Monday, November 14, 2011

क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है - सारांश

ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह नामक चार प्रमुख पाप चिह्नित किये गये हैं। क्रोध का दुर्गुण असहायता, कमजोरी और कायरता का लक्षण है। पिछली प्रविष्टियों: 1. क्रोध पाप का मूल है एवम् 2. मन्युरसि मन्युं मयि देहि के बाद आइये कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों में मन्यु को पहचानने का प्रयास करें।
अब आगे:

भक्त प्रह्लाद के रक्षक नृसिंह भगवान
गुरु तेगबहादुर जी के समय के सिख भाई कन्हैया जी जब गुरु गोविन्द सिंह के दर्शन करने आनंदपुर साहब आये उसी समय मुग़लों के पहाड़ी क्षत्रपों ने सिखों पर हमला कर दिया। सिख अपने शस्त्र लेकर मुकाबला करने लगे परंतु भाई कन्हैया जी पानी से भरी मशक लेकर युद्धरत व घायल सैनिकों की प्यास बुझाने लगे। बाद में कुछ सैनिकों ने गुरुजी से उनकी शिकायत की कि वे मुग़ल सैनिकों को भी बराबरी से पानी पिला रहे थे। गुरुजी ने सबके सामने उनसे वार्ता की। भाई कन्हैया जी ने स्वीकार करते हुए कहा कि उन्हें तो हर व्यक्ति में परमात्मा दिखता है सो वे सिख, मुग़ल का भेद किये बिना सबको जल पिला देते हैं। कहते हैं कि गुरुजी ने उनके सेवाभाव और समदृष्टि का सम्मान करते हुए उन्हें घायलों की शुश्रूषा के लिये औषधि भी प्रदान की। सेवापंथी के संस्थापक भाई कन्हैया जी ने युद्धभूमि में भी अपना पराया भूलकर सेवाकार्य कर सकने की उदात्त प्रवृत्ति का जीता जागता ऐतिहासिक उदाहरण हमारे सामने रखा है।
कई लोग सोचते हैं कि धैर्य कमज़ोरी का चिह्न है। मेरी दृष्टि में यह सोच ग़लत है। क्रोध कमज़ोरी का चिह्न है जबकि धैर्य बलवान का लक्षण है। ~ महामहिम दलाई लामा

भगवान की गदा और निर्भय बच्चे
एक देवासुर संग्राम से विजयी होकर लौटे सेनापति के स्वागत समारोह में जब इन्द्र ने उन्हें अपना पुरस्कार स्वयं चुनने को कहा तब उन्होंने पुरस्कार में एक जिज्ञासा के समाधान के लिये प्रश्न पूछा कि यदि देव समदृष्टा हैं तो फिर उनका असुरों से हिंसक संघर्ष क्यों होता है? इन्द्र का उत्तर था कि आसुरी हिंसा का प्रतिकार करके देव संसार में अन्याय फैलने से रोकते हैं परंतु उन्हें किसी असुर-विशेष से कोई द्वेष नहीं है, किसी असुर पर क्रोध नहीं है।

अपने प्रति अन्याय होता दिखे तो पशु भी प्रतिकार करते हैं परंतु बाकी चारों ओर अन्याय की बाढ़ आने पर भी लोग अक्सर कन्नी काटते दिखें तो कहा जाता है कि क्या तुम्हारा खून नहीं खौलता? शास्त्रों में ऐसे अन्याय का प्रतिकार मन्यु करता है। खून का अस्थाई उबाल क्रोध है परंतु जैसा कि पिछली कड़ियों में कहा गया, मन्यु का भाव एक मानसिक अवस्था है, जोकि न तो अस्थाई है, न "स्व" से सम्बद्ध है और न ही उसके लिये क्रोध की कोई आवश्यकता है। मन्यु का भाव बालक प्रह्लाद की रक्षा के लिये नृसिंह अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु का काल भी बन सकता है और तेलंगाना की मानवीय-आर्थिक समस्या देखकर विनोबा के रूप में विश्व का सबसे बड़ा भूदान यज्ञ भी कर सकता है। यही मन्यु भाई कन्हैया के रूप में शत्रुपक्ष की शुश्रूषा भी कर सकता है। रूप रौद्र हो, सौम्य हो या करुणामय, मन्यु के साथ बल, धैर्य, समता और सहनशीलता तो है परंतु क्रोध, द्वेष आदि कहीं नहीं हैं। मन्यु को सात्विक क्रोध कहना या तो इस जटिल गुण की प्रकृति के बारे में नासमझी  है या इस जटिल उद्गार को सहज-सम्प्रेषणीय बनाना मात्र है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण ऐसा नहीं लगता कि मन्यु को क्रोध के निकट रखा जाये।
समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः। समुद्रायेव सिन्धव:।। (ऋग्वेद 8/6/4)
जैसे नदियाँ सागर को नमनपूर्वक आकर्षित होती हैं, मन्युमय इन्द्र के लिए समस्त कृष्टियाँ (विकसित मानव) वैसे ही नमनपूर्वक आकर्षित होते हैं। यहाँ सायणाचार्य द्वारा मन्यु का अर्थ नमन/स्तुति लिया गया है। ग्रंथों में जब मन्युदेव का रौद्र मानवीकरण किया गया है तब "धी" उनकी संगिनी हैं जिससे मन्यु और विवेक का सहकार सिद्ध होता है। महादेव शिव का एक नाम तिग्म-मन्यु भी है जहाँ तिग्म का अर्थ तेजस्वी या तीक्ष्ण है। अखिल भारतीय गायत्री परिवार के अनुसार अनीति से संघर्ष करने के साहस का नाम ही "मन्यु" है।
क्रोधी स्वयं अस्थिर हो जाता है। मन्युशील व्यक्ति स्वयं संतुलित मनःस्थिति में रहते हुए दुष्टता का प्रतिकार करते हैं। ~पंडित श्रीराम शर्मा
इस सप्ताहांत किसी समारोह में कुछ पुराने मित्रों से मुलाक़ात होने पर मैंने पूछा कि क्या क्रोध सकारात्मक हो सकता है। जहाँ सबने एक पल भी लिये बिना नकारात्मक उत्तर दिया वहीं एक मित्र ने बात आगे बढ़ाते हुए यह भी कहा कि क्रोध वह है जिसे करने के बाद बुद्धिमान व्यक्ति को दुःख अवश्य होता है। जहाँ नेताजी की बेटी अनिता बोस फ़ैफ़ अल्पायु में अपने पिता के चले जाने के बाबत पूछने पर अपने त्याग को मामूली बताती हैं वहीं हरिलाल गांधी ने माता-पिता को सज़ा देने के लिये अपना खान-पान व चाल-चलन तो दूषित किया ही, अंततः अपना धर्म-परिवर्तन भी किया। मुझे पहले उदाहरण में शांत मन्यु दिखता है जबकि दूसरे उदाहरण में उग्र क्रोध। अनिटा को अपने पिता पर गर्व है जबकि हरिलाल को अपने पिता के राष्ट्रपिता होने से शिकायत है।
विजेषकृदिन्द्रइवानवब्रवोSस्माकं मन्यो अधिपा भवेह।
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ॥ (ऋग्वेद 10/84/5)
इन्द्र के समान विजेता, हे मन्यु! असंतुलित न बोलने वाले आप हमारे अधिपति हों! हे सहिष्णु मन्यु! हम आपके निमित्त प्रिय स्तोत्र का उच्चारण करते हैं। हम उस विधा के ज्ञाता हैं जिससे आप प्रकट होते हैं।

सदा संतुलित बोलने वाले भी क्रोधित होने पर असंतुलित हो जाते हैं। सदा सहिष्णु दिखने वाले भी क्रोधित होने पर असहिष्णु दिखने लगते हैं। परंतु मन्यु में वाक-संतुलन भी है और सहिष्णुता भी।
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुण्श्च मन्यु:।
भियं दधाना हृदयेषु शत्रव: पराजितासो अप नि लयन्ताम्‌॥ (ऋग्वेद 10/84/7)
हे वारणीय मन्यु! आप सृजित व संरक्षित ऐश्वर्य प्रदान करें। भयभीत हृदय वाले शत्रु पराभूत होकर दूर चले जायें!

उपरोक्त व कुछ अन्य सम्बन्धित मंत्रों की व्याख्या के आधार पर निम्न सारणी में मन्यु के लक्षण व तुलनात्मक रूप में क्रोध के लक्षण समाहित करने का प्रयास है। कृपया देखिये और अपने विचारों से अवगत कराइये।
 
क्रोध मन्यु टिप्पणी
परवश समर्थ असहाय महसूस करने की अवस्था में भी क्रोध आता है। समर्थ को वह स्थिति नहीं आती
अशिष्ट विनम्र क्रोध में शिष्टाचार खो जाता है
क्षणिक आवेश स्थायी भाव क्रोध रक्त का उबाल है, मन्यु मन की धारणा/अवस्था है
क्षणिक आवेश विवेक, बुद्धि क्रोध रक्त का उबाल है, मन्यु में मन, बुद्धि, विवेक, धी है
बुद्धिनाश धी ग्रंथों में विवेकबुद्धि धी को मन्यु की सहयोगी बताया है
अहंकार निर्मम क्रोध के मूल में "मैं/मेरा" का भाव है जबकि मन्यु में परहित, जनकल्याण है
झुंझलाहट उत्साह क्रोध असंतोष का मित्र है
कायरता वीरता स्वार्थ के लिये कायर भी गाली दे सकते हैं। अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने की वीरता के लिये क्रोध की आवश्यकता नहीं है।
वीभत्स/दयनीय रौद्र मन्यु रौद्र हो सकता है मगर क्रोध जैसा दयनीय (पिटियेबल) या वीभत्स नहीं
क्रूर दयालु क्रोध के मूल में अपने लिये दूसरों का अहित है, मन्यु के मूल में जनकल्याण है
विनाश रक्षण/सृजन क्रोध विनाशकारी है, मन्यु सृजनकारी है
स्वार्थ परमार्थ क्रोध आत्मकेन्द्रित होता है
अन्याय न्याय मेरा-तेरा से कहीं ऊपर, मन्यु न्यायप्रिय है
मेरा पक्ष साक्षी भाव मन्यु में "मेरा पक्ष" नहीं है
लिप्तता तटस्थ मैं और मेरा बनाम निष्पक्षता, न्यायप्रियता
बड़े बोल संतुलित बात ऋग्वेद 10/84/5
सूरां वाणी सारथक, कायर उपजै ताव|
कायर वाणी जोसरी, सूर न आवै साव||
(~स्व.आयुवानसिंह शेखावत)
वीरों की वाणी सदैव सार्थक होती है| कायर को केवल निष्फल क्रोध आता है| कायर मात्र जोशीले बोल बोलते है परन्तु शूरवीर थोथी बड़ाई नहीं करते|

क्रोधी आदमी कायर होता है। आपने भय को छुपने के लिए हिंसा करता है, ताकि उसे पता न चले की मैं कमजोर हूं। आपके ये हिटलर, मुसोलनी ,नादिर शाह….कायर है। बुद्ध महावीर प्रेम से भरे है उनके पास कोई हिंसा नहीं है। ~स्वामी आनंद प्रसाद "मनसा"

[सम्पन्न]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* क्रोधोपचार - निशांत मिश्र (हिन्दीज़ेन)
* मन्यु - पुराण विषय अनुक्रमणिका
* उपमन्यु - पुराण विषय अनुक्रमणिका
* दिव्य लाभ मिल गए यज्ञ से, मन्यु और सामर्थ्य भरे
* मन्यु सूक्त (यूट्यूब)

60 comments:

  1. क्रोध और मन्यु के बारे में आपने विस्तार से समझाया.मुझे इन दोनों में एक सीधा और खास कारण यह ज्यादा जमा कि क्रोध 'स्व' के लिए होता है और मन्यु 'सार्वजनिक' !मन्यु का परिप्रेक्ष्य विशाल है जबकि क्रोध का एक निश्चित दायरा है !

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  2. अद्भुत -यह विवरणात्मक और विस्तार -शैली और विषय का प्रवर्तन /विवेचन !

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  3. आपको प्रणाम, कॉपी कर रख लिया है, आगे बहुत काम आने वाला है।

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  4. बहुत अच्छी पोस्ट इतनी अच्छी जानकारी के लिये
    आभार !

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  5. बहुत ही सार्थक चिंतनयुक्त व वंदनीय पोस्ट ।
    इस सद्कार्य को दिल से नमन ।
    मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ की शांति,सहिष्णुता,दया,प्रेम मानवता,धैर्य ये वीर पुरुषों के लक्षण है ।
    आपने इसी माध्यम से संतों के चरित्र को भी परिभाषित किया है ।

    गोस्वामी जी ने कहा है-

    बालकाण्ड:

    जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
    सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥7॥

    हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥

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  6. एक कहानी है | एक ज्ञानी ब्राह्मण और एक युवक के बीच शास्त्रार्थ की | ब्राह्मण की पत्नी ही इसकी निर्णायक थीं | वे कुछ समय को काम से बाहर गयीं, और वापस आते ही अपने पति को हारा हुआ कहा | कारण ?

    उनके पति के गले में धारी हुई पुष्पमाला मुरझा गयी थी, जबकि युवक की अब भी ताज़ी थी | इससे उन्होंने जाना कि उनके पति को क्रोध आया होगा - यह दर्शाता है कि क्रोध हार की निशानी है | जो सही और सत्य होकर भी, विचार विमर्श कर्म करते हुए भी क्रोधित न हो - वह क्रोध करने वाले से श्रेष्ठ सिद्ध होता है |

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    1. Bahut bdiya trah se aapne samjha Diya h sir

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  7. बहुत ही विस्तार से विश्लेषण किया है...
    एक संग्रहणीय आलेख...

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  8. परन्तु - एक संशय है -

    क्रोध कायरता है ?

    क्रोध एक कमजोरी है , एक नकारात्मक ऊर्जा है, हार का आभास है, ..... आदि तो मैं मानती हूँ | पर क्या क्रोध कायरता है ? इसे समझा सकेंगे ?

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  9. @ क्रोध कायरता है ?

    शिल्पा जी, आपका सवाल बहुत अच्छा है। कमज़ोरी सटीक शब्द है, सुधार कर दिया है।

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  10. गोरी काया काली काया सब में उसकी माया!

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  11. अद्दुत!!
    तीनो भाग इस सीरीज के बहुत बढ़िया है..
    इस भाग में खास कर अंतिम टेबल जिसमे आपने तुलना की है, वो अद्दुत है..

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  12. सार्थक एवं जीवनोपयोगी
    आभार

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  13. मानव जीवन के एक लुप्तप्रायः भाव मन्यु की पुनर्स्थापना की यह श्रेणी दस्तावेज बन गई है।

    बहुत बहुत आभार!!

    स्वार्थ युक्त क्रोधी छ्द्मावरण धारण कर नजर न लगा दे मन्यु को!!

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  14. अद्भुत विवेचना।
    धैर्य निश्चित ही कमजोरी का लक्षण नहीं है।
    तुलनात्मक अध्ययन से स्थिति काफ़ी हद तक स्पष्ट हो गई है।

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  15. ये जानते हुए भी कि क्रोध कमज़ोरी है, इस पर नियंत्रण बड़ा मुश्किल हो जाता है। पहली घटना पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

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  16. सकारात्मकता से जोडती सार्थक पवित्र अद्भुत विवेचना .....

    इसे ह्रदय में संजो कर रख लिया जाय तो जन्म जीवन सार्थक हो जाए....

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  17. सुन्दर प्रवचन ।
    संग्रहणीय पोस्ट ।
    आभार ।

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  18. शिल्पा जी ! ग्रामोफोन की सुई अभी भी "कायरता" पर ही अटकी हुयी है. हमारे देश में नारी को देवी तुल्य यूँ ही नहीं स्वीकारा गया है. उम्र में भले ही आप हम सबसे छोटी हों पर आपकी विश्लेषण बुद्धि विलक्षण है. किसी वैज्ञानिक के लिए यह क्षमता अनिवार्य है. चलिए, विषय पर आते हैं. अनुराग जी ने सुधार के बाद कहा कि क्रोध दुर्बलता है कायरता नहीं. क्या इसे यूँ समझा जाय कि क्रोध वीरता का लक्षण है ? जबकि अनुराग जी के प्रतिपाद्य विषय की ध्वनि है - "वीरों का आभूषण मन्यु है, क्रोध नहीं".
    क्रोध का सम्बन्ध कायरता से है या वीरता से ......पुनः विचार करिए .......

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  19. शिल्पा जी व कौशलेन्द्र जी,
    मैंने यह नहीं कहा कि क्रोध कायरता नहीं है। बस इतना कहा कि "मन्यु शक्ति है" - इस वाक्यांश के साथ "क्रोध कमज़ोरी है" वाक्यांश (अधिक) सटीक है। क्रोध कायरता भी है इसमें मुझे कोई शक नहीं है। मच्छर काटने पर क्रोध आये तो लोग उसे मसल देते हैं मगर शक्तिशाली से पिटने पर क्रोध आते हुए भी वही लोग पहले भागकर हड्डी-पसली-जान बचाते हैं फिर गालियाँ बकते हैं। खुद को काटने वाले मामूली कीट को मारना वीरता नहीं है, न ही ताकतवर के पीठ पीछे रोष दिखाना।

    क्रोध में रिक्शेवाले बूढे या चायवाले लड़के पर बेधड़क हाथ उठानेवाले वीर अपने बॉस की डाँट सुनकर मन ही मन क्रोधित होते हुए भी अक्सर "यस सर" करते हुए देखे जाते हैं।

    ऐसे अनेक उदाहरण हो सकते हैं। अगर मन्यु, संयम, सहनशीलता, बल आदि गुणों का संगम है तो वीरता कहाँ जायेगी और जिस मन में इनका अभाव है वहाँ कायरता, हताशा और क्रोध का घर आसानी से बनेगा।

    बातें और भी हैं, फिर भी थोड़े कहे को बहुत समझने का अनुरोध है।

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  20. आचरण में उतारने से ही क्रोध से मन्यु तक की यात्रा संभव है। पढ़कर तो ज्ञानी हम भी हो गये।
    ...शानदार श्रृंखला।

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  21. जी, आप सभी का आभार!

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  22. वाह | यह aspect तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था |
    :)
    धन्यवाद - इस नए आयाम को clarify करने के लिए | सच है - क्रोध कायरता भी है |

    आपसे सहमत

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  23. अनुराग जी सच मे अद्भुत और संग्रहणीय आलेख है। पढ सब को रही हूँ लेकिन अभी अधिक टाइप नही कर पाती। इस लिये पूरी तरह सक्रिय नही हो सकती\ हाथों मे भी दोबारा प्राबलम शुरू हो गयी है। आपकी दुआ से जल्दी अच्छी हो जाऊँगी। अभी साहस नही छोडा। धन्यवाद।

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  24. आदरणीय निर्मला जी,

    टाइपिंग/ब्लॉगिंग आदि तो चलते रहेंगे। आप बस अपने स्वास्थ्य का जितना भी ख्याल रख सकती हैं, रखिये।

    शुभकामनायें!

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  25. बहुत बढ़िया और ज्ञानवर्धक आलेख

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  26. मैं यही सोच रहा हूं कि मन्यु हमारी शब्दावली का एक प्रचलित शब्द क्यों नहीं है?

    क्यों इस शब्द के अर्थ को समझाने के लिए इतनी लंबी लेख-श्रृंखला चलाने की जरूरत पड़ रही है।

    हमारे समाज में, हमारे आपसपास के परिवेश में, और हमारे व्यक्तित्व से इस तत्व का इतना ह्रास हो गया है कि यह शब्द ही लुप्तप्राय हो गया है।

    आपने क्रोध और मन्यु के बीच के फर्क को स्पष्ट करने के लिए जो मेहनत की है, उससे एक फायदा तो यह जरूर होगा कि अगली बार जब कभी क्रोध आएगा तो तुरंत यह सवाल भी अंतर्मन उठाएगा कि यह मन्यु नहीं है, यह गलत है, यह कमजोरी है।

    आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूं !

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  27. क्रोध कमजोरी है। मेरी कमजोरी का अहसास कराती पोस्ट। और यह भी अहसास कि समय के साथ कमजोरी कम हो रही है!


    पर क्या वास्तव में?

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  28. मेरे लिए तो यह श्रृंखला एक ग्रन्थ के समान है.. कितनी बातें सीखने को मिलती हैं यहाँ!!

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  29. आपने बहुत अच्छा लिखा है ! बधाई! आपको शुभकामनाएं !
    आपका हमारे ब्लॉग http://tv100news4u.blogspot.com/ पर हार्दिक स्वागत है!

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  30. सारे अंश आज , अभी पढ़े।
    कहना वही है समवेत स्वरों में, साधु!!

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  31. बहुत ही गहरी पोस्ट है ... दिमाग की कई भ्रांतियों और सोच को दिशा देती है ... और तुलनात्मक अध्यन तो हर शब्द पर रुकने को विबश करता है ...

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  32. पढ़ने के बाद मंद पवन के शीतल झोके की तरह हल्का हो गया हू |

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    1. अभय जी,
      बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपके लिए!!
      अनुराग जी, आपका श्रम सार्थक हुआ।

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  33. आपकी पुरानी आलेख श्रुन्खालायें दुबारा पढ़ रही हूँ | बहुत अच्छा सन्देश दे रहे हैं आप | दुबारा पढने पर थोडा और साफ़ हुए - फिर एक बार पढूंगी दो तीन महीने बाद - तब शायद और भी क्लियर होगा | इस शृंखला के लिए आपका बहुत आभार |

    @आसुरी हिंसा का प्रतिकार करके देव संसार में अन्याय फैलने से रोकते हैं परंतु उन्हें किसी असुर-विशेष से कोई द्वेष नहीं है, किसी असुर पर क्रोध नहीं है।
    - जी |
    गीता में श्री कृष्ण भी धर्म (कर्त्तव्य) के लिए साक्षी और निमित्त मात्र हो कर युद्ध करने को कहते हैं | क्रोध / बदला / द्वेष आदि के लिए नहीं |महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले - जब कृष्ण हस्तिनापुर जाने वाले थे शान्ति सन्देश लेकर - तब युधिष्ठिर ही सहमत थे उनसे | बाकी चारों भाई और द्रौपदी नाराज़ थे |भीम कह रहे थे मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा ? द्रौपदी कहती थीं की मेरे खुले केशों का क्या होगा | किन्तु कृष्ण ने कहा था की तुम्हारी प्रतिज्ञा के cost पर यदि शान्ति मिले - तो शान्ति बड़ी सस्ती मिली | द्रौपदी से कहा की क्या तुम्हारे सुन्दर केशों में इतनी शक्ति है की वे उन अगणित लाशों का वजन उठा सकें जो इस युद्ध में गिरेंगी ?
    फिर युद्ध शुरू होने के बाद ये ही अर्जुन प्रिय जनों के प्राणों के खोने से डर कर कायरता को प्राप्त हुए - क्योंकि वे मन्यु के साथ नहीं, बल्कि क्रोध के उबाल से युद्ध में उतरे थे | तब कृष्ण ने उन्हें क्रोध नहीं, कर्तव्य भाव से युद्ध की प्रेरणा दी |
    ---------------------------
    अर्जुन और भीम का क्रोध कायरता नहीं - लाचारी से उत्पन्न हुआ था | क्रोध नासमझी हो सकता है, लाचारी भी - परन्तु यह कायरता शब्द मुझे अब भी ठीक नहीं लग रहा | आपने जो उदाहरण दिया - वहां कायरता है - परन्तु यह एक subset जैसा उदाहरण है - superset जैसा नहीं | क्रोध हमेशा कायरता नहीं दर्शाता |
    ---------------------------
    एक विनम्र प्रार्थना - जब भी आपको समय हो - क्या आप साक्षी भाव और निमित्त भाव पर प्रकाश डालते हुए कुछ लिखेंगे ?
    और एक प्रश्न भी - ग्रंथों का, उपनिषदों का कहाँ से अध्ययन शुरू करना उचित होगा ? meaning - किस जगह शुरुआत की जाए ? इतना कुछ है पढने जान्ने को - और समय सीमित है हमारे पास |

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    1. नई टिप्पणी के लिये आभार! सुन्दर और सटीक उदाहरण। आपने तीन बिन्दुओं पर बातें कीं, 1. क्रोध के कारणों में कायरता या लाचारी, 2. साक्षी व निमित्त भाव, और 3. उपनिषदों का अध्ययन, मैं अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हूँ:

      1. कायरता या लाचारी क्रोध के अनेकानेक कारणों में से हैं और उन्हें सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। क्रोध वीरता है या वीरोचित गुण है - इस बात से शुरू हुई इस वार्ता में मन्यु का ज़िक्र करते हुए क्रोध का वही सन्दर्भ मुख्यतः आया है। क्रोध वीरता से न केवल अलग है बल्कि उसका विरोधी अवगुण है और स्वभावतः कायरता है। जहाँ लाचारी, अभिमान आदि क्रोध के कारकों में से हैं वहीं क्रोध स्वयम्ं कायरता का ही एक रूप है।

      2. मैं शायद इसकी शास्त्रीय व्याख्या का अधिकारी नहीं हूँ। कुछ भक्तों से समझने का प्रयास किया मगर शायद मेरी बुद्धि अभी उतनी तरल नहीं हुई है कि पूरी तरह ग्रहण कर सकूँ। फिर भी मेरे विचार में कर्तव्य निर्लिप्त होकर किया जाना चाहिये। मैं (और मेरे - मित्र, शत्रु, स्वार्थ, धर्म, देश, लिंग, जाति, भाषा, क्षेत्र, आयु, वैवाहिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति आदि) से ऊपर उठे बिना साक्षी या निमित्त कैसे हुआ जा सकता है?

      3. अध्ययन के बारे में भी मैं निपट अनाड़ी हूँ, फिर भी ईशोपनिषद से आरम्भ करने को कहूँगा। इसमे केवल 18 मंत्र हैं। मैने पहला स्क्रिप्चर वही समझा था।

      शुभमस्तु!

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    2. आभार |

      जी - क्रोध वीरता तो हरगिज़ नहीं है - क्रोध एक कमजोरी है , नकारात्मक ऊर्जा है, हार और लाचारी का आभास है, ..... आदि तो मैं मानती हूँ | कायरता वाली बात कुछ समझ आ नहीं रही | मेरी ही अल्पबुद्धि का दोष होगा :)

      जी - इशोपनिषद से शुरुआत करती हूँ | आगे मार्गदर्शन दीजियेगा :)

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    3. एक और प्रश्न |
      क्या superiority complex या inferiority complex भी क्रोधके कारक होते होंगे ?

      superiority complex अर्थात झूठी श्रेष्ठता के अवधारणा की वजह से इससे ग्रसित व्यक्ति अपने विचारों को दूसरो के विचारों से श्रेष्ठ मान कर अपनी विचारधारा को सारे समाज पर थोपने का प्रयास करेगा - और स्वाभाविक ही है की इसमें सफल नहीं होगा | न इस जनतंत्र के समय में, न पुराने राजतंत्र के समय में (राजा और मंत्रियों के अलावा बाकी नागरिक जन तब भी बराबर माने जाते होंगे | न राम राज्य में, न रावण राज्य में | जो सच ही में श्रेष्ठ हों, उनकी बात और है - क्योंकि उनकी बातें लोग follow करते हैं - जैसे - सुभाषचंद्र बोस जी | मैं सच्ची superiority की नहीं, false सुपेरिओरिटी काम्प्लेक्स की बात कर रही हूँ | इस असफलता से जनित पराजय, निराशा और कुंठा से फिर क्रोध आएगा |

      inferiority complex अर्थात हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपने ही मन में यह माने बैठा होगा की मैं हीन हूँ, दूसरों से कमतर हूँ | तब - दूसरे उसे भले ही नीचा न दिखा रहे हों, उसका अपमान न कर रहे हों, तब भी उसे बारम्बार यह भ्रान्ति होती रहेगी की वह अपमानित किया जा रहा है | इससे जन्म लेगी कुंठा और कुंठा से जन्म लेगा क्रोध |

      क्या यह कारण logical लगते हैं ?

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    4. विद्वानों की सभा में अनधिकार घुसने का प्रयास कर रहा हूँ… :)

      @कायरता वाली बात कुछ समझ आ नहीं रही |

      मान्यवर्या शिल्पा जी,

      'क्रोध' पर हम समग्र दृष्टि से चिन्तन करें तो 'कायरता' स्पष्ट परिलक्षित होती है।
      लाचारी, मजबूरी, विवशता, परवशता सभी कायरता के ही लक्षण है, बस मात्र कायरता के भद्र संरक्षण शब्द मात्र। वीर कितने भी दुष्कर विचार के आगे न लाचार होता है न विवश न उस विचार के वश होता है। सुक्ष्म चिंतन करें, क्रोध स्वयं विवशता जैसी कमजोरियों की देन है। और विवश परवश होना कायरता ही है।

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    5. शिल्पा जी, आपकी बात सही है, कमज़ोरियाँ एक दूसरे की सगी होती हैं। किसी ज़ंजीर को तोड़ने के लिये सबसे कमज़ोर कड़ी को तोड़ना काफ़ी है।

      सुज्ञ जी, आपके विद्वतापूर्ण विचारों और अनुभवी दृष्टि का सदा स्वागत है, कृपया अनाधिकार कहकर शर्मिन्दा न करें। क्रोध और कायरता का सम्बन्ध स्पष्ट करने का आभार!

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    6. superiority complex और inferiority complex दोनो ही अहंकार जनित अवगुण या कमजोरियाँ है। अहंकार पर चोट या अहंकारवश क्रोध की उत्पत्ति प्रमाणीत सिद्ध है। विवशता लाचारी के कारण क्रोध आने के पिछे भी आखिर तो अहंकार अभिमान ही तो कारण है।

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    7. बिलकुल सच है | मूल में तो अहंकार ही है |

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  34. आदरणीय अनुराग जी - आभार |

    आदरणीय सुज्ञ जी - आपका आभार | पहली बात तो - please इसे अनधिकार चेष्टा न कहें | मैं इस विषय की एक विद्यार्थी भर हूँ - और आप और अनुराग जी जैसे विद्वानों से विषय को समझने के प्रयास में प्रश्न कर रही हूँ - बस | शिष्य के पूछने पर गुरु का समझाना - अनाधिकार चेष्टा नहीं होती :) | गीता में कहा गया है कि "प्रश्न और परिप्रश्न कर के ही विषय को ठीक से समझा जा सकता है |" सो आप दोनों ज्ञानीजनों से पूछ रही हूँ |

    मेरे विचार में ये सब कमजोरियां - सब एक दूसरे को पोषित करती संगिनियाँ, सखियाँ, सहेलियां तो है - परन्तु ये सब "एक ही" नहीं हैं | विवशता/ लाचारी/ परवशता अनेक प्रकार से जनित हो सकती है - आवश्यक नहीं की वह कायरता जनित ही हो | जैसे - जब प्रभु अवतार लेकर आते हैं - तो वे मानव मर्यादाओं में खुद को बाँध कर आते हैं, और मानव मर्यादाओं से विवश होते हैं | श्री राम भी मर्यादाओं में बंधे थे |

    ऊपर के उदाहरण में भीम और अर्जुन क्रोधित थे - लाचारी से - क्योंकि वे भ्रम वश यह समझ बैठे थे की भाई के अधर्म (पत्नी को दांव पर लगाना ) को भी शिरोधार्य करना उनका कर्त्तव्य है | वे लाचार हुए - द्रौपदी का अपमान हुआ - वे क्रोधित हुए | इसी प्रकरण में - भीष्म भी लाचार थे - क्योंकि उन्होंने स्वयं को प्रतिज्ञा में बांध लिया था, द्रोण भी लाचार थे - क्योंकि द्रुपद से बदला लेने के लिए उन्होंने स्वयं को धुताराष्ट्र का रिनी बना लिया था | इसमें कायरता नहीं थी - भीम, अर्जुन, भीष्म, द्रोण - इनमे से एक भी व्यक्ति किसी भी परिभाषा से कायर नहीं था उस वक्त - लेकिन विवश ये सभी थे | क्योंकि इसमें ये सब ही निज क्षति के डर से नहीं बल्कि अपनी अपनी मर्यादा से विवश थे | विवशता और कायरता के बीच वैसी ही पतली रेखा है - जैसी मन्यु और क्रोध के बीच है |

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    1. @जब प्रभु अवतार लेकर आते हैं - तो वे मानव मर्यादाओं में खुद को बाँध कर आते हैं, और मानव मर्यादाओं से विवश होते हैं | श्री राम भी मर्यादाओं में बंधे थे|

      शिल्पा जी,
      जैसे आपने क्रोध और मन्यु के अन्तर को जान लिया ठीक वैसे ही विवशता और मर्यादा में अन्तर है। क्रोध और मन्यु में बारीक नहीं नितांत विरोधी अन्तर है। चिंतन अति सुक्ष्म जरूर है पर भारी अन्तर है मन्यु कल्याणकारी है वहीं क्रोध पतनकारी।

      अनुशासन मर्यादा संयम आदि में आत्मनियंत्रण है। स्वयं खुद पर स्वीकार किया गया संकल्प या प्रण। किन्तु विवशता, लाचारी, परवशता किसी बाहरी शक्ति य विचार द्वारा थोपा गया होता है। किसी भी तरह की प्रतिकूलताओं से शिथिल बनकर लाचार या विवश हो जाने वाला कायर ही कहलाएगा। कौन उसे वीर का सम्मान देगा। किन्तु दृढ मनोबल से स्वयं पर अनुशासन करने वाला, मर्यादा धारी निश्चित ही वीर माना जाएगा।

      इसलिए विवशता/ लाचारी/ परवशता जिस किसी प्रकार से जन्मे, भय से ही उत्पन्न होती है। कुछ खो देने का भय, बुरा माना जाने का भय, अपनो को खो देने का भय, प्रेम से वंचित रहने का भय, सम्मान खोने का भय। और जो भय से भयाक्रांत हो जाय कायर ही होता है।
      जो ऐसे सभी भय से उभर कर उन भय के कारणों को समूल नष्ट करने निदान स्वरूप मर्यादाएं धारण करता है शौर्यवान कहलाता है। इसलिए मर्यादा व विवशता भी परस्पर विपरित भाव है।

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    2. आदरणीय सुज्ञ जी - आभार आपका | हाँ - आपकी बात समझ आती है | इस दृष्टी से देखा जाय - तो उनकी "लाचारी" कायरता से ही उपजी हुई थी | आभार यह इतना साफ़ साफ़ समझाने के लिए | इसलिए आप दोनों से पूछती रहती हूँ बार बार | देखिये - ऐसे समझाने से समझ में आ ही गया :) | विवशता और मर्यादा का फर्क भी समझ आ रहा है |

      क्षमा चाहूंगी - बार बार प्रश्न पूछ कर आप दोनों को परेशान करती हूँ | परन्तु अब यह समझ आ गया की वह "लाचारी" कायरता का ही एक रूप थी |

      यह भी समझा सकें कि "क्रोध" भी कायरता ही है ( यह मैं समझ पा रही हूँ की यह क्रोध कायरता से "उपजता है" - परन्तु क्रोध कायरता "ही है" यह नहीं समझ पा रही हूँ ) - तो आभार होगा | यह अभी क्लियर नहीं हुआ है मुझे |

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    3. आदरणीय सुज्ञ जी - आभार आपका | हाँ - आपकी बात समझ आती है | इस दृष्टी से देखा जाय - तो उनकी "लाचारी" कायरता से ही उपजी हुई थी | आभार यह इतना साफ़ साफ़ समझाने के लिए | इसलिए आप दोनों से पूछती रहती हूँ बार बार | देखिये - ऐसे समझाने से समझ में आ ही गया :) | विवशता और मर्यादा का फर्क भी समझ आ रहा है |

      क्षमा चाहूंगी - बार बार प्रश्न पूछ कर आप दोनों को परेशान करती हूँ | परन्तु अब यह समझ आ गया की वह "लाचारी" कायरता का ही एक रूप थी |

      यह भी समझा सकें कि "क्रोध" भी कायरता ही है ( यह मैं समझ पा रही हूँ की यह क्रोध कायरता से "उपजता है" - परन्तु क्रोध कायरता "ही है" यह नहीं समझ पा रही हूँ ) - तो आभार होगा | यह अभी क्लियर नहीं हुआ है मुझे |

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  35. @ऊपर के उदाहरण में भीम और अर्जुन क्रोधित थे - लाचारी से
    कृष्ण ने वस्त्रापूर्ति की, जिसके लिये क्रोध की आवश्यकता नहीं थी। भीम, अर्जुन चाहते तो बिना क्रोधित हुए भी सारी सभा भंग कर सकते थे, जो महाभारत अंततः हुआ वह एक दिन में निबट सकता था यदि उस दिन कायरता की छाँव न होती। कायरता ही रहेगी, उसका बहाना वचन, कर्तव्य, मज़हब जो भी हो, वह लाचारी, क्रोध, बल्कि क्रूरता के रूप में भी प्रस्फुटित हो सकती है।

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    1. लेकिन असहमत अब भी हूँ :)

      यह चर्चा मेरी महाभारत वाली श्रुंखला में जारी रख सकते हैं, यहाँ इस पोस्ट का विषय परिवर्तित हो रहा है |

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    2. लेकिन असहमत अब भी हूँ :)

      यह चर्चा मेरी महाभारत वाली श्रुंखला में जारी रख सकते हैं, यहाँ इस पोस्ट का विषय परिवर्तित हो रहा है |

      मुझे नहीं लगता की महाभारत युद्ध को टालना धर्म पक्ष के लोगों (जैसा आपने ऊपर कहा - अर्जुन / भीम) के नियंत्रण में था | क्योंकि अधर्म पक्ष वाले भी धर्म पक्ष वालों की सज्जनता और बड़ों को दिए (misplaced) आदर को कायरता समझ कर अपनी जिदों पर अड़े हुए थे |

      परन्तु यह अवश्य कहूँगी कि - महाभारत के युद्ध का निर्णय भीम और अर्जुन, द्रोण और भीष्म ने नहीं बल्कि धर्मराज और धृतराष्ट्र ने लिया था | और धर्मराज ने यह निर्णय अपनी पत्नी के अपमान का प्रतिशोध लेने (निजी वजह) से नहीं , बल्कि अंतिम विकल्प के रूप में लिया था | इसी तरह धृतराष्ट्र ने यह पुत्र मोह और कुंठा की वजह से लिया था | यह (अन्यायों के विरोध करने का निर्णय) भले ही १३ साल पहले लिए गया होता - तब भी इतना ही रक्तरंजित युद्ध होना था - इस रक्तपात में कोई कमी नहीं आने वाली थी |

      आपको यह टिपण्णी विषय परिवर्तित करती हुई लगे - तो इसे प्रकाशित न करें |

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    3. असहमति आपका अधिकार है। हाँ, आप सवाल करेंगी तो उत्तर देने का प्रयास अवश्य करूंगा। मातृदिवस की शुभकामनायें!

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    4. आभार |

      जी - सवाल अवश्य करूंगी - ऊपर अभी ही आदरणीय सुज्ञ जी से कहा कि आप दोनों गुरुजनों से सवाल कर के मेरे लिए कुछ समझने का साधन हो सकता है | परन्तु यह पोस्ट एक बहुत अलग विषय पर है | इस विषय पर चर्चा कहीं और सही :)

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    5. क्रोध से मनुष्य अपना ही नुक्सान कर बैठता है, उसमें सही - गलत का भेद करने की शक्ति समाप्त हो जाती है इसलिए ही तो कहा गया है प्रेम से सबका दिल जीता जा सकता है परन्तु क्रोध से केवल नाश होता है!

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  36. अद्भुत लेख. अद्भुत वार्तालाप. गिरिजेश जी का आभार कि आज इस पुराने लेख तक ले आये. आपके लेख की प्रत्येक पंक्ति सोचने को मजबूर करती है.

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  37. यह सारा विवेचन आज ,टिप्पण में आये विचार-विमर्ष सहित पढ़ कर,बहुत समाधान हुये .
    ऐसी बौद्धिक वार्तायें पढ़ कर उपलब्धि का आनन्द प्राप्त होता है .

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  38. सचमुच सार्थक व्याख्या | भारत ने मन्यु करना छोड़ दिया वह अब केवल क्रोध ही करता है | महाभारत काल में भी मन्यु का ह्रास होता दिखता है ,कृष्ण आकर अर्जुन को मन्यु के लिए प्रेरित करते हैं | आज मन्यु की नितांत आवश्यकता है आतंकवाद और अन्याय भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए |

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  39. बहुत सार्थक और सटीक व्याख्या | मन्यु और क्रोध का अंतर अत्यंत महत्वपूर्ण | आज हम केवल क्रोध करते हैं , मन्यु को भूल गए हैं | स्सर्व्जनिक हित के लिए मन्यु अत्यंत आवश्यक है बल्कि विश्व कल्याण के लिए भी | राम का रावण के संहार के लिए मन्यु का प्रयोग हुआ था कंस के संहार के लिए कृष्ण ने मन्यु का प्रयोग किया था |

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