Sunday, August 21, 2016

शिकायत - कविता

मुद्रा खरी खरी
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।

साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।

रोज़ लड़ा पर 
हारा सूरज 
दिन आखिर ढलते हैं।

पाँव दुखी कि
बदन सहारे
उसके ही चलते हैं।

मैल हाथ का पैसा
सुनकर
हाथ सभी मलते हैं।

आग खफ़ा हो
जाती क्योंकि
उससे सब जलते हैं॥

(अनुराग शर्मा)