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Monday, March 31, 2014

अच्छे ब्लॉग - ज़रूरतों से आगे का जहाँ

नवसंवत्सर प्लवंग/जय, विक्रमी 2071, नवरात्रि, युगादि, गुड़ी पड़वा, ध्वज प्रतिपदा की हार्दिक मंगलकामनाएँ!

अच्छे ब्लॉग के लक्षणों और आवश्यकताओं पर गुणीजन पहले ही बहुत कुछ लिख चुके हैं। इस दिशा में इतना काम हो चुका है कि एक नज़र देखने पर शायद एक और ब्लॉग प्रविष्टि की आवश्यकता ही समझ न आये। लेकिन फिर भी मैं लिखने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि कुछ बातें छूट गयी दिखती हैं। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बिन्दु किसी ब्लॉग की अनिवार्यता नहीं हैं। मतलब यह कि इनके न होने से आपके ब्लॉग की पहचान में कमी नहीं आयेगी। हाँ यदि आप पहचान और ज़रूरत से आगे की बात सोचने में विश्वास रखते हैं तो आगे अवश्य पढिये। अवलोकन करके अपनी बहुमूल्य टिप्पणी भी दीजिये ताकि इस आलेख को और उपयोगी बनाया जा सके।

प्रकृति के रंग
कृतित्व/क़ॉपीराइट का आदर
हमसे पहले अनेक लोग अनेक काम कर चुके हैं। विश्व में अब तक इतना कुछ लिखा जा चुका है कि हमारी कही या लिखी बात का पूर्णतः मौलिक और स्वतंत्र होना लगभग असम्भव सा ही है। तो भी हर ब्लॉग लेखक को पहले से किये गये काम का आदर करना ही चाहिये। अमूमन हिन्दी ब्लॉग में चित्र आदि लगाते समय यह बात गांठ बान्ध लेनी चाहिये कि हर रचना, चित्र, काव्य, संगीत, फिल्म आदि अपने रचयिताओं एवम अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों या संस्थाओं की सम्पत्ति है। अगर आप तुर्रमखाँ समाजवादी हैं भी तो अपना समाजवाद दूसरों पर थोपने के बजाय खुद अपनाने का प्रयास कीजिये, अपने लेखन को कॉपीराइट से मुक्त कीजिये। लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग में इसका उल्टा ही देखने को मिलता है। आश्चर्य की बात है कि अपने ब्लॉग पर कॉपीराइट के बड़े-बड़े नोटिस लगनेवाले अक्सर दूसरों की कृतियाँ बिना आज्ञा बल्कि कई बार बिना क्रेडिट दिये लगाना सामान्य समझते हैं।

विधान/संविधान का आदर
मैं तानाशाही का मुखर विरोधी हूँ, लेकिन अराजकता और हिंसक लूटपाट का भी प्रखर विरोधी हूँ। आप जिस समाज में रहते हैं उसके नियमों का आदर करना सीखिये। मानचित्र लगते समय यह ध्यान रहे कि आप अपने देश की सीमाओं को संविधान सम्मत नक्शे से देखकर ही लगाएँ। हिमालय को खा बैठने को तैयार कम्युनिस्ट चीन के प्रोपेगेंडापरस्त नक्शों के प्रचारक तो कतई न बनें। देश की संस्कृति, परम्पराओं, पर्वों, भाषाओं को सम्मान देना भी हमें आना चाहिए। हिन्दी के नाम पर तमिल, उर्दू या भोजपुरी के नाम पर खड़ी बोली का अपमान करने का अधिकार किसी को नहीं है, यह ध्यान रहे। अपनी नैतिक, सामाजिक, विधिक जिम्मेदारियों का ध्यान रखिए और किसी के उकसावे का यंत्र बनने से बचिए।

सौन्दर्य शिल्प
अ थिंग ऑफ ब्यूटी इज़ अ जॉय फोरेवर। कुछ ब्लॉगों को सुंदर बनाने का प्रयास किया गया है, अच्छी बात है। लेकिन कुछ स्थानों पर सौन्दर्य नैसर्गिक रूपसे मौजूद है। जीवन शैली या विचारधारा के अंतर अपनी जगह हो सकते हैं लेकिन अविनाश चंद्र, संजय व्यास, गौतम राजऋषि, किशोर चौधरी, नीरज बसलियाल, सतीश सक्सेना आदि की लेखनी में मुझे जादू नज़र आता है। एक अलग तरह का जादू सफ़ेद घर, स्वप्न मेरे, और बेचैन आत्मा के शब्द-चित्रों में भी पाता हूँ।

सत्यनिष्ठा
कई बार लोग ईमानदारी की शुद्ध हिन्दी पूछते नज़र आते हैं। उन्हें बता दीजिये कि धर्म-ईमान समानार्थी तो नहीं परंतु समांतर अवश्य हैं। आमतौर पर सत्यनिष्ठा के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने वाला शब्द ईमानदारी का शाब्दिक अर्थ सत्यनिष्ठा, कपटहीनता आदि न होकर अल्लाह में विश्वास और अन्य सभी में अनास्था है। मजहब, भाषा, क्षेत्र, राजनीति, जान-पहचान, रिश्ते-नाते, कर-चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार, गलत-बयानी आदि के कुओं से बाहर निकले बिना सत्यनिष्ठा को समझ पाना थोड़ा कठिन है। मैं सत्यनिष्ठा  को एक अच्छे ब्लॉग का अनिवार्य गुण समझता हूँ। बिना लाग-लपेट के सत्य को स्पष्ट शब्दों में कहने का प्रयास स्वयं भी करता हूँ, और ऐसे अन्य ब्लॉगों को नियमित पढ़ता भी हूँ जहाँ सत्यनिष्ठा की खुशबू आती है। ऐसे लेखकों से विभिन्न विषयों पर मेरे हज़ार मतभेद हों लेकिन उनके प्रति आदर और सम्मान रहता ही है। घूघूती बासूती, ज्ञानवाणी, लावण्यम-अन्तर्मन, सुज्ञ, मैं और मेरा परिवेश, मयखाना, सच्चा शरणम्, बालाजी, सुरभित सुमन, शब्दों के पंख आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी सत्यनिष्ठा के बारे में मैं निश्शङ्क हूँ। (मयखाना ब्लॉग के उल्लेख को मयकशी आदि वृत्तियों का समर्थन न समझा जाये।)

क्षणिक प्रचार महंगा पड़ेगा
हर रोज़ अपने साथी ब्लॉगरों को, भारतीय संस्कृति, पर्वों, शंकराचार्य या मंदिरों को, देश के लोगों या/और संविधान को गालियाँ देना आपको चर्चा में तो ला सकता है लेकिन वह लाईमलाइट क्षणिक ही होगी। तीन अंकों की टिप्पणियाँ पाने वाले कई ब्लॉगर क्षणिक प्रचार के इस फॉर्मूले को अपनाने के बाद से आज तक 2-4 असली और 10-12 स्पैम टिप्पणियों तक सिमट चुके हैं। ठीक है कि कुछ लोग टिप्पणी-आदान-प्रदान की मर्यादा का पालन करते हुए आपके सही-गलत को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे लेकिन जैसी कहावत है कि सौ सुनार की और एक लुहार की।

विश्वसनीयता बनी रहे
फेसबुक से कोई सच्चा-झूठा स्टेटस उठाकर उसे अपने ब्लॉग पर जस का तस चेप देना आसान काम है। चेन ईमेल से ब्लॉग पोस्ट बनाना भी हर्र लगे न फिटकरी वाला सौदा है। इससे रोज़ एक नई पोस्ट का इंतजाम तो हो जाएगा। लेकिन सुनी-सुनाई अफवाहों पर हाँजी-हूँजी करने के आगे भी एक बड़ी दुनिया है जहां विश्वसनीयता की कीमत आज भी है और आगे भी रहेगी। झूठ की कलई आज नहीं तो कल तो खुलती ही है। एक बात यह भी है कि जो चेन ईमेल आपके पास आज पहुँची है उसकी काट कई बार पिछले 70 साल से ब्रह्मांड के चक्कर काट रही होती है। बेहतरी इसी में है कि बेसिरपर की अफवाह को ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले उसकी एक्सपायरी डेट देख ली जाय।

विषय-वस्तु अधिकारक्षेत्र
हृदयाघात से मर चुके व्यक्ति के ब्लॉग पर अगर हृदयरोगों को जड़ से समाप्त करने की बूटी बांटने का दावा लिखा मिले तो आप क्या कहेंगे? कुरान या कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के अनुयायी वेदमंत्रों का अनाम स्रोतों द्वारा किया गया अनर्थकारी अनुवाद छापकर अपने को धर्म-विशेषज्ञ बताने लगें तो कैसे चलेगा? कितने ही लोग नैसर्गिक रूप से बहुआयामी व्यक्तित्व वाले होते हैं। ऐसे लोगों का विषयक्षेत्र विस्तृत होता है। लेकिन हम सब तो ऐसे नहीं हो सकते। अगर हम अपनी विशेषज्ञता और अधिकारक्षेत्र के भीतर ही लिखते हैं तो बात सच्ची और अच्छी होने की संभावना बनी रहती है। अक्सर ही ऐसी बात जनोपयोगी भी होती है।

विषय आधारित लेखन
ब्लॉग लिखने के लिए आपका शायर होना ज़रूरी तो नहीं। अपनी शिक्षा, पृष्ठभूमि, संस्था या व्यवसाय किसी को भी आधार बनाकर ब्लॉग चलाया जा सकता है। हिन्दी में पाककला पर कई ब्लॉग हैं। भ्रमण और यात्रा पर आधारित ब्लॉगों की भी कमी नहीं है। जनोपयोगी विषयों को लेकर भी ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। चित्रकारिता, फोटोग्राफी, नृत्य, संगीत, समर-कला, व्याकरण, जो भी आपका विषय है, उसी पर लिखना शुरू कीजिये। कॉमिक्स हों या कार्टून, विश्वास कीजिये, आपके लेखन-विषय के लिए कहीं न कहीं कोई पाठक व्यग्र है। लोग हर विषय पर लिखित सामग्री खोज रहे हैं।

नित-नूतन वैविध्य
कोई कवि है, कोई कहानीकार, कोई लेखक, कोई संवाददाता तो कोई प्रचारक। यदि आप किसी एक विधा में प्रवीण हैं तो उस विधा के मुरीद आपको पढ़ेंगे। लेकिन अगर आपके लेखन में वैविध्य है तो आपके पाठकवृन्द भी विविधता लिए हुए होंगे। विभिन्न प्रकार के पुरस्कारदाता आपको किसी एक श्रेणी में बांधना चाहते हैं। विशेषज्ञता महत्वपूर्ण है लेकिन उसके साथ-साथ भी लेखन में विविधता लाई जा सकती है। और यदि आप किसी एक विधा या विषय से बंधे हुए नहीं हैं, तब तो आपकी चांदी ही चांदी है। रचनाकार पर रोज़ नए लोगों का कृतित्व देखने को मिलता है। आलसी के चिट्ठे में रहस्य-रोमांच से लेकर संस्कृति के गहन रहस्यों की पड़ताल तक सभी कुछ शामिल है। मेरे मन कीकाव्य मंजूषा ब्लॉगों पर कविता, कहानी,आलेख के साथ साथ पॉडकास्ट भी सुनने को मिलते हैं। आप भी देखिये आप नया क्या कर सकते हैं।

सातत्य
यदि आप नियमित लिखते हैं तो पाठक भी नियमित आते हैं। टिप्पणी करें न करें लेकिन नियमित ब्लॉग पढे अवश्य जाते हैं। सातत्य खत्म तो ब्लॉग उजड़ा समझिए। आज जब अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर फेसबुक आदि सोशल मीडिया की ओर प्रवृत्त होकर ब्लॉग्स पर अनियमित होने लगे हैं, सातत्य अपनाने वाले ब्लॉग्स चुपचाप अपनी रैंकिंग बढ़ाते जा रहे हैं। उल्लूक टाइम्स, एक जीवन एक कहानी जैसे ब्लॉग निरंतर चलते जा रहे हैं।

कुछ अलग सा
अपना लेखन अक्सर अद्वितीय लगता है। अच्छा लेखन वह है जो पाठकों को भी अद्वितीय लगे। उसमें आपकी जानकारी के साथ-साथ शिल्प, लगन और नेकनीयती भी जुड़नी चाहिए। असामान्य लेखन के लिए लेखन, वर्तनी और व्याकरण के सामान्य नियम जानना और अपनाना भी ज़रूरी है। किसी को खुश (या नाराज़) करने के उद्देश्य से लिखी गई पोस्ट अपनी आभा अपने आप ही खो देती है। इसी प्रकार किसी कहानी में पात्रों के साथ जब लेखक का अहं उतराने लगे तो अच्छी कथा की पकड़ भी कमजोर होने लगती है। किसी गजल या छंद को मात्रा के नियमों की दृष्टि से सुधारना अलग बात है लेकिन आपका लेखन आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। उसके नकलीपन को सब न सही, कुछेक पारखी नज़रें तो पकड़ ही लेंगी। कुछ अलग से लेखन के उदाहरण के लिए मो सम कौन, चला बिहारी, शब्दों का डीएनए, उन्मुक्त, और मल्हार को पढ़ा जा सकता है। अलग सा लेखन वही है जिसे अलग सा बनाने का प्रयास न करना पड़े।

निजता का आदर
आपका ब्लॉग आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। लोगों की निजता का आदर कीजिये। हो सकता है आप ही सबसे अच्छे हों। सारी कमियाँ आपके साथी लेखकों में ही रही हों। लेकिन अगर आपकी साहित्यिक पत्रिका के हर अंक में आपके एक ऐसे साथी की कमियाँ नाम ले-लेकर उजागर की जाती हैं जो या तो ऑनलाइन नहीं है, या फिर इस संसार में ही नहीं है तो इससे आपके साथियों के बारे में कम, आपके बारे में अधिक पता लगता है। इसी प्रकार जिस अनदेखे मित्र को आप सालगिरह मुबारक करने वाले हैं, हो सकता है वह आज भी उस आदमी को ढूंढ रहा हो, जिसने उसकी सालगिरह की तिथि सार्वजनिक की थी। लोगों की निजता का आदर कीजिये।

ट्रेंडसेटर ब्लॉग्स
अगर हर कोई कविता लिखने लगे, तो ज़ाहिर है कि पाठकों की कमी हो जाएगी। लेकिन अगर हर कोई पत्रिकाओं में छपना चाहे तो अधकचरे संपादकों के भी वारे-न्यारे हो जाएँगे। इसी तरह यदि हर ब्लॉगर किताब लिखना चाहेगा तो प्रकाशकों के ब्लॉग्स के ढूँढे पड़ेंगे। यदि आपका ब्लॉग भीड़ से अलग हटकर है, बल्कि उससे भी आगे यदि वह है जिसकी तलाश भीड़ को है तो समझ लीजिये कि आपने किला फतह कर लिया। इस श्रेणी का एक अनूठा उदाहरण है हमारे ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग। मज़ाक-मज़ाक में सामाजिक विसंगतियों पर चोट कर पाना तो उनकी विशेषता है। लेकिन सबसे अलग बात है अपने पाठकों को ब्लॉग में शामिल कर पाना। ब्लॉग की सफलतम पहेली की बात हो, ब्लॉग्स को सम्मानित करने की, या ब्लॉगर्स के साक्षात्कार करने की, ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग एक ट्रेंडसेटर रहा है।

बहुरूपियों के पिट्ठू मत बनिए
आपके आसपास बिखरी विसंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर आपकी भावनाओं का पोषण करने वाले मौकापरस्त सौदागरों के शोषण से बचने के लिए लगातार चौकन्ने रहना ज़रूरी है। लिखते समय भी यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कहीं आपकी भावनाओं का दोहन किसी निहित स्वार्थ के लिए तो नहीं हो रहा है। कितनी ही बहुरूपिया, मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं के एजेंट अपनी असलियत छिपाकर अपने को एक सामान्य गृहिणी, जनसेवक, पत्रकार, शिक्षक, डॉक्टर या वकील जैसे दिखाकर अपनी-अपनी दुकान का बासी माल ठेलने में लगे हुए हैं। ज़रा जांच-पड़ताल कीजिये। विरोध न सही, उनकी धार में बह जाने से तो बच ही सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी राजनीतिक या मजहबी प्रतिबद्धता को साप्रयास छिपा रहे हैं, उन्हें खुद अपनी विचारधारा की नैतिकता पर शक है। बल्कि कइयों को तो अपनी विचारधारा की अनैतिकता अच्छी तरह पता है। वे तो भोले ग्राहक को ठगकर अपने घटिया माल को भी महंगे दाम पर बेच लेना चाहते हैं। ऐसे मक्कारों का साथ, मैं तो कभी न दूँ। आप भी खुद बचें, दूसरों को बचाएं। ध्यान रहे कि इस देश में सैकड़ों क्रांतियाँ हो चुकी हैं। बड़े-बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार भी मोहभंग के बाद कोने में पड़े टेसुए बहाते देखे गए हैं। उनकी दुर्गति से सबक लीजिये।

मौलिकता - कंटेन्ट इज़ किंग
अनुवादमूलक ब्लॉगस को छोड़ दें तो सार यह है कि आपका मौलिक लेखन ही आपकी विशेषता है। बल्कि, अच्छे अनुवाद में भी मौलिकता महत्वपूर्ण है। हिन्दी के दो बहु-प्रशंसित ब्लॉगों में हिंदीजेन और केरल पुराण शामिल हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचल से अभिषेक ओझा के ओझा-उवाच तक, मौलिकता एक सरस सूत्र है। दूसरों के लेख, कविता, नाम पते, बीमारी या अन्य व्यक्तिगत जानकारी छापकर आप केवल अस्थाई प्रशंसा पा सकते हैं। कुछ वही गति राजनीतिक प्रश्रय, श्रेय पाने, या डाइरेक्टरी बेचकर पैसा कमाने के लिए बांटी गई रेवड़ियों की होती है। चार दिन की चाँदनी, फिर अंधेरी रात। अच्छा लिखिए, सच्चा लिखिए और मौलिक लिखिए, आपका लेखन अवश्य पहचाना जाएगा।

संबन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* लेखक बेचारा क्या करे?
* आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

Tuesday, June 26, 2012

आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

आभासी सम्बन्धों के आकार-प्रकार पर हमारे राज्य के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध ने यह तय किया है कि फेसबुक जैसी वैबसाइटों पर मित्रता अनुरोध अस्वीकार होने या नजरअंदाज किये जाने पर सन्देश प्रेषक ठुकराया हुआ सा महसूस करते हैं। इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।

मेरी नन्ही ट्विटर मित्र
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को सेंसर करके या फिर इससे दो कदम आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी जवाबी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:

भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान।

लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?

मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।

किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।

कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।

इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।

सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।

मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।

जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।

एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।

ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!

यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।

Friday, December 9, 2011

श्रद्धांजलि - डॉ.संध्या गुप्ता

अनुराधा जी की टिप्पणी से इस दुखद समाचार की जानकारी मिली। स्तब्ध हूँ, पर बताना ज़रूरी समझता हूँ। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति और परिवार को शक्ति दे!
डॉ. संध्या गुप्ता की बीमारी की खबर मुझे कुछ समय पहले मिली थी। इस सिलसिले में मैंने उन्हें ब्लॉग के जरिए संदेश भेजा, पर जबाव अभई तक नहीं आया। लेकिन जागरण- याहू न्यूज पर यह खबर अभी देखी तो शेयर कर रही हूं- बुरी खबर है
"नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता, शोक में डूबा विश्वविद्यालय"
लिंक यह रहा।
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/jharkhand/4_8_8465580.html

उनका जाना सदमे से कम नहीं है। दो साल पहले ही उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार समारोह में।

ज्यादा कहा नहीं जा रहा। उनसे फिर बात न कर पाने का अफसोस रहेगा।
(आर. अनुराधा)

डॉ. सन्ध्या गुप्ता
सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ.संध्या गुप्ता अब इस दुनियां में नहीं रही। पिछले कई माह से बीमार चल रही डॉ.गुप्ता ने गुजरात के गांधी नगर में आठ नवम्बर 2011 को सदा के लिए आंखें मूंद ली हैं। वह अपने पीछे पति सहित एक पुत्र व एक पुत्री को छोड़ गयी है। पुत्र प्रो.पीयूष यहां एसपी कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के व्याख्याता है। उनके आकस्मिक निधन पर विश्वविद्यालय परिवार ने गहरा दुख प्रकट किया है। प्रतिकुलपति डॉ.प्रमोदिनी हांसदा ने 56 वर्षीय डॉ.गुप्ता के निधन पर शोक प्रकट करते हुए कहा कि दुमका से बाहर रहने की वजह से आखिरी समय में उनसे कुछ कहा नहीं जा सका इसका उन्हें सदा गम रहेगा। उन्होंने दिवंगत आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि हिंदी जगत ने एक अनमोल सितारा खो दिया है।

डॉ.गुप्ता को उनकी काव्यकृति 'बना लिया मैंने भी घोंसला' के लिए मैथिलीशरण गुप्त विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया था।
मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
(सन्ध्या जी की अंतिम पोस्ट से)

विनम्र श्रद्धांजलि!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता, शोक में डूबा विश्वविद्यालय
* क्या आपको कुछ पता है?
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की अंतिम पोस्ट
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Thursday, October 13, 2011

क्या आपको कुछ पता है?

छः जून की उनके ब्लॉग की पोस्ट में उंगलियों में दर्द की चिंता व्यक्त की गयी थी। उन्हें यद्यपि ज्योतिष के सहारे का विश्वास भी था। फिर भी, जिन्हें विश्वास हो उनके लिये भी ज्योतिष चिकित्सा का स्थान तो नहीं ले सकता है। उन्होंने लिखा था:
उनके आश्वासन से मै फिर से डाक्तर के पास जाने से रुक गयी और एक देसी इलाज शुरू किया, डरी इस लिये भी थी कि पहले एक अंगूठे मे इसी प्राब्लम के चलते उसका टेंडर कटवाना पडा था।उस देसी दवा से ही ठीक हुयी हूँ लेकिन कुछ दिन स्प्लिन्ट जरूर बान्धना पडा। बेशक ज्योतिश आपकी समस्या हल नही कर देता लेकिन कई बार ऐसे आश्वासन से आशा सी बन जाती है और आशा ही जीवन है। इतने दिनो पढा सब को लेकिन कुछ कह नही पाई लिख नही पाई। अब भी अधिक देर लिखने से अँगुली दुखने लगती है लेकिन ये भी ठीक हो जायेगी कुछ दिन मे ।
निर्मला कपिला जी
इसके बाद उनकी दो प्रविष्टियाँ और आयीं और अब दो मास से अधिक बीत जाने पर भी कोई अपडेट नहीं है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, खुशमिजाज़ ब्लॉगर, कवयित्री, कथाकार श्रीमती निर्मला कपिला की| आशा है कि वे ठीक होंगी, फिर भी चिंता है।

जिस प्रकार निर्मला जी के बारे में चिंतित हूँ, लगभग उसी प्रकार भावों से भरपूर कविता रचने वाली सन्ध्या गुप्ता जी की पिछली (दो महीने पुरानी) पोस्ट में भी उनकी गम्भीर बीमारी के बारे में चिंतातुर करने वाला निम्न सन्देश था:

मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
डॉ. सन्ध्या गुप्ता
मैं जानता हूँ कि हम भारतीय लोग बहुत भावुक होते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निभाते हुए तुरंत हिल मिल जाते हैं। रेल का सफ़र हो या बस का, मंज़िल आने तक सम्पर्क सूत्रों का आदान-प्रदान हो ही जाता है। हिन्दी ब्लॉग जगत में भी भाई बहन से लेकर सास-ननद तक बहुत से रिश्ते जोड़े गये हैं, बहुत अच्छी बात है। आभासी रिश्ते जोड़ें न जोड़ें, परंतु यदि हम एक दूसरे की हारी-बीमारी में हाल पता कर सकें और आवश्यकता पड़ने पर किसी काम आ सकें तो मेहरबानी होगी। मेरे पास इन दोनों ही का सम्पर्क नम्बर नहीं है, बस ईमेल पता है सो किया मगर उसका कोई उत्तर नहीं मिला। यदि आप में से किसी को इन दोनों की खैरियत के बारे में जानकारी हो तो कृपया अवश्य दें। यदि आपके पास उनका या किसी परिवारजन का फ़ोन नम्बर हो तो बात करने का प्रयास कीजिये, यदि कोई निकट रहता हो तो मिल ही लीजिये। बस यही मेरा निवेदन है।

धन्यवाद व शुभकामनायें!

[दोनों चित्र रिस्पेक्टिव ब्लॉग प्रोफ़ाइल्स से]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* वीरबहूटी - निर्मला जी का ब्लॉग
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की पोस्ट
* श्रद्धांजलि - नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता
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