Showing posts with label कहानी. Show all posts
Showing posts with label कहानी. Show all posts

Monday, July 4, 2022

बिग क्लाउड 2068

Anurag Sharma

सन 2068: वैज्ञानिक प्रगति ने संसार को एक वैल-कनेक्टेड विश्व-नगरी में बदल दिया है।

किताबें तो 2043 में छपी अंतिम पुस्तक के साथ डिजिटल युग के चरमोत्कर्ष पर ही समाप्त हो गई थीं। तब तक कुछ किताबें डिजिटल स्वरूप में प्राचीन-तकनीक वाले कम्प्यूटरों में रह गई थीं। लेकिन अब तो कम्प्यूटर होते ही नहीं। एक अति-तीव्र हस्तक में ही सब कुछ होता है। सारी जानकारी तो केंद्रीय बिग-क्लाउड पर रहती है। लेकिन बिग-क्लाउड के अचानक इस बुरी तरह बिगड़ जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। किसी को ठीक से पता नहीं कि बिग-क्लाउड को हुआ क्या था। दुर्भाग्य से उसकी मरम्मत के मैनुअलों की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियाँ भी बिग-क्लाउड पर ही रखी होने के कारण अब अप्राप्य हैं। एक ही व्यक्ति से उम्मीद है। वह है जॉनी बुकर।

जॉनी बुकर वर्तमान क्लाउड के मूल निर्माताओं में से एक है। कभी वह बिग-क्लाउड परियोजना का प्रमुख था। बल्कि सच कहें तो वही इस विचार का जनक था कि संसार को केवल एक क्लाउड की ज़रूरत है। उसी के प्रयत्नों के कारण संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों पर दवाब डालकर पूरे विश्व की समस्त जानकारी को एक केंद्रीय क्लाउड में डाला, जिसे बिग-क्लाउड का नाम दिया गया।

बिग-क्लाउड की विश्व-व्यापी सफलता के बाद बुकर की गिनती संसार के सर्वाधिक धनाढ्यों में होने लगी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वह थोड़ा बहक गया। जीवन-पर्यंत अविवाहित रहे बुकर ने बिग-क्लाउड के खतरों पर बोलना शुरू कर दिया। उसे जिस समारोह में भी बुलाया जाता वह डिजिटल जगत से ‘किताब की ओर वापसी’ की बात करता। फिर उसने कुछ लोगों को इकट्ठा कर ‘किताब-वापसी’ अभियान भी शुरू किया। स्कूल-कॉलेजों में बुलाया जाना बंद हुआ तो स्वयं ही विभिन्न वैज्ञानिक और तकनीकी सम्मेलनों में जा-जाकर किताब-वापसी की ज़रूरत पर भाषण देने लगा। शुरू में तो लोगों ने सुना लेकिन फिर बाद में उस पर सठियाए पुरातनपंथी का ठप्पा लग गया। पुस्तक बचाओ आंदोलन आरम्भ करने के कारण संसार भर में उसकी पहचान एक ऐसे दकियानूसी बूढ़े के रूप में स्थापित हो गई जिसे अपने जैसे दो-चार बूढ़ों के अतिरिक्त किसी का समर्थन न था। उसने बहुत कोशिश की, लेकिन संगठन बढ़ना तो दूर, बूढ़े सदस्यों की मृत्यु के साथ धीरे-धीरे टूटना आरम्भ हो गया। एक दिन ऐसा आया जब बुकर अकेला रह गया। कभी-कभार उसके बयान क्लाउड पर दिखते थे, फिर वह अज्ञातवास में चला गया था। अफ़वाहें थीं कि अपनी अकूत दौलत से उसने डिजिटल रिवॉल्यूशन के बाद भी बच रही सारी किताबें खरीदकर किसी गुप्त जगह में संसार का सबसे बड़ा पुस्तकालय बना डाला था।
***

सभी विशेषज्ञों की राय थी कि बुकर तथा उसकी टीम द्वारा दशकों पहले छापे गये टैक्निकल मैनुअल ही बिग-क्लाउड की समस्या से उबार सकते हैं।

वैसे तो तब तक तकनीक इतनी उन्नत हो चुकी थी कि जंगल में मरी हुई किसी चींटी के भी निर्देशांक सही-सही पता किये जा सकते थे, लेकिन बिग-क्लाउड सम्बंधित समस्याओं के चलते बुकर का पता लगाने में पुलिस को कई दिन लग गये।

जब पुलिस वहाँ पहुँची तो वह संसार की बेरुखी से निराश और हताश होकर अपनी पुस्तकें अपने महल के परिसर में लगी एक विशाल भट्टी में जला रहा था। आखिरी पुस्तक उनकी आँखों के सामने जली, जिस पर लिखा था – बिग-क्लाउड ट्रबलशूटिंग (अंतिम खण्ड)...

Monday, June 1, 2020

विदेह - लघुकथा

Anurag Sharma

"मैं बहुत अकेला हो गया हूँ। तुम्हारी माँ तो मेरा मुँह देखना भी पसंद नहीं करती। तुम भी कितने अरसे बाद आये हो बेटा। अब मुझे बहुत डर लगता है। … देखो, हमारे घर के सब कमरे ग़ायब हो गये हैं, बस यह एक बैडरूम बचा है, यह भी कितना सिकुड़ गया है।"

पिता एक साँस में जाने कितना कुछ कह गए थे। उनकी बातें सुनकर राज का दिल रो उठा था। माँ कब की जा चुकी थीं। पिता भी घर में नहीं, वृद्धाश्रम में थे। भूलने की बीमारी धीरे-धीरे उनकी याद्दाश्त खा रही थी। सदा सक्षम और योग्य रहे पिता को इस हाल में देखना राज के लिये कठिन था। घर ही नहीं, बाहर के संसार में भी पिता सराहे जाते थे। वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो रहे ही थे, दुनिया भर के लोग व्यक्तिगत सलाह के लिये भी उनके पास आते थे। राज खुद भी अपनी हर चिंता, हर भय को पिता के हवाले करके निश्चिंत हो जाता था।

भीगी आँखों से कुछ कहने के बजाय वह पिता के गले लग गया। पिता के कंधे पर अपना सिर रखे-रखे ही उसे पिता की हँसी सुनाई दी। उसने मुस्कुराकर पूछा, "क्या याद आ गया पापा?"

"याद है, जब तू छोटा सा था, एक दिन आकर मुझसे लिपट गया। बिल्कुल आज के जैसे ही भीगी आँखों के साथ। पता है तूने क्या कहा था?"

"बताइये न पापा!" दोनों आमने-सामने खड़े थे और राज एक बार फिर अपने बचपन का वह किस्सा किसी बच्चे की तरह ध्‍यान से सुन रहा था। पिता उसे यह किस्सा पहले भी सैकड़ों बार सुना चुके थे। वह छह-सात साल का रहा होगा जब एक दिन पिता से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए कहने लगा, "सॉरी पापा, टीनएजर होने के बाद अगर ग़लती से मैं कभी आपसे बदतमीज़ी करूँ, तो उसके लिये अभी से सॉरी बोल रहा हूँ!"

राज ने किसी टीवी सीरीज़ में कुछ नकचढ़े टीनएजर्स को अपने माता-पिता का अपमान करते हुए देखा था और समझा कि किशोरावस्था में सब बच्चे प्राकृतिक रूप से ही ऐसे हो जाते हैं।

"सॉरी बेटा।" किस्सा पूरा करके पिता राज से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए रोने लगे।

"पापा, अब आप क्यों रो रहे हैं? मैंने तो माफ़ी मांग ली थी न।"

"मैं अब भूलने लगा हूँ बेटा। थोड़ा और बुढ़ा जाऊँगा तो शायद तुझे भी भूल जाऊँगा। इसलिये माफ़ी माँगना चाहता हूँ क्योंकि तब शायद यह भी भूल जाऊँ कि माफ़ी क्या होती है। सॉरी!"

Saturday, March 28, 2020

आस्तिक - लघुकथा

गर्मागरम बहस चल रही थी। एक ने अखण्ड विश्वास से कहा, “जितना दिख रहा है, वही सब संसार है। हम इसी में से एक बार जन्म लेते हैं, और फिर मरकर इसी में मिल जाते हैं। न कोई और विश्व है, न कहीं और जीवन।”

“हाँ, रोज़ मीलों चलते हैं, दबाव में काम करते हैं, अपने-अपने दायित्व की पूर्ति करते हैं, और फिर वक़्त आने पर यह ज़िम्मेदारी नई पीढ़ी को सौंपकर विदा ले लेते हैं” एक संतोषी-मुख ने कहा।


“लेकिन, ऐसा भी तो हो सकता है कि हमारे संसार के जैसे और भी हों, शायद एक दो, … या फिर, हज़ारों-लाखों ... कौन जाने?” किसी ने संशय व्यक्त किया।


“अरे, ये सब उन मूर्ख आस्तिकों की चोंचलेबाज़ी है। जो दिख रहा है उस पर विश्वास नहीं, चले हैं दूसरे ब्रह्माण्ड बनाने।” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग झुंझलाने लगे।


एक प्रसन्नमना युवती ने एक उत्साही युवक को इंगित करते हुए कहा, “लेकिन ये तो दावे के साथ कह रहे हैं कि हमारे संसार के जैसे संसार और भी हैं।”


सबकी दृष्टि उस ओजस्वी युवक की ओर गई। किसी ने भी उसे पहले नहीं देखा था। अफ़वाहें थीं कि कुछ नए बाहरी लोग किसी तरह घुस आये हैं। लेकिन तर्क इसकी गवाही नहीं देता। आज तक इस संसार में हम सब एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। बाहरी कुछ आता है तो वह इतना अलग होता है कि तंत्र उसे पहचानकर जल्दी ही नष्ट कर देता है। परंतु यह आगंतुक तो बिल्कुल हमारे ही जैसा है, रत्ती भर भी अंतर नहीं।


“हाँ, मेरा संसार दूसरा था। न जाने क्या हुआ कि हम में से कुछ लोग अपनों से बिछड़कर अचानक यहाँ आप लोगों के बीच आ गये। अच्छी बात यही है कि यह संसार भी हमारे जैसा ही है, वरना उलझन होती ...” ओजस्वी युवक ने आराम से कहा।


“बकवास बंद करो। तंग आ गया हूँ युवा पीढ़ी की कल्पनाशीलता देखकर। जब देखो ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं, … एलियन, टाइम ट्रैवल, और न जाने क्या-क्या” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग क्रोधित थे।


भीड़-भड़क्का देखकर एक युवा दस्ता इस ओर बढ़ा। वे सब के सब नये थे, और इस युवक जैसे ही तेजस्वी भी। उन्होंने युवक की बात की पुष्टि करते हुए बताया कि वे सब एक साथ यहाँ पहुँचे हैं।

भीड़ ने उनका विश्वास नहीं किया। डॉक्टरों द्वारा एक भिन्न शरीर से निकालकर इस नये शरीर में पहुँचाई गयी नई रक्त कोशिकाएँ तो बेचारी खुद ही रक्तदान का रहस्य समझ नहीं सकी थीं, अन्य कोशिकाओं को कैसे समझातीं?   

Anurag Sharma

Saturday, March 2, 2019

लघुकथा: असंतुष्ट

दबे-कुचले, दलितों में भी अति-दलित वर्ग के उत्थान के सभी प्रयास असफल होते गये। शिक्षा में सहूलियतें दी गईं तो ग़रीबी के कारण वे उनका पूरा लाभ न उठा सके। फिर आरक्षण दिया गया तो बाहुबली ज़मींदारों ने लट्ठ से उसे झटक लिया। व्यवसाय के लिये ऋण दिये तो भी कहीं अनुभव की कमी, कहीं ठिकाने की -  कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि अति-दलित वर्ग समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रहा। अन्य सभी जातियाँ, मज़हब, और वर्ग उनके व्यवसाय को हीन समझते रहे।

मेरा शिक्षित और सम्पन्न, लेकिन असंतुष्ट मित्र फत्तू अति-दलितों की चिंता जताकर हर समय सरकार की शिकायत करता था। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सरकार बदल गयी। नया प्रशासक बड़े क्रांतिकारी विचारों वाला था। उसने बहुत से नये-नये काम किये। यूँ कहें कि सबको हिला डाला। 

पहले वाले प्रशासक तो हवाई जहाज़ से नीचे कदम ही नहीं रखते थे। इस प्रशासक ने अति-दलित वर्ग के कर्मियों के साथ जाकर नगर के मार्गों पर झाड़ू लगाई, साफ़-सफ़ाई की।

मेरा असंतुष्ट मित्र फ़त्तू बोला, “पब्लिसिटी है, अखबार में फ़ोटो छपाने को किया है। झाड़ू लगाने में क्या है? अरे, उनके चरण पखारे तब मानूँ ...”

इत्तेफाक़ ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद प्रशासक ने सफ़ाईकर्मियों के मुहल्ले में जाकर उनके चरण भी धो डाले। 

मैंने कहा, “फ़त्तू, अब तो तेरे मन की हो गई। अब खुश?”

फतू मुँह बिसूरकर बोला, “पैर धोने में क्या है, उनका चरणामृत पीता, तो मानता।”

सभी दोस्त हँसने लगे। मैंने कहा, "फत्तू, तू भी न, कमाल है।" 


Monday, January 28, 2019

बलिहारी गुरु आपने …

(अनुराग शर्मा)


लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?

साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।

लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?

साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।

लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?

साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।

लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।

साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।


[समाप्त]

Tuesday, October 2, 2018

लघुकथा: तर्पण


गंगा घाट के निकट उसे मेहनत से मसूर के खेत में पानी देते देखकर दिल्ली से आये पर्यटक से रहा न गया। पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “कितनी फसल होती है तुम्हारे खेत में?”

“यह मेरा खेत नहीं है।”

“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”

“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”

“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”

“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”

“हैं!?”

“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”

Anurag Sharma

Monday, September 3, 2018

कहानी: सत्याभास

आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]खंड [2]खंड [3]खंड [4]खंड [5]खंड [6]; खंड [7]और अब आज की कड़ी में, एक कहानी

वीरान जगह पर बने उस पुराने महलनुमा घर के विशाल आंगन में पड़ी चारपाई पर दुखी सा बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि यूरोप के इस अनजान पहाड़ी जंगल के बीचोंबीच स्थित ऐसी भुतहा सी जगह में घर लेने की बात मैंने सोची ही क्यों। और अगर सोची भी तो घर देखे बिना ही बात नक्की क्यों कर दी। चूंकि इस घर की हमारी खरीद इसे देखे बिना ही ऑनलाइन तथा फ़ोन पर हुई थी इसलिये हमारी प्रॉपर्टी एजेंट आज यहाँ आकर हमें अपने इस नये खरीदे ऐतिहासिक भवन का टूर कराने वाली थी।

थकाने वाली कठिन यात्रा करके मैं सपत्नीक यहाँ पहुँचा था। पास के नगर में रहने वाले पुराने पर्वतारोही मित्र को पहले ही संदेश देकर यहाँ बुला लिया था। प्रॉपर्टी एजेंट का इंतज़ार करते-करते पत्नी को तो नींद भी आ गई थी सो वे अंदर जाकर सो गई थीं और मैं मित्र के साथ पीली पुती पुरानी दीवारों से घिरे आंगन के एक कोने में पड़ी मूंज की चारपाई पर बैठा बात कर रहा था। मित्र उस क्षेत्र का इतिहास बता रहा था। एक रेखाचित्र दिखाकर उसने समझाया कि प्राचीनकाल में किस प्रकार सेना विपक्षी किले से ऊपर की पहाड़ियों से मलमूत्र के ढेर बहाना शुरू करती थी। गंदगी आती देख किले के सैनिक ऊपर के पहाड़ी स्रोत से किले को आते पेयजल की आपूर्ति दूषित होने से बचाने जाते थे और वहाँ पहले से ही रणनीतिक ठिकानों पर छिपे शत्रुपक्ष द्वारा घेरकर मार दिये जाते थे।

झुटपुटा होने लगा है। घर में बिजली नहीं है। बड़े से आंगन के एक तरफ़ घर का बरामदा और फिर उसके पीछे बहुत से कमरे हैं। उस बरामदे के विपरीत दिशा में बाहर का दरवाज़ा और चबूतरे से नीचे उतरती हुई सीढ़ियाँ हैं। जंगली रात की नीरव शांति में वहीं दूर नीचे से इस मकान की एजेंट की आवाज़ सुनाई देती है। अभी वह दिखती नहीं है। उसकी आवाज़ सुनते ही कुछ सकपकाया सा मित्र बड़ी जल्दबाज़ी में मुझसे विदा लेकर लगभग भागता हुआ सा घर से बाहर निकल जाता है।

उसकी इस हरकत से आश्चर्यचकित मैं, अपने वर्तमान घर की गरमाहट याद करके सोचता हूँ कि अच्छा-भला घर होने के बावजूद ऐसे बेहूदे घर के लिये हमने हाँ की ही क्यों? आंगन की शेष दो दिशाओं में बिना दरवाज़ों के अनेक प्राचीन दर हैं, बारादरियों जैसे, जिनकी गहराई का अंधेरे के कारण मुझे अंदाज़ नहीं लग पा रहा। मेरी सतर्क बुद्धि उन्हें सुरक्षा का खतरा मानकर मन ही मन यह तय कर रही है कि सुबह उठते ही मेरा पहला काम उन्हें बंद कराने का होना चाहिये।

प्रॉपर्टी एजेंट भीतर आ गई है। उससे फ़ोन पर पहले बात हो चुकी है लेकिन भेंट का यह पहला अवसर होगा। अंधेरे में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता, तो भी उसका बड़ा अजीब सा चश्मा और एक मर्दाना सा विग उसे रहस्यमयी बना रहा है। मेरे शक़्क़ी दिल को ऐसा लगता है जैसे वह अपनी पहचान छिपाने का प्रयास कर रही हो। पत्नी उसके स्वागत में बरामदे से बाहर आती है। पत्नी उससे इस जगह और घर के वीरान होने की शिकायत करती है तो वह पत्नी को समझाती है कि इस घर में हैलोवीन के पर्व पर ‘स्पूकी नाइट’ का खेल मज़े से खेला जा सकता है। एजेंट पत्नी को अपने फ़ोन पर इन्स्टाल्ड स्पूकी ऐप दिखाती है जिसे त्रिविमीय प्रोजेक्टर से जोड़ा जा सकता है। वे दोनों बातें करने लगते हैं। मैं उसकी बात सुनना तो चाहता हूँ लेकिन दिन भर की यात्रा और काम की थकान के कारण मुझे बहुत नींद आ रही है। न चाहते हुए भी सर भारी हो रहा है और आँखें मुंदने लगी हैं। लेकिन एजेंट द्वारा चलाई जा रही ‘स्पूकी ऐप’ की दर्दनाक और भयावह आवाज़ें सुन पा रहा हूँ। पत्नी की आवाज़ सुनाई देती है, “अरे ये सब तो एकदम सचमुच के भूत जैसे लग रहे हैं। आभासी होकर भी इतने वास्तविक!” मैं आँख खोलकर देखने की कोशिश करता हूँ लेकिन तब तक एप्प बंद हो चुकी है। मैं एजेंट को एक बार फिर से ऐप चलाने को कहता हूँ, ताकि मैं ठीक से देख और समझ सकूँ लेकिन वह कहती है कि एक प्रीव्यू चल चुकने के बाद अब इसे खरीदने के बाद ही चलाया जा सकता है। वह पत्नी को ऐप की खरीद के सारे डिटेल दे देती है।

एजेंट ने पत्नी को घर का नक्शा दिखाया। नक्शा देखकर पत्नी कहने लगी कि जब इस जंगल में जगह की कोई कमी नहीं थी तो फिर ठीक कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने की क्या ज़रूरत थी? यह सुनते ही मैंने नक्शा अपने हाथ में लेकर ध्यान से देखा। उसमें घर के ठीक नीचे एक के ऊपर एक सैकड़ों कब्रों की कई परतें बनी हुई दिखाई दीं। मुझे लगा कि यह तो बुरे फँसे। मैंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन एजेंट ने कुछ ऐसी नज़रों से मुझे देखा कि तीन-चार बार प्रयास करने पर भी किसी भयावह सपने की तरह मेरे सूखे गले से आवाज़ बाहर नहीं आ सकी। एजेंट को इशारे से घर दिखाने को कहा तो वह मुख्य भवन के बरामदे और बेडरूम की ओर जाने के बजाय उजाड़ बारादरी की ओर चल पड़ी। घर में बिजली नहीं थी। रात भी या तो कृष्णपक्ष की थी या फिर आकाश में घने बादल थे। हम तीनों में किसी के पास भी कोई टॉर्च या लैम्प आदि नहीं था लेकिन फिर भी किसी हल्की सी रोशनी में कुछ दूर तक का दिखाई दे रहा था।

पत्नी अब वहाँ नहीं है, मैं इधर-उधर देखता हूँ और उसे पास न पाकर उसके बारे में एजेंट से पूछना चाहता हूँ। लेकिन उसने अपने ठण्डे, हड़ियल हाथ से मेरी कलाई कुछ ऐसे पकड़ ली है कि मैं कुछ कह नहीं पाता। वह मेरे साथ चल रही है लेकिन मैं उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे पूछे बिना ही वह समझ जाती है कि मैं उसके अदृश्य होने का कारण जानना चाहता हूँ। तब वह मेरे सर से चिपका तकिया दिखाती है जो उसके लिये मेरी दृष्टिबाधा बन रहा था। तकिये पर ध्यान जाते ही मुझे लगता है जैसे मैं तब नींद में ही था और सोते-सोते, तकिये पर सिर रखे हुए ही उसके साथ चल रहा था।

बीच में कई भयावह बातें हुईं, जिनका ज़िक्र यहाँ निरर्थक है। मैं इस विषय में पत्नी से कुछ बात करना चाहता था पर वह तब भी मुझे नहीं दिखी। शायद वह मुख्य भवन में, बरामदे के पीछे वाले कमरों के अंदर ही कहीं थी। एजेंट ने घर की एक दीवार दिखाते हुए उस पर पुते रंग का कोई अंग्रेज़ी या लैटिन नाम बताया। स्पष्ट कर दूँ कि उस परदेस में हम लोगों की समस्त वार्ता अंग्रेज़ी में ही चल रही थी। घुप्प अंधेरे में मुझे न तो दीवार ठीक से दिखी, और न ही अंग्रेज़ी में कहा वह रंग समझ आया। मैं उससे उस रंग के नाम का अर्थ पूछता हूँ तो हिंदी का वाक्य सुनाई दिया, 'अरे बैंगनी रंग, और क्या?' मैं अचम्भित हो उठा कि एक अनजान देश में अनजान जाति की महिला अचानक स्पष्ट हिंदी कैसे बोलने लगी। तब मैंने चौकन्ने होकर पूछा, “यह कौन बोला? हिंदी में किसने कहा?” तभी अचानक से सामने दिखने लगी एक सुंदर युवती ने कहा, “आई वर्क्ड विथ एन इंडियन फैमिली। वे बेंगाली थे, मैंने वहीं हिंदी सीखी।" सब कुछ स्पष्ट सा दिखने लगा। रोशनी का स्रोत कहीं नहीं दिखा लेकिन देखा कि वहाँ सब कुछ हल्का सा प्रकाशित था। कुछ कमरे थे, और उन कमरों के आगे और भी कमरे थे, शायद बुरी तरह पकी काली ककैया ईंट के। लड़की के पास ही एक और लड़की खड़ी थी, इस लड़की से थो‌ड़ी सी बड़ी। छोटी लड़की ने बड़ी लड़की को इंगित करके कहा, “इसी ने मेरा खून कर दिया था।”

अब मुझे स्पष्ट होने लगता है कि मैं किसी गड़बड़झाले में फँस चुका हूँ। प्रॉपर्टी एजेंट सहित वे सभी शायद भूत थे। दृष्टि कुछ और साफ़ हुई है। आगे के कमरों में काले सूट-बूट, चिमनी हैट और सफ़ेद दस्ताने पहने कई लोग स्ट्रेचर जैसे लेकर जा रहे हैं। उनका केवल चेहरा खुला है। चेहरा आम इंसानों जैसा न होकर अस्थिमात्र है। हम उनसे कुछ इस तरह घिर गये हैं कि उनके साथ ही चलना पड़ रहा है। वे अचानक दीवार में बने खुले दरवाज़े से बाहर निकलकर दरवाज़े के बाहर दीवार से लगी बिना रेलिंग की खुली सीढ़ियों से चलकर कई मंज़िल नीचे बने खुले बड़े आंगन, या अंटिया की ओर जाने लगते हैं। कुछ लोग हमारे आगे हैं कुछ पीछे।

मैं उनकी असलियत जानने को उत्सुक हूँ। एक बार साहस करके उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये ‘हरि ॐ’ कहता हूँ तो मेरे आगे वाला व्यक्ति अपना मुख मेरी ओर मोड़कर बिना सामने देखे आराम से सीढ़ी उतरते हुए मुँह पर उंगली रखकर श्श्श कहकर मुझे कुछ दिखाते हुए कहता है, “आवाज़ से उनके ध्यान में बाधा पहुँचेगी।” मैं देखता हूँ कि हर सीढ़ी के समांतर, हवा में ही लामाओं की तरह पद्मासन में बैठे हुए कई कंकाल, काले कपड़ों में ऐसे लिपटे हुए हैं कि उनकी केवल खोपड़ी दिख रही है हैं। मेरी आवाज़ सुनकर उनमें से कई अपना-अपना मुँह घुमाकर मेरी ओर करते हैं और अपनी तरेरने वाली नज़र से आँखों के गड्ढे मुझ पर केंद्रित कर देते हैं। उनकी नज़रों की उपेक्षा कर मैंने एक बार और अधिक ज़ोर से ‘हरि ॐ’ कहा, और मेरी नींद खुल गयी।

हे भगवान, यह कैसा स्वप्न था। अब मैं आभासी जगत से वापस यथार्थ में आ तो गया था लेकिन आँखें जल रही थीं, खोलने में भी कठिनाई हो रही थी। मैं मुँह धोने के लिये स्नानागार में जाता हूँ। बत्ती जलाकर शीशे में देखता हूँ तो मेरे कंधे के पीछे से कोई मुस्कुराता हुआ दिखता है। मेरे ठीक पीछे हवा में टंगा हुआ कंकाल काले कपड़ों में पद्मासन लगाये हुए ही, मुझे देखकर हँसता है।

“तुम कौन हो?” मैं कहना चाहता हूँ, परंतु आवाज़ नहीं निकलती। गला घुट सा गया है। चिल्लाता हूँ तो हाथ मसहरी के हैडबोर्ड से टकराता है। अब मैं सचमुच जग गया हूँ, तकिया मेरी गर्दन से चिपका हुआ है। और पसीने से लथपथ अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ। पंखा चल रहा है लेकिन हवा मुझ तक नहीं आ रही। पंखे से उल्टा लटका हुआ कंकाल मुझे एकटक देख रहा है।

Sunday, July 15, 2018

हल - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।

“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।

“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।

“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।

“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”

“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”

“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की

“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।

“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”

“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”

“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”

“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”

रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।

अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।

[समाप्त]

Thursday, November 10, 2016

मोड़ - लघुकथा

चित्र: अनुराग शर्मा
लाइसेंस भी नहीं मिला और एक दिन की छुट्टी फिर से बेकार हो गई। एक बार पहले भी उसके साथ यही हो चुका है। परिवहन विभाग का दफ़्तर घर से दूर है। आने-जाने में ही इतना समय लग जाता है। उस पर इतनी भीड़ और फिर दफ़्तर के बाबूजी के नखरे। अभी किसी से बात कर रहे हैं, अब खाने का वक़्त हो गया, अभी आये नहीं हैं, आदि।

पिछली बार के टेस्ट में इसलिये फ़ेल कर दिया था कि उसने स्कूटर मोड़ते समय इंडिकेटर दे दिया था, तब बोले कि हाथ देना चाहिये था। इस बार उसने हाथ दिया तो कहते हैं कि इंडिकेटर देना चाहिये था।

भुनभुनाता हुआ बाहर आ रहा था कि एक आदमी ने उसे रोक लिया, "लाइसेंस चाहिये? लाइसेंस?"

उसने ध्यान से देखा, आदमी के सर के ठीक ऊपर दीवार पर लिखा था, "दलालों से सावधान।"

"नहीं, नहीं, मुझे लाइसेंस नहीं चाहिये ... "

"तो क्या यहाँ सब्ज़ी खरीदने आए थे? अरे यहाँ जो भी आता है उसे लाइसेंस ही चाहिये, चलो मैं दिलाता हूँ।"

कुछ ही देर में वह मुस्कुराता हुआ बाहर जा रहा था। उसे पता चल गया था कि मुड़ते समय न हाथ देना होता है न इंडिकेटर, सिर्फ़ रिश्वत देना होता है।


(अनुराग शर्मा

Thursday, December 24, 2015

अहिंसा - लघुकथा


ग्रामीण - हम पक्के अहिंसक हैं जी। हिंसा को रोकने में लगे रहते हैं।
आगंतुक - गाँव में लड़ाई झगड़ा तो हो जाता होगा
ग्रामीण - न जी न। सभी पक्के अहिंसक हैं। हम न लड़ते झगड़ते आपस में
आगंतुक - अगर आस-पड़ोस के गाँव से कोई आके झगड़ने लग जाय तो?
ग्रामीण - आता न कोई। दूर-दूर तक ख्याति है इस गाम की।
आगंतुक - मान लो आ ही जाये?
ग्रामीण - तौ क्या? जैसे आया वैसे चला जाएगा, शांति से। हम शांतिप्रिय हैं जी  ...
आगंतुक - और अगर वह शांतिप्रिय न हुआ तब?
ग्रामीण - शांतिप्रिय न हुआ से क्या मतलब है आपका?
आगंतुक - अगर वह झगड़ा करने लगे तो ...
ग्रामीण - तौ उसे प्यार से समझाएँगे। हम पक्के अहिंसक हैं जी।
आगंतुक - समझने से न समझा तब?
ग्रामीण - तौ घेर के दवाब बनाएँगे, क्योंकि हम पक्के अहिंसक हैं जी।
आगंतुक - फिर भी न माने?
ग्रामीण - मतलब क्या है आपका? न माने से क्या मतलब है?
आगंतुक - मतलब, अगर वह माने ही नहीं ...
ग्रामीण - तौ हम उसे समझाएँगे कि हिंसा बुरी बात है।
आगंतुक - तब भी न माने तो? मान लीजिये लट्ठ या बंदूक ले आए?
ग्रामीण - ... तौ हम उसे पीट-पीट के मार डालेंगे,लेकिन इस गाम में हिंसा नहीं करने देंगे। हम पक्के अहिंसक हैं जी। हिंसा को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सके हैं।  

Friday, August 21, 2015

बुद्धू - लघुकथा

राज और रूमा के विवाह को सम्पन्न हुए कुछ महीने बीत चुके थे। पति-पत्नी दोनों शाम को छज्जे पर बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। मज़ाक की कोई बात चलने पर रूमा ने कहा, "अगर उस दिन रीना की शादी में आपने मुझे देखा ही न होता तब?"

"तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर तुम मुझे देखकर दीदी से बात नहीं करतीं, तो मुझे कैसे पता लगता?" राज ने कहा।

"क्या कैसे पता लगता?" आवाज़ में कुतूहल था।

"वही सब जो तुमने दीदी से कहा?"

"मैंने? कुछ भी तो नहीं। उनसे बस इतना पूछा था कि जलपान किया या नहीं। फिर वे बात करने लगीं।"

"क्या बात करने लगीं? तुमने उनसे मेरे बारे में क्या कहा?" राज कुछ सुनने को उतावला था।

"मैंने तो कुछ भी नहीं कहा था। वे खुद ही तुम्हारी बातें बताने लगी थीं" रूमा ने ठिठोली की।

"मुझे सब पता है, दीदी ने मुझे उसी दिन सारी बात बता दी थी।"

"अच्छा! क्या क्या बताया?"  

"जो कुछ भी तुमने मेरे बारे में कहा। ... वह लड़का जो आपके साथ आया था, वही जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें इतनी सुंदर हैं, लंबी नाक, चौड़ा माथा। इतना सभ्य, शांत सा, इस शहर के दंभी लड़कों से बिल्कुल अलग।"

"क्या? ये सब कहा दीदी ने तुमसे?"

"हाँ, सारी बात बता दी, एक एक शब्द।"

"लेकिन मैंने तो ये सब कहा ही नहीं। सोचा ज़रूर था, लगभग यही सब। लेकिन उनसे तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा।"

"सच? तब तो ये भी नहीं कहा होगा कि कद थोड़ा अधिक होता तो बिलकुल अमिताभ बच्चन होता, वैसे संजीव कुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर वगैरा को तो अभी भी मात कर रहा है।"

"बिल्कुल नहीं। हे भगवान! ये दीदी भी न ..."

"समझ गया दीदी की शरारत। बनाने को एक मैं ही मिला था?"

"एक मिनट, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुमने भी मेरे बारे में उनसे कुछ नहीं कहा हो?" 

"मैंने? मैं तो कभी किसी से कुछ कहता ही नहीं, उनसे कैसे कहता? ... और फिर, तुम्हें देखने के बाद तो मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था।"

"क्या? तुमने मेरी तारीफ़ में उनसे कुछ नहीं कहा था? इसका मतलब यह कि दीदी ने हम दोनों को ही  बुद्धू बना दिया।"

"कमाल की हैं दीदी भी। लेकिन इस मज़ाक के लिए मैं जीवन भर उनका आभारी रहूँगा।"

"मैं भी। दीदी ने गजब का बुद्धू  बनाया हमें।"

राज ने स्वगत ही कहा, "मेरी माइंड रीडर दीदी।" और दोनों अपनी-अपनी हसीन बेवकूफी पर एकसाथ हँस पड़े।

[समाप्त]

Thursday, July 30, 2015

मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन - 31 जुलाई

मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ ... मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)
मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी कथा संकलन मानसरोवर
आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। हिन्दी और उर्दू साहित्य में रुचि रखने वाला कोई विरला ही होगा जो उनका नाम न जानता हो। हिन्दी (एवं उर्दू) साहित्य जगत में यह नाम एक शताब्दी से एक सूर्य की तरह चमक रहा है। विशेषकर, ज़मीन से जुड़े एक कथाकार के रूप में उनकी अलग ही पहचान है। उनके पात्रों और कथाओं का क्षेत्र काफी विस्तृत है फिर भी उनकी अनेक कथाएँ भारत के ग्रामीण मानस का चित्रण करती हैं। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे उर्दू में नवाब राय और हिन्दी में प्रेमचंद के नाम से लिखते रहे। आम आदमी की बेबसी हो या हृदयहीनों की अय्याशी, बचपन का आनंद हो या बुढ़ापे की जरावस्था, उनकी कहानियों में सभी अवस्थाएँ मिलेंगी और सभी भाव भी। अपने साहित्यिक जीवनकाल में उन्होने सैकड़ों कहानियाँ और कुछ लेख, उपन्यास व नाटक भी लिखे। उनकी कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं और अनेक रेडियो व टीवी कार्यक्रम भी। उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर १९१५ के अंक में "सौत" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी और उनकी अंतिम प्रकाशित (१९३६) कहानी "कफन" थी।
जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत् में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक सर्व-सामान्य व्यापक धरातल पर ले आए। ~ महादेवी वर्मा

प्रेमचंद की हिन्दी कथाओं की ऑडियो सीडी
मैं पिछले लगभग सात वर्षों से इन्टरनेट पर देवनागरी लिपि में उपलब्ध हिन्दी (उर्दू एवं अन्य रूप भी) की मौलिक व अनूदित कहानियों के ऑडियो बनाने से जुड़ा रहा हूँ। विभिन्न वाचकों द्वारा "सुनो कहानी" और "बोलती कहानियाँ" शृंखलाओं के अंतर्गत पढ़ी गई कहानियों में से अनेक कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद की हैं। आप उनकी कालजयी रचनाओं को घर बैठे अपने कम्प्युटर या चल उपकरणों पर सुन सकते हैं। प्रेमचंद की कुछ कहानियो से हिन्द युग्म ने एक ऑडियो सीडी भी जारी की थी। कुछ चुनिन्दा ऑडियो कथाओं के लिंक यहाँ संकलित हैं। आशा है आपको पसंद आएंगे। यदि आप उनकी (या अपनी पसंद के किसी अन्य साहित्यकार की हिन्दी में मौलिक या अनूदित) कोई कथा विशेष सुनना चाहते हों तो अवश्य बताइये ताकि उसे रेडियो प्लेबैक इंडिया के साप्ताहिक "बोलती कहानियाँ" कार्यक्रम में सुनवाया जा सके।
मुंशी प्रेमचंद की 57 कहानियों के ऑडियो का भंडार, 4 देशों से 9 वाचकों के स्वर में

(31 जुलाई 1880 - 8 अक्तूबर 1936)
सौत (शन्नो अग्रवाल) [दिसंबर १९१५]
निर्वासन (अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा)
आत्म-संगीत (शोभा महेन्द्रू और अनुराग शर्मा)
प्रेरणा (शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा)
बूढ़ी काकी (नीलम मिश्रा)
ठाकुर का कुआँ' (डॉक्टर मृदुल कीर्ति)
स्त्री और पुरुष (माधवी चारुदत्ता)
शिकारी राजकुमार (माधवी चारुदत्ता)
मोटर की छींटें (माधवी चारुदत्ता)
अग्नि समाधि (माधवी चारुदत्ता)
मंदिर और मस्जिद (शन्नो अग्रवाल)
बड़े घर की बेटी (शन्नो अग्रवाल)
पत्नी से पति (शन्नो अग्रवाल)
पुत्र-प्रेम (शन्नो अग्रवाल)
माँ (शन्नो अग्रवाल)
गुल्ली डंडा (शन्नो अग्रवाल)
दुर्गा का मन्दिर' (शन्नो अग्रवाल)
आत्माराम (शन्नो अग्रवाल)
नेकी (शन्नो अग्रवाल)
मन्त्र (शन्नो अग्रवाल)
पूस की रात (शन्नो अग्रवाल)
स्वामिनी (शन्नो अग्रवाल)
कायर (अर्चना चावजी)
दो बैलों की कथा (अर्चना चावजी)
खून सफ़ेद (अर्चना चावजी)
अमृत (अनुराग शर्मा)
अपनी करनी (अनुराग शर्मा)
अनाथ लड़की (अनुराग शर्मा)
अंधेर (अनुराग शर्मा)
आधार (अनुराग शर्मा)
आख़िरी तोहफ़ा (अनुराग शर्मा)
इस्तीफा (अनुराग शर्मा)
ईदगाह (अनुराग शर्मा)
उद्धार (अनुराग शर्मा)
कौशल (अनुराग शर्मा)
क़ातिल (अनुराग शर्मा)
घरजमाई (अनुराग शर्मा)
ज्योति (अनुराग शर्मा)
बंद दरवाजा (अनुराग शर्मा)
बांका ज़मींदार (अनुराग शर्मा)
बालक (अनुराग शर्मा)
बोहनी (अनुराग शर्मा)
देवी (अनुराग शर्मा)
दूसरी शादी (अनुराग शर्मा)
नमक का दरोगा (अनुराग शर्मा)
नसीहतों का दफ्तर (अनुराग शर्मा)
पर्वत-यात्रा (अनुराग शर्मा)
पुत्र प्रेम (अनुराग शर्मा)
वरदान (अनुराग शर्मा)
विजय (अनुराग शर्मा)
वैराग्य (अनुराग शर्मा) 
शंखनाद (अनुराग शर्मा)
शादी की वजह (अनुराग शर्मा)
सभ्यता (अनुराग शर्मा)
समस्या (अनुराग शर्मा)
सवा सेर गेंहूँ (अनुराग शर्मा)
कफ़न (अमित तिवारी) [१९३६]

Thursday, July 2, 2015

सच या झूठ - लघुकथा

पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।

माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।

पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
 खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।

माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?

पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?

माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।

पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है। 

Tuesday, May 5, 2015

सांप्रदायिक सद्भाव

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
जब मुसलमानों ने मकबूल की जमीन हथियाकर उस पर मस्जिद बनाई तो हिंदुओं के एक दल ने मुकुल की जमीन पर मठ बना दिया। मुकुल और मकबूल गाँव के अलग-अलग कोनों में उदास बैठे हैं फिर भी गाँव में शांति है क्योंकि इस बार कोई यह नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मुसलमान या मुसलमानों ने हिन्दू को सताया है।

Saturday, April 11, 2015

ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार - लघुकथा

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
झुमकेचल प्रसाद काम में थोड़ा कमजोर था। बदमाशियाँ भी करता था। दिखने में ठीक-ठाक था और उसके साथियों ने उसके इस ठीक-ठाक का भाव काफी चढ़ाया हुआ था। सो, वह अपने आप को डैनी, नहीं, शायद राजेश खन्ना समझता था। अब नौजवान राजेश खन्ना अपने से कई साल छोटे और कई किलो हल्के अधिकारी के अधीनस्थ होकर आराम से तो काम कर नहीं सकता सो हर बात में थोड़ा बहुत विद्रोह भी दिखाता रहता था। अकारण द्रोह का एक कारण शायद उस अधिकारी का अनारक्षित कोटे से आना भी था।

झुमकेचल के काम में काफी कमियाँ थीं। लेकिन अधिकारी उसकी क्षमता को जानते हुए उसे कुछ जताए बिना शाम को घर जाने से पहले उसकी गलतियाँ ठीक कर देता था। जितना जायज़ था उतनी छूट अधिकारी उसे हमेशा देता रहा। वह फरीदाबाद से दिल्ली आता था। आने में अक्सर देर हो जाती थी। वरिष्ठ प्रबंधक कड़कसिंह रोज़ सुबह दरवाजे पर लगी घड़ी के नीचे खड़ा हर देर से आने वाले की क्लास लगाता था। उसकी समस्या को ध्यान से सुनने के बाद अधिकारी ने कड़कसिंह से कड़क बहसें कर के अपने अधीनस्थों की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उसकी देरी सदा के लिए अनुशासन के दायरे से निकलवा दी। हर सुबह बाकी लेट-लतीफों को झिड़कता कड़कसिंह जब उसे कुछ नहीं कहता तो उसकी सुबह, जोकि अब लगभग दोपहर हो चुकी होती थी, उत्साह से भर जाती। इसी उत्साह में अब वह नियमित रूप से देर से आने लगा। जब कई दिन तक अधिकारी की ओर से उसकी नियमित देरी का कोई प्रतिरोध नहीं दिखा तो एक दिन अपनी सुबह की देरी को कम्पनसेट करने के उद्देश्य से उसने शाम को जल्दी घर जाने की बात की। अधिकारी ने उस दिन आराम से जाने दिया तो अगले दिन से उसने जल्दी जाने का अधिकार अपने गमछे में खोंस लिया और प्रतिदिन जल्दी जाने लगा।

आप सोचेंगे कि अधिकारी से मिलने वाले हर लाभ के बाद वह बेहतर होता गया होगा लेकिन हुआ इसका उलट। न तो उसके काम की गलतियों में कोई सुधार हुआ, न ही उसके नाजायज अक्खड़पन में कोई कमी आई। कुछ दिन बाद जब उसके लंच से वापस आने का समय उसके स्वास्थ्य की अनिवार्यता, यानी टेबल टेनिस के खेल के कारण बढ़ गया तो अधिकारी ने उसे कुछ कहे बिना भविष्य में कोई रियायत न देने का निश्चय किया।

एक दिन उसने बताया कि घर में चल रही पुताई के कारण वह लंचटाइम में ही घर चला जाएगा। अधिकारी को क्या एतराज़ होता, उसने विनम्रता से बता दिया कि छुट्टियाँ उसकी कमाई हुई हैं, आधा दिन की ले या पूरे दिन की, उसकी मर्ज़ी। छुट्टी का नाम सुनते ही वह गरम हो गया। शोर-शराबा सुनकर टेबल टेनिस के कुछ दबंग कामरेड भी मौका-ए-वारदात पर पहुँच गए। जिन्होंने सरकारी बैंक में काम किया हो उन्हें पता ही होगा कि बैंकिंग चुटकुलों में अधिकारियों का प्रयोग अक्सर ताश के जोकर की तरह किया जाता है। सो एकाध महारथी ने अपने मित्र के पक्ष में घिसे हुये चुटकुले जैसा कुछ कहा। अधिकारी ने उसके अधूरे ज्ञान वाले चुट्कुले वाला पूरा उपन्यास बाँच दिया। एकाध साथी ने वैज्ञानिक तर्क दिये, तो उनके आगे वैज्ञानिक निष्कर्ष रख दिये गए। फिर शाखा के सबसे भारी बोझ ने अपने वजन का प्रयोग किया तो इस छोटे से अधिकारी ने उसी के वजन और मूमेंटम का तात्कालिक प्रयोग करते हुए उसे काउंटर की दीवार पे दोहरा हो जाने दिया। कराहता हुआ बोझ अपनी सीट पर जाकर बड़बड़ाते हुए स्टाफ सेक्शन के नाम एक हाथापाई की शिकायत लिखने लगा।

बात हाथ से निकलते देखकर झुमकेचल प्रसाद जी अधिकारी को बताने लगे कि वे रोज़ जल्दी भले चले जाते हों, अपना सारा काम सही-सही पूरा करके जाते हैं। बात गलत थी सो अधिकारी ने रिजेक्ट कर दी। झुमकेचल की आवाज़ फिर ऊँची हो गई। गरजकर बोला "मेरे काम में एक भी कमी निकाल कर दिखा दो।" अधिकारी ने उस महीने की बनाई उसकी विवरणियों के फोल्डर सामने रख दिये। हर पेज पर लाल स्याही से ठीक की हुई कम से कम एक गलती चमक रही थी। कहीं स्पेलिंग, कहीं संख्या, कहीं जोड़, कहीं कोड, कहीं कुछ और। क्षण भर में झुमकेचल का चेहरा, शरीर, हाव-भाव, सब ऐसा हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर दस जूते मारे हों। उसने मरी हुई आवाज़ में पूछा, "लेकिन आपने इसके लिए कभी डाँटा भी नहीं, न मुझसे कभी ठीक कराया।"

खैर, बंदा एकदम सुधर गया। जाने से पहले उसने छुट्टी की अर्ज़ी अधिकारी के सामने रख दी जो अधिकारी ने अपने विवेक से निरस्त भी कर दी। कुछ दिन बाद जब वह अधिकारी व्यक्तिगत काम से एक हफ्ते की छुट्टी पर गया तो उसके वापस आते ही झुमकेचल ने सबसे पहले अपने अधिकारी से उसके सब्स्टिट्यूट की शिकायत की, "मैंने बस 15 मिनट पहले जाने के लिए पूछा तो बोले सारा काम सही-सही पूरा करके चले जाना और जब सब कर दिया तो कहने लगे कि जाओ सीनियर मेनेजर से पर्मिशन ले लो।"

"आज चले जाना" कहकर अधिकारी मुस्करा दिया। पहाड़ ऊँट से ऊँचा हो गया था।
निष्कर्ष: शेर अगर हिरण को न खाये तो उसका मतलब ये नहीं होता कि हिरण शेर से ताकतवर हो गया है। इसका अर्थ ये है कि शेर शाकाहारी है। लेकिन हिरण तेंदुए से फिर भी काम नहीं निकलवा सकता।

Friday, March 27, 2015

पुरानी दोस्ती - लघुकथा

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

बेमेल दोस्ती की गंध
कल उसका फोन आया था। ताबड़तोड़ प्रमोशनों के बाद अब वह बड़ा अफसर हो गया है। किसी ज़माने में हम दोनों निगम के स्कूल में एक साथ काम करते थे। मिडडे मील पकाने से लेकर चुनाव आयोग की ड्यूटी बजाने तक सभी काम हमारे जिम्मे थे। ऊपर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ। इन सब से कभी समय बच जाता था तो बच्चों की क्लास भी ले लेते थे।  

उसे अपने असली दिल्लीवाला (मूलनिवासी) होने का गर्व था। मुझे हमेशा 'ओए बिहारी' कहकर ही बुलाता था। दिल का बुरा नहीं था  लेकिन हज़ार बुराइयाँ भी उसे सामान्य ही लगती थीं। अपनी तो मास्टरी चलती रही लेकिन वह असिस्टेंट ग्रेड पास करके सचिवालय में लग गया। अब तो बहुत आगे पहुँच गया है।

आज मूड ऑफ था उसका। अपने पुराने दोस्त से बात करके मन हल्का करना चाहता था सो बरसों बाद उस दिन मुझे फोन किया।

"कैसा है तू?"

"हम ठीक हैं। आप कैसे हैं?"

"गुड ... और तेरी बिहारिन कैसी है?"

इतने साल बाद बात होने पर भी उसका यह लहज़ा सुनकर बुरा लगा। मुझे लगा था कि उम्र बढ़ने के साथ उसने कुछ तमीज़ सीख ली होगी। मैं आरा का सही, उसका इलाका तो दिल्ली देहात ही था। सोचा कि उसे उसी के तरीके से समझाया जा सकता है।

"हाँ, हम सब ठीक हैं, तू बता, तेरी देहातन कैसी है?"

"ओए बिहारी, ये तू-तड़ाक मुझे बिलकुल पसंद नहीं। और ये देहातिन किसे बोला? अपनी भाभी के बारे में इज़्ज़त से बात किया कर।"

फोन कट गया था। बरसों की दोस्ती चंद मिनटों में खत्म हो गई थी।

[समाप्त]

Monday, February 23, 2015

खिलखिलाहट - लघुकथा

दादी और दादा
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"बोलो उछलना।"

"उछलना।"

"अरे बिलकुल ठीक तो बोल रही हो।"

"हाँ, उछलना को ठीक बोलने में क्या खास है।"

"तो फिर बच्चों के सामने छुछलना क्यों कहती हो? सब हँसते हैं।"

"इसीलिए तो।"

"इसीलिए किसलिए?"

"ताकि वे हंस सकें। उनकी दैवी खिलखिलाहट पर सारी दुनिया कुर्बान।"

Saturday, February 14, 2015

मुफ्तखोर - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)


कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।

फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।

उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"

"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"

"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"

"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"

"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।

"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"

उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।

[समाप्त] 

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"