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Sunday, July 1, 2018

ब्लागिंग दिवस पर - बच्चे मन के सच्चे

The kids I have met were logical. They gained wisdom as they grew up. - Anurag Sharma

बच्चे सदा तार्किक होते हैं, बड़े होकर वे सही या ग़लत, पूरे या अधूरे निष्कर्ष निकालने लगते हैं।  - अनुराग शर्मा


एक मामले में मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। वह यह कि बचपन से अब तक विभिन्न भूमिकाओं में मैं सदा बच्चों से घिरा रहा हूँ। जहाँ मेरा बचपन बीता, उत्तर-प्रदेश के मध्यम आकार के नगर के उस मध्य-वर्गीय आस-पड़ोस में तो हर प्रकार के बच्चे थे ही, अपना विस्तृत परिवार भी ऐसा था कि मेरे नौकरी आरम्भ करने के काफ़ी बाद तक भी मेरे आसपास बच्चे रहा करते थे। बाद में भी ऐसे बहाने सामने आते रहे जब कभी बाल-नाटिका आदि पर काम करते हुए या हिंदी पढ़ाने के लिये बच्चों से सम्पर्क बना रहा। मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं लेकिन हमारा प्रेम पारस्परिक रहा, क्योंकि बच्चे भी अपनी इच्छा से मेरे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। अपनी समस्याओं का हल निकालने की भागीदारी के लिये वे मुझे बड़ों की महत्वपूर्ण बैठकों में से खींच-खींचकर भी बाहर ले जाते रहे हैं।

बच्चे स्वभाव से ही उल्लासमय और उत्साही होते हैं। जिन भाग्यशाली बच्चों को अच्छा परिवेश और संस्कार मिले, उन्हें मैंने आत्मानुशासित और विनम्र भी पाया है। जहाँ अनुभवी और शिक्षित बड़ों के कुतर्क कई बार निराश करते हैं वहीं बच्चों को  मैंने *सदा-सर्वदा* स्मार्ट पाया है। उनकी नैसर्गिक हाज़िरजवाबी, अनूठा दृष्टिकोण, और कुशाग्र तार्किकता मुझे अचम्भित करती रही है। यही तार्किकता कई बार होठों पर बरबस ही हँसी ले आती है। कहीं और, बच्चों की चर्चा चलने पर यूँ ही कुछ उदाहरण याद आ गये तो सोचा लिख डालूँ, ताकि बाद में पढ़कर मुस्कुरा सकूँ।

कोई बात समझाने पर नई-नई अंग्रेज़ी सीख रहा एक बच्चा 'आई डोंट' (I don't) कहता था। कुछ ही समय में यह पता लग गया कि उसके 'आई डोंट' (I don't) का अभिप्राय वास्तव में आई नो (I know) होता था। थोड़ी सी पूछताछ के बाद बाल-मन की तार्किकता स्पष्ट हो गई जब बच्चे ने निम्न समीकरणों द्वारा अपनी बात समझाई -

1. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ
2. नो = नहीं
3. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ

खाते पीते घर की एक तीन-चार वर्षीय बच्ची से किसी ने पूछा कि बड़े होकर वह क्या बनेगी। बच्ची का अनपेक्षित उत्तर था, "बोझ बनूंगी।"

बदायूँ के हरप्रसाद मंदिर के बाहर प्रसाद की कतार में खड़ा एक बच्चा अपनी माँ को ज्ञान दे रहा था, "यह हरप्रसाद का मंदिर इसलिये हैं क्योंकि वे हर किसी को प्रसाद देते हैं।"

अन्यत्र एक पुरोहित जी के भोले बच्चे ने अपने तर्क से दो पल में संसार की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करते हुए बताया कि लक्ष्मी ही सत्य हैं। लक्ष्मीनारायण ही सत्यनारायण हैं। दोनों में से नारायण हटाने के बाद निष्कर्ष लक्ष्मी = सत्य हो जाता है। तुरत समझ में आ गया कि सत्यमेव जयते के आदर्श वाक्य वाले देश में हर मुद्दे पर धनपति ही क्यों विजयी होते हैं।

दो वर्षीय अपराजिता ने अपना नाम अप्पा-जिता बताते हुए जब अपने माता पिता का नाम मम्मा-जिता और पप्पा-जिता बताया तो उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रकार अप्पा का वास्तिक नाम अप्पाजिता होता है उसी प्रकार उनके मम्मा-पप्पा के नाम भी मम्मा-जिता और पप्पा-जिता होने चाहिये, नामकरण का यही तरीका है।

लगभग उसी वय की एक बच्ची ने बताया कि बच्चों के पाँव नहीं होते हैं। वे बाद में उग आते हैं। अपनी बात बताने के लिये उन्होंने डीवीडी चलाकर एक फ़िल्म का वह दृश्य दिखाया जिसमें अस्पताल में चिकित्सक कपड़ों में लिपटा नवजात शिशु पिता को सौंप रहे थे। जब मैंने कहा कि उस बच्चे के पाँव हैं लेकिन कपड़े में ढँके होने के कारण नहीं दिख रहे तो जवाब था कि पाँव होते तो बच्चे शुरू से ही चलते-फिरते नज़र आते। बड़े होने पर जब उनके पाँव उग जाते हैं, तब वे चलना आरम्भ करते हैं।

एक बच्चे को मेहमाँनवाज़ी के वक्त किसी अन्य द्वारा स्नैक्स लेना पसंद नहीं था। उनका प्रिय वाक्य था, "मैं आपे-आप खा लूंगा।" अर्थात, वयस्क हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कम से कम, खाने-पीने के काम में मुझे आत्मनिर्भर समझा जाये।

सड़क चलते समय गिर जाने पर किसी रोते हुए घायल बच्चे का फ़ुटपाथ को थपथपाकर, "सॉरी साइडवॉक" कहना भला किसका दिल नहीं जीत लेगा। यह बात अलग है कि स्कूल के पहले दिन, घर वापस आने पर उस बच्चे का पहला वाक्य था, आई कैन डू व्हाट आई वांट टु डू (मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ)।

मेरे विचार से बालमन की सम्भावनाओं से अपरिचित होना दुखद है। बच्चों से सम्पर्क का अवसर मिलने पर भी इन गुणों का अनुभव न कर पाना अति-दुखद है। और इन सबसे आगे, किसी भी स्थिति में बाल-मन की असीम सम्भावनाओं पर अविश्वास करना दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस ब्लॉगिंग दिवस पर किसी बच्चे से दोस्ती की जाये।

Sunday, September 10, 2017

अनुरागी मन

नवीं कक्षा में था तो रसायनशास्त्र के प्रवक्ता मु. यामीन अंसारी ने कहा कि छात्र संघ में कनिष्ठ उपाध्यक्ष के लिये नामांकन भर दो। उन्होंने बताया कि उस पद के लिये पात्रता कक्षा 9 तक की ही है। शायद इसीलिये उस दिन अंतिम तिथि होने के बावजूद, तब तक कोई नामांकन नहीं आया था। मुझे राजनीति में जाने की कोई इच्छा वैसे भी नहीं थी। ऊपर से मेरे जैसा शांत व्यक्ति ज़ोर-जबर के नक्कारखाने के लिये शायद ही उपयुक्त होता। तीसरी बात यह भी थी कि नामांकन के लिये दस रुपये शुल्क था, जो उस समय मेरे पास नहीं था। अंसारी साहब शुल्क अपनी जेब से देने को भी तैयार थे परंतु मैं अनिच्छुक ही रहा।

अंतिम तिथि निकल गई। उस वर्ष का छात्रसंघ कनिष्ठ उपाध्यक्ष के बिना ही बना क्योंकि मैंने उस पद पर निर्विरोध चुने जाने का अवसर छोड़ दिया था। अगले वर्ष से छात्रसंघ के चुनावों पर प्रतिबंध लग गया और सभी तत्कालीन पदाधिकारी जोकि 12वीं के ही छात्र थे, परीक्षा पास करके विद्यालय से बाहर चले गये। मैं तीन और साल वहीं था। अंसारी साहब ने एकाध बार मज़ाक में कहा भी कि यदि उस दिन मैंने पर्चा भर दिया होता तो चार साल मैं छात्रसंघ पर एकछत्र राज्य करता।

नवीं कक्षा में ही जीवविज्ञान की प्रयोगशाला में जब ताज़े कटे हुए मेंढ़कों को धड़कते दिल के साथ क्रूरता से एक गड्ढे में फेंके जाते देखा तो सभ्य-समाज में सर्व-स्वीकृत निर्दयता ने दिल को बहुत चोट पहुँचाई। आज शायद सुनने में अजीब लगे लेकिन यह सच है कि उस समय तक मैं यही समझता था कि प्रयोगशाला में डाइसेक्ट किये हुए प्राणियों को सर्जरी द्वारा पहले जैसा स्वस्थ बनाकर वापस प्रकृति में छोड़ दिया जाता होगा। जीवविज्ञान के साथ मानसिक रूप से उसी समय अपना तलाक़ हो गया लेकिन हाईस्कूल तक जैसे-तैसे साथ निभाया और फिर गणित-विज्ञान समूह की दिशा पकड़ी।

तब से अब तक जीवन में कई ऐसे अवसर आये जब मौके हाथ से छूटे, या कहूँ कि छूटने दिये गये। जब किसी को आत्मविश्वास के साथ यह कहते सुनता हूँ कि उसने परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया तो अच्छा लगता है क्योंकि मैंने शायद इस दिशा में कभी कोई खास श्रम नहीं किया। हाँ, जीवन में जो कुछ सामने आता गया उसके सदुपयोग पर थोड़ा बहुत विचार अवश्य किया। लेकिन वहाँ भी कोई जल्दबाज़ी कभी नहीं की।

एक दफ़ा एक बस यात्रा में जेब कट गई। दो-चार सौ रुपयों के साथ-साथ परिचय-पत्र भी चला गया, जिसकी सामान्यतः आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। वैसे भी परिचयपत्र में चित्र के साथ अपने और संस्थान के नाम के अलावा काम की कोई जानकारी नहीं थी। न कार्यालय का नाम था और न ही पदनाम। दोबारा बनवाने का शुल्क भी लगता था और उसके लिये एक दूसरे कार्यालय में अर्ज़ी देने भी जाना पड़ता, जिसकी काम ने कभी फ़ुर्सत ही नहीं दी, सो टलता रहा।

जब नौकरी छोड़ने की नौबत आई तो नियमानुसार इस्तीफ़े के साथ परिचयपत्र भी जमा कराना था। नया परिचयपत्र बनवाने के लिये अगले सप्ताह का मुहूर्त निकालकर प्रबंधक जी को बता दिया गया। अगले हफ़्ते जब निकलने ही वाले थे तब उस दिन की अंतर-विभागीय डाक आ गई। और डाक में पत्रों के ऊपर ही मेरा परिचयपत्र भी पड़ा हुआ था जिसे कुछ साल पहले किसी जेबकतरे ने कहीं फेंका होगा और किसी भलेमानस ने शायद किसी मेलबॉक्स में डाल दिया होगा जोकि बरसों बाद किसी डाकिये को नज़र आया होगा और एक दफ़्तर से दूसरे में पहुँचते हुए आखिर मेरे पास आ गया।

यह तो एक सरल सा उदाहरण था लेकिन कई उदाहरण तो इतने जटिल संयोग के उदाहरण हैं कि लगता है मानो एक लम्बी परियोजना बनाकर उन्हें गढ़ा गया हो। सौ बात की एक बात यह कि ज़िंदगी अपने साथ बहाकर ले जाती रही लेकिन फिर भी रही अपने प्रति दयालु ही। तरबूज सौ बार छुरों पर गिरा लेकिन हर बार हाथ-पाँव झाड़कर उठ खड़ा हुआ।

पाँच साल की उम्र में एक नहर के तेज़ बहाव में बहकर मर ही जाता लेकिन बचा लिया गया। उसी समय तैरना सीखने का प्रण लिया। सीखने का कोई साधन ही नहीं था। न प्रशिक्षक, न तरण ताल। सो कुछ साल यूँ ही बीतने के बाद, अंततः, बिना पानी के ही तैराकी सीखने का निश्चय किया। जब पहली बार तरण-ताल देखने को मिला तब तक बिना पानी और बिना प्रशिक्षक के कामचलाऊ तैराकी सीख चुका था।

मरने के भी कई मौके आये और सीखने के भी। आलसी जीव, मृत्यु से भी बचकर निकलते रहे और सीखना भी अपने हिसाब से करते गये। हर काम सदा तसल्ली बख्श तो किया मगर किया भरपूर तसल्ली के साथ, बिना किसी जल्दबाज़ी के। बारहवीं के बाद जब सारे मित्र अभियांत्रिकी में जा रहे थे तब मैं उस उम्र में मिल सकने वाली एकमात्र नौकरी के लिये अर्ज़ियाँ भरकर जीवन की शुरुआत करने को तैयार था। अलबत्ता साथ में बेमन से ही सही बीएससी में प्रवेश भी ले लिया था।

बीएससी की फ़ाइनल परीक्षा के दौरान ही जीवन में पहली बार सीरियसली पढ़ाई करने का प्रण ले लिया। तय किया कि एमएससी गणित में की जायेगी। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ कि कक्षा में प्रवेश लेने से पहले ही सारी किताबें खरीदी हों। लेकिन एमएससी में आवेदन से पहले ही नौकरी शुरू करनी पड़ी।

बिल्कुल एक जैसी तीन नौकरियों के लिये एप्लाई किया था। एक का ऑफ़र बहुत बाद में आया। लेकिन जिन दो में पहले बुलाया गया उनमें से दिल्ली वाली का साक्षात्कार देने नहीं गया क्योंकि परिवार की राय घर के पास, यानी रुहेलखण्ड में रहने की थी। परीक्षा परिणाम में प्रदेश के पहले पाँच में नाम था। किसे खबर थी कि उत्तरप्रदेश का बोर्ड ही मुझे दिल्ली पोस्टिंग दे देगा। दिल्ली तो दे नहीं सकते थे मगर उन्होंने नोएडा भेज दिया। केवल एक उस निर्णय के बहाने घर-गाँव, रुहेलखण्ड ऐसा छूटा कि दोबारा वहाँ रहने का सुयोग बना ही नहीं।

 मित्रों से पिछड़ने की बात तो मन में क्या आनी थी, अपने पैरों पर खड़े होने का संतोष अवश्य था। इत्तेफ़ाक़ से उसी समय पिताजी देश भर के दुर्गमतम क्षेत्रों की अपनी ड्यूटी से छुटकारा पाकर सीआरपीएफ़ के दिल्ली स्थित केंद्र झाड़ौदा कलाँ में आये, सो हम भी उनके सरकारी निवास में फ़िट हो लिये। दफ्तर से घर खासा दूर था तो रोज़ाना 6-7 घंटे का कम्यूट होता था। रूट ऐसा था कि बसों में बैठना तो दूर, चढ़ना और उतरना भी आसान न था। एक दिन बहन की सहेलियों ने उसे बताया कि हमारे घर कोई मेहमान आया हुआ है। वह मेहमान मैं ही था क्योंकि मैं घर से इतना बाहर रहता था कि आस-पड़ोस के बहुत से लोगों को घर में मेरे अस्तित्व के बारे में जानकारी ही नहीं थी।

मेरे दिल्ली आने पर एमएससी की गणित की किताबें बदायूँ के तालाबंद घर में रखी रह गईं क्योंकि नौकरी के साथ पढ़ाई जारी रखने के प्रयास में निराशा हाथ लगी। विश्वविद्यालय वालों ने स्नातकोत्तर में प्रवेश इस आधार पर नहीं दिया कि एमएससी न तो प्राइवेट ही हो सकती है और न ही उसके लिये सायंकालीन या सप्ताहांत कक्षा की कोई व्यवस्था है। इस बाधा का कारण पूछने पर विज्ञान के कोर्स में प्रयोगशाला की अनिवार्यता का तर्क दिया गया। गणित में प्रयोगशाला नहीं थी लेकिन अधिकार के आगे तर्क की क्या बिसात। सो जिस ज़माने में तथागत अवतार तुलसी बिना प्रयोगशाला देखे, बिना अनिवार्यता पूरी किये हुए बीएससी और एमएससी की परीक्षा देकर सरकारी खर्चे पर नोबल पुरस्कार विजेताओं से मिलवाने ले जाये जा रहे थे, हमारे रोहिलखण्ड (अब ज्योतिबा फुले) विश्वविद्यालय ने हमें नौकरी के साथ गणित में स्नातकोत्तर करने से मना कर दिया। 6-7 घण्टे के दैनिक कम्यूट, पूरे दिन की नौकरी के अलावा डोमिसाइल सर्टिफ़िकेट आदि के सरकारी जंजालों के कारण हम भी चुप लगाकर बैठ गये। भला हो विदेश-प्रवास का कि यह स्नातकोत्तर भी बाद में पूरा हुआ, यद्यपि हुआ गणित के बिना।

उस बीच में उपेक्षा के कारण टूटते-फ़ूटते पुश्तैनी घर की छत गिरने के बाद जब उसे बेचने के लिये गये तो एमएससी गणित की सभी किताबें बिना छत के कमरे की बिना दरवाज़ों की अलमारी में तला ऊपर रखी थीं। लगभग गली हुई हालत में भी सबसे ऊपर की किताब का मुखपृष्ठ पठनीय था। मानो हँस रहा हो, "ज़िंदगी प्लैन करने चले थे? अब मत करना"

नौएडा से झाड़ौदा तक की उस दैनिक भागदौड़ में बैंक के परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा दी, एक बार फिर पहले पाँच में चुनाव हुआ। देश भर से चुने गये 135 से अधिक अधिकारियों में मैं सबसे कमउम्र था। कुछ वर्ष बाद बैंक ने कम्प्यूटरीकरण की इन-हाउस टीम के लिये जब देशव्यापी परीक्षा द्वारा युवा अधिकारियों को चुनना शुरू किया तो बैंकिंग में रहते हुए सूचना प्रौद्योगिकी, परियोजना प्रबंधन आदि की शिक्षा और अनुभव का अवसर मिला जो अब तक साथ चल रहा है।

पढ़ने लिखने का शौक पुराना था। सम्वाद-वाद-विवाद में पुरस्कार पाना स्कूल में ही शुरू हो गया था। 13-14 साल की आयु में सोचा था कि बड़े होने पर बरेली-बदायूँ मार्ग पर हरियाली के बीच बनाये आधुनिक फ़ार्महाउस से प्रकाशन का व्यवसाय चलाया जायेगा। अनुराग प्रकाशन का उन्हीं दिनों का डिज़ाइन किया लोगो और एकाध नमूना पुस्तकें भी शायद अल्मारी में अभी भी पड़ी हों। माचिस की डिब्बी के आकार की 'मैचबुक्स' का विचार भी तभी-कभी दिमाग़ में कौंधा था। खैर बरेली के दर्शन तो फिर भी हो जाते हैं, बदायूँ तो एकदम से ही पराया हो गया। नसीब अपना-अपना ...  

लेखन-प्रकाशन के सपने देखते हुए, लगभग उन्हीं दिनों में कई कहानियाँ लिख डाली थीं। 1983-84 में एक कहानी का प्लॉट मन में था। 3-4 पन्नों की कहानी बोल-बोलकर कई बार टाइप करवाई लेकिन हिंदी टंकण में हर बार अनेक ग़लतियाँ रह जाती थीं। दशकों बाद जब ब्लॉग पर उसे अनुरागी मन के नाम से धारावाहिक लिखना शुरू किया तो इस बीच के अनेक अनुभवों और उपलब्ध समय ने कथानक को पहले से अधिक रोचक बना दिया था। ब्लॉग नियमित पढ़ने वाले मित्रों को कहानी पसंद आई लेकिन अंतिम कड़ी पर कुछ मित्रों ने उसके दुखांत होने पर शिकायत भी की। कविहृदय मित्र देवेंद्र पाण्डेय ने तो कथा के दुखांत को मेरे पश्चिम में रहने का प्रभाव ही बता दिया। जबकि सच यह है कि कहानी का अंत 1984 में भी यही था। इसमें पूर्व-पश्चिम का कोई चक्कर नहीं था, यूँ ही सोचा कि आज यह बात स्पष्ट कर ही दी जाय।

देवेन्द्र पाण्डेय October 27, 2011 at 4:18 AM
मूड खराब कर दिया आपने तो। ऐसे अंत की उम्मीद नहीं थी। छुट्ठी निकालकर इतमिनान से पढ़ने बैठा था। शेख चिल्ली के मजार से जो उम्मीद बंधी थी यहां आकर तहस-नहस हो गई। ऐसे भी भला कोई अंत करता है! इतनी जल्दी क्या थी? अंततः समाप्त। यह भी कोई बात हुई। ... ... ... पश्चिम में रहकर यही अंत करने की भावना जगी? 
मेरे जीवन की लम्बी यात्रा के अनुरागी मन से ही सम्बंधित एक अल्पांश, जब इस कथा संग्रह को मॉरिशस के महात्मा गांधी संस्थान द्वारा भोपाल में हुए 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में स्थापित किये गये द्वैवार्षिक 'आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन संस्थान' का प्रथम विजेता बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सम्मान मॉरिशस की संसद की स्पीकर शांतिबाई हनुमानजी जीओएसके द्वारा मॉरिशस में आयोजित एक सम्मान में प्रदान किया गया। निम्न विडियो में देखिये मॉरिशस टीवी पर प्रस्तुत इस समारोह की रिपोर्ट की एक झलक और बताइये किस भाषा में क्या कहा गया है:



पितृपक्ष चल रहे हैं। सालभर के कामधंधे और उलझनों के कारण बिसर गये पितरों से वापस जुड़ने का समय है। उन्हीं यादों के बीच ये कुछेक यादें मानो याद दिलाने आईं कि मेरे अपने जीवन पर मेरा कितना कम नियंत्रण रहा है। पितरों के संघर्षों द्वारा संवरी अपनी ज़िंदगी के पुनरावलोकन का समय यह भी विचार करने का है कि हम आने वाली संतति द्वारा कैसे पितरों के रूप में याद किये जायेंगे। उनके लिये हम धरा पर कौन सी विरासत, कैसी धरोहर छोड़कर जायेंगे।

फिर मिलेंगे ब्रेक के बाद

Monday, May 30, 2016

दीवाली का पारितोषिक

गर्मियों के दिनों की शाम को पिट्सबर्ग में लॉन में चमकते जुगनू, जम्मू में बिताये मेरे बचपन की याद दिलाते हैं।  बचपन वाकई बहुत खूबसूरत अनुभव है लेकिन उसकी भी अपनी समस्यायें हैं। खासकर उन बच्चों के लिये जिन्हें बचपन में एक अपरिचित भाषा-संस्कृति का सामना करना पड़े। बरेली से जम्मू पहुँचने पर कुछ ऐसी ही समस्या मेरे साथ पेश आई।

पूरब-पश्चिम रातोंरात जब मगरिब-मशरिक़ हो जाएँ और गुणा-भाग ज़रब-तकसीम। न कोई सहपाठी आपकी भाषा समझे और न ही आप अपने सहपाठियों, यहाँ तक कि अध्यापकों के निर्देश समझ पाएँ तो ज़रा सोचिए आठ साल के एक मासूम छात्र को कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ा होगा। बस मेरा यही हाल था जम्मू के विद्यापीठ में।

कला की शिक्षिका की मुझसे क्या दुश्मनी थी यह तो अब याद नहीं लेकिन इतना अभी भी याद है कि वे कक्षा में
आते ही मुझे बाहर निकाल देती थीं। आश्चर्य नहीं कि कला प्रतियोगिता में जब अन्य बच्चे ग्रामीण दृश्यावली से
लेकर साड़ी का किनारा तक बहुत कुछ बना रहे थे, मैंने मनुष्य के पाचनतंत्र का चित्रण किया था।

गणित के अलावा अङ्ग्रेज़ी भी एक भयंकर विषय था। टीचर जी जब अङ्ग्रेज़ी को डोगरी प्रभाव वाली उर्दू में पढ़ाते हुए “पीपल काल्ड हिम फादर ऑफ दी नेशन” बोलते थे तो यकीन मानिए गांधीजी नहीं, बरेली वाले घर के दरवाजे पर लगा पीपल ही याद आता था।

जम्मू का रघुनाथ मंदिर, सन् 1928 में
ऐसे में हिन्दी की अध्यापिका का प्रिय छात्र बन पाना बड़ा सहारा था। उनकी कक्षा में कभी “कन्न फड़” का आदेश नहीं मिला जिसका अर्थ कान पकड़ना नहीं बल्कि मुर्गा बनना होता था। उन्हीं ने विद्यापीठ के वार्षिकोत्सव में “वीर बालक” नाटक करने का अवसर दिया।

घर स्कूल से काफी दूर था। सुबह को सीआरपी की स्कूल बस सब बच्चों को शहर लाकर 'अंकल जी की दुकान' पर छोड़ देती थी। जहाँ से सब अपने-अपने स्कूल पैदल चले जाते थे। विद्यापीठ के लिए एक पहाड़ी पर स्थित हाईकोर्ट परिसर से होकर जाना पड़ता था जो एक भव्य महल का भाग था।

स्कूल के पीछे पहाड़ी के छोर से बीसियों फीट नीचे बहती विराट तवी नदी को देखना एक अद्वितीय अनुभव था। नदी को देखने पर जम्मू के अपने पिछले प्रवास के दौरान रणवीर नहर में बहे लड़कों की कहानियाँ आँखों के सामने ऐसे गुजरती थीं, मानो ताज़ा घटना हो। शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती थी, लेकिन फिर भी इंटरवल में पहाड़ी के छोर पर आकर तवी दर्शन करना मेरा रोज़ का रूटीन बन गया था।

दशहरा-दीवाली के सम्मिलित समारोह जम्मू में बड़ी धूमधाम से मनाए जाते थे। जैसे आजकल बहुत से विद्यालयों में क्रिसमस की छुट्टियाँ होती हैं, वहाँ लगभग दो सप्ताह का दीपावली अवकाश होता था। छुट्टी से एक दिन पहले प्राइमरी, मिडल और हाई स्कूल के सभी छात्र-छात्राओं की सम्मिलित सभा बुलाई गई। दो शब्द बोलने के बाद प्रधानाचार्या ने छात्रों को दशहरा और दीवाली के पर्वों पर कुछ बोलने के लिए मंच पर आमंत्रित किया। जब काफी देर तक कोई आगे नहीं आया तो मैं उठा और बड़े-बड़े बच्चों की उस भीड़ में से चलकर मंच तक पहुँचा। मैंने बोलना शुरू किया तो राम-वनवास से लेकर अयोध्या वापसी में नगरवासियों द्वारा दीपों की पंक्तियाँ बनाकर उल्लास मनाने तक जितना कुछ पता था, जम्मू के लिए दुर्लभ शुद्ध हिन्दी में सब कुछ सुना दिया।

बात पूरी करके जब मैं चुपा तो महसूस किया कि हॉल में पूर्ण निस्तब्धता थी। कुछ क्षणों तक किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि वह छोटा सा लड़का इतना कुछ बोल गया था। अचानक शुरू हुई तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रधानाचार्या ने मुझे गोद में उठाकर पाँच रुपये का नोट पुरस्कार में दिया। मैंने देखा कि कला की शिक्षिका के साथ-साथ गणित और अंग्रेज़ी के आध्यापकगण भी मुझे स्नेह से देख रहे थे।

तब से अब तक कितनी दीवाली मना चुका हूँ, कितने भाषण दिये हैं, कितने ही पुरस्कार मिले हैं लेकिन आज तक उतना बड़ा पारितोषिक नहीं मिला जितना वह पाँच रुपये का नोट था।

Tuesday, May 5, 2015

सांप्रदायिक सद्भाव

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
जब मुसलमानों ने मकबूल की जमीन हथियाकर उस पर मस्जिद बनाई तो हिंदुओं के एक दल ने मुकुल की जमीन पर मठ बना दिया। मुकुल और मकबूल गाँव के अलग-अलग कोनों में उदास बैठे हैं फिर भी गाँव में शांति है क्योंकि इस बार कोई यह नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मुसलमान या मुसलमानों ने हिन्दू को सताया है।

Saturday, April 11, 2015

ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार - लघुकथा

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
झुमकेचल प्रसाद काम में थोड़ा कमजोर था। बदमाशियाँ भी करता था। दिखने में ठीक-ठाक था और उसके साथियों ने उसके इस ठीक-ठाक का भाव काफी चढ़ाया हुआ था। सो, वह अपने आप को डैनी, नहीं, शायद राजेश खन्ना समझता था। अब नौजवान राजेश खन्ना अपने से कई साल छोटे और कई किलो हल्के अधिकारी के अधीनस्थ होकर आराम से तो काम कर नहीं सकता सो हर बात में थोड़ा बहुत विद्रोह भी दिखाता रहता था। अकारण द्रोह का एक कारण शायद उस अधिकारी का अनारक्षित कोटे से आना भी था।

झुमकेचल के काम में काफी कमियाँ थीं। लेकिन अधिकारी उसकी क्षमता को जानते हुए उसे कुछ जताए बिना शाम को घर जाने से पहले उसकी गलतियाँ ठीक कर देता था। जितना जायज़ था उतनी छूट अधिकारी उसे हमेशा देता रहा। वह फरीदाबाद से दिल्ली आता था। आने में अक्सर देर हो जाती थी। वरिष्ठ प्रबंधक कड़कसिंह रोज़ सुबह दरवाजे पर लगी घड़ी के नीचे खड़ा हर देर से आने वाले की क्लास लगाता था। उसकी समस्या को ध्यान से सुनने के बाद अधिकारी ने कड़कसिंह से कड़क बहसें कर के अपने अधीनस्थों की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उसकी देरी सदा के लिए अनुशासन के दायरे से निकलवा दी। हर सुबह बाकी लेट-लतीफों को झिड़कता कड़कसिंह जब उसे कुछ नहीं कहता तो उसकी सुबह, जोकि अब लगभग दोपहर हो चुकी होती थी, उत्साह से भर जाती। इसी उत्साह में अब वह नियमित रूप से देर से आने लगा। जब कई दिन तक अधिकारी की ओर से उसकी नियमित देरी का कोई प्रतिरोध नहीं दिखा तो एक दिन अपनी सुबह की देरी को कम्पनसेट करने के उद्देश्य से उसने शाम को जल्दी घर जाने की बात की। अधिकारी ने उस दिन आराम से जाने दिया तो अगले दिन से उसने जल्दी जाने का अधिकार अपने गमछे में खोंस लिया और प्रतिदिन जल्दी जाने लगा।

आप सोचेंगे कि अधिकारी से मिलने वाले हर लाभ के बाद वह बेहतर होता गया होगा लेकिन हुआ इसका उलट। न तो उसके काम की गलतियों में कोई सुधार हुआ, न ही उसके नाजायज अक्खड़पन में कोई कमी आई। कुछ दिन बाद जब उसके लंच से वापस आने का समय उसके स्वास्थ्य की अनिवार्यता, यानी टेबल टेनिस के खेल के कारण बढ़ गया तो अधिकारी ने उसे कुछ कहे बिना भविष्य में कोई रियायत न देने का निश्चय किया।

एक दिन उसने बताया कि घर में चल रही पुताई के कारण वह लंचटाइम में ही घर चला जाएगा। अधिकारी को क्या एतराज़ होता, उसने विनम्रता से बता दिया कि छुट्टियाँ उसकी कमाई हुई हैं, आधा दिन की ले या पूरे दिन की, उसकी मर्ज़ी। छुट्टी का नाम सुनते ही वह गरम हो गया। शोर-शराबा सुनकर टेबल टेनिस के कुछ दबंग कामरेड भी मौका-ए-वारदात पर पहुँच गए। जिन्होंने सरकारी बैंक में काम किया हो उन्हें पता ही होगा कि बैंकिंग चुटकुलों में अधिकारियों का प्रयोग अक्सर ताश के जोकर की तरह किया जाता है। सो एकाध महारथी ने अपने मित्र के पक्ष में घिसे हुये चुटकुले जैसा कुछ कहा। अधिकारी ने उसके अधूरे ज्ञान वाले चुट्कुले वाला पूरा उपन्यास बाँच दिया। एकाध साथी ने वैज्ञानिक तर्क दिये, तो उनके आगे वैज्ञानिक निष्कर्ष रख दिये गए। फिर शाखा के सबसे भारी बोझ ने अपने वजन का प्रयोग किया तो इस छोटे से अधिकारी ने उसी के वजन और मूमेंटम का तात्कालिक प्रयोग करते हुए उसे काउंटर की दीवार पे दोहरा हो जाने दिया। कराहता हुआ बोझ अपनी सीट पर जाकर बड़बड़ाते हुए स्टाफ सेक्शन के नाम एक हाथापाई की शिकायत लिखने लगा।

बात हाथ से निकलते देखकर झुमकेचल प्रसाद जी अधिकारी को बताने लगे कि वे रोज़ जल्दी भले चले जाते हों, अपना सारा काम सही-सही पूरा करके जाते हैं। बात गलत थी सो अधिकारी ने रिजेक्ट कर दी। झुमकेचल की आवाज़ फिर ऊँची हो गई। गरजकर बोला "मेरे काम में एक भी कमी निकाल कर दिखा दो।" अधिकारी ने उस महीने की बनाई उसकी विवरणियों के फोल्डर सामने रख दिये। हर पेज पर लाल स्याही से ठीक की हुई कम से कम एक गलती चमक रही थी। कहीं स्पेलिंग, कहीं संख्या, कहीं जोड़, कहीं कोड, कहीं कुछ और। क्षण भर में झुमकेचल का चेहरा, शरीर, हाव-भाव, सब ऐसा हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर दस जूते मारे हों। उसने मरी हुई आवाज़ में पूछा, "लेकिन आपने इसके लिए कभी डाँटा भी नहीं, न मुझसे कभी ठीक कराया।"

खैर, बंदा एकदम सुधर गया। जाने से पहले उसने छुट्टी की अर्ज़ी अधिकारी के सामने रख दी जो अधिकारी ने अपने विवेक से निरस्त भी कर दी। कुछ दिन बाद जब वह अधिकारी व्यक्तिगत काम से एक हफ्ते की छुट्टी पर गया तो उसके वापस आते ही झुमकेचल ने सबसे पहले अपने अधिकारी से उसके सब्स्टिट्यूट की शिकायत की, "मैंने बस 15 मिनट पहले जाने के लिए पूछा तो बोले सारा काम सही-सही पूरा करके चले जाना और जब सब कर दिया तो कहने लगे कि जाओ सीनियर मेनेजर से पर्मिशन ले लो।"

"आज चले जाना" कहकर अधिकारी मुस्करा दिया। पहाड़ ऊँट से ऊँचा हो गया था।
निष्कर्ष: शेर अगर हिरण को न खाये तो उसका मतलब ये नहीं होता कि हिरण शेर से ताकतवर हो गया है। इसका अर्थ ये है कि शेर शाकाहारी है। लेकिन हिरण तेंदुए से फिर भी काम नहीं निकलवा सकता।

Tuesday, September 2, 2008

लागले बोलबेन

हमारे एक परिचित कलकत्ता में रहते हैं। एक दिन वे रेल में सफर कर रहे थे। भारतीय रेल का द्वितीय श्रेणी का अनारक्षित डब्बा। ज़ाहिर है, भीड़ बहुत थी। साथ में बैठे हुए एक महाशय चौडे होकर अखबार पढ़ रहे थे। जब पन्ना पलटते तो कागज़ के कोने दोनों और बैठे लोगों की आँख के करीब तक पहुँच जाते। कुछ देर तक तो लोगों ने बर्दाश्त किया। आखिरकार एक भाई से रहा न गया। अपने थैले में से एक पत्रिका निकालकर बड़ी विनम्रता से बोले, "भाई साहब आप अखबार पढने के बजाय इस पत्रिका को पढ़ लें तो अच्छा हो, अखबार जब आँख के बिल्कुल पास आ जाता है तो असुविधा होती है।"

उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फिर वापस अपने अखबार में मुँह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" (या ऐसा ही कुछ और)

सामने की सीट पर बैठे हुए पहलवान से दिखने वाले एक साहब काफी देर से महाशय के पड़ोसियों की परेशानी को देख रहे थे। वे अपनी सीट से उठे और अपनी हथेली पूरी खोलकर महाशय की आँखों और अखबार के बीच इस तरह घुमाने लगे कि वे कुछ भी पढ़ न सकें। जब महाशय ने सर उठाकर उन्हें गुस्से से घूरा तो वे तपाक से बोले, "लागले बोलबेन"

सारे सहयात्री हँस पड़े। महाशय ने अपना अखबार बंद करते हुए पड़ोसी से पत्रिका माँगी और आगे का सफर हंसी-खुशी कट गया।

Tuesday, August 12, 2008

मैं एक भारतीय

शाम छः बजे के करीब कुछ दोस्तों के साथ नेहरू प्लेस में दफ्तर के बाहर खड़ा चाय पकौड़ोोंोकक का आनंद ले रहा था कि एक सज्जन पास आकर मुझसे कुछ बात करने लगे। मुझे तो समझ नहीं आया मगर जब कमलाकन्नन ने उनकी बात समझ कर उनसे बात करना शुरू किया तो लगा कि तमिलभाषी ही होंगे। कुछ देर बात करने के बाद मेरी तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में क्षमा मांगते हुए चले गए। कमला कन्नन ने बाद में बताया कि न सिर्फ़ वे मुझे तमिल समझ रहे थे बल्कि उनका पूरा विश्वास था कि मैं कोयम्बत्तूर में उनके मोहल्ले में ही रह चुका हूँ।

बात आयी गयी हो गयी लेकिन मुझे कुछ और मिलती-जुलती घटनाओं की याद दिला गयी। बैंगलूरू में मुझे देखते ही कुछ ज्यादा ही गोरे-चिट्टे लोगों के समूह में से एक बहुत खुशमिजाज़ बुजुर्ग लगभग दौड़ते हुए से मेरे पास आए और हाथ मिलाकर कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। कई वर्षों से कर्णाटक जाना होता था मगर कभी कन्नड़ भाषा सीखने की कोशिश भी नहीं की, संयोग भी नहीं बना। मुझे शर्मिंदगी के साथ उन महाशय से कहना पडा कि मैं उनकी भाषा नहीं समझता हूँ। तब उन्होंने निराश भाव से अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं कश्मीरी नहीं हूँ। और मैंने सच बताकर उनका दिल सचमुच ही तोड़ दिया।

बरेली में मेरे सहपाठियों की शिकायत थी कि मेरी भाषा आम न होकर काफी संस्कृतनिष्ठ है जबकि जम्मू में हमारे सिख पड़ोसी मेरी साफ़ उर्दू जुबान की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। लेकिन भाषा के इस विरोधाभास के बावजूद इन दोनों ही जगहों पर लोगों ने हमेशा मुझे स्थानीय ही माना।

लगभग चार महीने के लिए लुधियाना में भी रहा। होटल के एक नेपाली कर्मचारी ने यूँ ही बातों में पूछा कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ तो मैंने भी उस पर ही सवाल फैंक दिया, "अंदाज़ लगाओ।" उसके जवाब ने मुझे आश्चर्यचकित नहीं किया, "मुझे तो आप अपने नेपाल के ही लगते हैं।"

धीरे-धीरे मुझे पता लग गया कि मेरे साधारण से व्यक्तित्व को आसपास के माहौल में मिल जाने में आसानी होती है। इसलिए जब मुम्बई में एक लंबे-चौडे व्यक्ति ने एक अनजान भाषा में कुछ कहा तो मैं समझ गया कि यह भी मुझे अपने ही गाँव का समझ रहा है। मैंने अंग्रेजी में उसके प्रदेश का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह तो मुझे अरबी समझा था मैं तो हिन्दी निकला।

यहाँ पिट्सबर्ग में लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा था तो दो महिलाएँ आपस में बात करती हुई आयीं। वेशभूषा से मुसलमान लग रही थीं और उर्दू में बात कर रही थीं। उनमें से एक ने मुझसे पंजाबी उच्चारण की उर्दू में पूछा कि मैं कहाँ से हूँ। मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही दूसरी चहकी, "अपने पाकिस्तान से हैं, और कहाँ से होंगे?"

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला, "मैं एक भारतीय।"

पुनश्च: मैंने हाल ही में जब यह कहानी अपने गुजराती मित्र को सुनाई तो वे मुझे दूसरे पैराग्राफ पर ही रोककर अनवरत हँसने लगे, "अरे, तुम्हें कश्मीरी कौन समझेगा? तुम तो पक्के गुजराती लगते हो।"

Monday, July 21, 2008

पाकिस्तान में एक ब्राह्मण की आत्मा

कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।

धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।

एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"

उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।