Sunday, May 27, 2012

ब्राह्मण कौन?

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में, सम भाव धरत सब प्रानिन में। 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं, गौ श्वानन में चंडालन में ॥
 [डॉ. मृदुल कीर्ति - गीता पद्यानुवाद]
जब से बोलना सीखा, दिल की बात कहता आया हूँ। मेरे दिल की बात क्या है, कुछ मौलिक नहीं, वही सब जो अपने आसपास सुना, पढा, समझा और सीखा है। सब कुछ सही होने का दावा नहीं कर सकता हाँ इतना प्रयास अवश्य रहता है कि सत्य अपनाया जा सके और उसे प्रिय और श्रेयस्कर मान सकूँ।

उपनिषदों में जाबालि ऋषि सत्यकाम की कथा है जो जाबाला के पुत्र हैं। जब सत्यकाम के गुरु गौतम ने नये शिष्य बनाने से पहले साक्षात्कार में उनके पिता का गोत्र पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी माँ जाबाला कहती हैं कि उन्होंने बहुत से ऋषियों की सेवा की है, उन्हें ठीक से पता नहीं कि सत्यकाम किसके पुत्र हैं। ज्ञानवृत्ति के पालक ऋषि सत्य को सर्वोपरि रखते आये हैं। सत्यकाम की बात सुनते ही गौतम ऋषि उन्हें सत्यव्रती ब्राह्मण स्वीकार करके जाबालि गोत्र का नाम देकर पुकारते हैं।
खून से ही वंश की परम्परा नहीं चलती, जो विश्वास वहन करता है, वही होता है असली वंशधर ~ सत्यकाम फ़िल्म से (रजिन्दर सिंह बेदी लिखित) एक सम्वाद 
बात की शुरुआत हुई एक मित्र के फ़ेसबुक स्टेटस से जिसका शीर्षक था "बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना :)" संलग्न लिंक था टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर से जिसमें चर्चा थी उस ट्रेंड की जहाँ निसंतान भारतीय दम्पत्तियों की पहली पसन्द ब्राह्मण संतति प्राप्त करना पाई गयी थी। ब्राह्मण शब्द पर ज़ोर था। काफ़ी दिन बाद फिर से ध्यान गया उस शब्द पर जिसकी चर्चा अक्सर होती है पर उसका अर्थ शायद अलग-अलग लोगों के लिये अलग ही रहा है। एक बुज़ुर्ग भारतीय मित्र हैं जो जाति पूछे जाने पर अपने को "जन्मना ब्राह्मण" कहते थे क्योंकि तथाकथित ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने अपने को कभी ब्राह्मण नहीं माना। एक अन्य जन्मना ब्राह्मण मित्र हैं जो अक्सर जन्मना ब्राह्मणों को कोसते दिखाई देते हैं। विद्वान हैं, कई बातें सही भी हैं लेकिन कई बार यह विघ्नकारी हो जाता है।

अली सैयद जी के ब्लॉग उम्मतें की एक पोस्ट "कभी यहां तुम्हें ढूंढा...कभी वहां देखा...!" पढते समय ध्यान गया कि शास्त्रों के काल से लेकर आज तक भले ही भृगु, विश्रवा, च्यवन आदि ब्रह्मर्षियों की बात हो या वर्तमान समाज में देखें तो अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गांधी जैसे स्वाधीनता सेनानियों की, भारत में यदि कोई एक जाति अंतर्जातीय सम्बन्धों में आगे रही है तो वह ब्राह्मण जाति ही है। ब्राह्मण परिवार में जन्मी पॉप गायिका पार्वती खान का नाम कई पाठकों को याद होगा। पढ़ने में आता है कि डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी डॉ शारदा कबीर (माई सविता अंबेडकर) भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं। मैं अपने आसपास के अंतर्जातीय विवाहों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो जन्मना ब्राह्मणों को अग्रणी पाता हूँ। प्रेम की तरह शायद कट्टरता के भी कई रूप होते हैं, एक सर्वभूतहितेरतः वाला और दूसरा अहमिन्द्रो न पराजिग्ये वाला। 

प्रथम ब्राह्मण रेजिमेंट (1776-1931) भारतीय सेना
ब्राह्मण यानी द्विज यानी दूसरे जन्म याने संस्कार से बना हुआ व्यक्ति। मतलब यह कि ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। ब्राह्मण होने का मतलब ही है आनुवंशिकता के महत्व को नकारकर ज्ञान, शिक्षा और संस्कार के महत्व को प्रतिपादित करना। विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह भारतीय जातियाँ पितृकुल से भी हैं, मातृकुल से भी। लेकिन भारत के ब्राह्मण गोत्र संसार भर से अलग एक अद्वितीय प्रयोग हैं। ब्राह्मण मातृकुल, पितृकुल, कम्यून आदि से बिल्कुल अलग ऐसी परिकल्पना है जो गुरुकुल से बनी है। जातिवाद और ब्राह्मणत्व दो विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनका घालमेल करना निपट अज्ञान ही नहीं, एक तरह से भारतीय परम्परा का निरादर करना भी है।

गुरुकुल शब्द ही ब्राह्मणों के कुल के अनानुवंशिक होने का प्रमाण है। न माता का, न पिता का, गुरु का कुल - ब्राह्मणों के एक नहीं, न जाने कितने गोत्र ऐसे हैं जहाँ पिता और पुत्र के चलाये हुए गोत्र अलग हैं उदाहरणार्थ वसिष्ठ का अपना गोत्र है और उनके पौत्र पराशर का अपना - यदि आनुवंशिक आधार होता तो ये दो गोत्र अलग नहीं होते। इसी प्रकार भृगु का अपना गोत्र भी है और उनकी संततियों के अपने-अपने। सभी शिष्य अपने गुरु का कुल चलाते हैं। इस विशाल समुदाय में गुरु के अपने भी एकाध बच्चे होंगे, मगर भूसे के ढेर को उसमें पड़ी एक सुई से परिभाषित नहीं किया जा सकता। शुनःशेप का गोत्र परिवर्तन भी गुरुकुल के सिद्धांत को ही प्रतिपादित करता है।

भारतीय संस्कृति संस्कारों में विश्वास करती है। सभी संस्कार सबके लिये हैं मगर उपनयन किये बिना द्विज नहीं बना जा सकता, मतलब यह कि ब्राह्मणत्व केवल वंश आधारित नहीं हो सकता है। ब्राह्मण परिवार के बाहर जन्मे विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना ब्राह्मणत्व के जन्म से मुक्त होने का एक दृष्टांत है। विश्वामित्र का हिंसक क्रोध बना रहने तक वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार नहीं करते। इन्हीं विश्वामित्र का पश्चात्ताप वसिष्ठ द्वारा उनके ब्राह्मणत्व को मान्यता देने का आधार बनता है। यह संयोग मात्र नहीं कि विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाले वसिष्ठ स्वयं भी किसी ब्राह्मणी के नहीं बल्कि अप्सरा उर्वशी के पुत्र हैं। उनके अतिरिक्त व्यास, कौशिक, ऋष्यशृंग, अगस्त्य, जम्बूक आदि ऋषियों के अब्राह्मण जन्म की कथायें शास्त्रों में मिलती हैं परंतु उन सबका ब्राह्मणत्व सुस्थापित और सर्वमान्य हैं।

बुद्ध के शब्दों में ब्राह्मण अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
जो अकिंचन है, अपरिग्रही और त्यागी है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो।
यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
कमल के पत्ते पर जल की बूंद और आरे की धार पर सरसों के दाने की तरह भोगों से निर्लिप्त रहने वाले को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
निधाय दंडं भूतेसु तसेसु ताबरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
चर-अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न मारता है, न हानि पहुँचाता है वही ब्राह्मण कहलाएगा।

आज ब्राह्मण जाति की उपस्थिति देश के लगभग हर क्षेत्र में हैं परंतु असम का ब्राह्मण पंजाबी ब्राह्मण के मुकाबले एक असमी से अधिक मिलता हुआ होता है और यह बात तमिळ, नेपाली, कश्मीरी, गुजराती सब ब्राह्मणों के बारे में कमोबेश सही है। हाँ राष्ट्रभर में बिखरा हुआ यह समुदाय वैचारिक रूप से अवश्य एकरूप हुआ है मगर उसका कारण संस्कार, दीक्षा, दृष्टि और परिवेश है न कि आनुवंशिकता। ब्राह्मण अलग वर्ण अवश्य है लेकिन अलग आनुवंशिक जाति कदापि नहीं।

गीता के मेरे प्रिय श्लोकों में से एक है:
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनिचैव श्वपाके चः पंडिताः समदर्शिनः
ज़र्रे-ज़र्रे में एक ही ईश्वर का अंश देखने वाली भारतीय परम्परा में हर प्राणी के लिये समदर्शी होने में कोई अनोखी बात नहीं है। गाय, हाथी, ब्राह्मण, कुत्ता और यहाँ तक कि कुत्ता खाने वाले में भी समानता देखने वाली परम्परा में मज़हब, भाषा आदि जैसी दीवारों के नामपर बँटवारा और फ़िरकापरस्ती के लिये कोई जगह नहीं है। एक ओर हम भेदभाव विहीन समाज की मांग करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने परिवार के विवाह सम्बन्ध ढूंढते समय, बच्चे गोद लेते समय और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के समाचार के अनुसार उससे भी एक क़दम आगे बढकर जाति में गौरव ढूंढते हैं, यह कैसा विरोधाभास है?

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
इसी प्रकार कुछ लोग जात-पाँत को सही ठहराने के लिये प्राचीन वर्ण व्यवस्था का नाम लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि वर्ण व्यवस्था वास्तव में वर्णाश्रम व्यवस्था थी। आश्रम के आग्रह के बिना वर्ण के आग्रह का कोई अर्थ नहीं रहता। दूसरे, शास्त्रसम्मत चार वर्ण और आज की भेदभावपरक हज़ारों जातियाँ दो अलग-अलग बातें हैं। और फिर प्राचीन व्यवस्था में से कितनी अन्य बातें आज हमने बचाकर रखी हैं? उस पर यह भी एक तथ्य है कि ब्राह्मण भले ही वर्णाश्रम-व्यवस्था का अंग हों, विभिन्न जातियाँ भारत में सभी धर्मों में स्पष्ट और गहराई से गढी हुई दिखाई देती हैं। मुसलमानों में अशरफ़, अजलाफ़, अरजाल आदि समूहों में बंटी सैकड़ों जातियाँ मिल जायेंगी। बल्कि मुसलमानों में अनेक ऐसी जातियाँ भी हैं जो हिन्दुओं में नहीं होतीं। सिखों में जाट, खत्री, मज़हबी समूहों के अतिरिक्त हिन्दू जातियों में पाये जाने वाले कुलनाम मिलेंगे और ईसाई समुदाय में तो अपने को दलित, सीरियन, सारस्वत आदि मानकर भिन्नता बरतने वाले आसानी से दिखाई देते हैं। इस प्रकार, जातियाँ आनुवंशिक, क्षेत्रीय या दोनों हो सकती हैं जबकि ब्राह्मण इन दोनों से ही अलग हैं। इसी प्रकार जातियाँ हिन्दूओं से इतर मान्यता वाले समूहों में भी उपस्थित हैं जबकि ब्राह्मण नहीं।

जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते:
शास्त्र का वचन है कि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत लेकर शिक्षा लेने वाला मनुष्य द्विज कहलाता है। अर्थात ब्राह्मण वह है जो ज्ञान प्राप्ति द्वारा समाज के उत्थान हेतु अपने जन्म, जाति, देश, अस्तित्व आदि के बन्धनों का त्याग करता है।

सामवेद शाखा के वज्रसूचिकोपनिषद (वज्रसूचि उपनिषद) में ब्राह्मण विषय पर विस्तार से वार्ता हुई है। प्रश्न हैं, सम्भावनायें हैं, उनका सकारण खंडन है और फिर परिभाषा भी है:
क्या जीव ब्राह्मण है? नहीं!
क्या शरीर ब्राह्मण है? नहीं!
क्या जाति ब्राह्मण है? नहीं!
क्या ज्ञान ब्राह्मण है? नहीं!
क्या कर्म ब्राह्मण है? नहीं!
क्या (सत्कर्म का) कर्ता ब्राह्मण है? नहीं!

तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छह बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढ़ापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छह परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" भी ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।

आपका क्या विचार है?
ब्लॉगअड्डा ने मेरा एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है, यदि आपकी रुचि हो तो यहाँ क्लिक करके पढ सकते हैं, आभार!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वज्रसूचि उपनिषद्
* चार वर्ण (गायत्री परिवार)
* बॉस्टन ब्राह्मण
* पाकिस्तान में एक ब्राह्मण
* हू इज़ अ ब्राह्मण (धम्मपद)
* जन्मना (रमाकांत सिंह) 

72 comments:

  1. ब्राह्मण होने का अर्थ सत्य(ब्रह्म) के करीब पहुँचना है।
    ..बढ़िया पोस्ट।

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  2. aabhar - excellent

    read something like this on this blog after a long time - thanks again

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  3. सोणी पोस्ट, मन मोहनी पोस्ट|

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  4. अनुराग जी, ब्राह्मण के बारे में प्रस्तुत विवेचन यथार्थ है। आगे चलकर जन्म से ब्राह्मण माने जाने की भले रूढि पड गई हो किन्तु निश्चित ही संस्कार से ज्ञान सत्य और ब्रह्म का अभ्यार्थी ही ब्रह्मण माना जाता था, आज भी कर्म से वही ब्रह्मण आदरेय माना जाता है जो ज्ञान सत्य और ब्रह्म का मार्गानुसारी हो।

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  5. सबसे पहले ये बताइये कि ये अली 'हसन' कौन हैं :)

    @ पोस्ट ,
    मेरा ख्याल है कि भारतीय चिंतन परम्परा ने , समाज की गतिशीलता और समाज के विकास में तालमेल बिठाये रखने के लिए , तत्कालीन समय में जो अवधारणायें / जो विचार / जो दर्शन दिये हैं ! वो मूलतः आध्यात्मिकता के न्यूक्लियस पर घूमते हैं ! तब भौतिक जीवन को जीने के लघु सत्य के साथ आध्यात्मिकता जीवन के बड़े लक्ष्य ( विराट सत्य ) को साधने का यत्न करना अनिवार्य माना गया था ! इस हिसाब से देखा जाये तो उन दिनों के ज्ञान में पारलौकिकता , इहलौकिकता पर भारी थी / महत्वपूर्ण मानी गई थी ! उन दिनों सच्चे ज्ञान का मतलब ब्रह्म ज्ञान माना गया और जो इस ज्ञान को अपनी क्षमता / योग्यता से पा सके उसे ब्राह्मण हो जाना था !

    'ब्रह्म' का आशय ईश्वर / मंत्र / यज्ञ / धार्मिकता तथा 'अण' का मतलब कहना है ! इस हिसाब से वे लोग , जो ब्रह्म के ज्ञान को पा सके और उसे दूसरों से कह सके , ब्राह्मण कहे गये ! यह एक संबोधन मात्र है जो हर ज्ञानी को दिया गया ! ज्ञानी के लिए ब्राह्मण शब्द / संबोधन पे ही आग्रह क्यों किया जाये ? ज्ञानी अपने आप में बेहतर संबोधन है , जिसके जन्मना होने की संभावना कम ही है या फिर पांडित्य से पंडित ! गौर करें तो ब्रह्म ज्ञान ही क्यों , गायन , वादन , नृत्य जैसे विधाओं में निष्णात को 'पंडित' संबोधन देते ही हैं भले ही उसकी जन्मना स्थिति चौरसिया की हो !

    आज के दौर में देखें तो ज्ञान का न्यूक्लियस ब्रह्म नहीं है विज्ञान है तकनीक है पर इससे क्या फर्क पड़ता है , संबोधन बदलने की जरूरत भी क्या है ? ज्ञानी को पंडित कहिये या ब्राह्मण या फिर ज्ञानी ही !

    ये सही है कि भारतीय दर्शन , वर्ण व्यवस्था के कार्मिक / दक्षता / योग्यता आधारित विभाजन के हिसाब से समाज को पर्याप्त गतिशील बनाये रखने का पक्षधर रहा है पर हमने इस दर्शन में अपनी अनुकूलता / स्वार्थ के अनुसार 'कर्मणा' की जगह 'जन्मना' को स्थापित कर दिया ! यह कुछ ऐसा है , जैसे कि एक बहती हुई नदी को ठहरे हुए पोखर में बदल दिया जाये ! विश्वामित्र का ब्रह्मऋषि होना और परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना , तत्कालीन समाज दर्शन की कार्मिक तरलता के उदाहरण हैं ! एक बेहतर दर्शन जिसे उसके ही अनुयाइयों ने अपनी धड़कन के अनुरूप ढाल के बदहाल वर्शन (संस्करण) कर दिया है !

    इस विषय पर आलेख लिखते हुए , आपको नहीं लगता कि आपने किसी कल कल बहते 'कर्मणा' हिमनद के स्थान पर किसी स्तब्ध / जड़वत / 'जन्मना' रह गये ताल तलैया पे हाथ डाल दिया है !

    समाज चाहे जो भी हो , उसका धर्म चाहे जो भी हो , उसकी भाषा चाहे जो भी हो , उसका रंग रूप चाहे जो भी हो , उसका , ज्ञानी वर्ग उसमें पेश पेश दिखेगा ही ! आपको ब्राह्मण संबोधन अच्छा लगे तो ब्राह्मण कहिये !

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    1. :( गुस्ताखी माफ़! ये ध्यान कहाँ था कम्बख्त, आपके नाम की जगह बचपन के एक सहपाठी का नाम लिख गया। भूल सुधार ली है। ध्यानाकर्षण का आभार! :)

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    2. अली साहब की टिप्पणी ने इस शानदार पोस्ट को और भी शानदार रंग दे दिया है, अच्छा लगा|

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    3. आदरणीय अली जी ,
      १.@ ब्राह्मण = ब्रह्म + अण ?

      क्या ऐसा सचमुच है जैसा आपने लिखा है ? या यह आपका अपना interpretation है?
      २.@ विश्वामित्र का ब्रह्मऋषि होना और परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना , तत्कालीन समाज दर्शन की कार्मिक तरलता के उदाहरण हैं !

      क्या ऐसा है ? अव्वल तो मैं नहीं जानती कि परशुराम जी "क्षत्रिय" हो गए थे , या विश्वामित्र जी "ब्रह्मर्षि" हो जाने के कारण "ब्राह्मण" कहलाये हों | किन्तु, यदि वैसे हो भी - तो ये सूर्य की तरह प्रखर प्रतिभाएं जो होती हैं न - ये "समाज की तरलता के कारण" न होकर "समाज की कट्टरता और विरोध के बावजूद" अधिक कही जा सकती हैं | अनोखी प्रतिभाएं हर युग में हुई हैं- जो समाज की तरलता नहीं बल्कि व्यक्ति की निजी उपलब्धियां हैं | अग्नि अपनी राह में आई हर अशुद्धि को पावन कर सकती है - पावक है वह | इसका श्रेय अग्नि को है, अशुद्धि को नहीं |

      परशुराम जी पर मेरे observations बहुत अलग हैं | विश्वामित्र जी पर भी |

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    4. शिल्पा जी ,
      कई दिनों बाद याद किया आपने :)
      (१)
      ज्ञान की तत्कालीन भारतीय परम्परा के आध्यात्मिक धार्मिक उन्मुखीकरण को देखते हुए इसे मेरा ही इंटरप्रटेशन मान लीजिए ! मैंने "ज्ञान (ब्रह्म) की कहन (अण)" के अर्थ में प्रयुक्त शब्द संधि को इसका आधार माना है चूंकि आपने अण पे प्रश्न चिन्ह लगाया है तो सिर्फ इतना कहूँगा कि 'कहने' के अतिरिक्त 'अण' शब्द के अन्य अर्थ भी हो सकते हैं !

      (२)
      मुझे लगता है कि ये कहना कि , परशुराम क्षत्रिय हो गये थे , से बेहतर है ये कहना कि परशुराम ने क्षत्रियों के कर्म अपना लिए थे और विश्वामित्र ने ब्राह्मणों के ! अगर आप मेरे वाक्य को फिर से पढ़ें , तो मैंने यही कहा है कि "परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना"

      इसी तरह से समाज दर्शन की कार्मिक तरलता का उल्लेख भी मैंने किया है ! यदि वर्ण व्यवस्था जड़वत होती उसमें कर्म आधारित दक्षता प्रदर्शन के प्रावधान नहीं होते / उसमें कर्मों को अपनी योग्यता अनुसार बदल पाने / अपनाने की सुविधा नहीं होती तो क्या विश्वामित्र तप कर्म कर सकते थे ? भले ही वे कितने ही यशस्वी महापुरुष क्यों ना होते !

      आप जिन्हें निजी उपलब्धियां कह रही हैं , वे क्या हैं ? क्या दक्षता आधारित व्यक्तिगत कर्म के बिना भी कोई उपलब्धि हासिल हो सकती है ? मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि भारतीय समाज दर्शन व्यक्ति को उसकी दक्षता आधारित व्यक्तिगत कर्म करने और उपलब्धियां हासिल करने की छूट देता है ! क्या इस तरह की छूट को मैं कट्टरता कह सकता हूं ?

      इसलिए मैंने कहता हूं कि भारतीय दर्शन में समाज के लोगों को अपनी दक्षता के अनुसार कर्म करने और उपलब्धियां हासिल करने की छूट थी ! "कार्मिक तरलता" से मेरा आशय काम को बदल पाने की छूट या गतिशीलता से है !

      मेरा कहना मात्र इतना था कि हमारी समाज व्यवस्था में / हमारे दर्शन में , ये प्रावधान हैं कि हम जन्म से निर्धारित अपने स्टेट्स की तुलना में , अपनी योग्यता से अपने कर्म का चुनाव और अपने स्टेट्स का निर्धारण कर सकते थे !

      मैंने 'सामजिक गतिशीलता' के पर्याय के तौर पर 'समाज की तरलता' शब्द का प्रयोग किया था ! और मेरा मानना है कि अगर भारतीय समाज व्यवस्था में (वर्ण व्यवस्था में) कट्टरता रही होती तो एक भी प्रखर महापुरुष या साधारण प्रतिभावान पुरुष , अपने जन्मजात कर्म और अपनी जन्मजात सामाजिक स्थिति को नहीं बदल पाया होता !

      आपने अग्नि का हवाला दिया है जिसे मैं प्रतिभा मान रहा हूं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा कि अगर अवसर ही नहीं होंगे तो प्रतिभा प्रज्ज्वलित कैसे होगी ?

      परशुराम और विश्वामित्र मेरी विशेषज्ञता नहीं हैं ! मैंने केवल कर्म और स्थिति परिवर्तन के प्रति वर्णव्यवस्था की उदारता को बताने के लिए इनका उदाहरण दिया था ! उम्मीद करता हूं आप मेरा मंतव्य समझ गई होंगी !

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    5. :)
      १. @ कई दिनों बाद याद किया आपने :)
      नहीं - मैं आपकी हर पोस्ट पढ़ती हूँ :) आप established ब्लॉगर हैं - आपकी हर पोस्ट पर टिपण्णी नहीं करती, :) पढ़ती सब हूँ |

      २. @ज्ञान की तत्कालीन भारतीय परम्परा के आध्यात्मिक धार्मिक उन्मुखीकरण को देखते हुए इसे मेरा ही इंटरप्रटेशन मान लीजिए !
      हाँ - हम सभी प्रयास करते हैं अपने हिसाब से interpret करने के - कौनसा interpretation सही है और कौनसा गलत समझ नहीं आता | confusion confusion confusion ... :(

      ३. @ "परशुराम का कर्म से क्षत्रिय हो जाना" -- हाँ - कहा तो आपने यही है |

      ४. @ इसी तरह से समाज दर्शन की कार्मिक तरलता का उल्लेख भी मैंने किया है ! यदि वर्ण व्यवस्था जड़वत... क्या विश्वामित्र तप कर्म कर सकते थे ?
      हाँ - वे कर सकते थे | मैं यह तो नहीं जानती कि व्यवस्था जडवत थी या तरल - परन्तु चाहे जैसी भी स्थिति होती - वे कर सकते थे |

      @ क्या दक्षता आधारित व्यक्तिगत कर्म के बिना भी कोई उपलब्धि हासिल हो सकती है ? -- नहीं

      @ इसलिए मैंने कहता हूं कि भारतीय दर्शन में समाज के लोगों को अपनी दक्षता के अनुसार कर्म करने और उपलब्धियां हासिल करने की छूट थी ! "कार्मिक तरलता" से मेरा आशय काम को बदल पाने की छूट या गतिशीलता से है ! --- जी, समझी

      @ मेरा कहना मात्र इतना था कि हमारी समाज व्यवस्था में / हमारे दर्शन में , ये प्रावधान हैं कि हम जन्म से निर्धारित अपने स्टेट्स की तुलना में , अपनी योग्यता से अपने कर्म का चुनाव और अपने स्टेट्स का निर्धारण कर सकते थे ! ---- यह प्रावधान तो था - परन्तु उस वक्त था जिस वक्त और जिन लोगों की हम बात कर रहे हैं - इस बारे में i am not sure ....हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है |

      @ मैंने 'सामजिक गतिशीलता' के पर्याय के तौर पर 'समाज की तरलता' शब्द का प्रयोग किया था ! और मेरा मानना है कि अगर भारतीय समाज व्यवस्था में (वर्ण व्यवस्था में) कट्टरता रही होती तो एक भी प्रखर महापुरुष या साधारण प्रतिभावान पुरुष , अपने जन्मजात कर्म और अपनी जन्मजात सामाजिक स्थिति को नहीं बदल पाया होता ! - i am not so sure about that . nothing personal about it - just a difference of views

      @ आपने अग्नि का हवाला दिया है जिसे मैं प्रतिभा मान रहा हूं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा कि अगर अवसर ही नहीं होंगे तो प्रतिभा प्रज्ज्वलित कैसे होगी ? - आपकी naveentam पोस्ट में इसका उत्तर है न - सारी धरती जलमग्न हुई थी - फिर भी ठण्ड से कांपते भाई बहन के लिए अग्नि आ ही गयी थी - और उस अग्नि ने सारे जल को सुखा कर वाष्प बना दिए - आपकी ही पोस्ट में उत्तर है | अग्नि कितनी प्रखर है जलमग्नता की तुलना में, यह महत्व रखता है |

      @ परशुराम और विश्वामित्र मेरी विशेषज्ञता नहीं हैं ! ....मेरा मंतव्य समझ गई होंगी !
      अरे - मेरी विशेषज्ञता भी नहीं हैं | मंतव्य आपका शुभ ही समझ रही हूँ मैं, अशुभ नहीं :)

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  6. इसका मतलव हम भी ब्राह्मन नही हैं । बहुत ग्यानवर्द्धक आलेख है और यथार्थ भी। शुभकामनायें।

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  7. स्वयं को आत्मा मानने के बाद शरीर सम्बन्धी उपाधियाँ गौड़ होने लगती है, जीवन ज्ञापन और आत्मोन्नति के माध्यम..

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  8. ब्राह्मण और सात्विक पुरुष में समानता नज़र आ रही है ।

    सात्विक होना वास्तव में बड़ा कठिन काम है , इस युग में ।

    सुन्दर पोस्ट ।

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  9. जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते:

    क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढापा, और मृत्यु।

    अदभुत और संग्रहणीय लेख बस आपके इसी लेख
    को स्पर्श करती रचना अगला पोस्ट आपको समर्पित .

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    1. आपका हार्दिक आभार रमाकांत जी!

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  10. बहुत अच्छी पोस्ट...............

    ऐसा लेखन कम मिलता है पढ़ने को...
    संग्रहणीय......

    शुक्रिया

    अनु

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  11. ब्राह्मण होने की शास्त्रोक्त परिभाषाएं साबित करती हैं कि जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता , गुरु से होता है ...वहीं व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले कार्यों या रोजगार के आधार पर ही दूसरी जातियां भी निर्धारित की गयी ..धीरे धीरे यह जन्म में परिवर्तित हुआ .
    मगर अब जब हमारा समाज या संविधान इन परिभाषाओं को नहीं मानता ,तो इससे निष्कर्ष क्या निकलेगा !
    अच्छी जानकारी !

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  12. ज्ञान वर्धक आलेख ....
    बहुत चिंतन के बाद लिखा है | सार्थक अभिव्यक्ति है |आपने अब कर्म से भी ब्राह्मण होने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है ...!!
    बहुत आभार ...!!

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  13. बहुत अच्छा आलेख हैं. भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ब्राह्मण की परिभाषा स्पष्ट बताई हैं. ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता हैं. जिसे सभी वेदों का ज्ञान हो, जो यज्ञ करता हो, जो कर्मकांड करता हो, जो मंदिर में नित्य भगवान की पूजा व आरती करता हो, जो बच्चो को निस्स्वार्थ शिक्षा देता हो, वही ब्राहमण हैं. आजकल सभी में अपने आप को ब्राहमण कहने की होड हैं, पर वो ब्राह्मण के एक भी कर्म का पालन नहीं करते हैं. प्राचीन काल में बड़े बड़े ऋषि मुनि जन्म से किसी और वर्ण के थे, पर अपने कर्मो के द्वारा वे ब्राह्मण कहलाये.

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    1. @ जिसे सभी वेदों का ज्ञान हो, जो यज्ञ करता हो, जो कर्मकांड करता हो, जो मंदिर में नित्य भगवान की पूजा व आरती करता हो, जो बच्चो को निस्स्वार्थ शिक्षा देता हो, वही ब्राहमण हैं.

      aisa kahaa gayaa hai geta me ? krupaya sandarbh denge ?

      abhaar

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    2. sandarbh aaya nahi praveen ji ?

      "geeta me shri krishn ne yah kahaan kahaa hai ?".... utsuk hoon jaanne ke liye |

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    3. वैश्य कौन, ब्राह्मण कौन, क्षत्रिय कौन......
      http://praveenguptahindu.blogspot.in/2012/11/vaishya-brahaman-kshatriya.html

      शिल्प जी मेरी इस पोस्ट में गीता के कौन से अध्याय से ये उद्धरण लिया गया है. ये बताया हैं.
      धन्तावाद....

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  14. बहुत ही जानकारीयुक्त पोस्ट...
    काश जाति पर विश्वास करने वाले सारे लोग इस आलेख को पढ़कर मनन करें...उनके ज्ञान चक्षु खुल जायेंगे.

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  15. मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि मैं कर्मणा ब्राह्मण ही बनना ज़्यादा पसंद करूँगा,बाकी अली साब ने बहुत कुछ कह दिया है !

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  16. जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः | वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः | जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पठान-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है ! केवल ब्राहमण के यहाँ पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता !

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  17. अनुराग जी,

    वाकई साहसी आलेखन है, यह आलेख इस आशय से महत्वपूर्ण है कि यह कईं धारणाओं को समाप्त करता है, भ्रम का निकंदन करता है।
    इस आलेख की दो उपलब्धी नज़र आती है।

    1-स्वयं ब्राह्मणों के लिए संदेश है कि जन्मना ब्राह्मण के लिए जातीय गौरव लेने जैसी कोई बात नहीं है। ब्राह्मण जाति गौत्र आदि प्रधानतः गुरूकुल के आधार पर है और ब्राह्मण नामकरण भी ज्ञान के आधार पर है, आज अगर कोई ब्राह्मण होकर ज्ञानी भी है तो उसको विद्वता का सम्मान अवश्य मिले क्योंकि मात्र ब्राह्मण होने से श्रेष्टतावादी में खपाकर उसका अवमूल्यन नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह सम्मान तो ज्ञान का है।

    2- यह उन को जवाब है जो कर्मणा ब्राह्मणत्व की सच्चाई को जानते हुए इस यथार्थ का गोपन कर जन्मना ब्राह्मणत्व की बात को उभारते है, वर्गविभेद को प्रमुखता से रेखांकित कर जातीय ब्राह्मणत्व को श्रेष्ठता-गौरव लोभी की तरह प्रस्तुत करते है। ऐसे प्रसारकों का उद्देश्य अन्य जन्मना जातियों में आक्रोश पैदा करना होता है। यह आलेख इस मंतव्य को उजागर कर जाता है। यह भी उपलब्धी है।

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  18. ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छः बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छः परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" भी ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।
    jai baba banaras....

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  19. आपके विचार से पूर्ण सहमत...
    भारतीय आदर्श को स्थापित करने वाला आलेख है यह.

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  20. बड़ा सुंदर रूप है आपका....
    आभार अनुराग भाई, यह पोस्ट सहेजने योग्य है, ब्लॉग अड्डा का आभार कि आपके बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिल पाया !

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  21. विचारणीय बातें प्रस्तुत करता, ज्ञानवर्धक आलेख.....

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  22. २-३ दिन पहले ही किसी मित्र से रात भर ब्राह्मणत्व पर चर्चा होती रही, अब सोचता हूँ इतना सलीके से कह पाया होता तो और अधिक चर्चा हो पायी होती।
    आभार आपका ऐसी पोस्ट के लिए।

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  23. साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा।

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  24. ब्राह्मण का शाब्दिक अर्थ है -जो ब्रह्म अर्थात परमात्मा का मनन करे और स्वयं को उनके गुणों से सतत प्रयास करते हुए आत्मोथान करे..लेकिन सारे अर्थ ही बदल गये हैं जैसा कि आपने विश्लेषण किया है..

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  25. इस पोस्‍ट पर मेरी टिप्‍पणी यही कि इसे पढते ही मैं इसे फेस बुक पर साझा कर रहा हूँ।

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  26. एक बौद्धिक चूक देखिये कि मानस की जिस अर्धाली के भी आधे से आपने बात शुरू की उसके अगले अंश से प्रबोधित नहीं हुए ...
    बुद्धिजीवी भी ऐसी चूकें करते हैं :)
    अरे महराज ,फिर से देखिये ...
    बंदउ प्रथम महीसुर चरना मोह जनित संशय सब हरना
    ......ब्राह्मण वह है जो लोगों के मोह जनित संशयों को दूर करे ....
    वाह बाबा तुलसी ... :)
    बाकी तो ब्रह्म जानाति आईटीआई ब्राह्मणः

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    1. आपके सम्वाद ने आलेख का उद्देश्य पूरा किया, हार्दिक आभार!

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  27. हिन्दू संप्रदाय की कई बातों को हम महज मानते हैं ... और लगे हाथों इनको अद्वितीय और महान भी ठहराते ही हैं ... और ऐसा करना हमारी अब आदत बन गया हैं ... पर उन पर अमल हो ... और फिर यथार्थ में वे उतरें तभी दुनिया उनका लोहा मानेगी ... वरना दुनियां यह समझ चुकी हैं की हम बोलते बहुत हैं ... करते कम हैं /

    अब सिद्धांत चाहे पुनर्जन्म का ही लें ... इसी एक बात को ठीक मानकर देखें तो फिर बड़े-बड़े और विस्तृत व्याख्यानों की जरूरत ही नहीं आन पड़े ... बड़ा साधारण सा पर अति महत्व का सिद्धांत कि हर किसी की मृत्यु के बाद उसका पुनर्जन्म होता ही हैं ... और पुनर्जन्म कहाँ होगा ? ... तथा कोख कौन सी होगी ? ... इसका चुनाव किसी के बस कि बात नहीं ! ... और यही एक बड़ा कारण हैं कि माता -पिता का उपकार हम पर बड़ा भारी होता हैं ... कि उन्हौने हमें ऐसी परिस्थितियां सुलभ करी कि हमारा पुनर्जन्म संभव हो सका ... कितना सटीक हैं ! ...

    अब दूसरा सिद्धांत हैं मोक्ष का ... निर्वाण का .... वह यही कि इस जन्म-मृत्यु कि अटूट श्रृंखला का कारण हैं हमारे अच्छे - बुरे कर्मों के फलों कि उत्पत्ति का अटल नियम ... जैसे कर्म ठीक वैसा ही फल / .... इस अटूट श्रुंखला को तोड़ना यानि हमारे अच्छे और बुरे दोनों कर्मों के फलों के निरन्तर उपजते सिलसिले पर विराम लगाना ही फिर जन्म लेने कि संभावनाओं पर विराम लगाना हुआ ... यानि मोक्ष ...यानि निर्वाण /

    मोक्ष अथवा निर्वाण कि अवस्था को हासिल करना ही असल ब्रह्मनत्व हुआ ... अब ऐसे ब्राह्मण सद्पुरुष कि संताने अपने को ब्राह्मण माने ... और उस कोरे ब्राह्मण-पने को सर पर चढ़ाये घुमे तो फिर दोष किसका हुआ ?... और फिर ऐसे कोरे ब्राह्मण के यहाँ कोई असद्पुरुष अपनी मृत्यु के बाद जन्म ले वह भी कोई सद्कर्म किये बगैर ही ब्रह्मण का दर्ज पायें ... और हम उसे ये दर्जा दे .... तो फिर क्या हिन्दू संप्रदाय के इन अद्वितीय सिद्धांतों पर हमारा दोहरा रवैय्या अब भी अस्पष्ट रह जाता हैं ?

    एक और बड़ा सिद्धांत हम सर पर तो लिए ढोते हैं ही ... उस पर जरा भी अमल नहीं करते हुए दिखाए देते हैं ... जरा भी भरोसा नहीं करते हैं ... वह हैं " वसुदैव कुटुम्बकम का सिद्धांत " .... देखों न हमारे पुर्जन्म वाले सिद्धांत के अनुसार ही कोई हिन्दू मृत्यु के बाद कहीं भी ... किसी भी देश में ... किसी भी संप्रदाय में ... जाति में ... योनी में जन्म अगर ले तो हम उसे अपना कुटुम्बी ही माने .... पर नहीं मानते ना ? ... साम्रदायिक वैमनस्य कितना बढ़ाते जाते हैं ?

    अब वक्त आया हैं ... हम अपने सिद्धांतों को माने ... उनपर अमल करें ... और कल्याण साधे ... भला हो !!!

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    1. @और फिर यथार्थ में वे उतरें तभी दुनिया उनका लोहा मानेगी ... वरना दुनियां यह समझ चुकी हैं की हम बोलते बहुत हैं ... करते कम हैं /

      अब देखो न श्रेष्ठ्ता का बखान न भी करें और वास्तविकता प्रकट करने का प्रयास करे तब भी ब्राह्मणो को तो श्रेष्ठ्ता की आत्ममुग्धता में ही गिनित किया जाएगा। यथार्थ प्रकट करने को भेदभाव की दृष्टि समझी जाएगी। सभी जन्मना ब्राह्मण आत्ममुग्ध नहीं होते, ऐसे लोगों का संयोगवश ब्राह्मण घर में जन्म लेना आज-कल ताने सुनने का सबब बन गया है।

      @हम उसे अपना कुटुम्बी ही माने .... पर नहीं मानते ना ? ... साम्रदायिक वैमनस्य कितना बढ़ाते जाते हैं ?

      यह "वसुधैव कुटुम्बकम्" वाला फंड़ा भी हिन्दुओं के लिए जी का जंजाल बन गया है :) विशाल हृदय से यह सिद्धांत क्या रचा भातृत्व निबाहने की सारी जिम्मेदारी ही सर पे आन पडी है। वे लोग भी जो वसुधा तो क्या, अपने रंग-रूप जैसो के सिवा सभी को शत्रु मानते है वे भी "वसुधैव कुटुम्बकम्" वालों को टोककर भातृत्व निबाहने को बाध्य कर जाते है।

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    2. @ यह "वसुधैव कुटुम्बकम्" .....

      दिक्कत यह है कि, हम टुकड़ों में सिखावन को देखते हैं - सम्यक भाब से नहीं |

      "हिन्दू सम्प्रदाय" को आँख बंद कर के "कुटुंब प्रेम" की लकीर पीटने की सीख नहीं दी गयी है (vaise hindu apne aap me hi ek confusing term hai - anekaarthi )| जो वेद अहिंसा की प्रशस्तियाँ गाते हैं - वही वेद पापियों को दण्डित करने की प्रार्थनाएं भी लिए हुए हैं | आँख बंद कर के प्रेम का आदेश नहीं है | प्रेम और मोह की अलग अलग परिभाषाएं हैं | दंड और क्रूरता दोनों अलग हैं | क्रोध और मन्यु अलग हैं | यदि "सही" हो रहा हो तो सब कुछ त्यागा जाने की सीख है, तो साथ ही - यदि गलत हो, तो मृत्युदंड के भी अधिकार पालन किये हैं पौराणिक "राजा" ने, न्याय के पालक ने |

      यदि "वसुधैव कुटुम्बम" की सीख है भी - तो कुटुंब के मुखिया को अधिकार भी है कि कुटम्ब के दबंग बच्चों को साधिकार दण्डित करें और उद्दंडता को साधें | यह दंड भी अपराधी के ज्ञान और अज्ञान को देख कर निर्धारित होता है, हर एक को एक ही लाठी से हांकने की सीख नहीं है |

      यदि ब्राह्मण इस कुटुंब को सही राह दिखाने / सिखाने वाले ज्ञानी बुजुर्ग के role में हैं, तो क्षत्रिय इस कुटुंब के करता और रक्षक के बिम्ब हैं - जो कुटुंब को रक्षित करें - हर तरह की भीतरी / बाहरी आपदा से | वैश्य इस कुटुंब के पालन के लिए धन / अर्थार्जन करें, और शूद्र कुटुंब के दैनिक कार्यों को सुचारू रूप से चलने में योगदान करें | ये सब कुटुंब के समान रूप से सदस्य हों / कोई छोटा बड़ा / ऊंचा / नीचा न हो, किन्तु कार्यक्षेत्र सबके अपने अपने निर्धारित हों - जो जिस के लिए उचित role player हो - वह उस role में अपना जीवन सफल करे | but everyone is equally important and respectable.

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  28. शानदार पोस्ट पर आए शानदार कमेंट्स और साक्षात्कार पढ़ना सुखद रहा।

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  29. आपका यह लेख और उस पर की बहस पढ कर जानकारी में वृध्दी हुई ।
    वैसे तो इतना पता था कि ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ती ब्रह्मज्ञ से हुई है जो ब्रम्ह को जान गया वही ब्राह्मण । जैसा कि आपने शुरू में ही बताया,
    ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में, सम भाव धरत सब प्रानिन में।
    सम दृष्टि सों देखत सबहिं, गौ श्वानन में चंडालन में ॥
    अहिंसा, सत्य, अस्तेय, विवाह होने तक ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अध्ययन और अध्यापन ये गुण ब्राह्मण के हैं यह पता था ।
    पर आज की दुनिया में तो हर मनुष्य दौलत पाने और जमा करने के पीछे है । बाकी तो ज्ञानीजनें ने काफी विस्तार से सब बता ही दिया है ।

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  30. प्रश्नोपनिषद में बिलकुल ऐसा ही विवरण पढ़ा था ब्राह्मण का.. आज की तथाकथित परिभाषा (जातिगत) से एकदम अलग..
    बहुत अच्छा आलेख... सादर शुभकामनाएं

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  31. ज्ञानवर्धक प्रस्‍तुति के लिए आपका बहुत-बहुत आभार ।

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  32. देखिये मैंने कोई उपनिषद या शास्त्र नहीं पढ़े है,
    फिर भी "गूंगे का गुड " जैसा मेरा अपना अनुभव है जहाँ तक मै समझती हूँ ब्राम्हण वही हो सकता है जिसकी हर चर्या
    ब्रम्ह जैसी यानि क़ी इश्वर जैसी हो, ब्राम्हण का मतलब कमसे कम मेरे लिये तो कोई जाती से सम्बन्ध नहीं है !
    ओशो को पढ़ते हुये भी यही पाया कि, खुद को जाने बिना कोई ब्रम्ह नहीं हो सकता !
    अगर आप मेरी पोस्ट पर ना आते तो इतनी अच्छी पोस्ट से वंचित होना पड़ता .......आभार अच्छी पोस्ट के लिये !

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  33. देखिये मैंने कोई उपनिषद या शास्त्र नहीं पढ़े है,
    फिर भी "गूंगे का गुड " जैसा मेरा अपना अनुभव है जहाँ तक मै समझती हूँ ब्राम्हण वही हो सकता है जिसकी हर चर्या
    ब्रम्ह जैसी यानि क़ी इश्वर जैसी हो, ब्राम्हण का मतलब कमसे कम मेरे लिये तो कोई जाती से सम्बन्ध नहीं है !
    ओशो को पढ़ते हुये भी यही पाया कि, खुद को जाने बिना कोई ब्राम्हण नहीं हो सकता !
    अगर आप मेरी पोस्ट पर ना आते तो इतनी अच्छी पोस्ट से वंचित होना पड़ता .......आभार अच्छी पोस्ट के लिये !

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  34. पोस्ट और कमेन्ट ... दोनों आत्मसात करने वाले हैं .. आज की आवश्यकता हैं ...

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  35. आलेख पसंद आया सर जी। इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए आपको साधुवाद!

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  36. बहुत बढ़िया !
    इस पोस्ट की बातें याद रखने लायक हैं.

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  37. @ ब्राह्मण कौन ?................बेहतरीन टिप्पणियों से सुसज्जित ज्ञानवर्धक एवं संग्रहणीय पोस्ट,
    ------------------------------------------------
    गाँव से वापसी के बाद बग- वार्ता होते हुए सीधे ब्लॉग अड्डा जाकर आपका साक्षात्कार पढ़ा, अच्छा लगा, व्यक्तिगत जीवन के कई अनछुए पहलुओं से परिचित हुआ,
    आभार..........

    ------------------------------------------------
    पी.एस. भाकुनी
    ------------------------------------------------

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  38. बहुत बढ़िया पोस्ट। जन्मना ब्राह्मण टर्म बड़ा अच्छा मिल गया। ब्राह्मण को परिभाषित भी अच्छा किया।

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  39. आपकी यह पोस्ट और इसपर हुई टिप्पणियाँ अमूल्य और संग्रहणीय है.
    बहुत अच्छी और नई नई जानकारी मिली ब्राह्मण होने के बारे में.
    आपकी मेहनत से लिखी गयी इस शोध परक प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.
    आपके इंटरव्यू से भी आपके बारे में बहुत सी बातें जानने को मिली.

    आपसे हिंदी ब्लॉग जगत धन्य हो रहा है.
    हमें आप पर नाज है.

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  40. अनुराग जी ब्राह्मण कौन ? विषय पर सार्थक पोस्ट लिख कर सार्थक टिप्पणियों से हुई ज्ञानवृद्धि करवाने के लिए धन्यवाद. यदि द्विज शब्द को इसके मूल अर्थ में समझ लिया जाए तो ब्राह्मण का अर्थ स्वत: स्पष्ट है; जो आपकी पोस्ट से प्रतिध्वनित हो रहा है। पुन: धन्यवाद इस पोस्ट के लिए।

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  41. पुनश्च: ब्लॉग-अड्डा पर आपका साक्षात्कार पढ़ा ...अच्छा लगा और बहुत सी नई जानकारियां आपके संबंध में मिली।

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  42. आपकी इस पोस्ट व उसपर आई टिप्पणियों ने तो शाम की सैर भुला दी। समय का भान भी न रहा। जब फोन की घँटी बजी तो समझ आया कि समय निकल चुका है। कभी कभार पढ़ने में यूँ खोना भी भला लगता है। आभार।
    घुघूती बासूती

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  43. ग्यान सागर मे गोते लगा रही हूँ तो मोती तो हाथ लगेंगे ही। इस पोस्ट की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। लाजवाब। शुभकामनायें। मै तो आपकी मेल का इन्तजार करती रही कि कब आप मेल करेंगे नई पोस्ट लिख कर। मेरा नाम लिस्ट मे डाल लें। धन्यवाद।

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  44. जो ब्रह्म को जाने,वही ब्राह्मण। इसका सीधा अर्थ आंतरिक शुद्धि से है,बाह्य शरीर,जन्म अथवा आडम्बरों से नहीं।

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  45. लेकिन ब्राह्मण गोत्र इन दोनों से ही नहीं होते हैं। वे बने हैं गुरुकुल से। जातिवाद और ब्राह्मणत्व दो विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनका घालमेल करना निपट अज्ञान ही नहीं, एक तरह से भारतीय परम्परा का निरादर करना भी है।
    भाई साहब की बहुत बढ़िया विश्लेषण प्रधान पोस्ट इतिहासिक तथ्यों को समोए हुए .

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  46. ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडत होय .

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  47. ब्राह्मण पर बहस लंबे समय से स्थगित हो गई थी, एक बार फिर से इसे जगाने और सार्थक रूप में प्रस्तुत करने के लिए हृदय से आभार, एक और जानकारी भी हुई कि तबस्सुम पंडित अयोध्यानाथ जी की बेटी थीं।

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  48. सुज्ञ जी के ब्लॉग पर संजय अनेजा जी से इस पोस्ट की तारीफ सुनी तो देखने का मन हो आया ।सचमुच बहुत अच्छी और उपयोगी पोस्ट है।इस विषय में यह तो जानकारी थी कि ब्राह्मण का मतलब क्या था परंतु इतने विस्तार से और तथ्यात्कम जानकारी नहीं थी।अली जी और शिल्पा जी के मध्य हुआ संवाद तसल्ली से एक बार फिर पढना पडेगा ।

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    1. धन्यवाद राजन, आप वाकई गंभीरता से पढ़ने वाले पाठक हैं।

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  49. बहुत अच्छा और साहसिक आलेख. हो सकता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक अंग इस आलेख का विरोध करे किन्तु इस प्रकार के आलेखों से पुरानी जंग लगी मान्यताओं को फिर से निखारा जा सकता है. आज के युग में जाति और समुदाय की बातें तो राजनीतिक छल-प्रपंच में प्रयुक्त होती हैं पर इस प्रकार के स्तरीय विचार-विमर्श से हम बहुत कुछ नया सीख सकते हैं. मैं अनुरागजी को इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए बधाई देता हूँ.

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।