Sunday, November 9, 2008

गांधी, आइंस्टाइन और फिल्में

हमारे एक मित्र हैं। मेरे अधिकाँश मित्रों की तरह यह भी उम्र, अनुभव, ज्ञान सभी में मुझसे बड़े हैं। उन्होंने सारी दुनिया घूमी है। गांधी जी के भक्त है। मगर अंधभक्ति के सख्त ख़िलाफ़ हैं। जब उन्होंने सुना कि आइन्स्टीन ने ऐसा कुछ कहा था कि भविष्य की पीढियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति सचमुच हुआ था तो उन्हें अजीब सा लगा। सोचने लगे कि यह बड़े लोग भी कुछ भी कह देते हैं।

बात आयी गयी हो गयी और वे फिर से अपने काम में व्यस्त हो गए। काम के सिलसिले में एक बार उन्हें तुर्की जाना पडा। वहाँ एक पार्टी में एक अजनबी से परिचय हुआ। [बातचीत अंग्रेजी में हुई थी - मैं आगे उसका अविचल हिन्दी अनुवाद लिखने की कोशिश करता हूँ।]

नव-परिचित ने उनकी राष्ट्रीयता जाननी चाही तो उन्होंने गर्व से कहा "भारत।" उनकी आशा के विपरीत अजनबी ने कभी इस देश का नाम नहीं सुना था। उन्होंने जहाँ तक सम्भव था भारत के सभी पर्याय बताये। फिर ताजमहल और गंगा के बारे में बताया और उसके बाद मुग़ल वंश से लेकर कोहिनूर तक सभी नाम ले डाले मगर अजनबी को समझ नहीं आया कि वे किस देश के वासी हैं।

फिर उन्होंने कहा "गांधी" तो अजनबी ने पूछा, "गांधी, फ़िल्म?"

"हाँ, वही गांधी, वही भारत।" उन्होंने खुश होकर कहा।

कुछ देर में अजनबी की समझ में आ गया कि वे उस देश के वासी हैं जिसका वर्णन गांधी फ़िल्म में है। उसके बाद अजनबी ने पूछा, "फ़िल्म का गांधी सचमुच में तो कभी नहीं हो सकता? है न?"

तब मेरे मित्र को आइंस्टाइन जी याद आ गए।

साथ तुम्हारा - कविता

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साथ तुम्हारा होता तो
यह बोझिल रस्ता हँसत़े हँसते
कट ही जाता

हार तुम्हारी बाँहों का
मेरी ग्रीवा में पड़ता तो
दुख थोड़ा तो घट ही जाता

हँसता रहता कभी न रोता
साहस सहज न खोता
पास तुम्हें हरदम जो पाता

कभी जिसे अपना सरबस सौंपा था तुमने
आज वही मैं पछतावे में झुलस रहा हूँ
तुम मिलते तो क्षमादान तो पा ही जाता

यह बोझिल रस्ता हँसते हँसते
कट ही जाता।

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Thursday, November 6, 2008

आलस्य

छह बोले तो सात है, सात कहें तो आठ
कभी समय पर चले नहीं, ऐसे अपने ठाठ


ऐसे अपने ठाठ, कभी मजबूरी होवे
तो भी राम भरोसे लंबी तान के सोवें


सोते से जो कोई मूरख कभी जगा दे
पछतायेंगे उसके तो दादे परदादे

दादे तो अपने भी समझा समझा हारे
ख़ुद ही हार गए हमसे आख़िर बेचारे

(अनुराग शर्मा)