कुछ लोगों की महानता छप जाती है, कुछ की छिप जाती है।
28 अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग (जू) ने प्रसिद्ध "मेरा स्वप्न" भाषण दिया था |
उडीसा का चक्रवात हो, लातूर का भूकम्प, या हिन्द महासागर की त्सुनामी, लोगों का हृदय व्यथित होता है और वे सहायता करना चाहते हैं। बाढ़ में किसी को बहता देखकर हर कोई चाहता है कि उस व्यक्ति की जान बचे। कुछ लोग तैरना न जानने के कारण खड़े रह जाते हैं और कुछ तैरना जानते हुए भी। कुछ तैरना जानते हैं और पानी में कूद जाते हैं, कुछ तैरना न जानते हुए भी कूद पड़ते हैं।
भारत का इतिहास नायकत्व के उदाहरणों से भरा हुआ है। राम और कृष्ण से लेकर चाफ़ेकर बन्धु और खुदीराम बसु तक नायकों की कोई कमी नहीं है। भयंकर ताप से 60,000 लोगों के जल चुकने के बाद बंगाल का एक व्यक्ति जलधारा लाने के काम पर चलता है। पूरा जीवन चुक जाता है परंतु उसकी महत्वाकान्क्षी परियोजना पूरी नहीं हो पाती है। उसके पुत्र का जीवनकाल भी बीत जाता है। लेकिन उसका पौत्र भागीरथ हिमालय से गंगा के अवतरण का कार्य पूरा करता है। एक साधारण तपस्वी युवा सहस्रबाहु जैसे शक्तिशाली राजा के दमन के विरुद्ध खड़ा होता है और न केवल आततायियों का सफ़ाया करता है बल्कि भारत भर में आततायी शासनों की समाप्ति कर स्वतंत्र ग्रामीण सभ्यता को जन्म देता है, कुल्हाड़ी से जंगल काटकर नई बस्तियाँ बसाता है, समरकलाओं को विकसित करके सामान्यजन को शक्तिशाली बनाता है और ब्रह्मपुत्र जैसे महानद का मार्ग बदल देता है।
भारत के बाहर आकर देखें तो आज भी श्रेष्ठ नायकत्व के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। दक्षिण अफ़्रीका की बर्बर रंगभेद नीति खत्म होने की कोई आशा न होते हुए भी बिशप डेसमंड टुटु उसके विरोध में काम करते रहे और अंततः भेदभाव खत्म हुआ। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी भेदभावरहित विश्व का एक ऐसा ही स्वप्न देखा था। पोलैंड के दमनकारी कम्युनिस्ट शासन द्वारा किये जा रहे गरीब मज़दूरों के शोषण के विरुद्ध एक जननेता लेख वालेसा आवाज़ देता है और कुछ ही समय में जनता आतताइयों का पटरा खींच लेती है। चेन रियेक्शन ऐसी चलती है कि सारे यूरोप से कम्युनिज़्म का सूपड़ा साफ़ हो जाता है।
महाराणा प्रताप हों या वीर शिवाजी, एक नायक एक बड़े साम्राज्य को नाकों चने चबवा देता है, एक अकेला चना कई भाड़ फोड़ देता है। एक तात्या टोपे, एक मंगल पाण्डेय, एक लक्ष्मीबाई, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कभी अस्त न होने वाला सूरज सदा के लिये डुबा देते हैं।
हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं।कुछ लोग सत्कर्म न कर पाने का दोष धन के अभाव को देते हैं जबकि कुछ लोग धन के अभाव में (या धन-दान के साथ-साथ) नियमित रक्तदान करते हैं। कुछ लोग बिल गेट्स द्वारा विश्व भर में किये जा रहे जनसेवा कार्यों से प्रेरणा लेते हैं और कुछ लोग उसे पूंजीवाद की गाली देकर अपनी अकर्मण्यता छिपा लेते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों को ही देखें तो दुर्गा भाभी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद सरीखे लोगों को शायद हर कोई नायक ही कहे लेकिन कुछ नेता ऐसे भी हैं जिनका नाम सुनते ही लोग तुरंत ही दो भागों में बँट जाते हैं।
~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त
सहस्रबाहु, हिरण्यकशिपु, हिटलर, माओ, लेनिन, स्टालिन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर ग़द्दाफ़ी जैसे लोगों को भी कुछ लोगों ने कभी नायक बताया था। वे शक्तिशाली थे, उन्होंने बडे नरसंहार किये थे और जगह-जगह पर अपनी मूर्तियाँ लगाई थीं। शहरों के नाम बदलकर उनके नाम पर किये गये थे। लेकिन अंत में हुआ क्या? बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। उनके पाप का घड़ा भरते ही इनकी मूर्तियाँ खंडित करने में महाबली जनता ने क्षण भर भी न लगाया।
नायकत्व की बात आते ही बहुत से प्रश्न सामने आते हैं। नायकत्व क्या है? क्या एक का नायक दूसरे का खलनायक हो सकता है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, नायक कैसे बनते हैं? और खलनायक कैसे बनते हैं?खलनायक बनने के बहुत से कारण होते हैं। अहंकार, असहिष्णुता, स्वार्थ, कुंठा, विवेकहीनता, स्वामिभक्ति, ग़लत विचारधारा, अव्यवस्था, कुसंगति, संस्कारहीनता, ... सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। आपको भी खलनायकों के कुछ अन्य दुर्गुण याद आयें तो अवश्य बताइये।
बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जो खलनायकत्व का कारण तो नहीं हैं पर इस दुर्गुण को हवा अवश्य दे सकती हैं। इनमें से एक है अनोनिमिटी। डाकू अपना चेहरा ढंककर निर्भय महसूस करते हैं और आभासी जगत में कई लोग बेनामी होने की सुविधा का दुरुपयोग करते हैं। कुछ अपना सीमित परिचय देते हुए भी अपनी राजनीतिक विचारधारा को कुटिलता से छिपाकर रखते हैं ताकि उनकी विचारधारा के प्रचार और विज्ञापनों को भी लोग निर्मल समाचार समझकर पढते रहें।
निरंकुश शक्ति भी खलनायकों की दानवता को कई गुणा बढ़ा देती है। सभ्यता के विकास के साथ ही समाज में सत्ता की निरंकुशता के दमन की व्यवस्था करने के प्रयास होते रहे हैं। राजाओं पर अंकुश रखने के लिये मंत्रिमण्डल बनाना हो या श्रम, ज्ञान और पूंजी पर से सत्ता का नियंत्रण हटाना हो, आश्रम व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक ज़िम्मेदारियों से जोड़ना हो या उससे भी आगे बढ़कर राजाविहीन गणराज्यों की प्रणाली बनानी हो, भारतीय परम्परा द्वारा सुझाये और सफलतापूर्वक अपनाये गये ऐसे कई उपाय हैं जिनसे तानाशाही के बीज को अंकुरित होने से पहले ही गला दिया जाता था। आसुरी व्यवस्था में जहाँ शासक सर्वशक्तिमान होता था वहीं सुर/दैवी व्यवस्था में मुख्य शासक की भूमिका केवल एक प्रबन्धक की रह गयी। सभी विभाग स्वतंत्र, सभी जन स्वतंत्र। सबके व्यक्तित्व, गुण और विविधता का पूर्ण सम्मान और निर्बन्ध विकास। असतो मा सद्गमय की बात करते समय सबकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात याद रखना बहुत ज़रूरी है। तानाशाही की बात करने वाली विचारधारा में अक्सर व्यक्तिगत विकास, व्यक्तिगत सम्मान, व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सम्बन्ध, और विचारों के दमन की ही बात होती है। मरने के लिये मज़दूर, किसान और नेतागिरी के लिये कलाकार, लेखक, वकील, पत्रकार और बन्दूकची? सत्ता हथियाने के बाद उन्हीं का दमन जिनके विकास के नाम पर सत्ता हथियायी गयी हो? यह सब चिह्न खलनायकत्व की, दानवी और तानाशाही व्यवस्थाओं की पहचान आसान कर देते हैं। आसुरी व्यवस्था की पहचान अपने पराये के भेद और परायों के प्रति घृणा, असहिष्णुता और अमानवीय दमन से भी होती है।
जहाँ खलनायकत्व और तानाशाही को पहचानना आसान है वहीं नायकत्व को परिभाषित करना थोडा कठिन है। दो गुण तो मुझे अभी याद आ रहे हैं। पहला तो है निर्भयता। निर्भय हुए बिना शायद ही कोई नायक बना हो। परशुराम से लेकर बुद्ध तक, चाणक्य से लेकर मिखाइल गोर्वचोफ़ तक, पन्ना धाय से रानी लक्ष्मीबाई तक, जॉर्ज वाशिंगटन से एब्राहम लिंकन तक, बुद्ध से गांधी तक सभी नायक निर्भय रहे हैं। क्या आपको कोई ऐसा नायक याद है जो भयभीत रहता हो?
मेरी नज़र में नायकत्व का दूसरा महत्वपूर्ण और अनिवार्य गुण है, उदारता। उदार हुए बिना कौन जननायक बन सकता है। हिटलर, माओ या स्टालिन जैसे हत्यारे अल्पकाल के लिये कुछ लोगों द्वारा भले ही नायक मान लिये गये हों, आज दुनिया उनके नाम पर थू-थू ही करती है। निर्भयता और उदारता के साथ साहस और त्याग स्वतः ही जुड जाते हैं।
मिलजुलकर नायकत्व के अनिवार्य और अपक्षित गुणों को पहचानने का प्रयास करते हैं अगली कड़ी में। क्या आप इस काम में मेरी सहायता करेंगे?
[क्रमशः]
[मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) का चित्र नोबल पुरस्कार समिति के वेबपृष्ठ से साभार]