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Thursday, November 27, 2025

❤️ जीवन को भरपूर जिया, खुश हो कर हर पल ❤️

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

बचपन से तूफ़ानी लहरों में उतरने लगा था,
घबराया जब भँवर में जीवन ठहरने लगा था।
लहरें दुश्मन, तैरना आता नहीं, डूबने को आया,
उस बहाव से ही, मैंने जीने का प्रण अपनाया।

रातों जागकर भी कोई किताब रास न आई, 
ठोकरें खूब लगीं, सफलता पास न आई।
शाला में पिछड़ा, मिला असफलता का उपहार,
अपनों की आँखों में देखी, निराशा और हार। 

दोस्तों पर विश्वास कर धन भी लुटाया,
बुद्ध संसार ने जमकर मुझे बुद्धू बनाया।
साँप-सियारों के जंगलराज में कोई कैसे रहे?
फिर भी रखा दिल साफ़, ज़माना जो चाहे कहे।

बेइंतहा मोहब्बत कर जब आँख बंद की थी, 
प्रेमिल कसमें खानेवालों ने ही विषपुटी दे दी थी। 
तकिया भीगता है, जब यादों की बाढ़ आती है,
आँसू नहीं गिनता, लेकिन पीड़ा भी कुछ सिखाती है।

जब-जब चैकमेट मिली, तब-तब अहंकार टूटा था,
शतरंज के राजा ने समझा, जीने का हर दाँव झूठा था।
कै़रम में रानी नहीं आती, पर फ़ाउल हो जाता है,
फिर भी मुस्कुराकर, मन अगली बारी में लग जाता है।

जानता हूँ ये सब हार नहीं हैं, ये मेरी जीवन शैली हैं,
फटे-पुराने पत्ते पाकर, हारने वाली बाज़ियाँ खेली हैं।
जीतकर भी अपनों और आदर्शों के लिये जीवन हारा है,
मीरा-सुकरात ने भी तो विष, अमृत समझ स्वीकारा है॥

Sunday, November 23, 2025

ग़ज़ल: आईना मारा गया 🪞

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

दोनों दिल ऐसे मिले, दिल का गिला सारा गया
ये जग हमारा हो गया, मेरा-तिरा सारा गया॥

तेरी वफ़ा ने छू लिया तो ज़ख़्म सारे भर गये
इक तेरे आने से मेरा दर्द-ए-दिल सारा गया॥

रात की तन्हाई में, इक चाँद, कुछ तारे भी थे
तेरे उजाले में मगर, उनका नशा सारा गया॥

इश्क़ के कूचे में हमने, नाम जब तेरा लिया
ग़मज़दा अपना फ़साना, लम्हों में सारा गया॥

रहने की, तेरे दिल के कोने में, लगन ऐसी जगी
हम जहाँ भी रहते थे, वाँ का पता सारा गया॥

बदसूरती पर मेरी जिसको, न ज़रा भी नाज़ था
तेरी नज़र को देखकर, वो आईना सारा गया॥

मैं यहाँ कुछ कर सकूँ, थोड़ी जगह मुझको भी दे
खुद को साबित करने में, मैं सारा का सारा गया॥
***

Friday, October 17, 2025

उलटबाँसी सूरज की

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

सुबह के सूरज की तो 
शान ही अलग है
ऊँचे लम्बे पेड़ों पर

शाम की बुढ़ाती धूप भी
देर तक रहती है मेहरबान
उपेक्षित करके छोटे पौधों को

यह भी कमाल है कि
छोटे पौधे बढ़ सकते थे
काश! धूप उन तक पहुँच पाती।

Sunday, September 14, 2025

चिमनी और चंदा

चिमनी से निकला धुआँ, चंदा सा आकार,
आँख से मानो बह चलीं, यादें बारंबार।

जैसे तूने छोड़ी थीं, ये राहें उस दिन मौन,
वैसे ही चुप चाँदनी, कहे-सुने अब कौन।

नीला अम्बर ओढ़ के, तेरा रूप रचे,
तेरे बिन भी चाँद है, फिर भी मन न बचे।

धूप नहीं, पर शरच्चंद्र से रोशन होती रात,
धवल शांत हो सुन रही, जैसे तेरी बात।

छेड़ रही हैं बदलियाँ, चंदा लेता ओट।
जैसे तेरी गुदगुदी, दिल पर लगती चोट।

Friday, September 12, 2025

प्रहरी की यात्रा - 2

ज़मीन पर नहीं खड़े, जो नभ में उड़े हैं,
साथियों, जीवनसाथियों से भी छले गये हैं,
द्वेष, उपेक्षा और तिरस्कार के तेल में,
जिनके निर्मल हृदय, सतत तले गये हैं।

अनुरोध, सुझाव, सलाह सब धूल हुए,
चिंतन और विश्वास से बनाई योजनाएँ
क्रूरता से तोड़ी, निर्ममता से बिखेरी गईं,
अविश्वास से हारीं, प्रेम की सब कामनाएँ।

कानाफूसी, अफ़वाहें, फिर उपहास हुआ,
कड़वी बातें, घातें, काँटे, भाले खूब चुभे,
स्वजन दूर, घर सूने और द्वार खामोश हुए,
सूनेपन से सूने मन की आशा को तुषार मिला।

संघर्ष और विजय नज़रअंदाज़ होते रहे,
अपवाद बस वही एक शिरोमणि कवच था,
महानायक के उस अंतिम सम्मान में भी,
आदर नहीं, बीमे की रकम का लालच था।

इस कठिन राह पर चलने वाला हर कोई,
जिसने कृतघ्नता का फल जान देकर चुकाया,
उनका मूल्य अवर्णनीय है, चुका नहीं सकते,
माणिक, रत्न, अशर्फ़ी देकर भी रहे बकाया।

Saturday, September 6, 2025

प्रहरी की यात्रा - 1

सूरज उगना भूल गया था,
सन्नाटा चीखों से टूट गया था,
वहाँ गया था वह, कर्तव्य निभाने, 
न सम्मान ढूंढने, न लाभ कमाने।

सज्जन, सैनिक, योद्धा, वह अधिकारी,
जिसकी प्रतिज्ञा थी मौन, लेकिन भारी,
धूसरित राहों में, अनसुनी आहों में,
जहाँ साहस के सिवा मार्गदर्शक कोई न था।

न ताज चाहा, न कवि-वंदना, न वाहवाही,
हिंसा झेली, देखी दुश्मन की आवाजाही।
जहाँ आतंक विष बेलों सा फैला रहा,
और सत्य बारूद के नीचे कुचला रहा।

बगावत जंगल में फुसफुसाती थी,
कट्टरता लहू बहाने को उकसाती थी,
मुण्डों के आसन के तानाशाहों से,
निर्भीक, वह लड़ता रहा, वर्षों तक।

उसका यौवन, एक दीपक अंधेरे में,
मार्गदर्शक रहा, मौत के घेरे में।
हर धड़कन एक प्रहरी की ताल,
हर श्वास एक चुनौती भरा सवाल।

उसने अपना जीवन अर्पित किया
राष्ट्र, मानवता, और परिवार के लिए।
वह लड़ा, कभी झुका नहीं,
वह बहा, कहीं रुका नहीं।

एक टांग पहाड़ों में छूट गई,
आँख, संगीन से टूट गई,
दो हाथ जो मानवता के रक्षक थे,
एक काँपता है, दूसरा नहीं रहा।

जिस कान ने कप्तान की पुकार सुनी,
अब उसमें भूतों की गूँज बची है।
सीने में अब भी युद्ध चलता है,
वह बेबस, अब जंजीरों से बँधा है।

न पेंशन, न बचत की छाया,
सिर्फ खाली कमरों की माया।
अपने नगर में, घर में, बेगाना है,
हर द्वार, व्यक्ति के लिये अनजाना है।

नये अभियान पर भेजा गया
शयनकक्ष से हटाकर बैठक में,
फिर बैठक से भण्डार में,
भण्डार से तहखाने की यात्रा अधूरी थी।

तहखाने से गराज तक,
गराज से फ़ुटपाथ तक,
फ़ुटपाथ से बेघर-शरणालय तक,
यात्रा चली,  सरकारी अस्पताल के बाहर, मृत्यु तक।

नायक मिट गया, कृतघ्न जगत की रीत में,
वह उड़ा, धुआँ बनकर, बेनामी चिता से।
न बिगुल, न ध्वज, न सलामी, अंतिम आहुति में,
मौन दाह, शांत श्मशान, साक्षी - एकल महाब्राह्मण।

Saturday, August 9, 2025

बड़ी क़यामत छोटों की

क़द, रुतबे, या दौलत से
लोग छोटे नहीं होते,
छोटे लोग 
दिल के छोटे होते हैं।

उनकी हर रेवड़ी 
उनके मुँह तक पहुँचती है
उनकी हर दौड़
उनके महल पर रुकती है।

हर काम लेन-देन होता है
जिसमें लेन तो लेन है ही
हर देन भी उम्मीद होती है
एक बड़े लेन की।

छोटे लोग बात भी करते हैं
तो केवल अपने बारे में
उनकी दुनिया वे ही हैं
और अपना ब्रह्माण्ड भी वही।

वे याद दिलाते हैं
आपको टोककर
अपने उस काम की 
जो आपने अभी किया नहीं।

क्योंकि आप मसरूफ़ थे
भीतर तक धँसे हुए थे 
दूसरे कामों के ढेर में
जो सब के सब उन्हीं के थे।
 
लेन-देन उनकी ज़िंदगी है, पर
उन्हें नहीं कोई लेना-देना 
आपकी ज़िंदगी से
क्योंकि आप इंसान नहीं हैं।

उनके लिये आप एक सौदा हैं
पटे तो ठीक
नहीं तो कई और हैं ठौर
मोल-भाव करने को।

मुनाफ़े का सौदा करना
उन्हें खूब आता है
ज़िंदगी भर वही किया है
वही करेंगे क़यामत तक।

Monday, March 31, 2025

खालीपन

नये पहाड़ चढ़ते हैं
सपाट पगडंडियों से 
जो थक चुके हैं
नये व्यंजन पकाते है वे
जो पुरानों से पक चुके हैं
***

जो खुश हैं यथास्थिति से
उन्हें कुछ कमी नहीं
वे कभी उकताते नहीं
नया कुछ बनाते नहीं
ज़रूरत ही पाते नहीं।
***

खालीपन, बंजारापन
अकुलाहट,  आवारापन
शैतान का घर नहीं
सरस्वती का वास है
नवनिर्माण की आस है।
***

बोरियत उदासी नहीं
चयन का अभाव नहीं
उनसे उकताहट है
वर्तमान विकल्पों से कहीं आगे
एक नये क्षितिज की चाहत है।
***

Sunday, April 14, 2024

खिलाते नहीं (हिंदी ग़ज़ल)

अनुराग शर्मा

अनुराग शर्मा

कदम राजपथ से हटाते नहीं
गली में मेरी अब वे आते नहीं।

कहीं सच में आ ही न जाये कोई
किसी को बेमतलब बुलाते नहीं।

अंधेरे में खुश नापसंद रोशनी 
खिड़की से परदा उठाते नहीं।

नहीं होने देंगे कसक में कमी
घावों को दिल से मिटाते नहीं।

जो बातें हुईं और न होंगी कभी
उन्हें भी कभी भूल पाते नहीं।

भावुक बहुत हैं कृपालु नहीं
कभी भाव अपना गिराते नहीं।

उसूलों के पक्के सदा से रहे
खाते बहुत हैं, खिलाते नहीं॥

Saturday, March 30, 2024

हमसे छिपाते हैं (हिंदी ग़ज़ल)

अनुराग शर्मा

अनुराग शर्मा


दुनिया को जताते हैं, पर हमसे छिपाते हैं
इल्ज़ाम-ए-तोताचश्मी हमपर ही लगाते हैं।

आती हवा का झोंका, उन्हें छूके हमको छू ले
वो इतने भर से हम पर अहसान जताते हैं।

सारा जहाँ हमारा, है जिनका सबसे वादा 
बन ईद का वो चंदा बस मुझको सताते हैं।

पुल सबके लिए बनते दीवार मेरी जानिब 
दिल मेरा सरे बाज़ार, क्यूँ इतना दुखाते हैं।

मेरे लिये वो मोती, हम उनके लिये मिट्टी 
उनके लिये ही अपना, हम भाव गिराते हैं।

फिर भी कहीं कभी जो, अटकेगा काम कोई 
दम घुटने लगे मेरा, प्यार इतना लुटाते हैं।

चाहें तो अभी ले लें, चाहें तो बख्श दें सर
यह जान जिनपे हाज़िर, वो जान न पाते हैं॥

Thursday, March 21, 2024

विश्व काव्य दिवस की शुभकामनाएँ!

चंद्रमा, आज रात

हम अच्छे हैं

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

अच्छा है
सब अच्छा होगा
क्योंकि हम अच्छे हैं
सब कुछ अच्छा रहा हमारा
क्योंकि हम सब अच्छे हैं
हमारे माता-पिता, भाई-भतीजे, सब अच्छे हैं
हमारे कपड़े, गाड़ी, गहने, बाड़ी, 
फ़ौजदारी, ज़मींदारी
बोले तो, सब कुछ बहुत अच्छा है
समस्या हमारे बाहर है
समस्या हमारे घर के बाहर है
समस्या हमारे जाति-सम्प्रदाय-देश-भाषा के बाहर है
समस्या दूसरी ओर की है
अपने से भिन्न, दूसरे लोगों की है
जिनके तौर-तरीके, खाना-पीना, ओढ़ना-बैठना
सब हमसे भिन्न हैं
शेख बिरहमन मुल्ला पाँड़े
पारसी यहूदी सिख ईसाई
जैन बौद्ध कामरेड कसाई
वे कोई भी हो सकते हैं
जिनके माँ-बाप, हमारे पुरखों जैसे सर्वगुण-सम्पन्न नहीं
और जिनका वर्तमान हमारे वर्तमान सा समृद्ध नहीं
और जिनका भविष्य हमारे बच्चों सा सुनहरा नहीं...
जिनके पास ज़मीन, लाठी, मुनाफ़ा, कैपिटेशन, डोनेशन, रिज़र्वेशन तो दूर
आशा की किरण तक नहीं है
जो पराये हैं अपने देश में
बेदरो-दीवार हैं अपने गाँव-कस्बे में
बेघर हैं अपने घर में
हमसे बर्दाश्त नहीं होते ऐसे लोग
चिंता है 
कि ये भिनकती हुई मधुमक्खियाँ
हमारे शहद के ढेर को दूषित न कर दें
ये चूज़े, ये चिड़ियाँ
तोड़ न दें हमारे बाज़ों को 
ये बंदर-भालू
जला न दें हमारी सोने की लंका
लार टपकाते ये वंचित-दलित
नज़र न लगा दें
हमारे ट्रैक्टर, बीएमडब्ल्यू, लैंडरोवर पर
हमारे खेत, खलिहान, गोदाम, महल-अट्टालिका पर
हमारे संचित धन पर।
हमारी जान को खतरा है
हमारी पहचान को खतरा है।
युद्ध से पहले संधि चाहिये
बाड़ के लिये समझौता ज़रूरी है
आतंकवाद की आड़ के लिये
समझौता एक्सप्रेस भी ज़रूरी है
फाँसी से पहले अहिंसा ज़रूरी है
क्रांति से पहले शांति ज़रूरी है
आज़ादी से पहले, विभाजन ज़रूरी है
बुतपरस्ती की नापाकी मिटाकर ज़मीन पाक करना ज़रूरी है,
पाकिस्तान ज़रूरी है।
उनके ग्रंथों में लिखी हैं, 
क्रूसेड की बात, जिहाद की बात, धर्मयुद्ध की बात
कर्म के फल की बात
क़यामत की बातें, आखिरत की बातें, प्रलय की बातें
ऐसी किसी भी प्रलय की आशंका से पहले
उनकी विचारधारा का, उनकी संस्कृति का 
उनके ग्रंथों का, उनके पुस्तकालयों का खात्मा ज़रूरी है।
उनका खात्मा ज़रूरी है।
हमारे अलावा, हमारे जैसों के अलावा हर किसी का 
खात्मा बहुत ज़रूरी है।
उसके बाद बस हम रहेंगे
सबसे अच्छे
इसलिये
सब अच्छा होगा
बहुत अच्छा होगा।
क्योंकि हम अच्छे हैं
हम सबसे अच्छे हैं
हमारे माता-पिता, भाई-भतीजे, नाते-रिश्तेदार, 
सब अच्छे हैं।
***

विश्व काव्य दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ! 
World Poetry Day was established by the United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization (UNESCO) during its 30th General Conference in Paris in 1999. It is celebrated on March 21st.

Tuesday, June 13, 2023

बेगाने इस शहर में

(अनुराग शर्मा)

बाग़-बगीचे, ताल-तलैया
लहड़ू, इक्का, नाव ले गये

घर, आंगन, ओसारे सारे
खेत, चौपालें, गाँव ले गये

कुत्ते, घोड़ा, गाय, बकरियाँ
पीपल, बरगद छाँव ले गये

रोटी छीनी, पानी लीला
भेजा, हाथ और पाँव ले गये

चौक-चौक वे भीख मांगते
जिनकी कुटिया, ठाँव ले गये

Tuesday, May 23, 2023

बीती को बिसार के...

(अनुराग शर्मा)

कुछ अहसान जताते बीती
और कुछ हमें सताते बीती

चाह रही फूलों की लेकिन
किस्मत दंश चुभाते बीती

जिन साँपों ने डसा निरंतर
उनको दूध पिलाते बीती

आस निरास की पींगें लेती
उम्र यूँ धोखे खाते बीती

खुल के बात नहीं हो पाई
ज़िंदगी भेद छुपाते बीती

जिनको याद कभी न आये
उनकी याद दिलाते बीती॥

Saturday, July 9, 2022

काव्य: भाव-बेभाव

(अनुराग शर्मा)

प्रेम तुम समझे नहीं, तो हम बताते भी तो क्या
थे रक़ीबों से घिरे तुम, हम बुलाते भी तो क्या 

वस्ल के क़िस्से ही सारे, नींद अपनी ले गये
विरह के सपने तुम्हारे, फिर डराते भी तो क्या

जो कहा, या जैसा समझा, वह कभी तुम थे नहीं
नक़्शा-ए-बुत-ए-काफ़िर, हम बनाते भी तो क्या

भावनाओं के भँवर में, हम फँसे, तुम तीर पर
बिक गये बेभाव जो, क़ीमत चुकाते भी तो क्या

अनुराग है तुमने कहा, पर प्रीत दिल में थी नहीं
हम किसी अहसान की, बोली लगाते भी तो क्या

Tuesday, June 21, 2022

महाकवियों के बीच हम


हे खुले केश वाली तरुणी क्यूँ दिखती हो यूँ उदास प्रिये
आके छत पे तुम बैठ गयीं 
क्यूँ छोड़ के सारी आस प्रिये

इस छत पर है दीवार नहीं पर निष्ठुर यह संसार नहीं
मुस्कान तुम्हारी 
लाखों की,  हो चिंता से दो-चार नहीं

यदि केश तुम्हारे सूख गये तो चलो कलेवा कर लो तुम
शुभ दिन की शुरुआत करो मत बैठो ऐसे यूँ गुमसुम

(ए आई विस्तार, अंत में) 

***

एक मित्र ने वाट्सऐप पर निम्न टिप्पणी भेजी तो उपर्युक्त पंक्तियाँ स्वतः फूट पड़ीं

एक नवयुवती जब छज्जे पर बैठी  है। केश खुले हुए हैं और चेहरे को देखकर लगता है कि वह उदास है। उसकी मुख मुद्रा देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है। विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते...

😀😀😀😀😀😀😀😀😀

मैथिली शरण गुप्त

अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो 
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो ? 
धीरज धरो संसार में, किसके नहीं है दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।😀


काका हाथरसी

गोरी बैठी छत पर, कूदन को तैयार 
नीचे पक्का फर्श है, भली करे करतार 
भली करे करतार, न दे दे कोई धक्का 
ऊपर मोटी नार, नीचे पतरे कक्का 
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ना 
उधर कूदना मेरे ऊपर मत गिर पड़ना।😊


गुलजार

वो बरसों पुरानी इमारत 
शायद 
आज कुछ गुफ्तगू करना चाहती थी 
कई सदियों से 
उसकी छत से कोई कूदा नहीं था।
और आज 
उस 
तंग हालात 
परेशां
स्याह आँखों वाली 
उस लड़की ने
इमारत के सफ़े 
जैसे खोल ही दिए
आज फिर कुछ बात होगी 
सुना है इमारत खुश बहुत है...😀


हरिवंश राय बच्चन

किस उलझन से क्षुब्ध आज 
निश्चय यह तुमने कर डाला
घर चौखट को छोड़ त्याग
चढ़ बैठी तुम चौथा माला
अभी समय है, जीवन सुरभित
पान करो इस का बाला
ऐसे कूद के मरने पर तो
नहीं मिलेगी मधुशाला 😊


प्रसून जोशी

जिंदगी को तोड़ कर 
मरोड़ कर 
गुल्लकों को फोड़ कर 
क्या हुआ जो जा रही हो 
सोहबतों को छोड़ कर 😄


रहीम

रहिमन कभउँ न फांदिये, छत ऊपर दीवार 
हल छूटे जो जन गिरि, फूटै और कपार 😀


तुलसी

छत चढ़ नारी उदासी कोप व्रत धारी 
कूद ना जा री दुखीयारी
सैन्य समेत अबहिन आवत होइहैं रघुरारी 😟


कबीर

कबीरा देखि दुःख आपने, कूदिंह छत से नार 
तापे संकट ना कटे , खुले नरक का द्वार'' 😃


श्याम नारायण पांडे

ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी 
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी 
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से 
मान से, गुमान से, मत गिरो मकान से 
तुम डगर पे मत गिरो, तुम नगर पे मत गिरो
तुम कहीं अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।😃


गोपाल दास नीरज

हो न उदास रूपसी, तू मुस्काती जा
मौत में भी जिन्दगी के कुछ फूल खिलाती जा
जाना तो हर एक को है, एक दिन जहान से
जाते जाते मेरा, एक गीत गुनगुनाती जा 😀


राम कुमार वर्मा

हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बाट मत जोहो।
जानता हूँ इस जगत का
खो चुकि हो चाव अब तुम
और चढ़ के छत पे भरसक
खा चुकि हो ताव अब तुम
उसके उर के भार को समझो।
जीवन के उपहार को तुम ज़ाया ना खोहो,
हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बाँट मत जोहो।😀


हनी सिंह

कूद जा डार्लिंग क्या रखा है 
जिंजर चाय बनाने में 
यो यो की तो सीडी बज री 
डिस्को में हरयाणे में 
रोना धोना बंद कर
कर ले डांस हनी के गाने में 
रॉक एंड रोल करेंगे कुड़िये 
फार्म हाउस के तहखाने में..

😄😄😄😄😄😄😄😄😄

5 मिनट के बाद वह उठी और बोली, "चलो बाल तो सूख गए अब चल के नाश्ता कर लेती हूँ।"

🙏 हिन्दी प्रेमियों के लिए 🙏

🌸ऐसा आनंद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं है🌸
***
ए आई विस्तार
छोड़ो उलझनें नारी तू खुशियों का गीत गाओ दिल से मिटा दो सब गम हंसते गीत सुनाओ रात का चाँद है साथी सितारे आसमान में खूबसूरत तुम्हारी मुस्कान प्यारी है गुज़रे पल हैं अनमोल हवा भी कहती है कुछ तो जिंदगी में रंग भरो रोज नया सूरज निकलेगा मुस्कान से दिन को संजो उठो ताजगी से दिन शुरू हर सुबह को सलाम करो हर धड़कन को पहचानो जिंदगी को गुलज़ार करो

Saturday, July 31, 2021

काव्य: वफ़ा

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

वफ़ा ज्यूँ हमने निभायी, कोई निभाये क्यूँ
किसी के ताने पे दुनिया को छोड़ जाये क्यूँ॥

कराह आह-ओ-फ़ुग़ाँ न कभी जो सुन पाया
ग़रज़ पे अपनी वो फिर-फिर हमें बुलाये क्यूँ॥

सही-ग़लत की हमें है तमीज़ जानेमन
न करें क्या, या करें क्या, कोई बताये क्यूँ॥

झुलस रहा है बदन, पर दिमाग़ ठंडा है
जो आग दिल में लगी हमनवा बुझाये क्यूँ॥

थे हमसफ़र तो बात और हुआ करती थी
वो दिल्लगी से हमें अब भला सताये क्यूँ॥

जो बार-बार हमें छोड़ बिछड़ जाते थे 
वो बार-बार मेरे दर पे अब भी आयें क्यूँ॥

वफ़ा ज्यूँ हमने निभायी, कोई निभाये क्यूँ
किसी के ताने पे दुनिया को छोड़ जाये क्यूँ॥
***

Sunday, July 18, 2021

एकाकी कोना

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

मन में इक सूना कोना है
जिसमें छिप-छिपके रोना है
अपनी पीर सम्भालो आप ही
कहके किससे क्या होना है॥

गलियों-गलियों फिरता मारा
रात विवश और दिन बेचारा
जागृत मनवा चैन न पाता
भाग्य में अपने कब सोना है॥

ग़र्द-गुबार और छींटें गंदी
इधर-उधर से हम पर पड़तीं
दुनिया धोने निकले थे अब 
तन-मन अपना ही धोना है॥ 

सीमित रिश्ते सतही नाते
खुद से बाहर सोच न पाते
जीते जी जिससे भी मिल लो
शव अपना खुद ही ढोना है॥

सुख आभासी दुःख आभासी
जीवन माया, या बस छाया
जो भी मिला इसी जीवन का
अपना क्या था जो खोना है॥

Saturday, July 17, 2021

कविता: मुक्ति

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


जीवन को रेहन रखा था
स्वार्थी लालों के तालों में॥

निर्मल अमृत व्यर्थ बहाया
सीमित तालों या नालों में॥

परपीड़क हर ओर मिले पर
जगह मिली न दिलवालों में॥

अब जब इतना बोध हो गया
सोच रहा मैं किस पथ जाऊँ॥ 

स्वाद उठाऊँ जीवन का
या मुक्तमना छुटकारा पाऊँ॥

धरती उठा उधर रख दूँ या
चल दूँ खिसके मतवालों में॥

चलूँ चाल न अपनी लेकिन
न उलझूँ ठगिनी चालों में॥

Friday, April 16, 2021

प्रेम के हैं रूप कितने (अनुराग शर्मा)

तोड़ता भी, जोड़ता भी, मोड़ता भी प्रेम है,
मेल को है आतुर और छोड़ता भी प्रेम है॥

एकल वार्ता और काव्यपाठ, साढ़े सात मिनट की ऑडियो क्लिप
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काव्य तरंग || असीम विस्तार



Sunday, February 7, 2021

कविता: निर्वाण

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


अंधकार से प्रकट हुए हैं
अंधकार में खो जायेंगे

बिखरे मोती रंग-बिरंगे
इक माला में पो जायेंगे

इतने दिन से जगे हुए हम
थक कर यूँ ही सो जायेंगे

देख हमें जो हँसते हैं वे
हमें न पाकर रो जायेंगे

रहे अधूरे-आधे अब तक
इक दिन पूरे हो जायेंगे॥