भोले-भाले लित्तू भाई पर ह्त्या का इल्जाम? न बाबा न! लित्तू भाई की कथा के पिछले भाग पढने के लिए समुचित खंड पर क्लिक कीजिये:भाग १; भाग २; भाग ३; भाग ४; एवं भाग ५ और अब, आगे की कहानी:]भाभी ने यह भी बताया कि भारतीय समुदाय में दबे ढंके रूप में और स्थानीय अखबारों में खोजी पत्रकारिता के रूप में लित्तू भाई के कुछ गढ़े मुर्दों को उखाड़ने का प्रयास भी काफी जोशो-खरोश से चल रहा था।
पिट्सबर्ग में एकाध दिन और रूककर मैं वापस चला आया और जिंदगी फिर से रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गयी। कभी-कभार भोले-भाले से लित्तू भाई का रोता हुआ सा चेहरा याद आ जाता, कभी उनकी शेरो-शायरी। मैंने उनके घर में मिली बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी याद किया और मन ही मन उस भारतीय छात्रा की तकलीफ़ को भी महसूस किया। इतना सब होने पर भी, जिन्दगी की चाल में कोई गतिरोध नहीं आया। काम-काज, लिखना-पढ़ना सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहा।
फिर एक दिन स्मार्ट इंडियन डॉट कॉम की तरफ से पिट्सबर्ग के मंदिरों और भारतीय समुदाय पर कुछ लिखने का प्रस्ताव आया तो मैंने एक सप्ताहांत में पिट्सबर्ग जाने का कार्यक्रम बनाया। किसी परिचित को इस यात्रा के बारे में नहीं बताया ताकि बिना किसी व्यवधान के अपना काम जल्दी से निबटाकर वापस आ जाऊं।
सुबह को कार्नेगी पुस्तकालय पहुँचकर जल्दी से वहाँ के अभिलेखागार के अखबारों में डुबकी लगाई और भारत, भारतीय और मंदिरों से सम्बंधित अखबार चुनकर उनकी फोटोस्टेट कॉपी करके इकट्ठा करता रहा ताकि अपने साथ ले जाकर फ़ुर्सत से एक खोजपरक आलेख लिख सकूं। [यह बात अलग है कि छपने से पहले सम्पादकों ने आलेख में से सारी खोज सेंसर कर दी]
सुबह की फ्लाईट से आया था, नाश्ता भी नहीं किया था। दोपहर होने तक तेज़ भूख लगने लगी। सोचा कि पुस्तकालय के जलपान गृह में बैठकर कुछ खा लेता हूँ और अब तक जितना काम हुआ है उतनी क्लिपिंग्स को जल्दी से साथ-साथ पढ़कर कुछ नोट्स भी बना लूंगा। दो कागजों पर टिप्पणियाँ लिखने के बाद तीसरा कागज़ खोला ही था कि किसी ने कंधे पर धौल जमाकर कहा, "चश्मा कब से लग गया हीरो? पहले कह देते तो हम लिमुजिन लेकर आ जाते हवाई अड्डे पर!"
मैंने अचकचा कर मुँह उठाकर देखा तो एक बिज़नेस सूट में लित्तू भाई को खड़े पाया। वही सरलता, वही मुस्कराहट। फ़र्क बस इतना था कि इस बार बाल काले रंगे हुए और बड़े करीने से कढे हुए थे। वैसे सूट उन पर बहुत फ़ब रहा था। मैंने आदर में खड़े होकर उन्हें सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया, मैं खाता रहा और वे एक ठंडा पेय पीते रहे। मैंने उनकी जेल-यात्रा की बात ज़ुबां पर न लाने के लिए विशेष प्रयास किया मगर बाद में उन्होंने ही बात शुरू की।
"तुम्हारी उस गदा ने तो मुझे घातक इंजेक्शन दिलाने में कोई कसर नहीं छोडी थी।"
"अरे, क्या बात करते हैं लित्तू भाई? ऐसा क्या हो गया?" मैंने अनजान बनते हुए कहा।
लित्तू भाई ने बताया कि उस दिन उनके फेंकने के बाद किसी हत्यारे ने कूड़ेदान से गदा उठाकर उनकी एक पूर्व-कर्मचारी की ह्त्या कर दी और पुलिस ने गलती से उन्हें फंसा दिया। न तो गदा पर उनकी उँगलियों के निशान थे और न ही कोई चश्मदीद गवाह, पर पुलिस तो पुलिस है। हत्यारा ढूँढने की अपनी नाकामी के चलते उन्हें लपेटती रही। बहुत परेशानी हुई मगर उनका वकील बहुत ही प्रभावी था।
"आखिर में मैं बेदाग़ बच गया... पिछले महीने ही छूटा हूँ। मगर इस घटना से दोस्त-दुश्मन का अंतर पता लग गया।"
"..."
"जो लोग दिन रात मेरे टुकड़े तोड़ते थे, उन्होंने ही मेरे खिलाफ माहौल बनाया, भगवान उन्हें उनके कर्मों का दण्ड अवश्य देगा। कई लोगों ने तो कहा कि मैंने पहले भी बहुत से बलात्कार और हत्याएं की हैं।"
"अंत भला तो सब भला! उन अज्ञानियों को माफ़ भी कर दीजिये अब!" मैंने माहौल की बोझिलता को कम करने का प्रयास किया, " ... मगर ये कुरते पजामे से टाई-शाई तक? बात क्या है?"
"अरे भैया, अच्छे दिखना चाहिए वरना पुलिस पकड़ लेती है" वे अपने पुराने स्वाभाविक अंदाज़ में हँसे। मानो बदली छँट गयी हो और सूरज निकल आया हो। थोड़ी बातचीत और एकाध काव्य के बाद उन्होंने उठने का उपक्रम किया।
"काम है, निकलता हूँ, फिर मिलेंगे" उन्होंने मुझसे विदा ली और चलते चलते मुस्कुराकर कहा, "हाँ, मगर ग्रंथों की बात सही है, सत्यमेव जयते!"
मैंने उन्हें गले लगकर विदा किया और उनके इमारत से बाहर होने तक खड़ा-खड़ा उन्हें देखता रहा। कितना कुछ सहा होगा इस आदमी ने। सारी दुनिया के काम आने वाले आदमी ने इतना अन्याय अकेले सहा, अगर शादी की होती तो शायद उनकी पत्नी तो साथ खड़ी होती उनके बचाव के लिए। उनके बाहर निकलते ही मैं खुशी-खुशी बाकी अखबार देखने बैठ गया। दस साल पुरानी अगली खबर की सुर्खी थी, "अपनी पत्नी का सर कुचलनेवाला निर्मम हत्यारा ललित कुमार सबूतों के अभाव में बाइज्ज़त बरी।"
तब से आज तक जब भी किसी को "सत्यमेव जयते" कहते सुनता हूँ लित्तू भाई, उनकी गदा और अंधा कानून याद आ जाते हैं।
[समाप्त]
सच है इसी वाक्य ने बचा लिया लित्तू भाई की जान वरना फंसे बुरे थे !
ReplyDeletePrabhu, Yeh Kya Ho Raha Hai? Trahi Mam, Trahi mam.
ReplyDeleteअंतत सत्यमेव जयते! जरूर; पर सत्य कैसे जीतता है वह गल्प से कहीं ज्यादा रोमांचक होता है।
ReplyDeleteपर अंतत: कब आता है। कब आया यह लित्तू के लिये! या अभी आना शेष है?
कहानी पूरी होने पर एक साथ पढ़ी। यह कहानी है या सत्यकथा? पता नहीं, पर यह तो पता लगा कि असफलता को छुपाने के लिए अमरीका की पुलिस भी वही काम करती है जो भारत की पुलिस करती है।
ReplyDeleteबाउ और लित्तू - लगता है कि मैं और आप एक ही नछत्तर के हैं। लेकिन एक बड़ा लेकिन है ...
ReplyDeleteआप की प्रतिभा को दाद दूँगा। कथा को यथार्थ, आज कल के परिवेश में साफ साफ बचाते हुए घुमा ले जाते हैं, प्रभाव छोड़ जाते हैं और पाठक सोचता है कि यह आपबीती है या गल्प? कलाकारी तो इसे ही कहते हैं!
मैं बरसों पहले की घटनाओं को भी मिथक सा जामा पहनाने की कोशिश करता हूँ- इस डर से कि कहीं जानने वाला कोई निकल आया तो ? कितना अंतर है!
लघुता बोध कराने वालों में आप भी सम्मिलित हो गए! उफ!!
-------------
छोड़िए, बताइए अगली कथा कब शुरू हो रही है?
सत्यमेव जयते"" पता नही, हम ने तो अपनी इस जिन्दगी मै नही देखा, बल्कि हम ने तो उलटा ही देखा है कहानी अच्छी लगी.
ReplyDeleteधन्यवाद
लित्तू भाई की कहानी बहुत बढ़िया रही!
ReplyDeleteबधाई!!
लितू भाई कथा
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली रही अनुराग भाई !
आपके अगले लेखन की
प्रतीक्षा रहेगी
स स्नेह,
--
- लावण्या
वाह........ साधुवाद..
ReplyDeleteअंतिम भाग में पूरी कहानी सत्य कथा सी लगी... सत्यमेव जयते तो है लेकिन लित्तू भाई टूटे नहीं !
ReplyDeleteराहे बर्बादी को तो खुद मैने ही चुना था,अब अश्क बहाने से भला क्या होगा ,२४ अगस्त की गजल आज पढ कर आरहा हू ।मुझे याद आया "" तुमने खुद राह्जनों को नये चेहरे वख्शे, अब लुटे हो तो लुटो, शोर मचाते क्यो हो ,""""इस बद्शक्ल पुराने से भला क्या होगा (ओल्ड इज गोल्ड)बहुत प्यारे शेर । लित्तू भाई की कहानी भी पढी
ReplyDeleteदादा अब आराम आया
ReplyDeleteकथा के रहस्यमयी मोड़ नयी उतेजना पैदा करते रहे. कुछ अनकही व्यस्तता है वरना विस्तार से लिखता. कुल मिला कर कहानी ने यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा और बाबू देवकी जी की याद दिलाई.
इतने दिनों बाद अचानक मुझे लिट्टू भाई की कथा याद आई और इधर आ गए ... |
ReplyDeleteकथा का अंत सुन्दर लगा ...