Monday, April 19, 2010

एक और इंसान - कहानी (भाग २)

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि दिल्ली में मैं किस तरह ठगा गया था. अब आगे पढ़ें.

***
आधे घंटे में मैं दफ्तर पहुँच गया। चाय का कप रखते हुए बहादुर ने खाने के लिए पूछा तो मैंने बताया कि मैं ब्रांच में खाकर आया हूँ। कुछ ही देर में गफ़ूर भी वापस आ गया। दस रुपये मेरी मेज़ पर रखता हुआ बोला, “ये बचे हैं सर।”

मेरे अंदाज़े से गफ़ूर को कुछ और पैसे वापस करने चाहिए थे। मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा तो बोला, “सर, उसे बरेली नहीं रायबरेली जाना था। टिकट, और मेरा आना-जाना मिलाकर बस यही बचा है।”

“यह भी तुम्ही रख लो, काम आयेगा”

गफ़ूर खुशी-खुशी दस का नोट लेकर बाहर चला गया। उसे वापस आने में जितना समय लगा था उससे साफ़ था कि उसने आते जाते दोनों बार बस ही ली है। रायबरेली का फास्ट बस का किराया जोड़ने पर भी उसके पास मेरे दिए पैसे में से कम से कम पचास रुपये बचने चाहिए थे।

मैं सोचने लगा कि क्या दूसरों को बेवकूफ़ बनाकर पैसे ऐंठना इंसान का स्वाभाविक गुण है। क्या यह मांगने वाले और इन्हें बेरुखी से झिड़कने वाले सब लोग सामान्य हैं और मैं ही असामान्य हूँ। मुझे याद आया जब बचपन में एक बार मैंने पिताजी से पूछा था, “पापा, सनकी कौन होते हैं? ”

“सनकी?” पिताजी ने हँसते हुए कहा था, “मतलब हम जैसे लोग।”

फिर समझाते हुए बोले थे, “जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"

आज के अनुभव से मुझे एक बार फिर ऐसा लगा जैसे देश भर में हर तरफ या तो भिखारी हैं या लुटेरे हैं। मुझे ध्यान आया कि आधुनिक भिक्षुकों को भीख मांगने के लिए मैले कपड़े पहनने की ज़रुरत भी नहीं है।

एक दिन साफ़-सुथरे कपड़ों में सजे संवरे बालों वाला एक पढ़ा लिखा अधेड़ गफ़ूर के रोकते रोकते अन्दर आ गया। अपनी जेब कटने का दुखड़ा रोते हुए उसने बताया कि वह सोनीपत में बिजली विभाग में काम करता है। सरकारी काम से यहाँ आया था। वापस जा रहा था रास्ते में जेब कट गयी। परिचय पत्र, रेल का पास, और सारे पैसे चले गए। मैंने बहादुर से कहकर उसे खाना खिलाया और वापसी लायक पैसे देकर रवाना किया। जाने से पहले उसने अंग्रेज़ी में शुक्रिया अदा करते हुए मेरा नाम पता एक पर्ची पर लिख लिया और बहुत शर्मिन्दा स्वर में घर पहुँचते ही पैसे मनी आर्डर से भेजने का वायदा किया। चार हफ्ते गुज़र गए हैं कोई मनी आर्डर नहीं आया। पैसे न मिलने से मुझे फर्क नहीं पड़ता मगर बेवकूफ़ बनने का मलाल तो होता ही है। तो क्या मैं अनजान लोगों की सहायता करना बंद कर दूं? नहीं! क्या पता कब किसी को सचमुच ही ज़रुरत हो? अगर सनकी लोग भी स्वार्थी हो जायेंगे तो फिर तो दुनिया का काम ही रुक जाएगा।

साढ़े चार के करीब माहेश्वरी सिगरेट पीने बाहर आया तो मुझे भी बाहर बुला लिया। लगभग उसी समय फटी बनियान और जांघिये में वह अधबूढ़ा आदमी हाथ फैलाये अन्दर आया था।
[क्रमशः]

16 comments:

  1. पहला भाग पढ़कर आया हूँ, दूसरे में समाप्त होने की आशा थी !
    पूरी कहानी पढ़ने जा रहा हूँ, वहीं गर्भनाल पर !
    आभार ।

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  2. “जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"...
    यह खास बात है....

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  3. इस तरह के अनुभव भारत में तो चौकानेवाले नहीं ही हैं:) आप बेहतर बताऍंगें कि पैसे को लेकर‍ विदेशों में लोग एक दूसरे को कैसे चीट करते हैं।

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  4. सौ टेक की बात एक सनकी की -
    कबिरा आप ठगायिये और न ठगिये कोय
    आप ठगे सुख होत हैं और ठगे दुःख होय

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  5. कहानी के इस अंक ने भी खसा प्रभावित किया!

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  6. “जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"...real

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  7. इस दुनियां में बांति भांति के लोग हैं. ठगोरे हैं तो सनकियों की भी लमी नही है. मुझे तो लगता है कि द्वैतवाद का सिद्धांत यहां भी काम करता है.

    रामराम

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  8. आपने तो उलझन में डाल दिया। तय नहीं कर पा रहा हँ कि खुश हुआ जाए या दुखी। मेरे परिजन और मित्र मुझे भी सनकी कहते हैं और कन्‍नी काटते हैं।

    कहानी का दूसरा भाग, पहले भाग से कम रोचक नहीं है और जिज्ञासा यथावत् बनाए रखे हुए है।

    तीसरे भाग की प्रतीक्षा रहेगी।

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  9. जब कोई हमारी भावनाओ से खेलता है, तो ऎसे मै हम अपने आप को कुछ समय तक बेवकुफ़ ही समझते है..... मेरे साथ कई वाक्या गुजरे है, ऎसे ही

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  10. “जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"

    दुनिया में ऐसे सनकी ज़रूर होने चाहिएं ... और मेरा ऐसा मानना है की किसी दूसरे की खातिर अपने सोच में बदलाव क्यूँ लाना ... वैसे यह भी सच है की समय अनुसार धीरे धीरे ये बदलाव आ जाता है ...

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  11. दोनो भाग पढ कर सोच रहा हू सनकी ऎसे भी होते है . एक कथा है एक महात्मा नदी मे स्नान कर रहे थे उन्होने एक डुबता बिच्छू देखा और उसे बचाने के लिये हाथ बडाया बिच्छू ने उनको डंक मारा . यह कई बार हुआ तो एक ने प्रश्न किया .महात्मा ने उत्तर दिया उसका स्वभाव डंक मारना है और मेरा बचाना . यह शायद उनकी सनक थी

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  12. धीरू भाई, सनकी तो ऐसे ही होते हैं. वैसे बिच्छू वाली कहानी में अब तक कई मोड़ आ चुके हैं. दो रोचक मोड़ों के लिए मेरी यह पुरानी पोस्ट मुलाहिजा फरमाएं:
    तरह तरह के बिच्छू

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  13. पहला और दूसरा दोनों भाग आज ही पढे. तीसरे का इन्तज़ार है. बहुत आम होती जा रही है इस प्रकार की ठगी. कैसे कोई किसी पर भरोसा करे? अच्छी कहानी.

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  14. सनकी कंसेप्ट के बाद देखते हैं आगे...

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  15. दुनिया के चलते रहने के लिए सनकियों की जरुरत है...आप तो जारी रहें बस सतर्कता बढ़ा दें..अगले अंक का इन्तजार है.

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