Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"


17 comments:

  1. हा हा ... हकीकत लिखी है .. कई बार ऐसा होता है आप चाहें न चाहें दुसरे अपना हक़ जमा जाते हैं ...
    सटीक कथा ...

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  2. does it really happen in foreign countries ?

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-01-2015) को अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये..; चर्चा मंच 1857 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    उल्लास और उमंग के पर्व
    लोहड़ी और मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आभार शास्त्री जी।

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  4. हा हा ...​बहुत ही बढ़िया ​!

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  5. सराहनीय पोस्ट
    सक्रांति की शुभकामनाएँ।

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  6. अब तो गलतफ़हमी दूर हो गई न. चलो ,देर आयद दुरुस्त आयद

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  7. यह तो मुझे लघुकथा नहीं अपितु लघु सत्यकथा प्रतीत होती है. मैं दिल्ली में ६ बरस तक विभिन्न भाषा-भाषियों के साथ रहा. कई सुन्दर अविस्मरणीय अनुभव रहे. लेकिन यहाँ आकर मुझे अपनी ही धरती से आये कई ऐसे लोग दिखे जिन्हें मजाकिया लहजे में 'पीस' कहा जा सकता है. घर के सामने दो हमवतन छात्र साथ रहते थे. एक दूध ज्यादा पीता था तो दूसरे का तंज़ सुनिए- ''इस तरह दूध पर खर्च होता रहा तो लगता है घर के बाहर भैंस बांधना पड़ेगा''. और भी कई किस्से हैं. कभी गद्य लिखना हुआ तो अनायास ही रोचक कथा का निर्माण हो जाएगा :) बहरहाल सुन्दर लघुकथा और आईना प्रवासी जीवन के इस रूप के लिए .

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  8. बुरा न माने, अंत में रेशमी साड़ियाँ ड्राईक्लीन होकर आई या नहीं :) ??

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  9. सदैव आपका आभारी।
    धन्यवाद

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  10. इसे कहते हैं प्रवासी भारतीय...जिसकी जड़ें अभी भी सांस लेतीं हैं...डॉलर को रुपये में बदल के देखने की प्रवृत्ति...माशाअल्ला सुन्दर रचना...

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  11. राजेश आहूजाMarch 4, 2017 at 1:29 PM

    नया विषय और बेहतरीन लेखन। मज़ा आ गया पढ़कर।

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