Tuesday, April 20, 2010

एक और इंसान - कहानी समापन

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा:
साढ़े चार के करीब माहेश्वरी सिगरेट पीने बाहर आया तो मुझे भी बाहर बुला लिया। लगभग उसी समय फटी बनियान और जांघिये में वह अधबूढ़ा आदमी हाथ फैलाये अन्दर आया था। अब आगे [अंतिम कड़ी]...

***
“कुछ पैसे मिल जाते साहब ...” उसने रिरियाते हुए कहा।

“बहादुर! इसे कुछ खाने को दे दो।”

मेरी आवाज़ सुनते ही बहादुर आ गया। आगंतुक अपनी जगह से हिला भी नहीं।

“मेरा पेट तो न कभी भरा है साहब, न ही भरेगा” उसका दार्शनिक अंदाज़ अप्रत्याशित था।

“तो चाय पिएगा क्या? पैसे नहीं मिलने वाले यहाँ” मैंने रुखाई से कहा।

“आजकल तो चा की प्याली का मोल भी एक गरीब की ज़िन्दगी से ज़्यादा है साहब!”

अब मैंने उसे गौर से देखा। जुगुप्सा हुई। आँख में कीचड और नाक में गेजुए। चेहरे पर मैल न जाने कब से ऐसे घर बनाकर बैठा था कि झुर्रियों के बीच की सिलवटें उस धूल, मिट्टी और कीचड से सिली हुई मालूम होती थीं। सर पर उलझे बेतरतीब बाल। एक नज़र देखने पर बहुत बूढा सा लगा मगर सर के बाल बिलकुल काले थे। ध्यान से देखने पर लगा कि शायद मेरा सम-वयस्क ही रहा होगा। मैं उसे ज़्यादा देर तक देख न सका। उसके आने की वजह पूछी।

“खिल्लू दम्भार मर गया साहब!" उसने मरघट सी सहजता से कहा, "बहुत दिन से बीमार था। कफ़न के लिए पैसे मांग रहा हूँ।”

उसने खिल्लू दम्भार के बारे में ऐसे बताया मानो सारी दुनिया उसे जानती हो। मुझे मृतक के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। मैंने पूछना चाहा कि मृतक का उससे क्या रिश्ता था, वह कहाँ रहता था, उसके परिवार में कौन-कौन था। मगर फिर मन में आया कि यदि यह आदमी भी सिर्फ पैसे ऐंठने आया होगा तो कुछ न कुछ सच-झूठ बोल ही देगा। मैंने बटुआ खोलकर देखा तो उसमें पूरे एक सौ पैंतालीस रुपये बचे थे। मैंने तीस रुपये सामने मेज़ पर रख दिए। मेरी देखा-देखी माहेश्वरी ने भी दस का एक नोट सामने रखा। उस अधबूढ़े ने नोट उठाकर अपनी अंटी में खोंस लिए और लंगड़ाता सा बाहर निकल गया। कुणाल जो अब तक अन्दर अपने क्यूब में बैठा सारा दृश्य देख रहा था, बाहर आया और हंसता हुआ बोला, “दानवीर कर्ण की जय हो।”

“बन्दे की दो दिन की दारू का इंतजाम हो गया फ्री-फंड में।”

बात हँसी में टल गयी। हम लोग फिर से काम में लग गए।

आज काम भी बहुत था। काम पूरा हुआ तो घड़ी देखी। साढ़े छः बज गए थे। दस मिनट भी और रुकने का मतलब था, आख़िरी बस छूट जाना। जल्दी से अपना थैला उठाया और बाहर निकला। लगभग दौड़ता हुआ सा बस स्टॉप की तरफ चलने लगा। यह क्या? यह लोग सड़क किनारे क्या कर रहे हैं? शायद कोई दुर्घटना हुई है। यह तो सफ़ेद कपड़े में ढँकी कोई लाश लग रही है। अरे, लाश के पास तो वही अधबूढ़ा बैठा है। और उसके साथ ये दो लोग? गर्मी के दिन थे इसलिए अभी तक कुछ रोशनी थी। मैं थोड़ा पास पहुँचा तो देखा वह अधबूढ़ा धीरे-धीरे एक जर्जर लाश को झकाझक सफ़ेद कपड़े से ढंकने की कोशिश कर रहा था। दस-बारह साल के दो लड़के उसकी सहायता कर रहे थे। इसका मतलब है कि अधबूढ़ा सच बोल रहा था। मुझे उसके प्रति अपने व्यवहार पर शर्म आयी। मैंने घड़ी देखी। बस आने में अभी थोड़ा समय था। मैंने बटुए में से सौ रुपये का नोट निकाला और लपककर अधबूढ़े के पास पहुँचा।

“तो यह है खिल्लू दम्भार” मैंने नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए शर्मिन्दगी से कहा, “ये कुछ और पैसे रख लो काम आयेंगे।”

“नहीं साहब, पैसे तो पूरे हो गए हैं ... मैं और मेरे लड़के मिलाकर तीन लोग हैं।.” उसने अपना काम करते-करते विरक्त भाव से कहा।

“पैसे नहीं ... बस एक इंसान और मिल जाता साहब ...” उसने बहुत दीन स्वर में कहा, “... तो चारों कंधे देकर इसे घाट तक लगा आते।”

[समाप्त]

Monday, April 19, 2010

एक और इंसान - कहानी (भाग २)

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि दिल्ली में मैं किस तरह ठगा गया था. अब आगे पढ़ें.

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आधे घंटे में मैं दफ्तर पहुँच गया। चाय का कप रखते हुए बहादुर ने खाने के लिए पूछा तो मैंने बताया कि मैं ब्रांच में खाकर आया हूँ। कुछ ही देर में गफ़ूर भी वापस आ गया। दस रुपये मेरी मेज़ पर रखता हुआ बोला, “ये बचे हैं सर।”

मेरे अंदाज़े से गफ़ूर को कुछ और पैसे वापस करने चाहिए थे। मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा तो बोला, “सर, उसे बरेली नहीं रायबरेली जाना था। टिकट, और मेरा आना-जाना मिलाकर बस यही बचा है।”

“यह भी तुम्ही रख लो, काम आयेगा”

गफ़ूर खुशी-खुशी दस का नोट लेकर बाहर चला गया। उसे वापस आने में जितना समय लगा था उससे साफ़ था कि उसने आते जाते दोनों बार बस ही ली है। रायबरेली का फास्ट बस का किराया जोड़ने पर भी उसके पास मेरे दिए पैसे में से कम से कम पचास रुपये बचने चाहिए थे।

मैं सोचने लगा कि क्या दूसरों को बेवकूफ़ बनाकर पैसे ऐंठना इंसान का स्वाभाविक गुण है। क्या यह मांगने वाले और इन्हें बेरुखी से झिड़कने वाले सब लोग सामान्य हैं और मैं ही असामान्य हूँ। मुझे याद आया जब बचपन में एक बार मैंने पिताजी से पूछा था, “पापा, सनकी कौन होते हैं? ”

“सनकी?” पिताजी ने हँसते हुए कहा था, “मतलब हम जैसे लोग।”

फिर समझाते हुए बोले थे, “जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"

आज के अनुभव से मुझे एक बार फिर ऐसा लगा जैसे देश भर में हर तरफ या तो भिखारी हैं या लुटेरे हैं। मुझे ध्यान आया कि आधुनिक भिक्षुकों को भीख मांगने के लिए मैले कपड़े पहनने की ज़रुरत भी नहीं है।

एक दिन साफ़-सुथरे कपड़ों में सजे संवरे बालों वाला एक पढ़ा लिखा अधेड़ गफ़ूर के रोकते रोकते अन्दर आ गया। अपनी जेब कटने का दुखड़ा रोते हुए उसने बताया कि वह सोनीपत में बिजली विभाग में काम करता है। सरकारी काम से यहाँ आया था। वापस जा रहा था रास्ते में जेब कट गयी। परिचय पत्र, रेल का पास, और सारे पैसे चले गए। मैंने बहादुर से कहकर उसे खाना खिलाया और वापसी लायक पैसे देकर रवाना किया। जाने से पहले उसने अंग्रेज़ी में शुक्रिया अदा करते हुए मेरा नाम पता एक पर्ची पर लिख लिया और बहुत शर्मिन्दा स्वर में घर पहुँचते ही पैसे मनी आर्डर से भेजने का वायदा किया। चार हफ्ते गुज़र गए हैं कोई मनी आर्डर नहीं आया। पैसे न मिलने से मुझे फर्क नहीं पड़ता मगर बेवकूफ़ बनने का मलाल तो होता ही है। तो क्या मैं अनजान लोगों की सहायता करना बंद कर दूं? नहीं! क्या पता कब किसी को सचमुच ही ज़रुरत हो? अगर सनकी लोग भी स्वार्थी हो जायेंगे तो फिर तो दुनिया का काम ही रुक जाएगा।

साढ़े चार के करीब माहेश्वरी सिगरेट पीने बाहर आया तो मुझे भी बाहर बुला लिया। लगभग उसी समय फटी बनियान और जांघिये में वह अधबूढ़ा आदमी हाथ फैलाये अन्दर आया था।
[क्रमशः]

Sunday, April 18, 2010

एक और इंसान - कहानी

भारत में रहते हुए हम सब गरीबी और भिक्षावृत्ति से दो-चार होते रहे हैं. पहले कभी वर्षा के ब्लॉग पर कभी इसी बाबत एक लेख पढ़ा था, "बात पैसों की नहीं है". वर्षा ने उस लेख में सामान्यजन की दुविधा और मनस्थिति का अच्छा वर्णन किया था. लगभग उन्हीं दिनों मैंने भिखारिओं पर दिल्ली-प्रवास के अपने अनुभवों को एक कहानी का रूप दिया था जो बाद में आत्माराम जी के अनुग्रह से गर्भनाल में आयी. जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. बताइये कैसा रहा यह प्रयास.

एक और इंसान

“खिल्लू दम्भार मर गया साहब!”

अधबूढ़े का यह वाक्य अभी भी मेरे कानों में गूंज रहा है। वैसे तो मेरे काम में सारे दिन ही कठिन होते हैं मगर आज की बात न पूछो। आज का दिन कुछ ज़्यादा ही अजीब था। सारा दिन मैं अजीब-अजीब लोगों से दो-चार होता रहा। सुबह दफ्तर पहुँचते ही मैले कुचैले कपड़े वाला एक आदमी एक गठ्ठर में सूट के कपड़े लेकर बेचने आया। दाम तो कम ही लग रहे थे। मगर जब उसने बड़ी शान से उनके सस्ते दाम का कारण उनका चोरी का होना बताया तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने पुलिस बुलाने की बात की तो वह कुछ बड़बड़ाता हुआ तुरंत रफू चक्कर हो गया।

वह आदमी गया ही होगा कि डेढ़ हाथ का घूंघट काढ़े एक औरत एक-डेढ़ बरस के बच्चे को गोद में लिए हुए तेज़ी से अन्दर आने लगी। दरवाज़े पर बैठे गफ़ूर ने उसको रोकने की कोशिश की तो वह रोने लगी। मैंने बाहर आकर पूछा तो उसने बताया कि उसे बरेली जाना है और उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं हैं। जब मैंने पूछा कि वह दिल्ली कैसे पहुँची और बच्चे का बाप कहाँ है तो वह फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। सुबह की पहली चाय लाते हुए कैंटीन वाले बहादुर ने जब एक कप उसकी ओर बढ़ाया तो उसने झपटकर ले लिया और जोर की आवाज़ के साथ जल्दी-जल्दी चाय सुड़कनी शुरू कर दी। शायद उसे भूखा समझकर बहादुर एक प्याली में कुछ रस्क ले आया जो उसने चाय में भिगो-भिगोकर स्वाद लेकर खाए। बच्चा आराम से गोद में सोता रहा। मैं उस औरत की सहायता करना चाहता था मगर पहले इतनी बार ठगा जा चुका था कि अब मैं किसी अनजान को नकद पैसे हाथ में नहीं देता हूँ। मैंने गफ़ूर को अलग ले जाकर उसे दो सौ रुपये देकर उस औरत के साथ बस अड्डे जाकर टिकट खरीदकर बरेली की बस में बिठाने को कहा। फिर बाहर आकर उस औरत को राहखर्च के लिए पचास रुपये अलग से देकर सब समझा दिया। मुझे नेहरू प्लेस ब्रांच-विज़िट के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं उस औरत की ज़िम्मेदारी गफ़ूर पर छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गया।

नेहरू प्लेस में सब काम ठीक से निबट गया। ब्रांच में अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला और खाना उनके साथ ही खाया। वापसी के लिए ऑटोरिक्शा लेकर उसमें बैठा। अगले चौराहे तक पहुँचा ही था कि ट्रैफिक की बत्ती लाल हो गयी। तभी बंजारन सी दिखने वाली दो भिखारिनें मेरे पास आयीं। मैं सोचने लगा कि जब तक हमारी राजधानी की सड़कें आवारा गायों और भिखारियों से पटी रहेंगी तब तक न तो इन सड़कों पर वाहन चल पायेंगे और न ही खाते-पीते लोग गरीबों को इंसान समझ सकेंगे। मुझे कभी समझ नहीं आया कि यह भिखारी लोग सैकड़ों लोगों की भीड़ में से एक नरमदिल इंसान को कैसे पहचान लेते हैं। इस बार मैंने भी दिल कड़ा कर लिया था। उनके पास आते ही मैंने उनकी ओर देखे बिना बेरुखी से कहा, “माफ़ करो, छुट्टा नहीं है मेरे पास।”

“मदद कर दो बाबूजी, उसे बच्चा होने को है, लेडी हार्डिंग अस्पताल ले जाना है, वरना मर जायेगी।”

कहते-कहते उसने सड़क के किनारे बैठी हुई एक अल्प-वसना युवती की ओर इशारा किया जिसके खुले पेट को देखते ही उसकी गर्भावस्था का पता लग रहा था। सड़क किनारे अधलेटी वह युवती ऐसे कराह रही थी मानो अत्यधिक पीड़ा में हो। उसे देखते ही मेरे मन में अपने सहकर्मी कुणाल का स्वर गूंजा, “तुझे तो कोई भी कभी भी बेवकूफ़ बना सकता है।”

मेरे दिमाग ने तेज़ी से काम करना शुरू किया और मैंने अपने ऑटो-रिक्शा ड्राइवर से इसरार किया कि अगर वह इन स्त्रियों को लेडी हार्डिंग अस्पताल तक ले जाए तो मैं उसे उनका किराया अग्रिम देकर यहाँ उतर जाउंगा। उसके हामी भरने पर मैंने अंदाज़े से लेडी हार्डिंग तक का किराया बटुए में से निकाला और उन औरतों से कहा कि मैं यहाँ उतर रहा हूँ और वे किराए की फ़िक्र मुझपर छोड़कर इस ऑटो-रिक्शा में अस्पताल तक चली जाएँ।

उनमें से एक औरत ने कहा, “इसमें बहुत धक्के लगते हैं, वो झेल नहीं सकती है। हमें टैक्सी करनी पड़ेगी। ३०० रुपये लगते हैं।”

बत्ती हरी हो गयी थी। साथ का यातायात चलने लगा था और पीछे वाले वाहनों ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया था। उन्हें टैक्सी का किराया भी पहले से मालूम है, इस बात से मेरा माथा ठनका। शायद उन्होंने मेरी झिझक का अंदाज़ लगा लिया था इसलिए जब तक मैं कुछ समझ पाता वे मेरे हाथ से रुपये लेकर सड़क के पार अपनी कराहती हुई साथन की ओर चली गयीं। मैं रास्ते भर इस विचार में उलझा रहा कि क्या उन्हें सचमुच अस्पताल जाना था या फिर यह भी ठगी की ही एक चाल थी। कनौट प्लेस के पास से गुज़रते समय मैंने उसी तरह की दो अन्य स्त्रियों को एक मोटरसाइकल वाले से रुपये लेते हुए देखा। नेहरू प्लेस की तरह ही यहाँ भी पास की पटरी पर एक लंबोदरा कराह रही थी। अब मुझे अपने ठगे जाने पर कोई शुबहा नहीं रहा था।

[क्रमशः]

Friday, April 2, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [7]

सपना एक क्षणिक पागलपन है जबकि पागलपन एक लंबा सपना है.
~आर्थर स्कोपेन्हौर (१७८८-१८६०)


आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]; खंड [2]; खंड [3]; खंड [4]; खंड [5]; खंड [6]

इस शृंखला को मैं जितना आगे बढ़ रहा हूँ, आपकी रोचक टिप्पणियों और जानकारी से लिखने का मज़ा बढ़ता जा रहा है.

स्वप्न में, देजा व्यू में बल्कि हमारे दिमाग में समय उस तरह एक रेखा में नहीं चलता है जैसे हम उसे मानते आये हैं. हाथ से नाक छूने के पिछले एक उदाहरण (संवेदी देरी) में और "ब्रेन टाइम" आलेख में हमने देखा कि काल की रैखिक गति की परिकल्पना का काल बीत चुका है. इसके अलावा दीवार की खिड़की में शीशा ढूंढना या चोरों की प्रकृति के बारे में विचार जैसे कार्यों में कोई इन्द्रियारोपित सीमाएं भी नहीं हैं इसलिए वे सारे कार्य एक अल्पांश में एक साथ प्रसंस्कृत हो सकते हैं. इसी रोशनी में, पिछली बार के सपने के बारे में आपका अंदाज़ सही है. यह सपना दरवाज़े पर क़दमों की आहट से शुरू हुआ और दरवाजा खुलने के साथ ख़त्म हो गया. कुल समय दो या तीन  पल.


स्वप्न और सृजनशीलता
पिछली कड़ियों में गिरिजेश राव ने चुटकी ली थी कि सपना देखने का सम्बन्ध कल्पनाशीलता से है. तो उनके बहाने आज का रहस्योद्घाटन - गोरा सपना भैस बराबर. मतलब यह कि सपने गाय भैंस और अन्य (स्तनधारी) प्राणियों को भी वैसे ही आते हैं जैसे हम मनुष्यों को. अब जरा बताइये कि बुद्धू घोसी की भैंस कितनी शायरी करती है या नत्थू कुम्हार का गधा अब तक कितने घोडे पेंट कर चुका है? मतलब यह कि सपने न देखने का (या भूल जाने का) कल्पनाशीलता पर बुरा असर नहीं पडता है. स्वप्न के अनेकों सिद्धांतों में से एक के अनुसार स्वप्न (देखकर) भूल जाना आपके दिमाग (और कल्पनाशीलता) को दुरुस्त रखता है.

"लाल लकड़ी के चालीस लट्ठे" नामक त्रिविमीय कलाकृति का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा खींचा (और पलटा) गया [Forty redwood logs - photograph taken and put upside down by Anurag Sharma]

[क्रमशः]