Sunday, May 25, 2014

क्यूँ नहीं - कविता

(चित्र व पंक्तियाँ: अनुराग शर्मा)

इंद्र्धनुष
है नाम लबों पर तो सदा क्यूँ नहीं देते,
जब दर्द दिया है तो दवा क्यूँ नहीं देते

ज़िंदा हूँ इस बात का एहसास हो सके
मुर्दे को मेरे फिर से हिला क्यूँ नहीं देते

है गुज़री कयामत मैं फिर भी न गुज़रा
ये सांस जो अटकी है हटा क्यूँ नहीं देते

सांस ये चलती नहीं है दिल नहीं धड़के,
जाँ से मिरी मुझको मिला क्यूँ नहीं देते

सपनों में सही तुमसे मुलाकात हो सके,
हर रात रतजगे को सुला क्यूँ नहीं देते


(प्रेरणा: हसरत जयपुरी की "जब प्यार नहीं है तो भुला क्यों नहीं देते")

 अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन के स्वर में

Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।

Sunday, May 18, 2014

राजनैतिक व्यंग्य की दो लाइनाँ

संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में जनमत की विजय के लिए हर भारतीय मतदाता को बधाई  
ताज़े-ताज़े लोकसभा चुनावों ने बड़े-बड़ों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये। कई चुनाव विशेषज्ञों के लिए मोदी और भाजपा की जीत में हर विरोधी का सफाया हो जाना 1977 की चुनावी क्रान्ति से भी अधिक अप्रत्याशित रहा। रविश कुमार नामक रिपोर्टर को टीवी पर मायावती की एक रैली का विज्ञापन सा करते देखा था तब हँसी आ रही थी कि आँख के सामने के लट्ठ को भी तिनका बताने वालों की भी पूछ है हमारे भारत में। अब मायावती के दल का पूर्ण सफाया होने पर शायद रवीश पहली बार अपनी जनमानस विश्लेषण क्षमता पर ध्यान देंगे। क्योंकि खबर गरम है कि हाथी ने इस बार के चुनाव में अंडा दिया है।

इसी बीच अपने से असहमत हर व्यक्ति को फेसबुक पर ब्लॉक करने के लिए बदनाम हुए ओम थानवी पर भी बहुत से चुट्कुले बने। कुछ बानगी देखिये,
  • आठवें चरण के चुनाव में थानवी जी ने 64 सीटों को ब्लाक कर दिया
  • थानवी जी की लेखन शैली की वजह से जनसत्ता के पाठकों में इतना इजाफा हुआ कि आज उसे दो लोग पढ़ते हैं, एक हैं केजरीवाल और दुसरे हैं संपादक जी खुद। बाकी सब को थानवी जी ने ब्लॉक कर दिया है।
  • 16 मई को अगर मोदी पीएम बने तो थानवी जी भारत देश को ब्लाक करके पाकिस्तान चले जायेगे। 

हीरो या ज़ीरो?
जहाँ केजरीवाल के राखी बिडलान और सोमनाथ भारती जैसे साथी अपने अहंकार और बड़बोलेपन के कारण पहचाने गए वहीं स्वयं केजरीवाल ने अल्प समय में भारतीय राजनीति के विदूषक समझे जाने वाले लालू प्रसाद को गुमनाम कर दिया। केजरीवाल की फूहड़ हरकतों और उनसे लाभ की आशा में जुटे गुटों की जल्दबाज़ी ने कार्टूनिस्टों को बड़ा मसाला प्रदान किया। उनका हर असहमत के लिए, "ये सब मिले हुए हैं जी" कहने की अदा हो, अपने साथियों के मुँह पर खाँसते रहने का मनमोहक झटका, हर विरोधी को बेईमान कहने और अपने साथियों को ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटने का पुरस्कारी-लाल अंदाज़ हो,  या फिर हर वायदे से पलटने का केजरीवाल-टर्न, जनता का मनोरंजन जमकर हुआ। वैसे तो वे 49 दिन के भगोड़े भी समझे जाते हैं लेकिन अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में 400 जमानत जब्त कराने का जो अभूतपूर्व करिश्मा उन्होने कर दिखाया है उसके लिए उनके पार्टी सदस्य और देश कि जनता उन्हें सदा याद रखेंगे।

आज कुछ सीरियस लिखने का मूड नहीं है सो प्रस्तुत है इन्हीं चुनावों के अवलोकन से उपजा कुछ निर्मल हास्य। अगर आपको लगता है कि प्रस्तुत पोस्ट वन्य प्राणियों के लिए अहितकर है तो कृपया अपना मत व्यक्त करें, समुचित कारण मिलने पर पोस्ट हटा ली जाएगी।

दिल्ली छोड़ काशी को धावै,
सीएम रहै न पीएम बन पावै

खाँसियों  का  बड़ा सहारा है
फाँसियों ने तो सिर्फ मारा है

सूली से भय लगता है, थप्पड़ से काम चलाते हैं,
जब तक मूर्ख बना सकते जनता को ये बनाते हैं

टोपी मफ़लर फेंक दियो, झाड़ू दई छिपाय
न जाने किस मोड़ पे मतदाता मिल जाय।

पहले साबरमती उबारी
आई अब गंगा की बारी

इल्मी हारे, फ़िल्मी हारे, हारे बब्बर राज
लोकतन्त्र ऐसा चमका मेरे भारत में आज

स्विट्जरलैंड की खोज में बाबा हुए उदास
कालाधन की खान हैं सब दिल्ली के पास



संबन्धित कड़ियाँ
* क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल
आशा की किरण

Thursday, May 8, 2014

कहाँ गई - कविता

(अनुराग शर्मा)

कभी गाड़ी नदी में, कभी नाव सड़क पर - पित्स्बर्ग का एक दृश्य
यह सच नहीं है कि
कविता गुम हो गई है
कविता आज भी
लिखी जाती है
पढ़ी जाती है
वाहवाही भी पाती है
लेकिन तभी जब वह
चपा चपा चरखा चलाती है

कविता आज केवल
दिल बहलाती है
अगर महंगी कलम से
लिखी जाये तो
दौड़ा दौड़ा भगाती है
थोड़ा-थोड़ा मंगाती है
नफासत की चाशनी में थोड़ी
रूमानियत भी बिखराती है

कविता आजकल
दिल की बात नहीं कहती
क्योंकि तब मित्र मंडली
बुरा मनाती है
इसलिए कविता अब
दिल न जलाकर
जिगर से बीड़ी जलाती है

कविता सक्षम होती थी
गिरे को उठा सकती थी
अब इतिहास हुई जाती है
इब्नबबूता से शर्माती है
बगल में जूता दबाती है
छइयाँ-छइयाँ चलाती है
व्यवसाय जैसे ही सही
अब भी लिखी जाती है


कविता की चिंता छोडकर सुनिए मनोरंजन कर से मुक्त बाल-फिल्म किताब का यह मास्टरपीस