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Friday, June 28, 2019

ब्राह्मण कौन? - भाग 3

1. मूल प्रश्न जटिल है, उत्तर भी सरल नहीं। यह सही लगता है कि ब्राह्मण और शूद्र दोनों ही बाद की बातें हैं लेकिन प्रकृति में बल, कौशल से पहले है। वर्णाश्रम व्यवस्था से बाहर के समाज देखें तो आज के सभ्य समाज में वे मुख्यतः व्यवसायी हैं, और व्यवसायी बनने से पहले ही योद्धा थे और आज वणिकवृत्ति करते हुये भी वैश्य से अधिक योद्धा ही हैं। यूरोप की विभिन्न ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ हों, भारतीय क्षेत्र के राजवंशों के संघर्ष हों, या देवासुर संग्राम जैसे आख्यान, ये सभी उदाहरण आत्मरक्षा से आगे जाकर, आक्रामकता और पराक्रम को नैसर्गिक गुण दर्शाते हैं। गौतम का बुद्ध हो जाना वास्तव में मानव और समाज, दोनों के विकास की प्रक्रिया का अगला चरण है।

2. शक्ति के अनेक रूप हैं, ज्ञान भी एक बड़ी शक्ति है। अविकसित समाज में राजा का शक्तिशाली होना स्वाभाविक है, बल्कि वहाँ शक्ति ही नेतृत्व प्रदाता है। जिस ईख, या गन्ने के लिये गिरमिटिया, फ़ीजी, मॉरिशस से लेकर वेस्ट इंडीज़ तक ले जाये गये उसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों तक ईक्ष्वाकुओं का पेटेंट रहा हो यह स्वाभाविक है। वर्ण-व्यवस्था से पहले का राजा ब्रह्म-क्षत्रिय है। उसमें ये दोनों वर्ण हैं, बल्कि कुछ सीमा तक चारों वर्ण समाहित हैं। उसके विश्वस्त भी किसी भी अन्य अविकसित/विकासशील समाज की तरह योद्धा अधिक हैं, वैश्य कम। वैश्यवृत्ति विकास का उपादान भी है, और उत्पाद भी। ब्राह्मण व शूद्र वृत्तियाँ किसी भी अविकसित समाज में अनुपस्थित है। वे दोनों ही विकसित समाजों का नवोन्मेष हैं, और उनकी आवश्यकता भी।
विकास का नैसर्गिक क्रम: क्षत्रिय → वैश्य → शूद्र → ब्राह्मण
3. भारतीय समाज और वर्णाश्रम व्यवस्था के अहिंसा सहित अनेक अद्वितीय/अपूर्व धर्म/लक्षण हैं - ऐसे सारे लक्षण ब्राह्मणत्व का उदय भी दर्शाते हैं, और उसका आधार भी बने हैं। यह धर्म, ये लक्षण ही भारतीय संस्कृति को पश्चिम से, बल्कि सारे संसार से अलग खड़ा करते हैं। ब्राह्मणत्व का सिद्धांत भारतीय संस्कृति का वह बिंदु है जो अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है। दान देना और दान लेना, विशेषकर ब्रह्मदान, जनकल्याण के लिये ज्ञान का विस्तार, पुर के हित के लिये पौरोहित्य, और निरंकुश शासक के लिये संघर्ष का परशु, बनना। सिद्धांततः ब्राह्मणत्व विनम्रता की मूर्ति होते हुये भी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का अडिग आधार है।

4. अहिंसा तो फिर भी आचरण की बात थी, ज्ञान को राजा की बपौती से बाहर निकालकर गुरुकुलों द्वारा, ब्रह्मविद्या द्वारा, वेदों-उपवेदों द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का कार्य करने वाले ब्राह्मण हुये। वे राजाओं में से भी आये होंगे, क्षत्रियों, वैश्यों, और शूद्रों में से भी। बेशक जो पीढ़ी ब्राह्मण हो चुकी है, उसकी संतति का ब्राह्मण होना सरल है। जो परिवार 5,000 वर्षों से शाकाहारी हैं, उनके बच्चों के शाकाहारी होने में कोई चमत्कार नहीं, लेकिन अन्यों का ब्राह्मणत्व उपार्जित है, जिसे सरल करने का कार्य वर्णाश्रम व्यवस्था ने किया। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद राजा और मंत्रिमण्डल राजपुरोहित के नेतृत्व में राज्य के हित के लिये मिलकर काम करने लगे लेकिन उससे पहले का काल निश्चित रूप से इन दो संस्थाओं के संघर्ष का भी गवाह रहा है।

5. क्षत्रियत्व मानवों सहित असुरों में भी जन्मजात है, और देवों में भी। ब्राह्मणत्व केवल मानवों में उपस्थित है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि ब्राह्मण मानव होते हुये भी देव हो गये हैं। क्यों के उत्तर की खोज हमें ब्राह्मणत्व के दो मूल लक्षणों परमार्थ (स्वार्थ नहीं), तथा दान (लेना भी, देना भी - समन्वय, विकास,  और विस्तार ) की ओर इंगित करती है। याद रहे, दान देवता की मूल प्रवृत्ति है।

6. जंगल प्राकृतिक हैं लेकिन कृषि नैसर्गिक नहीं। हज़ारों वर्ष पहले के भारत की बात छोड़ भी दें तो कुछ सौ साल पहले के - अमेरिका पहुँचे यूरोपीय 'पिलग्रिम' भूखे मरने को थे क्योंकि उन्हें कृषि का कख भी नहीं आता था। व्यवसाय कृषि के विकास से हज़ारों साल पहले भी होता रहा है। अरब और यूरोप के व्यापारी प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार करते रहे हैं, जबकि कृषि के मामले में वे निरक्षर थे। समस्त भारत में कृषि और गौपालन की स्वीकार्यता, उसका ज्ञान, और विस्तार ब्राह्मणों की ही देन है। कृषि और शाकाहार का सामान्य ज्ञान हमें आज वैसा ही सरल और स्वाभाविक लगता है, जैसा मेरे बच्चों का अमेरिका में रहते हुये भी शाकाहारी होना, लेकिन है नहीं। इसके पीछे सहस्रों वर्षों का तप और त्याग है। वेदों को बार बार चोरों के मुँह में हाथ डालकर निकाला गया है ताकि समाज का कल्याण हो। गौदान के द्वारा गौसंवर्धन, दूध, दही, मक्खन, खीर, घी आदि के प्रयोग द्वारा पोषण, गौ को माँ का स्थान देकर भारतीय समाज में इतना सहज बना दिया गया जैसा संसार में और कहीं नहीं हुआ।

7. वर्ण और विशेषकर वर्ण-संकर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक ग़लत समझे गये शब्द हैं। ग्रंथों में जहाँ भी वर्ण-संकर शब्द का प्रयोग हुआ है उसे जाति-संकर कहना न केवल एक भूल है बल्कि महा-अज्ञान है। ऐसा अनर्थ करने वाले यदि शंकराचार्य के पद पर भी बैठे हों तो भी वे भारतीय संस्कृति की आत्मा से दूर हैं। सामान्यजन तो खैर संसार भर में कुछ हद तक जातिवादी होते हैं, और अपने परिवार, वंश, जाति, या राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानना कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। वर्ण इस जातिगत श्रेष्ठता की काट भी बने और व्यक्ति और समाज के विकास का साधन भी।

7. ब्राह्मणत्व के अनेक कर्तव्यों में से एक दान लेना और दान देना भी है। अपने को अयाचक मानकर, ब्राह्मणों को याचक या हीन कहना निश्चित रूप से एक अब्राह्मण प्रवृत्ति है। अनेक जन्मना ब्राह्मण भी संसार की देखादेखी आजकल परशु को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते दिखते हैं लेकिन तथ्य यही है कि सत्यनिष्ठा और विनम्रता ब्राह्मणत्व के मूलभूत गुण हैं, और इस बात को न समझने वालों का ब्राह्मणत्व नाममात्र का ही है।

8. किसी को ब्राह्मण कहने का आधार उसके माता पिता का ब्राह्मण होना भी मात्र उतना ही है जितना किसी के क्षत्रिय, वैश्य, सिख, ईसाई, जैन, तुरक, या किसी अन्य वर्ण, जाति, या मज़हब का होना। न उससे तनिक भी कम, न अधिक। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अधोपतन के इस काल में भी भारत में सर्वाधिक अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में ही मिलेंगे जो इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मण जाति के बंधन में उतने नहीं फँसे हुये जितने अन्य समुदाय। वर्ण जन्मना नहीं, जाति नहीं, बल्कि जातिवाद के विरुद्ध क्रांति के प्रतीक हैं, वे जन्मना अहंकार का प्रतिरोध हैं।

... अभी के लिये इतना ही, शेष फिर ...

सम्बंधित कड़ी: ब्राह्मण कौन? भाग 1

Sunday, June 16, 2019

ब्राह्मण कौन 2 (उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर, और घर)

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
जीवन में अब तक दो बार मेरी जाति पूछी गयी है, दोनों बार ही अमेरिका में, अभारतीय समुदाय के, ईसाई मतावलम्बी व्यक्तियों द्वारा। भारत में जाति के आधार पर मेरे साथ भेदभाव भी हुए हैं, और अपमानित करने के प्रयास भी, लेकिन जाति शायद मेरे नाम या माथे पर पहले ही दिखती रही सो उसके बारे में कोई सीधा प्रश्न कभी नहीं किया गया। हाँ, छ्द्मरूपों में वे प्रश्न लगातार किये जाते रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति के विरोध में कई बार अनेक मिथ्या कथनों को सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किये जाते भी देखता हूँ। यही प्रवृत्तियाँ इस लेख का कारक बनीं। इसमें मेरा कुछ नहीं है - परम्परा को जैसा देखा, समझा सामने है, ताकि आप भी सत्य-असत्य में भेद कर अपना निर्णय आप कर सकें। यह लेख वृहद और विविध भारतीय परम्परा को ध्यान में रखते मुख्यतः रुहेलखण्ड क्षेत्र की साढ़े-तीन घर की सनाढ़्य परम्परा को आधार मानकर लिखा गया है। सम्भव है भविष्य के किसी लेख में अन्य समूहों, वर्गों आदि की प्रामाणिक जानकारी भी दी जाये।

भारत में ही नहीं, कबीले और जातियाँ संसार भर में पाये जाते रहे हैं। कोई समूह अपने रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानता था, कोई अपनी क्रूरता के आधार पर, तो कोई अपनी समृद्धि के आधार पर। अपने जैसे समूह में मिलना, और स्वयं को अपने से भिन्न लगने वालों से श्रेष्ठ समझना कुछ हद तक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति कई मायनों में क्रांतिकारी रही है। भारतीय समाज के अनूठे विचारों में से एक वर्णाश्रम व्यवस्था भी थी। जन्मजात श्रेष्ठता की  विश्वव्यापीधारणाओं को नकारकर, जाति के बजाय कर्म और शालीनता को महत्व देना वर्ण व्यवस्था का आधार है।

पितृसत्ता तो संसार भर में सामान्य थी, केरल के नायर समुदाय में मातृकुल आज भी मान्य है। लेकिन भारतीय संस्कृति ने जन्म या रक्त के सम्बंध से कहीं ऊपर उठकर गोत्र द्वारा गुरुकुल से जुड़ने जैसी अपूर्व धारणा की नींव रखी। शास्त्रीय परम्परानुसार, भगवान राम का वंश इक्ष्वाकु, कुल रघुकुल, परंतु गोत्र वसिष्ठ है। किसी भी गुरुकुल के शिष्यों का गोत्र सामान्यतः उस गुरुकुल के संस्थापक के नाम पर होता था और सगोत्रियों को सगे-सम्बंधियों की तरह माना जाता था। इसी कारण उनमें विवाह सम्बन्ध प्रतिबंधित थे। अंतर्गोत्रीय विवाह दो भिन्न गुरुकुलों के बीच सेतु बनकर ज्ञान के आदान-प्रदान का कार्य भी करते थे। जब सारा संसार लगभग जंगली जीवन जीता था तब इतने बड़े देश को दुग्ध और शाकाहार आधारित स्वस्थ पोषण जैसी जानकारी, दशमलव गणित, और खगोलशास्त्र जैसे विज्ञान, शर्करा जैसा बहूपयोगी उत्पाद, हीरक-खनन जैसा अद्वितीय और अपूर्व कार्य, जातिवादी अहंकार और फ़िरकापरस्ती की जगह कर्म-आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था जैसे सिद्धांत देने में गोत्र व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

मूल गोत्र सप्तर्षियों के नाम पर रहे। बाद के ऋषि सामान्यतः प्रवर के रूप में मान्य हुये लेकिन सम्भव है कि कुछ क्षेत्रों में वे गोत्र-प्रवर्त्तक भी मान लिये गये हों। गोत्रों के कुछ सामान्य उदाहरण पराशर, वसिष्ठ, भरद्वाज, कश्यप आदि हैं। कहीं पढ़ा था कि काशी में 47 गोत्र ऋषियों के मंदिर ज्ञात हैं। काशी में और अन्यत्र ऐसे अधिक मंदिर भी हो सकते हैं, लेकिन मुझे उसकी जानकारी नहीं है।

गोत्र का उपसमूह है प्रवर। कई प्रवरों का एक गोत्र होता है, एक गोत्र में कई प्रवर हो सकते हैं। प्रवर गोत्र के प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद में आने वाले ऋषियों की ओर संकेत करते हैं। प्रवर उन ऋषियों के नाम पर बने हैं जिन्होंने मूल गोत्र-प्रवर्त्तक ऋषि की मान्यताओं का प्रसार किया। एक गोत्र में प्रवर कितने भी हो सकते हैं, नहीं भी होते हैं। जिन गोत्रों में आगे कोई अन्य प्रवर्त्तक ऋषि नहीं हुआ वहाँ प्रवर नहीं है। सनाढ्य ब्राह्मण समुदाय के साढे-तीन घर का अर्द्ध भाग (साढ़े) इन्हीं प्रवरहीन गोत्रों का प्रतीक है।

गोत्र से इतर एक अन्य विभाजन क्षेत्र का भी है। सागरतट से दूर उत्तरभारतीय ब्राह्मण गौड़ तथा तटीय क्षेत्र के ब्राह्मण द्रविड़ कहलाये। द्रविड़ का उद्भव द्रव से हो सकता है, जिससे उनके तटीय क्षेत्रों में निवास के साथ-साथ समृद्धि का संकेत भी मिलता है। जातिवादी गोरे शासकों द्वारा आर्यन रेस तथा आर्य-द्रविड़ संघर्ष जैसी मिथ्या मान्यताओं की स्थापना उनकी अपनी स्वार्थसिद्धि के पथ में स्वाभाविक होते हुये भी पूर्णतः निराधार है।

गौड़ क्षेत्र के ब्राह्मणों को गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल, उत्कल, सरयूपारीण, गुर्जर, देशस्थ, कोंकणस्थ आदि अनेक वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। इसी प्रकार द्रविड़ ब्राह्मणों को तैलंग, अय्यर, अयंगार, नम्बूदरी, आदि अनेक खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। लेकिन इनके अतिरिक्त सनाढ्य जैसे कुछ समूह आज भी क्षेत्रीय नाम से मुक्त हैं। कश्मीरी ब्राह्मण जैसे कुछ क्षेत्रीय नाम बाद में बने हुये भी लगते हैं।

जाति व्यवस्था के विपरीत वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी लेकिन कालांतर में वह भी लगभग जाति की समरूप ही हो गयी। विवाह सम्बंध के मामलों में अधिकांश समूह अन्य समूहों से अलग होते गये। चीन-जापान आदि अनेक देशों में कुलनाम बदलना आज भी कानून के विरुद्ध है लेकिन भारत में कुलनामों के विषय में कोई कानून न होना अपने समूह के बाहर के अपरिचितों के वास्तविक वर्ण, परम्परा, खानपान, शुचिता आदि के प्रति अविश्वास का कारण भी बना और अपनी-अपनी परम्पराओं को बाह्य आक्रमणों से बचाये-बनाये रखने का एकमात्र साधन भी।

सात्विक भोजन (प्याज़-लहसुन आदि गंधक-वनस्पति रहित शाकाहार व दुग्ध उत्पाद मात्र) के प्रति सनाढ्य ब्राह्मणों का अटूट आग्रह कुछ अन्य ब्राह्मण समूहों विशेषकर कान्यकुब्ज समूह से उनके अलगाव का कारण बना। गोत्र-प्रवर के वर्गीकरण के अनुसार सनाढ्य ब्राह्मण समुदाय स्वयं भी दो उपवर्गों दसघर और साढ़े-तीन घर में बँट गया। जहाँ दसघर कुल 10 गोत्रों का समूह था वहीं साढ़े तीन घर में दो प्रकार के गोत्र थे, पहले वे जिनके हर गोत्र में तीन अल्ल (शासन, प्रवर या कुलनाम) हैं, और दूसरे वे जिनमें कोई प्रवर नहीं। तीन प्रवर वाले गोत्रों का एक उदाहरण पाराशर गोत्र है जिसमें तीन कुलनाम पाण्डेय, पाराशरी, व त्रिगुणायत पाये जाते हैं तथा एकल-प्रवर वाले गोत्र का उदाहरण च्यवन है जिनका कुलनाम कष्टहा (तद्भव कटिहा) है। सांख्यधर (तद्भव शंखधार) कुलनाम भी भी साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों के एकल-प्रवर कुल का एक उदाहरण है। साढ़े-तीन घर में प्रयुक्त अर्थ इन्हीं एकल-प्रवर कुलों के प्रतीक हैं।

गोत्र के सामान्य नियमों के अनुसार दसघर के गोत्र एक-दूसरे में विवाह सम्बंध बनाते रहे हैं। परम्परानुसार उनकी कन्याओं का विवाह साढ़े-तीन घर के वरों के साथ हो सकता था, यद्यपि उसके विलोम से सामान्यतः बचा जाता था, लेकिन पूर्ण मनाही जैसी स्थिति नहीं थी। हाँ ये दोनों ही वर्ग अन्य ब्राह्मण या अब्राह्मण समूहों में विवाह नहीं करते थे। मुख्य बाधा खानपान की पवित्रता की अवधारणा ही थी। स्नान के बिना या चप्पल आदि पहनकर रसोई में प्रवेश प्रतिबंधित था। दिन का भोजन कच्चा अर्थात, दाल, भात, रोटी, रायता, सलाद आदि होता था जबकि शाम का भोजन पक्का अर्थात पूरी, पराँठे, सब्ज़ी (तली हुई) आदि होते थे। इनके सामान्य व्यवसायों में कथावाचन, वैद्यकी, ज्योतिष, व पौरोहित्य भी थे। पौरोहित्य व्यवसाय के कारण इनका खानपान सभी हिंदू जातियों में होता था। लेकिन उसमें पका खाना और कच्चा खाना के नियम थे जिसके अनुसार दाल, चावल, रोटी आदि जैसे बिना-तले पदार्थ घर से बाहर के पके नहीं खाये जाते थे। पवित्रता का ध्यान रखते हुए फलाहार, तथा पक्का खाना आवश्यकतानुसार बाहर की रसोई का भी खाया जा सकता था। इनके हाथ के बनाये हुए कच्चे भोजन सहित सभी सामग्री सभी जातियों और धर्मों में भोज्यपदार्थ के लिये समान रूप से विश्वसनीय और स्वीकार्य थी। शायद इसी कारण यह समुदाय भोजन, मिष्ठान्न आदि के व्यवसाय से भी जुड़ा रहा है। खाना पकाने वाले कर्मी को महाराज कहने का रिवाज़ भी इनके इस व्यवसाय से ही आया है क्योंकि इस समुदाय के व्यक्तियों को आदर से 'पण्डित जी महाराज', पण्डितजी, या महाराज कहने की प्रथा है। इसीलिये कुछ क्षेत्रों में रसोइये को ही महाराज कहा जाने लगा।

नमस्कार के लिये सामान्यतः पण्डित जी पालागन या दण्डवत महाराज जैसे सम्बोधन सामान्य थे। मुझे याद है कि बरेली में मेरे मुस्लिम अध्यापक भी मुझे पण्डित जी महाराज कहकर ही बुलाते थे।

अधिकांश सनाढ्य अपने नाम में अपनी अल्ल/अल्ह (कुलनाम) का प्रयोग करते हैं, कुछ सामान्य ब्राह्मण नाम 'शर्मा' का भी प्रयोग करते हैं और कोई-कोई अपने गोत्र का। उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक, मुख्य न्यायाधीश रामस्वरूप पाठक, केंद्रीय विद्यालय संगठन के मुख्य आयुक्त श्री रमेश चंद्र शर्मा आदि इस समुदाय के ही हैं। कुछ कुलनामों का प्रयोग इसलिये नहीं किया जाता था क्योंकि वे अन्य समुदायों के कुछ अन्य कुलनामों से मिलते-जुलते होने के कारण सुनने वाले को भ्रमित कर सकते थे। उदाहरण के लिये सनाढ्य शब्द को ही कुलनाम में प्रयुक्त नहीं किया जाता था क्योंकि वह अब्राह्मण जाति सनौढ़िया से भ्रमित कर सकता था। इसी प्रकार कष्टहा, या कटिहा कुलनाम वाले सामान्यतः शर्मा लिखते थे ताकि उन्हें कट्ट्या महाब्राह्मण न समझ लिया जाये। ज्ञातव्य है कि महाब्राह्मण हिंदुओं का अंतिम संस्कार कराने वाले ब्राह्मण वर्ग के लिये रूढ़ नाम है जो श्मशान में अंतिम संस्कार कराने के कारण सामान्य पूजा-पाठ से अलग हो गये थे, और सामान्य व्यवहार में लगभग अब्राह्मण जैसे ही समझे जाने लगे थे। सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति में भी कट्ट्या समुदाय देश के सर्वाधिक पिछड़े वर्गों में से एक और दलितों में भी अति-दलित जैसे हैं। आर वी रसैल (R. V. Russell) ने भी अपने अज्ञान के कारण ही 'The Tribes and Castes of the Central Provinces of India - Volume II' में जब साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों को एक बार महाब्राह्मणों में विवाहित (*Further, it is said that the Three-and-a-half group were once made to intermarry with the degraded Kataha or Maha-Brahmans, who are funeral priests.) बताया है तो उसका कारण कष्टहा तथा कट्ट्या को समान समझने का भ्रम ही है।
सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:
साढ़े-तीन घर के कई कुलनाम दसघर के कुलनामों के समान होते हुए भी अलग हैं। इसी प्रकार दसघर के अधिकांश कुलनाम कान्यकुब्ज या गौड़ ब्राह्मणों के समान होते हुए भी वास्तव में उनसे भिन्न हैं। महाराष्ट्र से नेपाल तक पाया जाने वाला पाण्डेय कुलनाम अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग ब्राह्मण समूहों का प्रतिनिधित्व करता है। सनाढ्यों के मिश्र में ही भेद (सरैय के मिसर, या कटैय्या के मिसर) हैं। इसी प्रकार साढ़े-तीन घर के पाठक दसघर के पाठकों से भिन्न हैं।

सनाढ्यों में प्रचलित कुछ कुलनाम
साढ़े-तीन घर: मिश्र (गोत्र: कश्यप), पाठक (गोत्र: कश्यप), पाण्डेय (गोत्र: पाराशर), कटिहा (गोत्र: च्यवन), पाराशरी (गोत्र: पाराशर), त्रिगुणायत (गोत्र: पाराशर), शंखधार (गोत्र: अगस्त्य),
दसघर: मिश्र, पाठक (गोत्र: भरद्वाज), उपाध्याय, चतुर्वेदी


विषय विस्तृत है, इस पर प्रकाशित प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। अधिकांश उपलब्ध जानकारी अपने-अपने क्षेत्र या कुल को औरों से श्रेष्ठ बताने के पूर्वाग्रह से युक्त, तथ्यहीन, और असत्य है। अंतर्जाल पर उपलब्ध जानकारी में अनेक ऊलजलूल कहानियाँ कट-पेस्ट करके दोहरायी गयी हैं। इसके अतिरिक्त नई पीढ़ी के बच्चे अपने गोत्र-प्रवर-समूह आदि की जानकारी से वंचित भी हैं। इस आलेख का उद्देश्य लुप्त हो रही जानकारी को लिपिबद्ध करना है। लेखक का विश्वास किसी भी जाति को उच्च या निम्न न मानते हुये प्राणिमात्र की उन्नति की भारतीय अवधारणा में है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।



Sunday, May 27, 2012

ब्राह्मण कौन?

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में, सम भाव धरत सब प्रानिन में। 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं, गौ श्वानन में चंडालन में ॥
 [डॉ. मृदुल कीर्ति - गीता पद्यानुवाद]
जब से बोलना सीखा, दिल की बात कहता आया हूँ। मेरे दिल की बात क्या है, कुछ मौलिक नहीं, वही सब जो अपने आसपास सुना, पढा, समझा और सीखा है। सब कुछ सही होने का दावा नहीं कर सकता हाँ इतना प्रयास अवश्य रहता है कि सत्य अपनाया जा सके और उसे प्रिय और श्रेयस्कर मान सकूँ।

उपनिषदों में जाबालि ऋषि सत्यकाम की कथा है जो जाबाला के पुत्र हैं। जब सत्यकाम के गुरु गौतम ने नये शिष्य बनाने से पहले साक्षात्कार में उनके पिता का गोत्र पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी माँ जाबाला कहती हैं कि उन्होंने बहुत से ऋषियों की सेवा की है, उन्हें ठीक से पता नहीं कि सत्यकाम किसके पुत्र हैं। ज्ञानवृत्ति के पालक ऋषि सत्य को सर्वोपरि रखते आये हैं। सत्यकाम की बात सुनते ही गौतम ऋषि उन्हें सत्यव्रती ब्राह्मण स्वीकार करके जाबालि गोत्र का नाम देकर पुकारते हैं।
खून से ही वंश की परम्परा नहीं चलती, जो विश्वास वहन करता है, वही होता है असली वंशधर ~ सत्यकाम फ़िल्म से (रजिन्दर सिंह बेदी लिखित) एक सम्वाद 
बात की शुरुआत हुई एक मित्र के फ़ेसबुक स्टेटस से जिसका शीर्षक था "बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना :)" संलग्न लिंक था टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर से जिसमें चर्चा थी उस ट्रेंड की जहाँ निसंतान भारतीय दम्पत्तियों की पहली पसन्द ब्राह्मण संतति प्राप्त करना पाई गयी थी। ब्राह्मण शब्द पर ज़ोर था। काफ़ी दिन बाद फिर से ध्यान गया उस शब्द पर जिसकी चर्चा अक्सर होती है पर उसका अर्थ शायद अलग-अलग लोगों के लिये अलग ही रहा है। एक बुज़ुर्ग भारतीय मित्र हैं जो जाति पूछे जाने पर अपने को "जन्मना ब्राह्मण" कहते थे क्योंकि तथाकथित ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने अपने को कभी ब्राह्मण नहीं माना। एक अन्य जन्मना ब्राह्मण मित्र हैं जो अक्सर जन्मना ब्राह्मणों को कोसते दिखाई देते हैं। विद्वान हैं, कई बातें सही भी हैं लेकिन कई बार यह विघ्नकारी हो जाता है।

अली सैयद जी के ब्लॉग उम्मतें की एक पोस्ट "कभी यहां तुम्हें ढूंढा...कभी वहां देखा...!" पढते समय ध्यान गया कि शास्त्रों के काल से लेकर आज तक भले ही भृगु, विश्रवा, च्यवन आदि ब्रह्मर्षियों की बात हो या वर्तमान समाज में देखें तो अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गांधी जैसे स्वाधीनता सेनानियों की, भारत में यदि कोई एक जाति अंतर्जातीय सम्बन्धों में आगे रही है तो वह ब्राह्मण जाति ही है। ब्राह्मण परिवार में जन्मी पॉप गायिका पार्वती खान का नाम कई पाठकों को याद होगा। पढ़ने में आता है कि डॉ भीमराव अंबेडकर की पत्नी डॉ शारदा कबीर (माई सविता अंबेडकर) भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं। मैं अपने आसपास के अंतर्जातीय विवाहों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो जन्मना ब्राह्मणों को अग्रणी पाता हूँ। प्रेम की तरह शायद कट्टरता के भी कई रूप होते हैं, एक सर्वभूतहितेरतः वाला और दूसरा अहमिन्द्रो न पराजिग्ये वाला। 

प्रथम ब्राह्मण रेजिमेंट (1776-1931) भारतीय सेना
ब्राह्मण यानी द्विज यानी दूसरे जन्म याने संस्कार से बना हुआ व्यक्ति। मतलब यह कि ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। ब्राह्मण होने का मतलब ही है आनुवंशिकता के महत्व को नकारकर ज्ञान, शिक्षा और संस्कार के महत्व को प्रतिपादित करना। विश्व के अन्य राष्ट्रों की तरह भारतीय जातियाँ पितृकुल से भी हैं, मातृकुल से भी। लेकिन भारत के ब्राह्मण गोत्र संसार भर से अलग एक अद्वितीय प्रयोग हैं। ब्राह्मण मातृकुल, पितृकुल, कम्यून आदि से बिल्कुल अलग ऐसी परिकल्पना है जो गुरुकुल से बनी है। जातिवाद और ब्राह्मणत्व दो विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनका घालमेल करना निपट अज्ञान ही नहीं, एक तरह से भारतीय परम्परा का निरादर करना भी है।

गुरुकुल शब्द ही ब्राह्मणों के कुल के अनानुवंशिक होने का प्रमाण है। न माता का, न पिता का, गुरु का कुल - ब्राह्मणों के एक नहीं, न जाने कितने गोत्र ऐसे हैं जहाँ पिता और पुत्र के चलाये हुए गोत्र अलग हैं उदाहरणार्थ वसिष्ठ का अपना गोत्र है और उनके पौत्र पराशर का अपना - यदि आनुवंशिक आधार होता तो ये दो गोत्र अलग नहीं होते। इसी प्रकार भृगु का अपना गोत्र भी है और उनकी संततियों के अपने-अपने। सभी शिष्य अपने गुरु का कुल चलाते हैं। इस विशाल समुदाय में गुरु के अपने भी एकाध बच्चे होंगे, मगर भूसे के ढेर को उसमें पड़ी एक सुई से परिभाषित नहीं किया जा सकता। शुनःशेप का गोत्र परिवर्तन भी गुरुकुल के सिद्धांत को ही प्रतिपादित करता है।

भारतीय संस्कृति संस्कारों में विश्वास करती है। सभी संस्कार सबके लिये हैं मगर उपनयन किये बिना द्विज नहीं बना जा सकता, मतलब यह कि ब्राह्मणत्व केवल वंश आधारित नहीं हो सकता है। ब्राह्मण परिवार के बाहर जन्मे विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना ब्राह्मणत्व के जन्म से मुक्त होने का एक दृष्टांत है। विश्वामित्र का हिंसक क्रोध बना रहने तक वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार नहीं करते। इन्हीं विश्वामित्र का पश्चात्ताप वसिष्ठ द्वारा उनके ब्राह्मणत्व को मान्यता देने का आधार बनता है। यह संयोग मात्र नहीं कि विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाले वसिष्ठ स्वयं भी किसी ब्राह्मणी के नहीं बल्कि अप्सरा उर्वशी के पुत्र हैं। उनके अतिरिक्त व्यास, कौशिक, ऋष्यशृंग, अगस्त्य, जम्बूक आदि ऋषियों के अब्राह्मण जन्म की कथायें शास्त्रों में मिलती हैं परंतु उन सबका ब्राह्मणत्व सुस्थापित और सर्वमान्य हैं।

बुद्ध के शब्दों में ब्राह्मण अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
जो अकिंचन है, अपरिग्रही और त्यागी है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो।
यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
कमल के पत्ते पर जल की बूंद और आरे की धार पर सरसों के दाने की तरह भोगों से निर्लिप्त रहने वाले को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
निधाय दंडं भूतेसु तसेसु ताबरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
चर-अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न मारता है, न हानि पहुँचाता है वही ब्राह्मण कहलाएगा।

आज ब्राह्मण जाति की उपस्थिति देश के लगभग हर क्षेत्र में हैं परंतु असम का ब्राह्मण पंजाबी ब्राह्मण के मुकाबले एक असमी से अधिक मिलता हुआ होता है और यह बात तमिळ, नेपाली, कश्मीरी, गुजराती सब ब्राह्मणों के बारे में कमोबेश सही है। हाँ राष्ट्रभर में बिखरा हुआ यह समुदाय वैचारिक रूप से अवश्य एकरूप हुआ है मगर उसका कारण संस्कार, दीक्षा, दृष्टि और परिवेश है न कि आनुवंशिकता। ब्राह्मण अलग वर्ण अवश्य है लेकिन अलग आनुवंशिक जाति कदापि नहीं।

गीता के मेरे प्रिय श्लोकों में से एक है:
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनिचैव श्वपाके चः पंडिताः समदर्शिनः
ज़र्रे-ज़र्रे में एक ही ईश्वर का अंश देखने वाली भारतीय परम्परा में हर प्राणी के लिये समदर्शी होने में कोई अनोखी बात नहीं है। गाय, हाथी, ब्राह्मण, कुत्ता और यहाँ तक कि कुत्ता खाने वाले में भी समानता देखने वाली परम्परा में मज़हब, भाषा आदि जैसी दीवारों के नामपर बँटवारा और फ़िरकापरस्ती के लिये कोई जगह नहीं है। एक ओर हम भेदभाव विहीन समाज की मांग करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने परिवार के विवाह सम्बन्ध ढूंढते समय, बच्चे गोद लेते समय और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के समाचार के अनुसार उससे भी एक क़दम आगे बढकर जाति में गौरव ढूंढते हैं, यह कैसा विरोधाभास है?

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
इसी प्रकार कुछ लोग जात-पाँत को सही ठहराने के लिये प्राचीन वर्ण व्यवस्था का नाम लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि वर्ण व्यवस्था वास्तव में वर्णाश्रम व्यवस्था थी। आश्रम के आग्रह के बिना वर्ण के आग्रह का कोई अर्थ नहीं रहता। दूसरे, शास्त्रसम्मत चार वर्ण और आज की भेदभावपरक हज़ारों जातियाँ दो अलग-अलग बातें हैं। और फिर प्राचीन व्यवस्था में से कितनी अन्य बातें आज हमने बचाकर रखी हैं? उस पर यह भी एक तथ्य है कि ब्राह्मण भले ही वर्णाश्रम-व्यवस्था का अंग हों, विभिन्न जातियाँ भारत में सभी धर्मों में स्पष्ट और गहराई से गढी हुई दिखाई देती हैं। मुसलमानों में अशरफ़, अजलाफ़, अरजाल आदि समूहों में बंटी सैकड़ों जातियाँ मिल जायेंगी। बल्कि मुसलमानों में अनेक ऐसी जातियाँ भी हैं जो हिन्दुओं में नहीं होतीं। सिखों में जाट, खत्री, मज़हबी समूहों के अतिरिक्त हिन्दू जातियों में पाये जाने वाले कुलनाम मिलेंगे और ईसाई समुदाय में तो अपने को दलित, सीरियन, सारस्वत आदि मानकर भिन्नता बरतने वाले आसानी से दिखाई देते हैं। इस प्रकार, जातियाँ आनुवंशिक, क्षेत्रीय या दोनों हो सकती हैं जबकि ब्राह्मण इन दोनों से ही अलग हैं। इसी प्रकार जातियाँ हिन्दूओं से इतर मान्यता वाले समूहों में भी उपस्थित हैं जबकि ब्राह्मण नहीं।

जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते:
शास्त्र का वचन है कि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत लेकर शिक्षा लेने वाला मनुष्य द्विज कहलाता है। अर्थात ब्राह्मण वह है जो ज्ञान प्राप्ति द्वारा समाज के उत्थान हेतु अपने जन्म, जाति, देश, अस्तित्व आदि के बन्धनों का त्याग करता है।

सामवेद शाखा के वज्रसूचिकोपनिषद (वज्रसूचि उपनिषद) में ब्राह्मण विषय पर विस्तार से वार्ता हुई है। प्रश्न हैं, सम्भावनायें हैं, उनका सकारण खंडन है और फिर परिभाषा भी है:
क्या जीव ब्राह्मण है? नहीं!
क्या शरीर ब्राह्मण है? नहीं!
क्या जाति ब्राह्मण है? नहीं!
क्या ज्ञान ब्राह्मण है? नहीं!
क्या कर्म ब्राह्मण है? नहीं!
क्या (सत्कर्म का) कर्ता ब्राह्मण है? नहीं!

तब फिर ब्राह्मण है कौन? जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण को छह बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है - क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढ़ापा, और मृत्यु। एक ब्राह्मण को छह परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिये जिनमें पहला ही जन्म है। इन सब बातों का अर्थ यही निकलता है कि जन्म और भेद में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" भी ब्राह्मणत्व की एक ज़रूरी शर्त है।

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* सम्बन्धित कड़ियाँ *
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* चार वर्ण (गायत्री परिवार)
* बॉस्टन ब्राह्मण
* पाकिस्तान में एक ब्राह्मण
* हू इज़ अ ब्राह्मण (धम्मपद)
* जन्मना (रमाकांत सिंह)