दफ्तर के सारे कर्मचारी मेज़ के गिर्द इकट्ठे होकर खाना खा रहे थे और इधर-उधर के किस्से सुना रहे थे। रोज़ का ही नियम था। दिन का यह आधा घंटा ही सबको अपने लिए मिल पाता था। सब अपना-अपना खाना एक दूसरे के साथ बांटकर ही खाते थे। अगर
आपको इस दफ्तर के किसी भी कर्मचारी से मिलना हो तो यह सबसे उपयुक्त समय था। पूरे स्टाफ को आप यहाँ पायेंगे सिवाय एक गरजपाल के। गरजपाल जी इस समय अपनी सीट पर बैठकर चिट्ठियाँ लिख रहे होते हैं। सारी मेज़ पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे छोटे-बड़े लिफाफे फैले रहते थे। लंच शुरू होने के बाद कुछ देर वे चौकन्नी निगाहों से
इधर-उधर देखते थे। जब उन्हें इत्मीनान हो जाता था कि सब ने खाना शुरू कर दिया है तो उनका पत्र-लेखन शुरू हो जाता था। जब तक हम लोग खाना खाकर वापस अपनी जगहों पर आते, गरजपाल जी अपनी चिट्ठियों को एक थैले में रखकर नज़दीकी डाकघर जा चुके होते थे।
शुरू में तो मैंने उन्हें हमारे सामूहिक लंच में लाने की असफल कोशिश की थी। ज़ल्दी ही मुझे समझ आ गया कि गरजपाल जी एकांत के यह तीस मिनट अपनी खतो-किताबत में ही इस्तेमाल करना पसंद
करते हैं। वे निपट अकेले थे। अधेड़
थे मगर शादी नहीं हुई थी। न बीवी न
बच्चा। माँ-बाप भी भगवान् को प्यारे हो चुके थे। आगे नाथ न पीछे पगहा। पिछले साल ही दिल्ली से तबादला होकर यहाँ आए थे। प्रकृति से एकाकी व्यक्तित्व था, दफ्तर में किसी से भी आना-जाना न था। सिर्फ़ मतलब की ही बात करते थे। मुझ जैसे जूनियर से तो वह भी नहीं करते थे।
पूरे दफ्तर में उनके
पत्र-व्यवहार की चर्चा होती थी। लोग उनसे घुमा फिराकर पूछते रहते थे। एकाध लोग लुक-छिपकर पढने की कोशिश भी करते थे मगर सफल न हुए। ऐसी अफवाह थी कि बड़े बाबू एहसान अली ने तो चपरासी शीशपाल को बाकायदा पैसे देकर निगरानी के काम पर लगा रखा है। मगर गरजपाल जी आसानी से काबू में आने वाले नहीं थे। लोग अपना हर व्यक्तिगत काम दफ्तर के चपरासियों से कराते थे मगर मजाल है जो गरजपाल जी ने कभी
अपनी एक भी चिट्ठी डाक में डालने का काम किसी चपरासी को सौंपा हो।
शीशपाल ने बहुत बार अपना लंच जल्दी से पूरा करके उनका हाथ बँटाने की कोशिश की मगर गरजपाल जी की चिट्ठी उसके हाथ कभी न आयी। उसकी सबसे बड़ी सफलता यह पता लगाने में थी कि यह चिट्ठियाँ दिल्ली जाती हैं। सबने अपने-अपने अनुमान लगाए। किसी को लगता था कि उनके परिवार के कुछ रिश्तेदार शायद अभी भी काल से बचे रह गए थे। मगर यह कयास जल्दी ही खारिज हो गया क्योंकि किसी बूढे ताऊ या काकी के लिए रंग-बिरंगे लिफाफों की कोई ज़रूरत न थी। काफी सोच विचार के बाद बात यहाँ आकर ठहरी के ज़रूर दिल्ली में उनका कोई चक्कर होगा।
कहानियाँ इससे आगे भी बढीं। कुछ कल्पनाशील लोगों ने उनकी इस अनदेखी अनजानी महिला मित्र के लिए एक नाम भी गढ़ लिया - वासंती। वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते ने देखी। शीशपाल आने वाली डाक का मुआयना बड़ी मुस्तैदी से करता था। जिस दिन वह छुट्टी पर होता, एहसान अली वासंती की चिट्ठी ढूँढने की जिम्मेदारी ख़ुद ले लेते। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनका काम कभी बना नहीं। वासंती की चिट्ठी किसी को कभी नहीं मिली। हाँ, कभी-कभार गरजपाल जी के पुराने दफ्तर के किसी सहकर्मी का पोस्ट-कार्ड ज़रूर आ जाता था।
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