Friday, November 27, 2009

कुछ पल - टाइम मशीन में

बड़े भाई से लम्बी बातचीत करने के बाद काफी देर तक छोटे भाई से भी फ़ोन पर बात हुई। ये  दोनों भाई जम्मू में हमारे मकान मालिक के बेटे हैं। इन्टरनेट पर मेरे बचपन के बारे में एक आलेख पढ़कर बड़े भाई ने ईमेल से संपर्क किया, फ़ोन नंबर का आदान-प्रदान हुआ और आज उनतालीस साल (39) बाद हम लोग फिर से एक दूसरे से मुखातिब हुए। इत्तेफाक से इसी हफ्ते उसी शहर के एक सहपाठी से भी पैंतीस साल बाद बात हुई। उस बातचीत में थोड़ी निराशा हुई क्योंकि सहपाठी ठीक से पहचान भी नहीं सका।  लेकिन इन भाइयों की याददाश्त और उत्साह ने निराशा के उस अंश को पूरी तरह से धो डाला।

जम्मू के गरनों का स्वाद अभी भी याद है
फ़ोन रखकर हम लोग अपना सामान कार में सेट किया और निकल पड़े धन्यवाद दिवस (Thanksgiving Day) की अपनी 600 मील लम्बी यात्रा पर। पिट्सबर्ग के पहाड़ी परिदृश्य अक्सर ही जम्मू में बिताये मेरे बचपन की याद दिलाते हैं। जगमगाते जुगनुओं से लेकर हरे-भरे खड्डों तक सब कुछ वैसा ही है। आगे चल रही वैन का नंबर है JKT 3646। जम्मू में होने का अहसास और वास्तविक लगने लगता है। गति सीमा 70 मील है मगर अधिक चौकसी और भीड़ के कारण कोई भी गाड़ी 80 से ऊपर नहीं चल रही है। जहाँ तहाँ किसी न किसी वाहन को सड़क किनारे रोके हुए लाल-नीली बत्ती चमकाती पुलिस दिख रही है। वाजिब है, धन्यवाद दिवस की लम्बी छुट्टी अमेरिका का सबसे लंबा सप्ताहांत होता है। इस समय सड़क परिवहन भी अपने चरम पर होता है और दुर्घटनाएँ भी खूब होती हैं। जम्मू की यह गाडी तेज़ लेन में होकर भी सुस्त है, रास्ता नहीं दे रही है। मुझे दिल्ली के अपने बारह साल पुराने शांत मित्र फक्कड़ साहब याद आते हैं। यातायात की परवाह न करके वे अपने बजाज पर खरामा-खरामा सफ़र करते थे। मगर रहते थे हमेशा सड़क के तेज़ दायें सिरे पर। हमेशा पीछे से ठोंके जाते थे।

आधा मार्ग बीतने पर एक जगह रुककर हमने रात्रि भोजन कर लिया है। भोजन की खुमारी भी छाने लगी है। घर से निकलने में देर हो गयी थी मगर मैं अभी भी चुस्त हूँ और एक ही सिटिंग में सफ़र पूरा कर सकता हूँ। पत्नी को बैठे -बैठे बेचैनी होने लगी है सो रुकने को कहती हैं। होटल के स्वागत पर बैठी महिला दो बार अलग अलग तरह से पूछती है कि मैं डॉक्टर तो नहीं। जब उसे पक्का यकीन हो जाता है कि मैं नहीं हूँ तो झेंपती सी कहती है कि कई भारतीय लोग डॉक्टर होते हैं और अगर वह रसीद में उनके नाम से पहले यह विशेषण न लिखे तो वे खफा हो जाते हैं, बस इसलिए मुझसे पूछा। मैं कहना चाहता हूँ कि मैं अगर डॉक्टर होता तो भी ध्यान नहीं देता मगर कह नहीं पाता क्योंकि कोई कान में चीखता है, "तभी तो हो नहीं।" देखता हूँ तो पचीस साल पुराने सहकर्मी जनरंजन सरकार मुस्कराते हैं। जब भी मैं किसी परिवर्तन का ज़िक्र करता था, वे कहते थे कि यह काम नेताओं और अफसरों का है इसलिए कभी नहीं होगा। मैं कहता था कि यदि मैं नेता और अफसर होता तो ज़रूर करता। और जवाब में वे कहते थे, "इसीलिए तो तुम दोनों में से कुछ भी नहीं हो।" मेरे कुछ भी न होने की बात सही थी इसलिए उनसे कुछ कह नहीं सका हाँ एक बार इतना ज़रूर कहा कि वे अगर अपने बेटे का नाम भारत रखें तो भारत सरकार पर बेहतर नियंत्रण रख सकेंगे।

होटलकर्मी अगली सुबह के मुफ्त नाश्ते का समय बताने लगती है और मैं पच्चीस साल पुराने भारत सरकार के समय से निकलकर 2009 में आ जाता हूँ।

Sunday, November 8, 2009

सर्वे भवन्तु सुखिनः

नौ नवम्बर १९८९ - आज से बीस साल पहले घटी इस घटना ने साम्यवाद, कम्युनिज्म, मर्क्सिज्म और तानाशाही आदि टूटे वादों की कब्र में आखिरी कील सी ठोक दी थी. जब जर्मनी के नागरिकों ने साम्यवाद के दमन की प्रतीक बर्लिन की दीवार को तोड़कर साम्यवादियों के चंगुल को पूर्णतया नकार दिया था तब से आज तक की दुनिया बहुत बदल चुकी है. ऐसा नहीं कि बर्लिन की दीवार टूटने से सारी दुनिया में बन्दूक्वाद और तानाशाही का सफाया हो गया हो. ऐसा भी नहीं है कि इससे दुनिया की गरीबी या बीमारी जैसी समस्यायें समाप्त हो गयी हों. क्यूबा के नागरिक आज भी कम्युनिस्ट प्रशासन में भयंकर गरीबी में जीने को अभिशप्त हैं. तिब्बत के बौद्ध हों, चीन के वीघर((Uyghur: ئۇيغۇر) मुसलमान हों या पाकिस्तानी सिख, इंसानियत का एक बहुत बड़ा भाग आज भी अत्याचारी तानाशाहों के खूनी पंजों तले कुचला जा रहा है .


बर्लिन दीवार का पतन


जजिया और दमन के शिकार पाकिस्तान के सिख


माओवादियों के सताए वीघर मुसलमान

Thursday, November 5, 2009

... छोटन को उत्पात

पिछले दिनों रंजना जी ने क्षमा के ऊपर एक बहुत अच्छा लेख लिखा जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया. पूरा लेख और टिप्पणियाँ पढने के बाद मुझे लगा कि भारतीय मानस में क्षमा का एक अन्य पक्ष अक्सर छूट जाता है, क्यों न इस बहाने उसका ज़िक्र कर लिया जाए, सो कुछ विचार प्रस्तुत हैं.

क्षमा के बारे में दुनिया भर में बहुत कुछ कहा गया है. विशेषकर भारतीय ग्रन्थ क्षमा की महिमा से भरे पड़े हैं. हर प्रवचन में लगभग हर स्वामी जी क्षमा की महत्ता पर जोर देते रहे हैं. पश्चिमी विचारधारा में भी क्षमा महत्वपूर्ण है. जब भी हम किसी और से कुढे बैठे होते हैं तब अक्सर अंग्रेजी की कहावत "फोरगिव एंड फोरगेट" याद आती है (या फिर याद दिला दी जाती है.) भारत में तो बाकायदा क्षमा-पर्व भी होता है जिसमें बड़े बड़े लोग क्षमा मांगते हुए और छोटे-बड़े लोग क्षमा करके भूलते (?) हुए नज़र आते हैं.

बाबाजी प्रवचन में क्षमा पर जोर देते हैं और हम अपने बदतमीज़ बॉस के प्रति तुंरत ही क्षमाशील हो जाते हैं. यह बात अलग है कि हम बात-बेबात अपने बाल-परिचारक का कान उमेठना बंद नहीं करते. बीमार बच्चे के लिए महरी का एक दिन न आना कभी भी क्षम्य नहीं होता है. हमारी क्षमा या तो अपनों के लिए होती है या अपने से बड़ों के लिए. आइये एक नज़र देखें क्या यही हमारे ग्रंथों की क्षमा है.

बाबा तुलसीदास ने कहा था, "क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात." इस कथन में मुझे दो बाते दिखती हैं, पहली यह कि उत्पात छोटों का काम है. दूसरी बात यह है कि क्षमा (मांगना और करना दोनों ही) बड़े या शक्तिशाली का स्वभाव होना चाहिए. जब किसी राष्ट्र का सर्वोपरि मृत्युदंड पाए कैदियों को क्षमा करता है तो उसमें "क्षमा बडन को चाहिए" स्पष्ट दिखता है. अपराधी ने राष्ट्रपति के प्रति कोई अपराध नहीं किया था. फिर क्षमा राष्ट्रपति द्वारा क्यों? क्योंकि क्षमा शक्तिशाली ही कर सकता है. "क्षमा वीरस्य भूषणं" से भी यही बात ज़ाहिर होती है. भारतीय संस्कृति में तो एक बंदी छोड़ने का दिन भी होता था जब राजा सुधरे हुए अपराधियों की बाकी की सजा माफ़ कर देते थे. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में:
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो


"फोरगिव एंड फोरगेट" की बात करें तो एक और बात पर ध्यान जाता है वह है क्षमा किसको? हम किसी को क्षमा करते हैं क्योंकि हमने अपने मन में उसे किसी बात का दोषी ठहरा दिया था. क्या अपनी नासमझी के चलते दूसरों को दोषी ठहराना सही होगा?

अगर अस्सी साल की माँ अपनी साठ साल की बेटी से दशकों तक इसलिए नहीं मिली है क्योंकि बेटी ने प्रेम-विवाह कर लिया था तो उस माँ के लिए क्षमा सुझाना बचपना होगा. इस माँ ने बेटी के अपने से स्वतंत्र व्यक्तित्व को समझा नहीं तो उसमें बेटी का कोई अपराध नहीं है. निर्दोष को पहले दोषी ठहराकर आरोपित करना और कुढ़ते रहना और फिर क्षमा करके बड़े बन जाना सही नहीं लगता है. बेहतर होगा कि हम हर बात में दूसरों को दोष देने के बजाय वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास करें.

मैं क्षमा के महत्व को कम नहीं आंक रहा हूँ बल्कि मैं इसके विपरीत यह कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि क्षमा एक बहुत बड़ा गुण है और इसे देने का अधिकार उसे ही है जो शक्तिशाली भी है और जिसने दूसरों को अकारण दोषी नहीं ठहराया है. दूसरे शब्दों में, हम जैसे गलतियों के पुतलों के लिए, "क्षमा विनम्र होकर मांगने की चीज़ है, बड़े बनकर बांटने की नहीं."

जो तीसरी बात सामने आती है वह यह कि क्षमा न्याय-सांगत होनी चाहिए. हम गलतियां करते रहें और क्षमा मांगते रहें यह भी गलत है और उससे भी ज़्यादा गलत यह होगा कि सिर्फ स्वार्थ के लिए किसी भी धर्म, वाद या विचार के नाम पर आसुरी शक्तियां निर्दोषों का खून बहाती रहें और हम अपनी निस्सहायता, भीरुता या बेरुखी को क्षमा के नाम से महिमामंडित करते रहें.

संतों ने तो क्षमा को साक्षात प्रभु का रूप ही माना है इसलिए इस लेख में हुई सारी त्रुटियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हुए मैं तुलसीदास जी को उद्धृत करना चाहूंगा:

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥


यही बात कबीरदास के शब्दों में:
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥