, वह कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
क्रोध पाप ही नहीं, पाप का मूल है। अक्रोध पुण्य है, धर्म है, वरेण्य है। ~भालचन्द्र सेठिया
क्रोध एवम क्षमा का तो 36 का आंकड़ा है। क्रोधजनित व्यक्ति के हृदय में क्षमा का भाव नहीं आ सकता। बल्कि अक्रोध और क्षमा में भी बारीक अंतर है। अक्रोध में क्रोध का अभाव है अन्याय के प्रतिकार का नहीं। अक्रोध होते हुए भी हम अन्याय को होने से रोक सकते हैं। निर्बलता की स्थिति में रोक न भी सकें, प्रतिरोध तो उत्पन्न कर ही सकते हैं। जबकि क्षमाशीलता में अन्याय कर चुके व्यक्ति को स्वीकारोक्ति, पश्चात्ताप, संताप या किसी अन्य समुचित कारण से दण्ड से मुक्त करने की भावना है। क्रोध ही पालने और बढावा देने पर द्रोह के रूप में बढता जाता है।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥
~कबीरदास
आत्मावलोकन और अनुशासन के बिना हम इन भावनात्मक कमज़ोरियों पर काबू नहीं पा सकते हैं। भावनात्मक परिपक्वता और चारित्रिक दृढता क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध होती हैं। लेकिन कई बार इन से पार पाना असम्भव सा लगता है। ऐसी स्थिति में प्रोफ़ेशनल सहायता आवश्यक हो जाती है। ज़रूरत है कि समय रहते समस्या की गम्भीरता को पहचाना जाये और उसके दुष्प्रभाव से बचा जाये। क्या आप समझते हैं कि क्रोध कभी अच्छा भी हो सकता है? यदि हाँ तो क्या आपको अपने जीवन से या इतिहास से ऐसा कोई उदाहरण याद आता है जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं था? अवश्य बताइये। साथ ही ऐसे उदाहरण भी दीजिये जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था। धन्यवाद!
क्रोध की उत्पत्ति मूर्खता से होती है और समाप्ति लज्जा पर ~पाइथागोरस


अगली कड़ी में देखिये
[मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग]



[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Samurai face captured by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पुरुषार्थ - गूंजअनुगूंज (मनोज भारती)
* ज्वालामुखी - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध और पश्चाताप - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें? - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* गुस्सा - डॉ. महेश शर्मा
* पाप का मूल है क्रोध - भालचन्द्र सेठिया
* क्रोध का दुर्गुण - कृष्णकांत वैदिक
* क्रोध आग और निंदा धुआँ - दीपक भारतदीप
* क्रोध से नुकसान - प्रयास
* anger
* क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात

Friday, November 4, 2011

काली गिलहरी - इस्पात नगरी से 51

वाशिंगटन डीसी की गिलहरी
रामसेतु के निर्माण में वानर-भालू मिलकर जुटे थे। मगर उसमें एक छोटी गिलहरी का भी योगदान था। इतना महत्वपूर्ण योगदान कि श्रीराम ने उसे अपनी हथेली पर उठाकर सहलाया। वह भी इस प्रकार कि उनकी उंगलियों से बनी धारियां आज तक गिलहरी की संतति की पीठ पर देखी जा सकती हैं।

अब कहानी है तो विश्वास करने वाले भी होंगे। विश्वास करने वाले हैं तो कन्सपाइरेसी सिद्धांतों वाले भी होंगे। भाई साहब कहने लगे कि बाकी गिलहरियों का क्या? मतलब यह कि जो गिलहरियाँ उस समय सेतु बनाने नहीं पहुँचीं उनके बच्चों की पीठ के बारे में क्या? सवाल कोई मुश्किल नहीं है। उत्तरी अमेरिका में अब तक जितनी गिलहरियाँ देखीं, उनमें किसी की पीठ पर भी रेखायें नहीं थीं। न मानने वालों के लिये तीन सबूत उपस्थित हैं, डीसी, पिट्सबर्ग व मॉंट्रीयल से।

पैनसिल्वेनिया की गिलहरी

कैनैडा की गिलहरी

बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी मगर वह बात ही क्या जो असानी से खत्म भी हो जाये और फिर भी इस ब्लॉग पर जगह पाये। पिछले दिनों मैंने पहली बार एक पूर्णतः काली गिलहरी देखी। आश्चर्य, उत्सुकता और प्रसन्नता सभी भावनायें एक साथ आयीं। जानकारी की इच्छा थी, पता लगा कि यह कृष्णकाय गिलहरियाँ मुख्यतः अमेरिका के मध्यवर्ती भाग में पायी जाती हैं लेकिन उत्तरपूर्व अमेरिका और कैनेडा में भी देखी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि यूरोपीयों के आगमन से पहले यहाँ काली गिलहरियाँ बहुतायत में थीं। घने जंगल उनके छिपने के लिये उपयुक्त थे। समय के साथ वन कटते गये और पर्यावरण भूरी गिलहरियों के पक्ष में बदलने लगा। और अब उन्हीं का बहुमत है।







[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Squirrels as captured by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Wednesday, November 2, 2011

ओ पंछी प्यारे - इस्पात नगरी से 50

कमरे में चुपचाप बैठकर बाहर डैक पर मस्ती कर रहे पक्षियों को निहारने का अपना आनन्द है। और यह काम पूर्वोत्तर अमेरिका में बड़े मज़े से किया जा सकता है। सर्दी बढती जायेगी तब यह डेक सूनी हो जायेगी। पेड़ों से पत्ते गिरते ही घोंसले खाली हो जाते हैं और अधिकांश पक्षी चले जाते हैं गर्म स्थानों में। जो रह जाते हैं उनके दर्शन भी ऐसे सुलभ नहीं रह जाते। मौसम की पहली बर्फ़ तो पड़ ही चुकी है। बल्कि देश के कई भागों में तो इतनी बर्फ़ गिरी कि बहुत से पेड़ों की शाखायें उसके भार से गिर गयीं। कई क्षेत्रों ने बिजली की कटौती भी देखी। सन्योग से पिट्सबर्ग इन सब संकटों से बचा रहा। आइये मुलाकात करते हैं कुछ सहज सुलभ पक्षियों से, चित्रों के माध्यम से।
चिमनी जैसा दिखने वाला यह उपकरण एक बर्डफ़ीडर है। यहाँ लगभग हर घर में आप एक बर्डफ़ीडर पायेंगे जिसे पक्षियों के पसन्दीदा बीजों से भर दिया जाता है। वे आते हैं, इसमें बने सुराखों में चोंच डालकर बीज खाते हैं और उड़ जाते हैं। कुछ विशिष्ट पक्षियों के लिये विशेष प्रकार के बर्ड फ़ीडर होते हैं जैसे हमिंगबर्ड के लिये नेक्टार (मकरंद) फ़ीडर। बर्डफ़ीडर व उनमें भरने की सामग्री निकट के हार्डवेयर स्टोर, ड्रग स्टोर, ग्रोसरी स्टोर आदि में सर्वसुलभ है। एक बार तो मैने यह बीज एक पेट्रोलपम्प पर भी बिकते देखे थे।

नन्हीं चिड़िया चिकैडी [chickadee (Poecile atricapillus)]

गौरैया सी दिखने वाली चिकैडी सर्दियों में भी दिखती है 

रैड बैलीड वुडपैकर (Melanerpes carolinus)

चिकैडी सोचे, क्या खाऊँ

श्वेत व स्लेटी गल
गल्स का वही जोड़ा


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Snowfall as captured by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* आपका आभार! काला जुमा, बेचारी टर्की
* अई अई आ त्सुकू-त्सुकू
* पर्यावरण दिवस 2011