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Sunday, August 21, 2011

कोकिला, काक और वो ... लघुकथा

काक
खुदा जब बरक्कत देता है तो आस-औलाद के रूप में देता है। पिछले बरस काकिनी ने 5 अंडे दिये थे। शाम को जब हम भोज-खोज से वापस आये तो अंडे अपने-आप बढकर दस हो गये। कोई बेचारी शायद फ़ॉस्टर-पेरेंट्स की तलाश में थी। हम दोनों ने सभी को अपने बच्चों जैसे पाला। इस बरस दूसरे पाँच तो उड गये, खुदा उन्हें सलामत रखे। हमारे पाँच सहायता के लिये वापस आ गये हैं, हम तो इसी में खुश हैं।

कोकिला
कैसे मूर्ख होते हैं यह कौवे भी। पिछले बरस भी मैं अपने अंडे छोड आयी थी। बेवक़ूफ अपने समझकर पालते रहे। कितना श्रम व्यर्थ किया होगा, नईं? खैर, अपनी-अपनी किस्मत है। अब इस साल फिर से ... अब अण्डे सेना, बच्चे पालना, कोई बुद्धिमानों के काम तो हैं नहीं। कुछ हफ़्तों में जब पले पलाये उड जायेंगे तब मिल आऊंगी। मुझे तो दूसरे कितने बडे-बडे काम करने हैं इस जीवन में। पंछीपुर के मंत्रिमंडल के लायक भी तो बनाना है अपने बच्चों को। चलो, आज के अण्डे रखकर आती हूँ मूर्खों के घर में।

हंस
पंछीपुर तो बस अन्धेरनगरी में ही बदलता जा रहा है अब धीरे-धीरे। गरुडराज को तो अन्धाधुन्ध शिकार के अलावा किसी काम-धाम से कोई मतलब ही नहीं रहा है अब। मंत्रिमंडल में सारे के सारे मौकापरस्त भर गये हैं। आम जनता भी भ्रष्ट होती जा रही है। कोकिला तक केवल ज़ुबान की मीठी रह गयी है। मुझ जैसे ईमानदार तो किसी को फ़ूटी आँख नहीं सुहाते। सच बोलना तो यहाँ पहले भी कठिन था, लेकिन अब तो खतरनाक भी हो गया है। मैं तो कल की फ़्लाइट से ही चला मानसरोवर की ओर ...

गरुड
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम। काम करने के लिये तो चील-कौवे हैं ही। राज-काज का भार कोयल और मोर सम्भाल लेते हैं। अपन तो बस शिकार के लिये नज़रें और पंजे तेज़ करते हैं और जम के खाते हैं। और कभी कभी तो शिकार की ज़रूरत भी नहीं पडती। आज ही किस्मत इतनी अच्छी थी कि घोंसला महल में अपने आप ही पाँच अंडे आ गये। पेट तो तीन में ही भर गया, दो तो सांपों के लिये फेंकने पडे। आडे वक्त में काम तो वही आते हैं न!

[समाप्त]

प्रसन्नमना मोर, नववृन्दावन मन्दिर वैस्ट वर्जीनिया में