Monday, October 13, 2008

करमा जी की टुन्न-परेड

बात तब की है जब मैं दिल्ली में नौकरी करने आया था। नौकरी के साथ एक घर भी मिला था और साथ में थोड़ा-बहुत फर्नीचर भी। मगर मैट्रेस आदि तो खुद ही खरीदना था। मेरे एक सहकर्मी ने कहा कि वह मुझे अपनी कार से नज़दीक के बाज़ार ले चलेगा और हम गद्दों को कार के ऊपर बाँध कर घर ले आयेंगे। सहकर्मी का नाम जानने से कोई फायदा नहीं है। सुविधा के लिए हम उन्हें 'फितूर साहब' कह सकते हैं। फितूर साहब वैसे तो अच्छे परिवार से थे मगर कोई ज़्यादा भरोसे के आदमी नहीं थे। उनकी संगत भी ख़ास अच्छी नहीं थी। उम्र में मुझसे दसेक साल बड़े थे, लेकिन मेरे मातहत होने के नाते मेरी काफी इज्ज़त करते थे। मुझे दिल्ली के बाज़ारों की बहुत जानकारी नहीं थी, भाव-तोल करना भी नहीं आता था और ऊपर से वाहन के नाम पर सिर्फ़ एक स्कूटर था। इसलिए मैंने फितूर साहब की बात मान ली।

तय हुआ कि इस शनिवार की शाम को मैं उनके घर आकर वहाँ से उनके साथ उनकी कार में चल दूंगा। शनिवार के दिन हमारा दफ्तर आधे दिन का होता था इसलिए मुझे भी कोई मुश्किल नहीं थी। तो साहब शाम को जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी, बच्चे और माताजी से मुलाक़ात हुई मगर वे कहीं नज़र नहीं आए। जब पूछा तो उनकी माँ ने झुंझलाते हुए कहा, "बरसाती में बैठा है मंडली के साथ, देख लो जाकर।"

मैं ऊपर गया तो पाया कि दफ्तर के कई सारे उद्दंड कर्मचारी एक-एक गिलास थामे लम्बी-लम्बी फैंक रहे थे। दो बाल्टियों में बर्फ में गढ़ी हुई कुछ बोतलें थीं और कुछ बोतलें किनारे की बार में करीने से लगी हुई थीं। फितूर साहब ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मेरे लिए विशेष रूप से नरम-पेय की व्यवस्था भी थी। मैंने महसूस किया कि एकाध लोगों को वहाँ पर एक नरम-पेय वाले व्यक्ति का आना अच्छा नहीं लगा। उनका अपना घर होता तो शायद दरवाजा बंद भी कर देते मगर फितूर साहब के सामने चुपचाप बैठे रहे।

मेहमानों में मेरे एक और मुरीद भी थे। अजी नाम में क्या रक्खा है? फ़िर भी आप जिद कर रहे हैं तो उन्हें 'करमा जी' कहकर पुकार लेते हैं। करमा जी के हाथ में सबसे बड़ा गिलास था और वह ऊपर तक लबालब भरा हुआ था। बाकी सारी भीड़ रह-रह कर करमा जी की "कैपसिटी" की तारीफ़ कर रही थी। मुझे इतना अंदाज़ तो हो गया था कि उन लोगों की सभा लम्बी चलने वाली थी। कोक की बोतल ख़त्म करते-करते मुझे यह भी पता लगा कि पीने के बाद वे सभी भंडारा रोड पर डिनर करने जा रहे थे।

मेरा वहाँ और अधिक रुकने का कोई कारण न था। सो अपना पेय निबटा कर मैं उठा। मेरा इरादा ताड़कर फितूर साहब उठे और जिद करने लगे कि मैं डिनर उन लोगों के साथ करुँ तभी तो मेरे सहकर्मियों से मेरी जान-पहचान हो सकेगी। मेरे न करने पर वे मेरा हाथ पकड़कर बोले, "आप चले जाओगे तो हम सब का दिल टूट जायेगा", फ़िर कान के पास फुसफुसाते हुए बोले, "बिल इस करमा जी के बच्चे से लेंगे, हमेशा आकर मुफ्त की डकारता रहता है। बहुत पैसा लगता है मेरा इसकी दारू में।" सुनकर मुझे अजीब सा लगा। पीने वालों का दिल साफ़ होने के बारे में काफी अफवाहें उड़ती रहती थीं, मगर उनसे साक्षात्कार पहली बार हो रहा था। मुझे फितूर साहब के दोमुँहेपन पर क्रोध भी आया और करमा जी से सहानुभूति भी हुई।

थोड़ी देर और पीने के बाद सब लोगों ने अपने-अपने दुपहिये उठाये और गंतव्य पर निकल पड़े। मैं अपना स्कूटर फितूर साहब के घर छोड़कर उनकी कार में गया। रेस्तराँ छोटा सा था मगर देखने से ही पता लग रहा था कि काफी महँगा होगा। इस रेस्तराँ में शराब परोसने का लाइसेंस नहीं था मगर रसूख वाली जगह और करमा जी की पहुँच के कारण इन सब के लिए उनकी पसंद के पेय लाये गए। करमा जी मेरे ठीक सामने बैठे थे। जब वे कबाब खा रहे थे तो एक साथी ने बताया कि करमा जी वैसे तो शुद्ध शाकाहारी हैं मगर शराब पीने के बाद वे कबाब को शाकाहार में ही शामिल कर लेते हैं। कबाब ज़मीन पर गिरने के बाद पहले उनके हाथ से गिलास छूटकर नीचे गिरा और फ़िर आँखें गोल-गोल घुमाते हुए वे ख़ुद ही मेज़ पर धराशायी हो गए। मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी को टुन्न होते हुए देखा था और यकीन मानिए मेरे लिए वह बड़ा रोमांचकारी अनुभव था।

मुझे तो कोई ख़ास भूख नहीं थी मगर बाकी सब लोगों ने छक कर खाया-पीया और बिल करमा जी के खाते में डालकर बाहर आ गए। जैसे-तैसे, गिरते-पड़ते करमा जी भी बाहर आए। सभी लोग पान खाने चले गए मगर करमा जी बड़ी कठिनाई से फितूर साहब की कार का सहारा लेकर खड़े हो गए। दो मिनट बाद जब वे गिरने को हुए तो इस गिरोह के अकेले सभ्य आदमी गंजी शक्कर ने सहारा देकर उन्हें कार में बिठा दिया। अपनी अर्ध-टुन्न भलमनसाहत में गंजी शक्कर यह नहीं देख सका कि करमा जी गिर नहीं रहे थे बल्कि शराब-कबाब आदि के कॉम्बिनेशन को उगलकर धरती माता के आँचल को अपने प्यार से सनाना चाह रहे थे। जब तक गंजी शक्कर जी समझते, दो बातें एकसाथ हो गयीं। इधर फितूर साहब पान खाकर आ गए और उधर उनकी कार में बैठे करमा जी ने पीछे की सीट पर उल्टी कर दी।

कॉमेडी को ट्रेजेडी में बदलते देर न लगी। फितूर साहब ने गालियों का शब्दकोष करमा जी पर पूरा का पूरा उड़ेल दिया। बाकी लोग भी जोश में आ गए। खाना-पीना सब हो ही चुका था। अब फुर्सत का समय था। गिरोह दो दलों में बँट चुका था। एक में मैं और गंजी शक्कर थे जो कि करमा जी की दयनीय दशा को ध्यान में रखकर उन्हें कार से घर छोड़ने के पक्ष में थे। अपने स्कूटर पर जाने की उनकी हालत न थी और इस टुन्न हालत में दिल्ली के नाकाबिले-भरोसा ऑटो-रिक्शा में अकेले भेजने का मतलब उनकी घड़ी, चेन, अंगूठी, ब्रेसलेट आदि से; शायद उनकी जान से भी, निजात पाना हो सकता था। मगर दूसरा दल उनकी जान वहीं पर, उसी वक़्त लेना चाहता था। मैं अकेला होश में था इसलिए जब मैंने फितूर साहब को कंधे पकड़कर ज़ोर से झिंझोडा तो मेरी बात उन्हें तुरंत समझ में आ गयी। चूंकि गंजी शक्कर इस दुर्घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था इसलिए पीछे की सीट पर बैठकर करमा जी को संभालने का काम उसीके हिस्से में आया।

फितूर साहब ने बड़बड़ाते हुए गाडी भंगपुरा की और दौड़ा दी। नशे में धुत तीनों लोग एक दूसरे पर वाक्-प्रहार करते जा रहे थे। तीन शराबियों को एक साथ झगड़ा करते और बीच-बीच में फलसफा झाड़ते देख-सुन कर काफी मज़ा आ रहा था। कुछ ही देर में हम भंगपुरा में थे मगर करमा जी का घर किसी ने न देखा था। हर चौराहे से पहले फितूर साहब अपनी गाड़ी रोकते और गुस्से से पूछते, "करमा जी, कित्थे जाणा है?"

पीछे की सीट से करमा जी उनींदे से अपने दोनों हाथों से हवा में तलवार सी भाँजते हुए उत्तर देते, "सज्जे-खब्बे, ...  लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"

झख मारकर फितूर साहब किसी भी तरफ़ गाड़ी मोड़ लेते और अगले चौराहे पर फ़िर वही सवाल होता और करमा जी उसी तरह उनींदे से आभासी तलवार चलाते हुए दोहराते, "सज्जे-खब्बे, लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"

करीब आधे घंटे तक भंगपुरा की खाक छानने के बाद फितूर साहब ने एक वीरान सड़क पर कार रोकी और गंजी शक्कर ने दरवाजा खोलकर करमा जी को बाहर धकेल दिया। करमा जी भी रुके बिना सामने की एक अंधेरी गली में गिरते पड़ते गुम हो गए।

उस रात मैं ठीक से सो न सका। रात भर सोचता रहा कि न जाने करमा जी किस नाली में पड़े होंगे। अगले दिन जब दफ्तर पहुँचा तो पाया कि करमा जी पहले से अपनी सीट पर बैठे हुए कागजों से धींगामुश्ती कर रहे थे। कहना न होगा कि गद्दे मैंने बाद में एक दिन ख़ुद जाकर ही खरीद लिए और दूकानदार ने उसी दिन घर भी पहुँचा दिए।

रहने दो - कविता

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कुछेक दिन और
यूँ ही मुझे
अकेले रहने दो

न तुम कुछ कहो
और न मुझे ही
कुछ कहने दो

इतनी मुद्दत तक
अकेले ही सब कुछ
सहा है मैंने

बचे दो चार दिन भी
ढीठ बनकर
मुझे ही सहने दो

कुछेक दिन और
यूँ ही मुझे
अकेले रहने दो

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Saturday, October 11, 2008

सुनें प्रेमचंद की कालजयी रचनाएं

कोई विरला ही होगा जो मुंशी प्रेमचंद का नाम न जानता हो। हिन्दी साहित्य जगत में वे एक चमकते सूर्य की तरह हैं। आवाज़ (हिन्दयुग्म) के सौजन्य से अब आप उनकी कालजयी रचनाओं को घर बैठे अपने कम्प्युटर पर सुन सकते हैं। आवाज़ की शृंखला सुनो कहानी में हर शनिवार को प्रेमचंद की एक नयी कहानी का पॉडकास्ट किया जाता है जिसे आप अपनी सुविधानुसार कभी भी सुन सकते हैं। इन कहानियों को को स्वर दिये हैं शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा ने।

अभी तक प्रकाशित कुछ ऑडियो कथाओं के लिंक यहाँ हैं:

* सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'आख़िरी तोहफ़ा'
* कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'पर्वत-यात्रा'
* प्रेमचंद की अमर कहानी "ईदगाह" ( ईद विशेषांक )
* कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'अमृत' का पॉडकास्ट
* प्रेमचंद की कहानी 'अपनी करनी' का पॉडकास्ट
* कहानीः शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा'
* प्रेमचंद की कहानी 'अनाथ लड़की' का पॉडकास्ट
* कहानीः प्रेमचंद की 'अंधेर'
* अन्य बहुत सी कहानियाँ

तो फ़िर देर किस बात की है? ऊपर दिए गए लिंक्स पर क्लिक करिए और आनंद उठाईये अपनी प्रिय रचनाओं का। अधिकाँश कहानियों को विभिन्न फॉर्मेट में डाउनलोड करने की सुविधा भी है ताकि आप बाद में उसे अपने कंप्युटर, आईपॉड या एम् पी थ्री प्लेयर द्वारा बार बार सुन सकें या CD बना सकें।