[नोट: देरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. पहले सोचा था कि लित्तू भाई की कहानी इस कड़ी में समाप्त हो जायेगी मगर लिखना शुरू किया तो लगा कि मुझे एक बैठक और लगानी पड़ेगी, मगर इस बार का व्यवधान लंबा नहीं होगा, इस बात का वादा है इसलिए विश्वास से कह रहा हूँ कि "अगले अंक में समाप्य."
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भाग १; भाग २; भाग ३ एवं भाग ४ और अब, आगे की कहानी:]
कई वर्ष पहले जिस दिन मैंने लित्तू भाई और मित्रों से विदा लेकर पिट्सबर्ग छोड़ा था उसके कुछ दिन बाद मेरे पड़ोस में भारतीय मूल की एक छात्रा का शव मिला था। पड़ोसियों द्वारा एक अपार्टमेन्ट से दुर्गन्ध आने की शिकायत पर जब प्रबंधन ने उस अपार्टमेन्ट में रहने वाली छात्रा से संपर्क करने की कोशिश की तो असफल रहे। एक कर्मचारी ने आकर दोहरी चाबी से ताला खोला तो दरवाज़े के पास ही उस युवती का मृत शरीर पाया। ऐसा लगता था जैसे मृत्यु से पहले वहां काफी संघर्ष हुआ होगा. शराब की एक बोतल मेज़ पर रखी थी। एक गिलास मेज़ पर रखा था और एक फर्श पर टूटा हुआ पडा था। युवती का सर फटा हुआ था और फर्श पर जमे हुए खून के साथ ही एक भारतीय गदा भी पडी हुई थी।
पुलिस की जांच पड़ताल के दौरान अपार्टमेन्ट के कैमरे से यह पता लगा कि उस दिन दोपहर में केवल एक बाहरी व्यक्ति उस परिसर में आया था और वह भी एक बार नहीं बल्कि दो बार। लडकी की मृत्यू का समय और उसकी दूसरी आगत का समय लगभग एक ही था। आगंतुक का चेहरा साफ़ नहीं दिखा मगर बिखरे बालों और ढीले ढाले कपडों से वह कोई बेघर नशेडी जैसा मालूम होता था। दूसरी बार उसके हाथ में वह गदा भी थी जो घटनास्थल से बरामद हुई थी। हत्यारे को जल्दी पकड़ने के लिए भारतीय समुदाय का भी काफी दवाब था। प्रशासन का भी प्रयास था कि जल्दी से ह्त्या के कारणों का खुलासा करके यह निश्चित किया जाए कि यह एक नस्लभेदी ह्त्या नहीं थी। स्थानीय मीडिया ने इस घटना को काफी कवरेज़ दिया था और दद्दू और भाभी भी इन ख़बरों को बहुत ध्यान से देखते रहे थे।
पुलिस के पास गदा की भारतीयता और सुरक्षा कैमरा की धुंधली तस्वीर के अलावा कोई भी इशारा नहीं था सो उन्होंने छात्रा के परिचितों से मिलना शुरू किया। इसी सिलसिले में यह पता लगा कि छात्रा रात और सप्ताहांत में जिस पेट्रोल पम्प पर काम करती थी उसके मालिक श्री ललित कुमार ने एक सप्ताह पहले ही उसे एक कड़वी बहस के बाद काम से निकाला था। यह ललित कुमार और कोई नहीं बल्कि हमारे लित्तू भाई ही थे। उनसे मुलाक़ात करते ही जांच अधिकारी को यह यकीन हो गया कि सुरक्षा कैमरा में दिखने वाला आदमी वही है जो उसके सामने खड़ा है। कुछ ही दिनों में संदेह के आधार पर अधिक जानकारी के लिए लित्तू भाई को अन्दर कर दिया गया।
इसके साथ ही पिट्सबर्ग का भारतीय समुदाय दो दलों में बाँट गया। एक तो वे जो लित्तू भाई को हत्याकांड में जबरिया फंसाए जाने के धुर विरोधी थे और दूसरे वे जिन्हें लित्तू भाई के रूप में भेड़ की खाल में छिपा एक भेड़िया नज़र आ रहा था। बहुत से लोगों का विश्वास था की जब लित्तू भाई द्वारा गदा कूड़े में फेंक दिये जाने के बाद किसी व्यक्ति ने उसे उठाकर प्रयोग किया होगा। इत्तेफ़ाक़ से मृतका लित्तू भाई की पूर्व-परिचित निकली। वहीं ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो यह मानने लगे थे कि इस एक घटना से पहले भी ऐसी या मिलती-जुलती घटनाओं में लित्तू भाई जैसे सफेदपोश दरिंदों का हाथ हो सकता है।
मैंने भाभी की बातों को ध्यान से सुना मगर इस पर अपनी कोई भी राय नहीं बना सका। जब मैं लित्तू भाई से आखिरी बार मिला था तो उस दिन वे आम दिनों से काफी फर्क लग रहे थे। मगर फ़िर भी मेरे दिल ने उन्हें हत्यारा मानने से इनकार कर दिया। भाभी ने बताया कि मुकदमा अभी भी चल रहा था।
[क्रमशः]
लित्तू के बारे में आपने काफी कुछ जानकारी दी ..... अगली कड़ी की प्रतीक्षा में
ReplyDeleteसत्य बताकर कहानी ख़त्म कीजियेगा. आर्ट फिल्म की तरह नहीं.
ReplyDeleteअगले कड़ी का इन्तजार रहेगा ...
ReplyDeleteमुझे भी लगता है लित्तू भाई नहीं रहे होगें ह्त्या में शामिल !
ReplyDeleteबहुत अच्छॆ मोड पर ला कर आप ने कहानी को विराम दिया, चलिये अगली कडी मे देखते है..
ReplyDeleteधन्यवाद
अनुराग जी कैसे तड़पा-तड़पा के पिला रहे हैं, किसी का खौफ है कि नहीं ?
ReplyDeleteइधर रोज संजय भाई के ब्लॉग पर आता हूँ लित्तु भाई की खबर लेने और आप हैं कि..... कोई नहीं कभी किसी पर आपका दिल अटकेगा.
इधर आपके वादे पर यकीन करूँ तो दो दिन में कहानी का समापन दीख सकता है ? है न ...?
लित्तू भाई का कहानी रोचक होती जा रही है।
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
यह कहानी भी रहस्य के चरम पर पहुंच गई है। देखें आगे क्या होता है।
ReplyDeleteलित्तू भाई अच्छे भाई ही रहें, भेड की खाल में भेडिया न हों ऐसी मेरी शुभकामनाएं हैं।
ReplyDeleteवाह क्या कहानी है। जारी रखें।
ReplyDeletebadi rochk hai agli kdi ka besbri se intjar.
ReplyDeleteये तो नए जमाने की रहस्य गाथा है। बड़ी उत्सुकता है। जल्दी अगली पोस्ट भेजिए।
ReplyDeleteआप के परिचय का एक 'का' इस पोस्ट के 'फिर' से जुड़ गया है। पढ़ने पर लगता है - 'अनुराग शर्मा काफिर' - मैं चौंक गया।
@ राव साहेब आदाबरजे! (हिन्दी में कहूं तो आदाब अर्ज़ है - मगर काफी घूम-फिर कर देखने पर पाया कि इस पूरी पोस्ट में 'फिर' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है. वैसे क्या फर्क पड़ता है? हम अपने को काफिर न भी कहें तो खुद काफिरों के वंशज तो हमें काफिर कह ही देंगे. उनको पता ही नहीं कि सच्चिदानंद को एक किताब या इमारत या सात परदों के भीतर बंद करना भी बुतपरस्ती का ही एक रूप है.
ReplyDelete@किशोर भैया, लित्तू भाई का ही खौफ है इसलिए लिखते वक्त कलम रुक सी जाती है.
@अतुल जी, भेड़िया जी भेड़ हैं या लित्तू भाई, ये तो अभी मुझे भी पता नहीं है. घटनाएं अभी भी घाट रही हैं. सत्य तो अगली कड़ी में ही पता लगेगा.
@ मगर फ़िर भी मेरे दिल ने उन्हें हत्यारा मानने से इनकार कर दिया।
ReplyDeleteमगर के बाद फ़िर है न ! अब ये मत कहिएगा कि 'फिर' नहीं 'फ़िर' है। हम काफिरों के लिए 'फ़' और 'फ' बराबर हैं।
@आपको अनुराग शर्मा का नमस्कार!
google chrome में साइट खोलें और देखिए कि उपर का 'का' 'फ़िर' के साथ जुड़ कर क्या गुल खिला रहा है !
@गिरिजेश राव जी,
ReplyDeleteगूगल क्रोम पर देखा और काफिर के बारे में आपकी बात को अक्षरशः सत्य पाया. इसमें ज़रूर विदेशी शक्तियों का हाथ है.