Tuesday, November 22, 2016

स्वप्न - एक कविता

ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं
ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं

सच्चे से लगते कभी कभी
ये पुलाव खयाली पकाते है

सपने मनमौजी होते हैं
कोई नियम समझ न पाते हैं

ज्ञानी का ज्ञान धरा रहता
अपने मन की कर जाते हैं

सब कुछ कभी लुटा देते
सर्वस्व कभी दे जाते हैं

ये स्वप्न कहाँ से आते हैं
ये स्वप्न कहाँ से आते हैं

पिट्सबर्ग की एक सपनीली सुबह



Thursday, November 10, 2016

मोड़ - लघुकथा

चित्र: अनुराग शर्मा
लाइसेंस भी नहीं मिला और एक दिन की छुट्टी फिर से बेकार हो गई। एक बार पहले भी उसके साथ यही हो चुका है। परिवहन विभाग का दफ़्तर घर से दूर है। आने-जाने में ही इतना समय लग जाता है। उस पर इतनी भीड़ और फिर दफ़्तर के बाबूजी के नखरे। अभी किसी से बात कर रहे हैं, अब खाने का वक़्त हो गया, अभी आये नहीं हैं, आदि।

पिछली बार के टेस्ट में इसलिये फ़ेल कर दिया था कि उसने स्कूटर मोड़ते समय इंडिकेटर दे दिया था, तब बोले कि हाथ देना चाहिये था। इस बार उसने हाथ दिया तो कहते हैं कि इंडिकेटर देना चाहिये था।

भुनभुनाता हुआ बाहर आ रहा था कि एक आदमी ने उसे रोक लिया, "लाइसेंस चाहिये? लाइसेंस?"

उसने ध्यान से देखा, आदमी के सर के ठीक ऊपर दीवार पर लिखा था, "दलालों से सावधान।"

"नहीं, नहीं, मुझे लाइसेंस नहीं चाहिये ... "

"तो क्या यहाँ सब्ज़ी खरीदने आए थे? अरे यहाँ जो भी आता है उसे लाइसेंस ही चाहिये, चलो मैं दिलाता हूँ।"

कुछ ही देर में वह मुस्कुराता हुआ बाहर जा रहा था। उसे पता चल गया था कि मुड़ते समय न हाथ देना होता है न इंडिकेटर, सिर्फ़ रिश्वत देना होता है।


(अनुराग शर्मा