“यह मेरा खेत नहीं है।”
“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”
“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”
“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”
“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”
“हैं!?”
“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”
