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फरवरी 2011 में रतलाम के माणक चौक विद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1847 से 1947 तक के 101 वर्ष की पुस्तक प्रदर्शनी एवम् अन्य समारोह किये गये। उसी दौरान विद्यालय के पुस्तकालय में जब विष्णु बैरागी जी को देवनागरी और गुजराती से मिलती-जुलती लिपि में लिखी एक दुर्लभ सी पुस्तक दिखाई दी तो उन्होंने नगर के वृद्धजनों की सहायता मांगी। गुजरातियों ने उस भाषा/लिपि के गुजराती होने से इनकार कर दिया और मराठी भाषा के जानकारों ने उसके मराठी होने को नकार दिया। तब विष्णु जी ने उस पुस्तक के दो पृष्ठ स्थानीय अखबार में छपवाने के साथ-साथ अपने ब्लॉग पर भी रख दिये। "यह कौन सी भाषा है" नामक प्रविष्टि में उन्होंने हिन्दी ब्लॉगजगत से इस बारे में जानकारी मांगी।
एक नज़र देखने पर मुझे इतना अन्दाज़ तो हो गया कि यह देवनागरी की ही कोई भगिनी है। बल्कि लिपि देवनागरी से इतना मिल रही थी कि थोडा सा ध्यान देते ही कुछ शब्द यथा "वचनसार" और "भाग तीसरा" पढने में भी आ गये। एक स्थान पर मुम्बई समझ में आया तो इतना तय सा लगने लगा कि भाषा तो हिन्दी या मराठी ही है। इतने शब्द समझ आने पर आगे का काम कुछ और आसान हुआ। कुछ और स्वतंत्र शब्दों पर दृष्टिपात करने पर एक शब्द और समझ आया "कींमत" म से पहले की बिन्दी ने यह विश्वास दिला दिया कि भाषा मराठी ही थी। अभी तक मैं नागरी के दो सीमित रूपांतरों के बीच में अटका हुआ था - कायथी और मोड़ी। एक राजकीय कामकाज की लिपि थी जोकि मुख्यतः कायस्थ जाति में प्रचलन में रही थी और दूसरी मोड़ी या मुड़िया जिसे हम अज्ञानवश वणिक वर्ग की लिपि समझते रहे थे। मैंने अपने परनानाजी द्वारा बम्बैया फॉंट की देवनागरी में लिखी हिन्दी तो देखी थी परंतु मोड़ी या कायथी का कोई उदाहरण मेरी आँख से नहीं गुज़रा था।
मोड़ी और कायथी की खोज के लिये जब इंटरनैट खोजना चालू किया तो यह तय हो गया कि है तो यह मोड़ी ही। इस जानकारी के बाद काम और आसान हो गया। इंटरनैट पर मोड़ी के अंक, स्वर और व्यंजन तो मिले परंतु मात्रायें नहीं थीं। ऊपर से मराठी मेरी मातृभाषा नहीं है। और फिर वह पुस्तक भी सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी थी। तब भाषा का स्वरूप भी भिन्न हो सकता है। इस समय तक मेरे पास इतनी जानकारी इकट्ठी हो चुकी थी कि मैं अपने सहृदय मराठीभाषी मित्र श्री हर्षद भट्टे को तकलीफ दे सकता था। रात के 11 बजे थे। पिट्सबर्ग के निवासी हम दोनों ही पिट्सबर्ग से बाहर सुदूर विभिन्न राज्यों में थे। मैंने सारे लिंक उन्हें भेजे और हम दोनों अपने अपने फोन, कम्प्यूटर, कागज़, कलम आदि लेकर काम पर जुट गये।
आरम्भ किया लेखक के नाम से तो सामान्य बुद्धि, क्रमसंचय और संयोग के सूत्र जोडकर शब्द मिलाते-मिलाते एक ब्रिटिश पुस्तकालय की सूची से इतना पता लगा कि मोड़ी लिपि सिखाने के लिये मोड़ी वचनसार नाम की पुस्तक शृंखला लिखी गयी थी। लेखक का कुलनाम "पोद्दार" हमें पता लग चुका था परंतु उनके जिस दत्तनाम को हम लोग वयतिदेव समझ रहे थे वह वसुदेव निकला। इसके बाद तो पुस्तक के उन पृष्ठों में जितने वाक्य पूरे दिखे, हमने सारे पढ़ डाले और रात के एक बजे एक दूसरे को शुभरात्रि कहकर फोन रखा। जानकारी विष्णु जी तक पहुँचा दी।
मोड़ी क्या है और अब कहाँ है?
भारतीय ज्ञान और साहित्य की परम्परा मुख्यतः श्रौत रही है फिर भी ज्ञान को लिखे जाने के विवरण हैं। खरोष्ठी, ब्राह्मी आदि से आधुनिक भारतीय लिपियों तक की यात्रा सचमुच बहुत रोचक और उतार-चढ़ाव भरी रही है। लिपियों को उन्नत करने का काम दो स्तरों पर चलता रहा। मुख्य स्तर तो लिपि को विस्तृत करके उसे भाषा के यथासम्भव निकट लाने का श्रमसाध्य काम रहा। अधिकांश भारतीय लिपियों के आपसी अंतर और अब अप्रचलित अधिकांश लिपियों की सीमायें इस वृहत कार्य के साक्षी हैं। दूसरा स्तर लेखन के माध्यम पर निर्भर रहा। यहाँ नयी लिपियाँ शायद कम जन्मीं, परंतु स्थापित लिपियों में प्रयोगानुकूल परिवर्तन हुए। उदाहरण के लिए कील से बन्धे ताड़पत्रों पर लिखी जाने वाली ग्रंथ, मलयालम या उडिया लिपि में अक्षरों की गोलाई इसका एक उदाहरण है। इसके विपरीत शिलालेख और सिक्कों की लिपियाँ अक्सर सीधी रेखाओं और स्वतंत्र अक्षरों का प्रदर्शन करती हैं। तिब्बती लिपि और उड़िया लिपि के अक्षरों के अंतर इन लिपियों के माध्यमों के अंतर को भी उजागर करते हैं।
प्राचीन काल में जब लिपियों का प्रयोग मुख्यतः धार्मिक और शासकीय कार्यों के लिये हुआ तब पत्थरों पर राजाज्ञायें लिखते समय की लिपियाँ उस कार्य के उपयुक्त रही हैं। सिक्के, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं जैसे कड़े माध्यमों की लिपियाँ उस प्रकार की रहीं। लेकिन कागज़-कलम का प्रयोग आरम्भ होने के बाद लेखन कभी भी कहीं भी तेज़ गति से किया जा सकता था। दुनिया भर में कातिब/पत्र लेखक जैसे नये व्यवसाय सामने आये। तब लिपियों के कुछ ऐसे रूपांतर हुए जिनमें गतिमान लेखन किया जा सके। इन प्रकारों को एक प्रकार से शॉर्टहैंड का पूर्ववर्ती भी कहा जा सकता है। लेखन के घसीट (कर्सिव) तरीके से एक लेखक अपनी कलम कागज़ से हटाये बिना तेज़ काम कर सकता था। नस्तालिक़/खते शिकस्ता, काइथी/कैथी और मोड़ी/मुड़िया लिपि इसी प्रकार की लिपियाँ थीं।
मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर तो नहीं है। लगभग वही अक्षर और लगभग सभी स्वर। कुछ मात्राओं में लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना अपेक्षित था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था जैसा कि मोड़ी वचन सार के मुखपृष्ठ से ही ज़ाहिर है। माना जाता है कि सन् 1600 से 1950 तक मोड़ी ही मराठी की प्रचलित लिपि रही। टाइपराइटर, शॉर्टहैंड, छापेखाने आदि साधनों के आगमन से ही कर्सिव लिपियों के पतन का काल आरम्भ हो गया था और अब कम्प्यूटर के युग में शायद इन लिपियों का भविष्य संग्रहालयों और लिपि/भाषा-विशेषज्ञों के हाथों में सुरक्षित है।
स्पष्टीकरण
टिप्पणियाँ पढने के बाद इस लिपि के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण देना ज़रूरी हो गया है अन्यथा कुछ भ्रम बने रह जायेंगे।
1. मात्रायें मोड़ी लिपि का अभिन्न अंग हैं।
2. मोड़ी और महाजनी दो अलग लिपियाँ हैं। महाजनी राजस्थान से पंजाब तक प्रचलित थी जबकि मोड़ी लिपि राजस्थान से महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि तक।
3. मोड़ी लिपि केवल व्यापार या मुनीमी तक सीमित नहीं थी। मध्य-पश्चिम भारत में राजस्थान से महाराष्ट्र तक इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होता था। मराठा साम्राज्य का बहुत सा पत्र-व्यवहार इस लिपि में है। सन 1950 तक मराठी की अधिकांश पुस्तकें मोड़ी में लिखी गयी थीं।
4. यह कूटलिपि नहीं है। इसका उद्देश्य गुप्त हिसाब-किताब या कूट संदेश नहीं था।
5. यह ऐसी संक्षिप्त लिपि भी नहीं है जैसी कि इंटरनैट चैट में प्रयुक्त होती है। हर शब्द देवनागरी जैसे ही लिखा जाता है।
6. मानक देवनागरी की तुलना में मोड़ी लिपि में लेखन अपेक्षाकृत गतिमान है परंतु लिपि की सीमायें हैं।
7. भारत के विभिन्न पुस्तकालयों और धार्मिक केन्द्रों जैसे श्रवणवेळगोला में मोड़ी लिपि के उदाहरण उपलब्ध हैं।
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सम्बंधित कड़ियाँ
=================================
* श्री मोडी वैभव
* मोड़ी - विकिपीडिया
* यह कौन सी भाषा है (विष्णु बैरागी)
* मोड़ी लिपि का इतिहास (मराठी में)
* मोड़ी = जल्दी में लिखी हुई अस्पष्ट लिपि
* श्री केशवदास अभिलेखागार
* Modi script - Wikipedia
* Modi alphabet - Omniglot
* माणकचौक विद्यालय की पुस्तक प्रदर्शनी में मोड़ी पुस्तकें
* राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ (प्रेम कुमार)
फरवरी 2011 में रतलाम के माणक चौक विद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1847 से 1947 तक के 101 वर्ष की पुस्तक प्रदर्शनी एवम् अन्य समारोह किये गये। उसी दौरान विद्यालय के पुस्तकालय में जब विष्णु बैरागी जी को देवनागरी और गुजराती से मिलती-जुलती लिपि में लिखी एक दुर्लभ सी पुस्तक दिखाई दी तो उन्होंने नगर के वृद्धजनों की सहायता मांगी। गुजरातियों ने उस भाषा/लिपि के गुजराती होने से इनकार कर दिया और मराठी भाषा के जानकारों ने उसके मराठी होने को नकार दिया। तब विष्णु जी ने उस पुस्तक के दो पृष्ठ स्थानीय अखबार में छपवाने के साथ-साथ अपने ब्लॉग पर भी रख दिये। "यह कौन सी भाषा है" नामक प्रविष्टि में उन्होंने हिन्दी ब्लॉगजगत से इस बारे में जानकारी मांगी।
एक नज़र देखने पर मुझे इतना अन्दाज़ तो हो गया कि यह देवनागरी की ही कोई भगिनी है। बल्कि लिपि देवनागरी से इतना मिल रही थी कि थोडा सा ध्यान देते ही कुछ शब्द यथा "वचनसार" और "भाग तीसरा" पढने में भी आ गये। एक स्थान पर मुम्बई समझ में आया तो इतना तय सा लगने लगा कि भाषा तो हिन्दी या मराठी ही है। इतने शब्द समझ आने पर आगे का काम कुछ और आसान हुआ। कुछ और स्वतंत्र शब्दों पर दृष्टिपात करने पर एक शब्द और समझ आया "कींमत" म से पहले की बिन्दी ने यह विश्वास दिला दिया कि भाषा मराठी ही थी। अभी तक मैं नागरी के दो सीमित रूपांतरों के बीच में अटका हुआ था - कायथी और मोड़ी। एक राजकीय कामकाज की लिपि थी जोकि मुख्यतः कायस्थ जाति में प्रचलन में रही थी और दूसरी मोड़ी या मुड़िया जिसे हम अज्ञानवश वणिक वर्ग की लिपि समझते रहे थे। मैंने अपने परनानाजी द्वारा बम्बैया फॉंट की देवनागरी में लिखी हिन्दी तो देखी थी परंतु मोड़ी या कायथी का कोई उदाहरण मेरी आँख से नहीं गुज़रा था।
मोड़ी और कायथी की खोज के लिये जब इंटरनैट खोजना चालू किया तो यह तय हो गया कि है तो यह मोड़ी ही। इस जानकारी के बाद काम और आसान हो गया। इंटरनैट पर मोड़ी के अंक, स्वर और व्यंजन तो मिले परंतु मात्रायें नहीं थीं। ऊपर से मराठी मेरी मातृभाषा नहीं है। और फिर वह पुस्तक भी सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी थी। तब भाषा का स्वरूप भी भिन्न हो सकता है। इस समय तक मेरे पास इतनी जानकारी इकट्ठी हो चुकी थी कि मैं अपने सहृदय मराठीभाषी मित्र श्री हर्षद भट्टे को तकलीफ दे सकता था। रात के 11 बजे थे। पिट्सबर्ग के निवासी हम दोनों ही पिट्सबर्ग से बाहर सुदूर विभिन्न राज्यों में थे। मैंने सारे लिंक उन्हें भेजे और हम दोनों अपने अपने फोन, कम्प्यूटर, कागज़, कलम आदि लेकर काम पर जुट गये।
आरम्भ किया लेखक के नाम से तो सामान्य बुद्धि, क्रमसंचय और संयोग के सूत्र जोडकर शब्द मिलाते-मिलाते एक ब्रिटिश पुस्तकालय की सूची से इतना पता लगा कि मोड़ी लिपि सिखाने के लिये मोड़ी वचनसार नाम की पुस्तक शृंखला लिखी गयी थी। लेखक का कुलनाम "पोद्दार" हमें पता लग चुका था परंतु उनके जिस दत्तनाम को हम लोग वयतिदेव समझ रहे थे वह वसुदेव निकला। इसके बाद तो पुस्तक के उन पृष्ठों में जितने वाक्य पूरे दिखे, हमने सारे पढ़ डाले और रात के एक बजे एक दूसरे को शुभरात्रि कहकर फोन रखा। जानकारी विष्णु जी तक पहुँचा दी।
मोड़ी क्या है और अब कहाँ है?
भारतीय ज्ञान और साहित्य की परम्परा मुख्यतः श्रौत रही है फिर भी ज्ञान को लिखे जाने के विवरण हैं। खरोष्ठी, ब्राह्मी आदि से आधुनिक भारतीय लिपियों तक की यात्रा सचमुच बहुत रोचक और उतार-चढ़ाव भरी रही है। लिपियों को उन्नत करने का काम दो स्तरों पर चलता रहा। मुख्य स्तर तो लिपि को विस्तृत करके उसे भाषा के यथासम्भव निकट लाने का श्रमसाध्य काम रहा। अधिकांश भारतीय लिपियों के आपसी अंतर और अब अप्रचलित अधिकांश लिपियों की सीमायें इस वृहत कार्य के साक्षी हैं। दूसरा स्तर लेखन के माध्यम पर निर्भर रहा। यहाँ नयी लिपियाँ शायद कम जन्मीं, परंतु स्थापित लिपियों में प्रयोगानुकूल परिवर्तन हुए। उदाहरण के लिए कील से बन्धे ताड़पत्रों पर लिखी जाने वाली ग्रंथ, मलयालम या उडिया लिपि में अक्षरों की गोलाई इसका एक उदाहरण है। इसके विपरीत शिलालेख और सिक्कों की लिपियाँ अक्सर सीधी रेखाओं और स्वतंत्र अक्षरों का प्रदर्शन करती हैं। तिब्बती लिपि और उड़िया लिपि के अक्षरों के अंतर इन लिपियों के माध्यमों के अंतर को भी उजागर करते हैं।
प्राचीन काल में जब लिपियों का प्रयोग मुख्यतः धार्मिक और शासकीय कार्यों के लिये हुआ तब पत्थरों पर राजाज्ञायें लिखते समय की लिपियाँ उस कार्य के उपयुक्त रही हैं। सिक्के, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं जैसे कड़े माध्यमों की लिपियाँ उस प्रकार की रहीं। लेकिन कागज़-कलम का प्रयोग आरम्भ होने के बाद लेखन कभी भी कहीं भी तेज़ गति से किया जा सकता था। दुनिया भर में कातिब/पत्र लेखक जैसे नये व्यवसाय सामने आये। तब लिपियों के कुछ ऐसे रूपांतर हुए जिनमें गतिमान लेखन किया जा सके। इन प्रकारों को एक प्रकार से शॉर्टहैंड का पूर्ववर्ती भी कहा जा सकता है। लेखन के घसीट (कर्सिव) तरीके से एक लेखक अपनी कलम कागज़ से हटाये बिना तेज़ काम कर सकता था। नस्तालिक़/खते शिकस्ता, काइथी/कैथी और मोड़ी/मुड़िया लिपि इसी प्रकार की लिपियाँ थीं।
मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर तो नहीं है। लगभग वही अक्षर और लगभग सभी स्वर। कुछ मात्राओं में लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना अपेक्षित था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था जैसा कि मोड़ी वचन सार के मुखपृष्ठ से ही ज़ाहिर है। माना जाता है कि सन् 1600 से 1950 तक मोड़ी ही मराठी की प्रचलित लिपि रही। टाइपराइटर, शॉर्टहैंड, छापेखाने आदि साधनों के आगमन से ही कर्सिव लिपियों के पतन का काल आरम्भ हो गया था और अब कम्प्यूटर के युग में शायद इन लिपियों का भविष्य संग्रहालयों और लिपि/भाषा-विशेषज्ञों के हाथों में सुरक्षित है।
स्पष्टीकरण
टिप्पणियाँ पढने के बाद इस लिपि के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण देना ज़रूरी हो गया है अन्यथा कुछ भ्रम बने रह जायेंगे।
1. मात्रायें मोड़ी लिपि का अभिन्न अंग हैं।
2. मोड़ी और महाजनी दो अलग लिपियाँ हैं। महाजनी राजस्थान से पंजाब तक प्रचलित थी जबकि मोड़ी लिपि राजस्थान से महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि तक।
3. मोड़ी लिपि केवल व्यापार या मुनीमी तक सीमित नहीं थी। मध्य-पश्चिम भारत में राजस्थान से महाराष्ट्र तक इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होता था। मराठा साम्राज्य का बहुत सा पत्र-व्यवहार इस लिपि में है। सन 1950 तक मराठी की अधिकांश पुस्तकें मोड़ी में लिखी गयी थीं।
4. यह कूटलिपि नहीं है। इसका उद्देश्य गुप्त हिसाब-किताब या कूट संदेश नहीं था।
5. यह ऐसी संक्षिप्त लिपि भी नहीं है जैसी कि इंटरनैट चैट में प्रयुक्त होती है। हर शब्द देवनागरी जैसे ही लिखा जाता है।
6. मानक देवनागरी की तुलना में मोड़ी लिपि में लेखन अपेक्षाकृत गतिमान है परंतु लिपि की सीमायें हैं।
7. भारत के विभिन्न पुस्तकालयों और धार्मिक केन्द्रों जैसे श्रवणवेळगोला में मोड़ी लिपि के उदाहरण उपलब्ध हैं।
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* श्री मोडी वैभव
* मोड़ी - विकिपीडिया
* यह कौन सी भाषा है (विष्णु बैरागी)
* मोड़ी लिपि का इतिहास (मराठी में)
* मोड़ी = जल्दी में लिखी हुई अस्पष्ट लिपि
* श्री केशवदास अभिलेखागार
* Modi script - Wikipedia
* Modi alphabet - Omniglot
* माणकचौक विद्यालय की पुस्तक प्रदर्शनी में मोड़ी पुस्तकें
* राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ (प्रेम कुमार)
कोई शॉर्टहैण्ड लिपि रही होगी।
ReplyDeleteआपने तो निश्चय ही श्रमसाध्य शोध की थी।
ReplyDeleteइसके 'मोदी'या 'मोडी' नाम का सम्बंध प्रशासनिक व्यवसायी जिन्हें मोदी कहा जाता था से है अथवा मोडदार अंकन लिपि के कारण?
एक मात्रा विहिन लिपि को बोलचाल में 'बोड़ी' भी कहा जाता था क्या वह इसी मोडी का रूप था या महाजनी का?
informative !!
ReplyDelete@ सुज्ञ जी,
ReplyDeleteमोड़ी एक घसीटी (कर्सिव cursive) लिपि है इसलिये दूसरी सम्भावना सही है। मोदी से इसका कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। बोड़ी और महाजनी का सम्बन्ध मोड़ी से हो सकता है क्योंकि एक तो उनका क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत ही रहा है दूसरे वे बेमात्रा लिपियाँ हैं जिनका लाभ गति-लेखन में होता था। महाजनी गुरुमुखी की पूर्ववर्ती रही है।
'अजमेर' को 'आज मर', 'रुई ली' को 'रोई ली' और 'बड़ी बही' को 'बड़ी बहू' पढ़ने की बात मोड़ी लिपि के साथ जुड़ी है. तात्पर्य अजमेर शहर जाना, बही-खाता भेजना और रुई लेना-खरीदना का समाचार सेठ जी के मरने, रो लेने और बड़ी बहू को भेजने का बन जाता है. यह भी कहा जाता है कि यह गड़बड़ मात्रा न लगाने या कम लगाने के कारण होती थी, अगर रोमन के उदाहरण से अनुमान लगाएं तो ए, ई, आई, ओ, यू का इस्तेमाल किए बिना लेखन. इस आशय की टिप्पणी कहीं और भी कर चुका हूं. लिपि पर मैंने एक पोस्ट http://akaltara.blogspot.com/2010/12/blog-post_21.html लगाई थी, शायद आपने देखा हो.
ReplyDelete@राहुल जी,
ReplyDelete'ओड़ा-मासी-ढम' - आपकी रोचक पोस्ट अभी पढ रहा हूँ।
अनुराग जी,
ReplyDeleteमुझे खोजी जानकारी और सम्बंधित टिप्पणियाँ बेहद उपयोगी लगीं.
मेरे आचार्य ने कभी बताया था कि खरोष्ठी लिपि का नाम ... गदहे के होंठ की आकृति बनने वाले वर्णों की बहुलता के कारण ही है.
अन्य लिपियों के नामकरण की भी कोई-न-कोई वजह रही होगी..
कभी-कभी लगता है कि अधिक सभ्य जाति अपने से कमतर सभ्य या असभ्य जातियों की चीज़ों के नामकरण द्वेषभाव से किया करते थे.
क्या इसी भाव से अरबी और उर्दू भाषा की जिस लिपि को फारसी कहा जाता है उसे संस्कृत में खरोष्ठी न कहा जाता हो?
गुरुजनों, कृपया मुझे बतायें कि 'क्या मोड़ी जैसी लिपियों को भाषा विज्ञान कूट लिपियों में तो स्थान नहीं देता या फिर इसका स्वतंत्र अस्तित्व है?
आपके श्रम को प्रणाम ! आज केवल हमारी उपस्थिति दर्ज कीजियेगा ! फिलहाल आप राहुल सिंह जी से निपटिए और बाद में हमें भी बताइयेगा कि , बे-मात्रा /अल्पमात्रा / कर्सिव होने या अक्षरों के मोड़ / घसीटे की प्रतीतिवश ही उसे मोड़ी तो नहीं कहा गया ?
ReplyDeleteबिम्बों के अनुप्रयोगों को लेकर यह देश बेमिसाल /लाज़बाब है अब देखिये ना ... बुन्देलखंड में लड़कियों को मोड़ी कहते हैं इस हिसाब से लिपि और लडकियां दोनों ही सृजनधर्मिता और प्राकट्य का प्रतीक / स्रोत हुईं ना ?
तब तो 'मोड़ी' शब्द का समबंध मुण्डन यानि केश रहित (शिरो मात्रा रहित)से होना चाहिए।
ReplyDeleteऔर 'बोड़ी' का भी यही आशय था गुजरात-राजस्थान में अंग-विहिन के लिए 'बोड़ा'शब्द प्रयुक्त होता है।
achchhi jankari, mere baba ke jamaane me hamaare kasbe ke seth-maarvaadi bina matraon ki ek lipi ka pryog karte the jise prayah 'mudiya' kaha jata tha.
ReplyDeleteअद्वितीय पोस्ट। गहन शोध के बाद ...!
ReplyDeleteकाफ़ी जानकारी मिली।
संजय बेंगानी की मोड़िया लिपि के बारे में एक पोस्ट देख मैने भी खंगाला था इण्टर्नेट। और उपलब्ध सामग्री को पोस्टबद्ध भी करना चाहता था। पर आपकी यह पोस्ट्य़ तो कहीं अधिक विषद सामग्री प्रस्तुत करती है।
ReplyDeleteधन्यवाद।
कायथी पर नेट पर कोई विशेष सामग्री न मिल पायी। लोगों के सर-नेम जरूर मिले कायथी!
..बहुत सुखद अनुभव महसूस कर रही हूं!...यह लेख पढ कर तो मै मानो अपने बचपन में पहुंच गई!..मेरे दादाजी और पिताजी 'मोडी' लिपी के अच्छे जानकार थे!..वे 'मोडी' में लिखने के आदि थे!...पत्र वगैरा भी वे इसी लिपी में लिखते थे!...मै भी इस लिपी से परिचित थी..और कुछ हद तक पढ भी लेती थी!...यह लिपी मराठी भाषा की ही नजदीक है!...गुजराती में भी ऐसी ही एक लिपी हैः जो थोडीसी अलग है!..धन्यवाद, बहुत रोचक जानकारी!
ReplyDeleteक्या आप मुड़िया भाषा को पढ़ने या सिखाने में सहयोग कर सकती है
Deleteकौन कहता है ब्लॉग जगत पर स्तरीय सामग्री नहीं मिलती.
ReplyDeleteश्रम साध्य पोस्ट.आभार आपका.
......
ReplyDelete......
pranam.
ज्यादा तो कुछ नहीं कहूँगा बस आपके काम को नमन... बहुत ही शानदार
ReplyDeleteलिंक पर गया लिपि को देखा पर असमर्थ ! ऐसी लिपियों का शोध होनी चाहिए ! यहाँ प्रस्तुत करने के लिए , आप का आभार !
ReplyDeleteसिर्फ समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ कमेन्ट देने में असमर्थ हूँ !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बहुत ही जानकारीपूर्ण पोस्ट......आपकी मेहनत का लाभ हमें मिल रहा है...बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteइस तरह की समस्याओं से निपटने में अत्यधिक श्रम और ज्ञान की आवश्यकता है जिसका आपने भरपूर प्रयोग किया. बहुत दुर्लभ जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteआपकी मेहनत की वाक़ई प्रसंशा होनी चाहिये. यहां समय समय पर हर भाषाओं में परिवर्तन होते ही रहते हैं.. यही हमारी परंपरा रही है
ReplyDeleteबहुत ही बढिया ....एक शोधपरक और सहेजने योग्य पोस्ट........
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी -बस पढ़ लिया हूँ -विषय की जानकारी कम है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली!
बहुत ही जानकारीपूर्ण पोस्ट| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसंजयजी के फेसबुक से ही मैंने भी इस लिपि का नाम देखा था. बाकी सबकुछ तो पहली बार ही सुना. ज्ञानवर्धक.
ReplyDeleteआपका श्रमसाध्य कार्य ब्लॉग लेखन को समृद्ध कर रहा है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी .... मातृभाषा के कारण मोडी के बारे में बहुत कम जानकारी थी आपने फिर से उत्सुकता बढा दी..
ReplyDeleteanurag ji! yah post aur usase bhee pbadhkar tippaniyaan bahut hee jaankaripoorn lagee.. lagaa jaise bhasha ki class men baithaa hoon.. aisi hi ek lipi ke vishay men mujhe bhee ek post likhni hai. is KAITHEE kahte hain. mere dada ji likhte the. kaaysthon keew lipi hone ke karan ise KAITHEE kahte hain.. dekhoon kab likh paataa hoon..
ReplyDeleteबहुत ही उत्तम जानकारीपरक प्रस्तुति ... नई भाषा के बारे में जानकारी मिली ... ऐसी बातों पर गहन शोध की आवश्यकता है ... आपके श्रम को सलाम ...
ReplyDeleteश्रमसाध्य ज्ञानवर्धक पोस्ट पढ़ मन हर्षित हो गया...कतिपय टिप्पणियों ने भी विषय को विस्तार दिया है...
ReplyDeleteकर्सिव के लिए घसीटी शब्द का प्रयोग पहली बार देखा और इसने बड़ा प्रभावित किया...
पढ़ते समय लगा कि कहीं, मोड़ी से तात्पर्य मुड़ा हुआ (कर्सिव) तो नहीं??
आपने अपार श्रम द्वारा हमारा ज्ञानवर्धन किया...बहुत बहुत बहुत आभार !!!!
पिताजी अपने बचपन की बताते थे कि उन के समय में पठारम्भ "ओ ना माँ सी धंग " से होता था...
ReplyDeleteगाँव में बच्चों को कहते हुए सुनते थे हम...
"ओ ना माँ सी धंग, गुरूजी चितंग "
वर्षों बाद इधर कुछ दिनों पहले पिताजी से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि अपभ्रंश होते हुए यह इस तरह बोला जाने लगा है,नहीं तो वास्तव में यह है ...
ॐ नमः सिद्धम ( ॐ नाम की सिद्धि हो)
आज यहाँ जिक्र हुआ तो स्मरण हो आया...
achchhi jankari
ReplyDeleteज्ञान है, बटोर रहा हूँ
ReplyDeleteआपके श्रम और उसे साझा करने के लिए बहुत आभार
मोड़ी लिपि में ही प्राचीनकाल में बहीखाते लिखे जाते थे।
ReplyDeleteaapkee jigyasa pravrati aur bhasha ko le dedication ko naman.
ReplyDeleteलिपियों पर एक पुस्तक पढ़ रहा हूं, आपके इस शोध को पढ़कर अच्छा लगा. अन्तर्जाल का फायदा इस बार साफ दिखाई दे रहा है..
ReplyDeleteआपके प्रयासों से हमारा भी ज्ञानवर्धन हुआ |
ReplyDeleteAnurag ji
ReplyDeleteWe spent a lot of time at Pittsburgh with our daughter and inspired by her started publishing an autobiographical hindi blog entitled Mahabir Vinavau Hanumana . Have posted about 375 . Got to visit your blog thru Shikha jis ref.Obliged to her. Admirable research & good findings.Congrats .
Dr. Mrs. KRISNA & VN SHRIVASTAV "BHOLA"
एक मैं ही तो हूँ जो हर मायने में समृध्द हुआ। विशद जानकारी के लिए कोटिश: धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी देता आलेख। मराठी में मोड़ी और मोड़ा क्रमशः लड़की और लड़के को कहते हैं।
ReplyDeleteआपका नाम स्मार्ट इंडियन इस पोस्ट से और सार्थक लग रहा है.पैनी नजर है आपकी.
ReplyDeleteएक भाषा 'हिन्दी मुंडी' भी सुनी है,जिसमें अक्सर बहीखाते आदि भी लिखे जाते थे.क्या 'मोडी' कुछ
हिन्दी मुंडी से भी जुडी है?
मेरे ब्लॉग पर अभी तक भी आप नहीं आयें हैं.आपका इंतजार है.
Waiting for NEXT POST
ReplyDeleteहमने भी अब तक महाजनों की विशिष्ट भाषा ’मुंडी भाषा’ के बारे मे सुना था। बैरागी जी व आपकी मेहनत को सलाम।
ReplyDeleteआपके माध्यम से बहुत कुछ जानकारी हमें भी मिल रही है ...
ReplyDeleteसमय के साथ भाषा व लिपि दोनों का स्वरूप बदल जाता है . बदलती तकनीक व समाज की शक्ति संरचना के अनुरूप जो लिपियां व भाषाएं अपने आप को ढ़ाल लेती है वे बच जाती है , अन्य विलुप्त हो जाती हैं , शायद ऐसा ही कुछ इस लिपि के साथ हुआ है.
ReplyDeleteवाह! यह पोस्ट तो काफी रोचक लगी.
ReplyDeleteउपरोक्त जानकारी बहुत रंजक है । मैं मोडी लिपी अभ्यासक एवं संशोधक हूँ ।
ReplyDeleteसंशोधन कहता है कि मोडी लिपी का उगम मौर्य लिपी के उगमकाल से मिलता है । प्राय: वह अन्य कुछ लिपीयों जैसेही "पिशाच्च लिपी", "भूत लिपी" और "राक्षस लिपी" कहलाती थी । बारहवी शताब्दी में यादव साम्राज्य के महामंत्री हेमाद्री पंडीतने उसे "मोडी" यह नाम दे कर सन्मानीत किया और वह राजव्यवहार की अधिकृत लिपी बन गयी । अठरावी शताब्दी में मराठा साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ मोडी लिपी की भी वृद्धी हुई । राजस्थान से महाराष्ट्र और बुंदेलखण्ड से ले कर तामीलनाडु तक इसका विस्तार हुआ । मराठी के पश्चात सर्वाधीक मोडी लिपी का उपयोग राजस्थानी भाषा में किया गया । वैसेही सैंकडों दस्तावेज मोडी लिपी परंतु भाषा - गुजराती, कन्नड, तेलुगु और तमील में उपलब्ध हैं । ऐसा अनुमान है कि विश्वभर मं लगभग १५ करोड अप्रकाशित मोडी दस्तावेज हैं । हॉलंड एवं फ्राँस में भी यह लाखों की तादात में हैं ।
आंग्लकाल की समाप्ती तक लेखन बोरू या टाक से हुआ करता था । तब देवनागरी के मुकाबले मोडी लिपी निःसंदेह शिघ्र लिपी के रूप में प्रसिद्ध थी । मोडी लिपी essentially घसीटी (लपेटीयुक्त) लिपी है । उसे देवनागरी की तरह खुला खुला लिखने का प्रघात नहीं था ।
आज मोडी लिपी को पुनः पुनर्रूजीवीत करने का प्रयास किया जा रहा है । बडी मात्र में लोग इसे सिख रहे हैं । अमरिका के कॅलिफोर्नीया विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफेसर अंशुमन पांडे मोडी लिपी के लिये युनिकोड बना चूके हैं । मोडी लिपी में पुनः ग्रंथ लेखन आरंभ हुआ है । इसलिए अब इसे मृतप्राय लिपी कहना उचित नहीं होगा ।
फेसबूक पर मोडी लिपी से संबंधीत एक active समूह है - https://www.facebook.com/groups/123786634305930/?ap=1
क्या आपके पास "मोडी वाचनसार" की soft copy हैं ?
राजेश खिलारी जी,
ReplyDeleteमोडी सम्बन्धित जानकारी के लिये आपका आभार। प्रोफेसर अंशुमन पांडे का काम सराहनीय है। जिनकी रुचि हो वे फ़ेसबुक समूह की जानकारी का लाभ अवश्य उठायेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। मेरे पास "मोडी वाचनसार" की सॉफ़्ट कॉपी तो नहीं है लेकिन रतलाम के माणक चौक विद्यालय में इसकी छपी हुई प्रति उपलब्ध है। वहाँ मोडी की एक और किताब उपलब्ध है जिसमें आदमी के ग़ायब होने की विधि का उल्लेख है। विद्यालय के पुस्तकालय के सहयोग से इन्हें स्कैन किया जा सकता है। आवश्यकता हो तो आदरणीय विष्णु बैरागी जी की सहायता का अनुरोध किया जा सकता है।
work on Modiya Lipi You can see here also
ReplyDeletehttp://samajvikas.blogspot.com
shambhu choudhary
Hi Anurag,
ReplyDeleteAfter all, living abroad, you did not forget our national language. I appreciate you. Thanks