Sunday, April 5, 2009

वाह पुलिस, आह पुलिस - [इस्पात नगरी से - खंड ११]

पहले तो देरी के लिए आप सब से क्षमा चाहूंगा। युगादि से लेकर राम नवमी का समय बहुत ही व्यस्त था। दैनिक कार्यों के अलावा लगभग हर शाम को कहीं न कहीं कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी था जिसमें उपस्थिति अनिवार्य थी। कल एक स्थानीय मन्दिर में (देर से मनाये गए) युगादि समारोह के संपन्न होने के साथ ही वह अस्थायी व्यस्तता पूरी होने को आयी और मैं एक बार फिर अपने ब्लॉग-मित्रों से मुखातिब हूँ।

इस बीच काफी कुछ घटा। हमारे डाउनटाऊन में स्थानीय पुलिस ने नशीली दवाओं के एक बड़े रैकेट का पर्दाफाश किया। बीसिओं लोग गिरफ्तार हुए और नौबत नगर के बीचों-बीच स्थित कुछ रेस्तराओं को स्थायी रूप से बंद कराने तक जा पहुँची। अंततः सहमति इस बात पर बनी कि वे रेस्तरां अब अपने यहाँ बंदूकधारी चौकीदारों को रखेंगे ताकि पुलिस की अनुपस्थिति में भी किसी भी स्थिति से स्वयं निबट सकें।

जिस समय नगर के ह्रदय में यह सब हो रहा था, लगभग उसी समय नगर के बाहर के एक व्यस्त उपनगर में इससे बिल्कुल अलग कुछ घट रहा था। मगर क्रेनबेरी उपनगर की उस घटना की बात करने से पहले आपको इतना बता दूँ कि अमेरिका की पुलिस की वाहवाही ब्रिटेन में भी हो रही है।

हुआ यूँ कि ऑक्सफ़ोर्डशायर के एक लड़के ने एक अमेरिकी लडकी से चैट करते हुए यह उगल दिया कि वह आत्महत्या करने वाला है। लडकी ने यह बात अपनी माँ को, माँ ने स्थानीय पुलिस को, पुलिस ने राष्ट्रपति भवन को, राष्ट्रपति भवन ने ब्रिटिश दूतावास को और दूतावास ने ऑक्सफ़ोर्डशायर की पुलिस को बताई। आनन्-फानन में पुलिस लड़के के घर पहुँच गयी जहाँ वह नशीली दवाओं की घातक खुराक लेकर बेहोश पडा था। समय पर की गयी कार्रवाई के कारण उस लड़के की जान बच गयी।



क्रेनबेरी में क्या हुआ, वह लिखने के लिए मुझे अपने मन को थोडा संयत करना पडेगा इसलिए जल्दी ही वापस आता हूँ।

[इस शृंखला के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा लिए गए हैं. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]==========================================
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Monday, March 23, 2009

इत्मीनान - एक कविता

एक शेर

थी पीठ भी हमारी, और शस्त्र भी हमारा
जो चोट दे रहा था, वह हाथ था तुम्हारा॥

और एक कविता

दावा हुज़ूर आपका सौ बार सही है
कि मुझमें इत्मीनान ज़रा सा भी नहीं है

कागज़ में दबी रह गयीं बदलाव की बातें
बदला मैं मगर आपकी हर बात वहीं है

क्यों भूलते हैं मैं सदा से था नहीं ऐसा
मैंने भी ज़ुल्म-ज़्यादती सदियों सही है

सहते हुए मैं समझा था आप सुधरेंगे कभी
खुशफहमी में ऐसी यकीं अब तो नहीं है।

कुचला गया पर आह भी निकली नहीं कभी
अब सह नहीं सकता हूँ कमी इतनी रही है

Sunday, March 8, 2009

२३ घंटे का दिन - [इस्पात नगरी से - खंड १०]

हिन्दी ब्लॉग परिवार भी एक छोटा सा भारत ही है, सुंदर और विविधता से भरा हुआ। लेखक-सम्पादक-वकील-पत्रकार-अधिकारी तो मिलते ही हैं। छुटभैय्ये नेताओं से लेकर हम जैसे ठलुआ कवियों तक सभी जाति के प्राणी मिल जायेंगे यहाँ पर। वैसे एकाध बड़े नेता-अभिनेता भी मौजूद हैं यहाँ पर। कोई मशहूर होकर झगड़ते हैं कोई झगड़कर मशहूर होते हैं। कोई लेख लिखकर खुश कर देते हैं तो कोई टिप्पणी पढ़कर व्यथित हो जाते हैं। मगर इन सबको पीछे छोड़ आए हैं हमारे ताऊ रामपुरिया
ताऊ नै म्हारी घनी राम-राम. इस बार तो पहेली म्हां मज़ा आ लिया. न फ्लिकर ना गूगल इमेज काम आया. ताऊ, रामप्यारी, बीनू, सैम, सम्पादक मंड‌ल, निर्णायक मंड‌ल, खाली कमंडल तथा जीतने-हारने व‌ाले सभी प्रतियोगियों को बधाई और होली की शुभकामनाएं!
वैसे तो ताऊ अपनी चुटीली भाषा और भावपूर्ण (सीमा जी से साभार) कविताओं के लिए अपने भतीजियों-भतीजों में दुनिया भर में जाने जाते हैं, पिछले कई हफ्तों से उनकी प्रहेलिकाओं ने उन्हें ब्लॉगिंग के शिखर पर पहुँचा दिया है। ताऊ अपनी पहेलियों में देश भर की बातें पूछकर और फ़िर उनकी विस्तृत जानकारी देकर हमारा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन एक साथ ही करते हैं। अब ताऊ अगर अपनी पहेलियों को भारत तक सीमित रखेंगे तो फ़िर देश से बाहर की बातें कौन पूछेगा भला? चलो मैं ही पूछ लेता हूँ।

आज का सवाल है, एक दिन में कितने घंटे होते हैं? क्या कहा, क्लू चाहिए? क्लू है "आज का सवाल" और आपने क्या कहा, "आसान सवाल - २४ घंटे?" यहीं पर आप धोखा खा गए। पिट्सबर्ग में (और शेष अमेरिका में) आज का दिन सिर्फ़ २३ घंटे का था क्योंकि आज यहाँ पर वार्षिक "ग्रीष्म समय बचत काल" शुरू हुआ और घडियां एक घंटा आगे कर दी गयी हैं। ज़ाहिर है कि ग्रीष्म की समाप्ति पर एक दिन पच्चीस घंटे का भी होगा। और यह दोनों संयोजन वर्षांत में होने वाले समय संयोजन से बिल्कुल भिन्न हैं। ग्रीष्म समय बचत काल (या summer time saving) का उद्देश्य गरमी के दिनों में सूर्य के प्रकाश का अधिकाधिक लाभ उठाना ही है। 

समय बचत के इस सिद्धांत के प्रवर्तक दो व्यवसायी थे जिनके नाम क्रमशः सिडनी कोलगेट और लिंकन फिलेने थे। उन्होंने ९० वर्ष पहले इस सिद्धांत की जमकर वकालत की कि दिन में एक अतिरिक्त घंटा मिलने से व्यवसायों पर अच्छा असर पडेगा। सन २००५ के ऊर्जा नियामक क़ानून के द्वारा इस समय बचत को नवम्बर तक चलाया जाने लगा। कहा जाता है कि ऐसा करने के पीछे कैंडी व्यवसाय का काफी दवाब रहा था।

देखने में आता है कि इस समायोजन से ऊर्जा की बचत होती है और अधिकाँश व्यवसायों को भी लाभ ही होता है सिवाय एक दूरदर्शन व्यवसाय के जिनकी टी आर पी में एक अल्पकालीन गिरावट देखी जाती है।

पिट्सबर्ग डाउनटाऊन में लगी एक इस्पात कलाकृति का दृश्य

[इस शृंखला के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा लिए गए हैं. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]
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