भारत में रहते हुए हम सब गरीबी और भिक्षावृत्ति से दो-चार होते रहे हैं. पहले कभी वर्षा के ब्लॉग पर कभी इसी बाबत एक लेख पढ़ा था, "बात पैसों की नहीं है". वर्षा ने उस लेख में सामान्यजन की दुविधा और मनस्थिति का अच्छा वर्णन किया था. लगभग उन्हीं दिनों मैंने भिखारिओं पर दिल्ली-प्रवास के अपने अनुभवों को एक कहानी का रूप दिया था जो बाद में आत्माराम जी के अनुग्रह से गर्भनाल में आयी. जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. बताइये कैसा रहा यह प्रयास.
एक और इंसान
“खिल्लू दम्भार मर गया साहब!”
अधबूढ़े का यह वाक्य अभी भी मेरे कानों में गूंज रहा है। वैसे तो मेरे काम में सारे दिन ही कठिन होते हैं मगर आज की बात न पूछो। आज का दिन कुछ ज़्यादा ही अजीब था। सारा दिन मैं अजीब-अजीब लोगों से दो-चार होता रहा। सुबह दफ्तर पहुँचते ही मैले कुचैले कपड़े वाला एक आदमी एक गठ्ठर में सूट के कपड़े लेकर बेचने आया। दाम तो कम ही लग रहे थे। मगर जब उसने बड़ी शान से उनके सस्ते दाम का कारण उनका चोरी का होना बताया तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने पुलिस बुलाने की बात की तो वह कुछ बड़बड़ाता हुआ तुरंत रफू चक्कर हो गया।
वह आदमी गया ही होगा कि डेढ़ हाथ का घूंघट काढ़े एक औरत एक-डेढ़ बरस के बच्चे को गोद में लिए हुए तेज़ी से अन्दर आने लगी। दरवाज़े पर बैठे गफ़ूर ने उसको रोकने की कोशिश की तो वह रोने लगी। मैंने बाहर आकर पूछा तो उसने बताया कि उसे बरेली जाना है और उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं हैं। जब मैंने पूछा कि वह दिल्ली कैसे पहुँची और बच्चे का बाप कहाँ है तो वह फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। सुबह की पहली चाय लाते हुए कैंटीन वाले बहादुर ने जब एक कप उसकी ओर बढ़ाया तो उसने झपटकर ले लिया और जोर की आवाज़ के साथ जल्दी-जल्दी चाय सुड़कनी शुरू कर दी। शायद उसे भूखा समझकर बहादुर एक प्याली में कुछ रस्क ले आया जो उसने चाय में भिगो-भिगोकर स्वाद लेकर खाए। बच्चा आराम से गोद में सोता रहा। मैं उस औरत की सहायता करना चाहता था मगर पहले इतनी बार ठगा जा चुका था कि अब मैं किसी अनजान को नकद पैसे हाथ में नहीं देता हूँ। मैंने गफ़ूर को अलग ले जाकर उसे दो सौ रुपये देकर उस औरत के साथ बस अड्डे जाकर टिकट खरीदकर बरेली की बस में बिठाने को कहा। फिर बाहर आकर उस औरत को राहखर्च के लिए पचास रुपये अलग से देकर सब समझा दिया। मुझे नेहरू प्लेस ब्रांच-विज़िट के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं उस औरत की ज़िम्मेदारी गफ़ूर पर छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गया।
नेहरू प्लेस में सब काम ठीक से निबट गया। ब्रांच में अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला और खाना उनके साथ ही खाया। वापसी के लिए ऑटोरिक्शा लेकर उसमें बैठा। अगले चौराहे तक पहुँचा ही था कि ट्रैफिक की बत्ती लाल हो गयी। तभी बंजारन सी दिखने वाली दो भिखारिनें मेरे पास आयीं। मैं सोचने लगा कि जब तक हमारी राजधानी की सड़कें आवारा गायों और भिखारियों से पटी रहेंगी तब तक न तो इन सड़कों पर वाहन चल पायेंगे और न ही खाते-पीते लोग गरीबों को इंसान समझ सकेंगे। मुझे कभी समझ नहीं आया कि यह भिखारी लोग सैकड़ों लोगों की भीड़ में से एक नरमदिल इंसान को कैसे पहचान लेते हैं। इस बार मैंने भी दिल कड़ा कर लिया था। उनके पास आते ही मैंने उनकी ओर देखे बिना बेरुखी से कहा, “माफ़ करो, छुट्टा नहीं है मेरे पास।”
“मदद कर दो बाबूजी, उसे बच्चा होने को है, लेडी हार्डिंग अस्पताल ले जाना है, वरना मर जायेगी।”
कहते-कहते उसने सड़क के किनारे बैठी हुई एक अल्प-वसना युवती की ओर इशारा किया जिसके खुले पेट को देखते ही उसकी गर्भावस्था का पता लग रहा था। सड़क किनारे अधलेटी वह युवती ऐसे कराह रही थी मानो अत्यधिक पीड़ा में हो। उसे देखते ही मेरे मन में अपने सहकर्मी कुणाल का स्वर गूंजा, “तुझे तो कोई भी कभी भी बेवकूफ़ बना सकता है।”
मेरे दिमाग ने तेज़ी से काम करना शुरू किया और मैंने अपने ऑटो-रिक्शा ड्राइवर से इसरार किया कि अगर वह इन स्त्रियों को लेडी हार्डिंग अस्पताल तक ले जाए तो मैं उसे उनका किराया अग्रिम देकर यहाँ उतर जाउंगा। उसके हामी भरने पर मैंने अंदाज़े से लेडी हार्डिंग तक का किराया बटुए में से निकाला और उन औरतों से कहा कि मैं यहाँ उतर रहा हूँ और वे किराए की फ़िक्र मुझपर छोड़कर इस ऑटो-रिक्शा में अस्पताल तक चली जाएँ।
उनमें से एक औरत ने कहा, “इसमें बहुत धक्के लगते हैं, वो झेल नहीं सकती है। हमें टैक्सी करनी पड़ेगी। ३०० रुपये लगते हैं।”
बत्ती हरी हो गयी थी। साथ का यातायात चलने लगा था और पीछे वाले वाहनों ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया था। उन्हें टैक्सी का किराया भी पहले से मालूम है, इस बात से मेरा माथा ठनका। शायद उन्होंने मेरी झिझक का अंदाज़ लगा लिया था इसलिए जब तक मैं कुछ समझ पाता वे मेरे हाथ से रुपये लेकर सड़क के पार अपनी कराहती हुई साथन की ओर चली गयीं। मैं रास्ते भर इस विचार में उलझा रहा कि क्या उन्हें सचमुच अस्पताल जाना था या फिर यह भी ठगी की ही एक चाल थी। कनौट प्लेस के पास से गुज़रते समय मैंने उसी तरह की दो अन्य स्त्रियों को एक मोटरसाइकल वाले से रुपये लेते हुए देखा। नेहरू प्लेस की तरह ही यहाँ भी पास की पटरी पर एक लंबोदरा कराह रही थी। अब मुझे अपने ठगे जाने पर कोई शुबहा नहीं रहा था।
[क्रमशः]
ऎसे लोग ही एक इंसान के विशवास की हत्या करते है, बहुत सुंदर लिखा आप ने. धन्यवाद
ReplyDeleteदिल्ली की सड़कों पर इनकी भीड़ है..शायद सच में किसी दिन किसी को जरुरत पड़े और लोग विश्वास न करें इनके चलते....अच्छी कहानी. आगे इन्तजार है.
ReplyDeleteडायलेमा है ये... अक्सर जब कोई फ्रौड़ सा लगे और आप आगे बढ़ जाओ. तो बात कुरेदती है... कहीं सच बोल रहा/रही हो तो ?
ReplyDeleteऎसे लोग ही एक इंसान के विशवास की हत्या करते है,-भाटिया जी का वेद वाक्य !
ReplyDeleteबढ़िया लेख!
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है!
विश्वास उठने लगता है यह सब देखकर ।
ReplyDeleteमैं अभिषेक की बात के अधिक करीब हूं, हांलाकि भाटिया जी से सहमत भी हूं..
ReplyDeleteकहानी बहुत सुंदर।
ReplyDeleteठगी तो हर तरफ है। आप चाहे कुछ खरीदे या बेचे, मुनाफा या नुक्सान तो चलता ही रहता है।
ईश्वर कहीं न कहीं से भरपाई करता ही है।
इसलिए अपनी समर्थता और परिस्थिति को देखते हुए जैसा दिल कहे वैसा करना चाहिए।
बहुत सुंदर लिखा आप ने.
ReplyDeleteविचित्र सी अकुलाहट व्याप्त हो गई मन में यह कथा अंश पढ कर। सोचने लगा, मैं होता तो क्या करता ऐसे प्रत्येक प्रसंग पर। हर बार एक ही जवाब आया, यह जानते हुए भी कि मुझे ठगा जा रहा है, हर बार ठगा जाना ही पसन्द करता। बाद में मन में उपजनेवाले अपराध बोध से मुक्ति पाना कठिन ही होता।
ReplyDelete'गर्भनाल' क्लिक किया। पत्रिका के ढेर सारे अंकों के आवरण पृष्ठ सामने आ गए। कौन सा आवरण क्लिक करूँ, सूझ नहीं पडी। आपकी कहानी कौन से अंक में है, यह भी बता देते तो बेहतर होता।
बहरहाल, अगली कडी की प्रतीक्षा है।
ऐसे ही विश्वास डगमगा जाता है ......... इंसान का इंसान से भरोसा उठ जाता है ...
ReplyDeleteविष्णु जी,
ReplyDeleteमेरी कहानी ४० वें अंक के पृष्ठ ४४ पर है. यहाँ क्लिक करके वह अंक डाउनलोड किया जा सकता है.
गर्भनाल पर जाकर पूरी कहानी पढ़ आई हूँ...
ReplyDeleteकथा प्रभाव से अभी जिस मनोवस्था में हूँ, कुछ कहने की स्थिति में नहीं...
2nd part kab daal rahe hain sir poora ek sath padhoonga.. ek baar rau ban jaye to beech me tootna achchha nahin lagta.
ReplyDeleteदूसरा भाग यहीं पढ़ूंगा। फिर बताऊंगा कि कितनी बार कैसे कैसे ठगा गया हूं। :)
ReplyDeleteये तो पढ़ चुके!! :)
ReplyDeleteऐसे दृश्य ही विश्वास को ठेस पहुंचाते हैं और कोई ज़रूरत पर भी मदद के लिए आगे नहीं आ पाता
ReplyDeleteDil ki suniye janaab....Neki kariye fir Dariya mein daal dijiye.
ReplyDeleteNothing goes waste. There is God above to answer our good deeds.
Kiye ja, kiye ja tu bhalaii ka kaam,
Tere dukh duur kareinge Ram.
At times i have recieved great help from strangers....Shayad kisi ki achhaii ka badla mujhe mila hoga.
bhalai ka zamana jane mat dijiye !
Delhi mein rahiye ya fir Pittsburgh mein...Duniya to aap jaise rehem-dil insaano par hi tiki hai.
aabhar aapka
हां ऐसे ही अनुभवों से मैं भी कई बार दो-चार हुई। और अभिषेक जी की बात बिलकुल सही है, डर लगता है कि कहीं किसी जरुरतमंद की मदद करने से न रह जाओ। इसीलिए मैंने अपने लेख में एक जगह लिखा था कि कई बार ये सोचकर कि ठग भी रहा हो तो कोई बात नहीं, पैसे दे देती हूं।
ReplyDeleteहमने भी पढ़ लिया।
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