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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:
"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."
हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।
कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।
अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।
जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:
अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः
अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।
ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।
अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,
ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!
दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।
[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]
Saturday, March 26, 2011
Wednesday, March 23, 2011
ईमानदारी - जैसी मैने देखी
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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।
बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।
पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।
पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।
कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।
बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।
पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।
पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।
Saturday, March 19, 2011
अक्षर अक्षर - एक कविता
[अनुराग शर्मा]
कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त
कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर
जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त
कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर
जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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Thursday, March 17, 2011
नव शारदा - रंग ही रंग - शुभकामनायें!
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हर ओर उल्लास है। लकडियाँ इकट्ठी कर के आग लगायी गयी है। अबाल-वृद्ध सभी त्योहार के जोश में हैं। क्यों न हो। सन 2005 से वे अपना पर्व मनाने को स्वतंत्र हैं। तुर्की ने आखिर सन 2005 में कुर्द समुदाय को अपना परम्परागत उत्सव नव शारदा मनाने की छूट दे ही दी। भारत में पारसी, बहाई, शिया और कश्मीरी पण्डित (नवरेह के नाम से) तो यह त्योहार न जाने कब से मनाते आ रहे हैं। परंतु यह पर्व भारत के बाहर भी दूर-दूर तक मनाया जाता है। ईरान में अयातुल्लह खोमेनी की इस्लामी सरकार आने के बाद लेखकों कलाकारों की मौत के फतवे तो ज़ारी हुए ही थे, साथ ही ईरानियों के प्रमुख त्योहार नवरोज़ को भी काफिर बताकर प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ठीक यही काम अफगानिस्तान में तालेबान ने किया। परंतु मानव की उत्सवप्रियता को क्या कभी रोका जा सका है? दोनों ही देशों की जनता हारी नहीं। पर्व उसी धूमधाम से मनता है।
जी हाँ, परम्परागत ईरानी नववर्ष नव शारदा का वर्तमान नाम नौरोज़, नवरोज़ और न्यूरोज़ है। पारसी परम्पराओं में इस नवरोज़ को जमशेदी नौरोज़ भी कहते हैं। क्योंकि यह उत्सव यमदेव/जमशेद के सम्मान में है। ईरानी जनता को मृत्यु की ठिठुरन से बचाने के बाद जब वे अपने रत्न-जटित सिंहासन समेत स्वर्गारूढ हो गये तब उनके लिये प्रसन्न होकर लोगों ने इस पर्व की शुरूआत की। इस साल यह पर्व 20 मार्च 2011 को पड रहा है।
20 मार्च को ही एक और त्योहार भी है "पूरिम" जिसमें नौरोज़ की तरह पक्वान्नों पर तो ज़ोर है ही साथ ही सुरापान की भी मान्यता है। यहूदियों के इस पर्व में खलनायक हमन के पुतले को सामूहिक रूप से आग लगाई जाती है, पोस्त की मिठाइयाँ बनती हैं और नाच गाना होता है।
22 मार्च को भारत सरकार के राष्ट्रीय पंचांग "शक शालिवाहन" सम्वत का आरम्भ भी होता है। इस नाते यह भारत का राष्ट्रीय नववर्ष हुआ, शक संवत 1933 की शुभकामनायें!
और अपनी होली के बारे में क्या कहूँ? दीवाली का प्रकाश तो यहाँ भी वैसा ही लगता है मगर होली की मस्ती के रंग फीके ही लगते हैं।
आप सभी को होली की मंगलकामनायें!
हर ओर उल्लास है। लकडियाँ इकट्ठी कर के आग लगायी गयी है। अबाल-वृद्ध सभी त्योहार के जोश में हैं। क्यों न हो। सन 2005 से वे अपना पर्व मनाने को स्वतंत्र हैं। तुर्की ने आखिर सन 2005 में कुर्द समुदाय को अपना परम्परागत उत्सव नव शारदा मनाने की छूट दे ही दी। भारत में पारसी, बहाई, शिया और कश्मीरी पण्डित (नवरेह के नाम से) तो यह त्योहार न जाने कब से मनाते आ रहे हैं। परंतु यह पर्व भारत के बाहर भी दूर-दूर तक मनाया जाता है। ईरान में अयातुल्लह खोमेनी की इस्लामी सरकार आने के बाद लेखकों कलाकारों की मौत के फतवे तो ज़ारी हुए ही थे, साथ ही ईरानियों के प्रमुख त्योहार नवरोज़ को भी काफिर बताकर प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ठीक यही काम अफगानिस्तान में तालेबान ने किया। परंतु मानव की उत्सवप्रियता को क्या कभी रोका जा सका है? दोनों ही देशों की जनता हारी नहीं। पर्व उसी धूमधाम से मनता है।
जी हाँ, परम्परागत ईरानी नववर्ष नव शारदा का वर्तमान नाम नौरोज़, नवरोज़ और न्यूरोज़ है। पारसी परम्पराओं में इस नवरोज़ को जमशेदी नौरोज़ भी कहते हैं। क्योंकि यह उत्सव यमदेव/जमशेद के सम्मान में है। ईरानी जनता को मृत्यु की ठिठुरन से बचाने के बाद जब वे अपने रत्न-जटित सिंहासन समेत स्वर्गारूढ हो गये तब उनके लिये प्रसन्न होकर लोगों ने इस पर्व की शुरूआत की। इस साल यह पर्व 20 मार्च 2011 को पड रहा है।
20 मार्च को ही एक और त्योहार भी है "पूरिम" जिसमें नौरोज़ की तरह पक्वान्नों पर तो ज़ोर है ही साथ ही सुरापान की भी मान्यता है। यहूदियों के इस पर्व में खलनायक हमन के पुतले को सामूहिक रूप से आग लगाई जाती है, पोस्त की मिठाइयाँ बनती हैं और नाच गाना होता है।
22 मार्च को भारत सरकार के राष्ट्रीय पंचांग "शक शालिवाहन" सम्वत का आरम्भ भी होता है। इस नाते यह भारत का राष्ट्रीय नववर्ष हुआ, शक संवत 1933 की शुभकामनायें!
और अपनी होली के बारे में क्या कहूँ? दीवाली का प्रकाश तो यहाँ भी वैसा ही लगता है मगर होली की मस्ती के रंग फीके ही लगते हैं।
आप सभी को होली की मंगलकामनायें!
Sunday, March 13, 2011
अनुरागी मन - कहानी - भाग 10
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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?
दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।
दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?
“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।
“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”
“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”
“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।
पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।
वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।
[क्रमशः]
अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?
दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।
दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?
“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।
“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”
“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”
“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।
पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।
वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।
[क्रमशः]
Thursday, March 10, 2011
नया प्रदेश, युवा मुख्यमंत्री [इस्पात नगरी से-38]
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श्री गणेशाय नमः।
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की ताज़ी पोस्ट "डिसऑनेस्टतम समय" ने अपने पाठकों को काफी कुछ सोचने को मजबूर किया है। पांडेय जी के अधिकांश अवलोकनों और निष्कर्षों से असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं है। विशेषकर, जब वे कहते हैं कि "और तो बाहरी लोगों को लूटते हैं। ये घर को लूट रहे हैं। ऑनेस्टी पैरों तले कुचली जा रही है। ... ईमानदारी अब सामाजिक चरित्र नहीं है।"
उनकी इस पोस्ट ने नई-पुरानी कई बातें याद दिलाईं। दिल्ली में किसी आटोरिक्शा के पीछे लिखा देखा था:
100 में निन्यानवे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान!
स्कूल में एक सहपाठी को अक्सर कहते सुना था, "जो पकडा गया वह चोर! मतलब यह कि (हमारे देश में) चोर तो सभी हैं, कोई-कोई पकड में आ जाता है।"
बचपन में किसी हिन्दी फिल्म में मुकेश का गाया गीत "जय बोलो बेईमान की" बडा मशहूर हुआ था। लेकिन जो बात बडी शिद्दत से याद आयी वह यह कि हमारे बेईमान, न केवल बेईमानों में बेईमानी करते हैं, वे ईमानदारी की गंगा में रोज़ डुबकी लगाकर भी ईमानदार नहीं हो पाते। हाँ, गंगा मैली करने का प्रयास अवश्य करते हैं ताकि उनकी बेईमानी सामान्य लगने लगे।
पार्किंग में, आटो, टैक्सी आदि के किराये में बेईमानी मिलना तो आम बात है ही। दिल्ली में मैंने कितनी ही बार महंगी कार में बैठे सूट्बूटक नौजवानों को पास से गुज़रते ठंडे पेय के खुले ट्रक से बोतलें चुराते देखा है। एक ज़माने में अक्सर यह खबर सुनने में आती थी कि कोई प्रसिद्ध भारतीय अपनी विदेश यात्रा के दौरान किसी डिपार्टमेंटल स्टोर में चोरी करते हुए पकडा गया। मतलब यह कि धन-धान्य से भरपूर भारतीय मन भी बिना निगरानी का माल देखकर डोल ही जाता था। बेचारे मासूमों को यह नहीं पता होता था कि चोर कैमरे उनकी चोरी को रिकॉर्ड कर रहे होते थे।
जब विवेक कुन्द्रा के ओबामा के कम्प्यूटर सलाहकार बनने की खबर आयी थी तो भारतीय समुदाय बडा प्रसन्न हुआ था। कुछ ही दिनों में खबर आ गयी कि एक दशक पहले 21 वर्ष की आयु में कुन्द्रा जी "जे सी पैनी" स्टोर से कुछ कमीज़ें चुराते हुए पकडे गये थे। उनकी सज़ा: कमीज़ों का मूल्य, 100 डॉलर दण्ड और 80 घंटे की समुदाय सेवा। [पूरी खबर पढने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये।]
लेकिन ताज़ी खबर इन सब छोटी-मोटी खबरों का बाप है। डेलावेयर में अंडर कवर एजेंटों ने भारतीय मूल के एक इलेक्ट्रॉनिक्स डीलर को एक स्टिंग ऑपरेशन द्वारा पकडा गया है। हथियारों के ईरानी दलाल आमिर अर्देबिल्ली को प्रतिबन्धित उपकरण (सैन्य इस्तेमाल में आने वाले माइक्रोवेव रेडियो) बेचने के आरोप को स्वीकार करके विक्रमादित्य सिंह ने अपनी सज़ा को 6 मास की नज़रबन्दी और एक लाख डॉलर के ज़ुर्माने तक सीमित कर दिया। सज़ा पूरी होने पर उन्हें देशनिकाला देकर भारत भेज दिया जायेगा।
वैसे तो खबर में ऐसा कुछ खास न दिखे परंतु 34 वर्षीय विक्रमादित्य सिंह राष्ट्रीय लोक दल के अमेरिका-शिक्षित अध्यक्ष और किसान नेता अजित सिंह के दामाद हैं। यदि निर्वासन के बाद वे सक्रिय राजनीति में आयें और अपने ससुर द्वारा मांगे जा रहे भविष्य के हरित प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो क्या आपको आश्चर्य होगा?
कुछ साल पहले एक भारतीय कार डीलर कर चोरी के लिये बहियों में हेरफेर करते हुए पकडे गये थे। पिछ्ले दिनों बॉस्टन के एक भारतीय व्यवसायी भारत के बैंकों में भेजी भारी रकम और उस पर होने वाली आमदनी को कर विभाग से छिपाने के प्रयास में कानून की गिरफ्त में आये थे। सोचता हूँ कि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की टक्कर पर कहीं अमेरिका स्वाभिमान ट्रस्ट न शुरू हो जाये।
श्री लक्ष्मी जी सदा सहाय नमः॥
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इस्पात नगरी से - सम्बन्धित कड़ियाँ
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श्री गणेशाय नमः।
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की ताज़ी पोस्ट "डिसऑनेस्टतम समय" ने अपने पाठकों को काफी कुछ सोचने को मजबूर किया है। पांडेय जी के अधिकांश अवलोकनों और निष्कर्षों से असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं है। विशेषकर, जब वे कहते हैं कि "और तो बाहरी लोगों को लूटते हैं। ये घर को लूट रहे हैं। ऑनेस्टी पैरों तले कुचली जा रही है। ... ईमानदारी अब सामाजिक चरित्र नहीं है।"
उनकी इस पोस्ट ने नई-पुरानी कई बातें याद दिलाईं। दिल्ली में किसी आटोरिक्शा के पीछे लिखा देखा था:
100 में निन्यानवे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान!
स्कूल में एक सहपाठी को अक्सर कहते सुना था, "जो पकडा गया वह चोर! मतलब यह कि (हमारे देश में) चोर तो सभी हैं, कोई-कोई पकड में आ जाता है।"
नादिर शाह का ध्वज |
पार्किंग में, आटो, टैक्सी आदि के किराये में बेईमानी मिलना तो आम बात है ही। दिल्ली में मैंने कितनी ही बार महंगी कार में बैठे सूट्बूटक नौजवानों को पास से गुज़रते ठंडे पेय के खुले ट्रक से बोतलें चुराते देखा है। एक ज़माने में अक्सर यह खबर सुनने में आती थी कि कोई प्रसिद्ध भारतीय अपनी विदेश यात्रा के दौरान किसी डिपार्टमेंटल स्टोर में चोरी करते हुए पकडा गया। मतलब यह कि धन-धान्य से भरपूर भारतीय मन भी बिना निगरानी का माल देखकर डोल ही जाता था। बेचारे मासूमों को यह नहीं पता होता था कि चोर कैमरे उनकी चोरी को रिकॉर्ड कर रहे होते थे।
जब विवेक कुन्द्रा के ओबामा के कम्प्यूटर सलाहकार बनने की खबर आयी थी तो भारतीय समुदाय बडा प्रसन्न हुआ था। कुछ ही दिनों में खबर आ गयी कि एक दशक पहले 21 वर्ष की आयु में कुन्द्रा जी "जे सी पैनी" स्टोर से कुछ कमीज़ें चुराते हुए पकडे गये थे। उनकी सज़ा: कमीज़ों का मूल्य, 100 डॉलर दण्ड और 80 घंटे की समुदाय सेवा। [पूरी खबर पढने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये।]
लेकिन ताज़ी खबर इन सब छोटी-मोटी खबरों का बाप है। डेलावेयर में अंडर कवर एजेंटों ने भारतीय मूल के एक इलेक्ट्रॉनिक्स डीलर को एक स्टिंग ऑपरेशन द्वारा पकडा गया है। हथियारों के ईरानी दलाल आमिर अर्देबिल्ली को प्रतिबन्धित उपकरण (सैन्य इस्तेमाल में आने वाले माइक्रोवेव रेडियो) बेचने के आरोप को स्वीकार करके विक्रमादित्य सिंह ने अपनी सज़ा को 6 मास की नज़रबन्दी और एक लाख डॉलर के ज़ुर्माने तक सीमित कर दिया। सज़ा पूरी होने पर उन्हें देशनिकाला देकर भारत भेज दिया जायेगा।
वैसे तो खबर में ऐसा कुछ खास न दिखे परंतु 34 वर्षीय विक्रमादित्य सिंह राष्ट्रीय लोक दल के अमेरिका-शिक्षित अध्यक्ष और किसान नेता अजित सिंह के दामाद हैं। यदि निर्वासन के बाद वे सक्रिय राजनीति में आयें और अपने ससुर द्वारा मांगे जा रहे भविष्य के हरित प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो क्या आपको आश्चर्य होगा?
कुछ साल पहले एक भारतीय कार डीलर कर चोरी के लिये बहियों में हेरफेर करते हुए पकडे गये थे। पिछ्ले दिनों बॉस्टन के एक भारतीय व्यवसायी भारत के बैंकों में भेजी भारी रकम और उस पर होने वाली आमदनी को कर विभाग से छिपाने के प्रयास में कानून की गिरफ्त में आये थे। सोचता हूँ कि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की टक्कर पर कहीं अमेरिका स्वाभिमान ट्रस्ट न शुरू हो जाये।
श्री लक्ष्मी जी सदा सहाय नमः॥
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इस्पात नगरी से - सम्बन्धित कड़ियाँ
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Sunday, March 6, 2011
बबल्स कुमार (मार्च 2009 - फरवरी 2011)
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न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
जून 2010 में जब मैंने "श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं" लिखा था, तब यह अहसास नहीं था कि जल्दी ही बबल्स पर एक और पोस्ट लिखनी पडेगी। सन 2009 में बबल्स हमारे घर आया था। अन्दाज़ यह है कि उसका जन्म मार्च 2009 में हुआ था। 13 फरवरी की शाम को उसने अपनी नश्वर देह त्याग दी।
(चित्रों में: बबल्स की अंतिम आरामगाह के दो दृश्य। खुश रहे तू सदा ...)
इसी बीच में हमारे पडोसी की बिल्ली मौली की एक आंख को किसी शरारती बच्चे ने रबड की गोली से आहत कर दिया है। इन्हीं दो घटनाओं की गूंज अभी मन में है। कुछ दिनों के अवकाश के बाद आज फिर थोडी बर्फ गिरी है। बबल्स के बारे में पिछली चित्रमयी पोस्ट पढने के इच्छुकों के लिये:
श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
जून 2010 में जब मैंने "श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं" लिखा था, तब यह अहसास नहीं था कि जल्दी ही बबल्स पर एक और पोस्ट लिखनी पडेगी। सन 2009 में बबल्स हमारे घर आया था। अन्दाज़ यह है कि उसका जन्म मार्च 2009 में हुआ था। 13 फरवरी की शाम को उसने अपनी नश्वर देह त्याग दी।
बबल्स (कुमार) शर्मा (2009-2011) |
इसी बीच में हमारे पडोसी की बिल्ली मौली की एक आंख को किसी शरारती बच्चे ने रबड की गोली से आहत कर दिया है। इन्हीं दो घटनाओं की गूंज अभी मन में है। कुछ दिनों के अवकाश के बाद आज फिर थोडी बर्फ गिरी है। बबल्स के बारे में पिछली चित्रमयी पोस्ट पढने के इच्छुकों के लिये:
श्रीमान बबल्स कुमार की अदाएं
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा Photos by Anurag Sharma]
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