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Wednesday, October 29, 2008

बेघर का वोट नहीं

एक पिछली पोस्ट में मैंने कार्तिक राजाराम की आत्महत्या का ज़िक्र किया था। बेरोजगारी आर्थिक मंदी का सिर्फ़ एक पहलू है। एक दूसरा पहलू है बेघर होना। और यह समस्या आम अंदाज़ से कहीं ज़्यादा व्यापक है।

कैलिफोर्निया की तिरपन वर्षीया वांडा डन (Wanda Dunn) भी ऐसी ही एक गृहस्वामिनी थीं। यह उनका पैतृक घर था जो उनके बेरोजगार होने, विकलांग होने और कुछ आर्थिक कारणों की वजह से उनके हाथ से निकल गया। सहृदय नए खरीददार ने उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उन्हें किराए पर रहने दिया। मगर, अफ़सोस यह गृह-ऋण की समस्या, नए मालिक को यह घर उसके ऋणदाता को वापस सुपुर्द करना पडा। वांडा डन यह बर्दाश्त न कर सकीं और उन्होंने अपने घर को आग लगा दी और अपने सर में गोली मार ली।

छिटपुट लोग इस तरह के कदम उठा चुके हैं मगर समस्या जैसी दिखती है उससे कहीं अधिक बड़ी है। २००८ के पहले आठ महीनों में ही क़र्ज़ के लिए बंधक रहे घरों में से लगभग बीस लाख घरों पर ऋणदाताओं का कब्ज़ा हो गया है। घर छोड़ने वालों में से अनेकों लोग घर का कोई स्थायी पता न होने के कारण वोट देने के लिए पंजीकृत नहीं हैं। वैसे भी जब ज़िंदगी ही एक समस्या हो जाए तो वोट देने जैसी बात के बारे में कौन सोच सकता है।

देखते हैं कि चुनाव आयोग या राष्ट्रपति पद के दोनों प्रत्याशी इस बारे में क्या करते हैं। आख़िर गरीब की भी कोई आवाज़ है। संत कबीर ने कहा है:
निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय,
मरे जीव की स्वास सौं लौह भस्म हुई जाय।

Tuesday, October 7, 2008

अमरीकी आर्थिक मंदी और भारतीय पञ्चबलि

अमेरिका आर्थिक मंदी के एक कठिन दौर से गुज़र रहा है। इस मंदी का असर दुनिया भर के बाज़ारों पर भी पड़ रहा है। बाज़ार की ख़बर रखने वाले ताऊ रामपुरिया ने अपनी पोस्ट गुड गुड गोते खाती अर्थ-व्यवस्था में इस विषय के कालक्रम की विस्तार से चर्चा की थी. आर्थिक पहलू तो हैं ही, इस समस्या के अपने मानवीय पहलू भी हैं। आर्थिक तंगी का असर मानवीय संबंधो पर भी पड़ रहा है। कुछ सामाजिक पहलूओं का सन्दर्भ मेरी पिछली पोस्ट एक शाम बेटी के नाम में आया था। आम तौर पर अमेरिकी साहसी होते हैं और कठिनाइयों का सामना बड़ी दिलेरी से करते हैं। मगर जब मंदी लंबे समय तक रह जाए तो समीकरण बदलने लगते हैं। लोगों की नौकरियां छूट रही हैं, घरों से हाथ धोना पड़ रहा है, कुछ परिवार टूट भी रहे हैं। मगर आज की ख़बर बहुत दर्दनाक है। लॉस एंजेलेस में रहने वाले और हाल ही में बेरोजगार हुए भारतीय मूल के ४५ वर्षीय कार्तिक राजाराम ने संभवतः आर्थिक कारणों से गोली मारकर आत्महत्या कर ली। यह ख़बर इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि सैन फ़्रांसिस्को वैली के पोर्टर रैंच में रहने वाले राजाराम ने मरने से पहले गोली मारकर अपने साथ रहने वाले पाँच परिजनों की भी हत्या कर दी। राजाराम ने नयी ख़रीदी बन्दूक से अपने तीन बेटों, पत्नी और सास को मौत के मुँह में धकेल दिया। एक आत्महत्या पत्र में राजाराम ने लिखा है कि उसके लिए पूरे परिवार सहित मरना अधिक सम्मानजनक है। अपने घर में बैठकर शायद मैं किसी दूसरे व्यक्ति की कठिनाईयों को पूरी तरह से नहीं समझ सकता हूँ मगर फिर भी मेरे दिल में बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि "क्यों?" आख़िर क्यों हम हार जाते हैं समाज के बनाए हुए समीकरणों से? हत्या और आत्महत्या में हम सम्मान कैसे ढूंढ सकते हैं? ज़िंदगी क्या इतनी सस्ती है कि पैसे के आने-जाने से उसका मोल लगाया जा सके? और फिर ख़ुद मरना एक बात है और अपने आप को पाँच अन्य लोगों के जीवन का निर्णायक समझ लेना? उन लोगों की परिस्थिति को जाने बिना मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि ईश्वर मृतकों की आत्मा को शान्ति दे और कठिनाई से गुज़र रहे दूसरे लोगों को सामना करने का साहस दे और सही रास्ता दिखाए।