Thursday, June 3, 2010

यह लेखक बेचारा क्या करे?

कविता और यात्रा संस्मरण के अलावा जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो एक बड़ी मुश्किल से गुज़रना पड़ता है। वह है ईमानदारी और सद्भाव के बीच की जंग। लेखन का गुण मुझमें शायद प्राकृतिक नहीं होगा इसलिए मेरी अधिकांश कहानियों में गूढ़ भावपक्ष प्रधान नहीं होता है। सोचता हूँ कि यदि मेरी कहानियाँ, व्यंग्य और लेख विशुद्ध साहित्यिक कृति होते और उनका कथ्य सांकेतिक और अर्थ गूढ़ होता तो शायद इस मुश्किल से बच जाता।

मगर क्या करूँ, साहित्यकार, कवि या कथाकार न होकर किस्सागो ठहरा। मेरी कहानियाँ अक्सर किसी घटना विशेष के चारों ओर घूमती हैं। ज़ाहिर है कि घटना है तो पात्र भी होंगे और एक सत्यवादी के पात्र हैं तो काफी हद तक जैसे के तैसे ही होंगे। जब लोग मेरी कहानियों के संस्मरण होने की आशंका व्यक्त करते हैं तो आश्चर्य नहीं होता है। आश्चर्य तो तब भी नहीं होता है जब लोग मेरे संस्मरणों को भी कहानी कह देते हैं। आश्चर्य तब होता है जब लोग पात्रों को वास्तविक लोगों से मिलाना शुरू करते हैं।

कहानी तो कहानी कई बार तो लोग कविता में भी व्यक्ति विशेष ढूंढ निकालते हैं। यहाँ मैं यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि मेरी कहानियाँ पूर्ण सत्य होने के बावजूद उनका कोई भी पात्र सच्चा नहीं है (हाँ, आत्मकथात्मक उपन्यासों की बात अलग है)। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि एक परिपक्व लेखक की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उसके पात्रों की गोपनीयता और आदर बना रहे। आप कहेंगे कि फिर सिर्फ आदर्शवादी कहानियाँ लिखिये। मगर प्रश्न यह नहीं है कि क्या लिखा गया है, प्रश्न है कि उसे कैसे पढ़ा और क्या समझा गया है। पाठक (या बिना पढ़े ही विरोध करने वाले भावाकुल लोग) किस बात का क्या अर्थ लगायेंगे, यह समझ पाना आसान होता तो तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखकों की जान पर इतना बवाल न होता।

कोई भी लेखक अपने प्रत्येक पाठक की मनस्थिति या परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु फिर भी एक अच्छे लेखक में इतनी समझ होनी चाहिए कि वह जो कुछ लिख रहा है वह पाठक के लिये कम से कम तकलीफदेह हो। कठिन है, कुछ स्थितियों में शायद असंभव भी हो मगर यदि किसी लेखक की हर पुस्तक हर जगह जलाई जाती है या फिर इसके उलट उस पुस्तक की वजह से हर देश-काल में कुछ लोग ज़िंदा जलाए जाते हैं तो कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ ज़रूर है।

मेरा प्रयास यह रहता है कि मेरी कहानी सच के जितना भी निकट रह सकती है रहे मगर सभी पात्र काल्पनिक हों। कुछ कहानियाँ आत्मकथ्यात्मक सी होती हैं मगर मेरी कथाओं में ऐसा करने का उद्देश्य सिर्फ एक पात्र की संख्या घटाकर कहानी को सरल करना भर है। इससे अधिक कुछ भी नहीं। इसलिए मेरी कहानियों का मैं "अनुराग शर्मा" तो क्या मेरा जाना-पहचाना-देखा-भाला कोई भी हाड़-मांस का व्यक्ति न होकर अनेकानेक वृत्तियों को कहानी के अनुरूप इकट्ठा करके खड़ा किया गया एक आभासी व्यक्तित्व ही होता है। शायद यही वजह हो कि मैं लघुकथाएँ कम लिखता हूँ क्योंकि दो-एक पैराग्राफ में पात्रों के साथ इतनी छूट नहीं मिल पाती है और वे कहीं न कहीं किसी वास्तविक व्यक्तित्व की छायामात्र रह जाते हैं।

लिखते समय अक्सर ही मैं एक और समस्या से दो-चार होता हूँ। यह समस्या पहले वाली समस्या से बड़ी है। वह है लेखक के सामाजिक दायित्व की समस्या। यह समस्या न सिर्फ कविता, कहानी में आती है बल्कि एक छोटी सी टिप्पणी लिखने में भी मुँह बाये खड़ी रहती है। यकीन मानिए, बहुत बार बहुत सी पोस्ट्स पर मैं सिर्फ इसलिए टिप्पणी नहीं छोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपनी बात को इतनी स्पष्टता से नहीं कह पाता हूँ कि उसमें से सामाजिक दायित्व की अनिश्चितता का अंश पूर्णतया निकल जाए। सामाजिक दायित्व की बात सहमति, असहमति से अलग है। कुछ व्यक्तियों से इस विषय पर मेरी बातचीत भी हुई है कि किसी पोस्ट-विशेष पर मैंने टिप्पणी क्यों नहीं की या फिर कुछ अलग सी क्यों की। हाँ इतना ज़रूर है कि यदि कोई पोस्ट ही अपने आप में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा रही है तो बात दूसरी है।

इस दायित्व का उदाहरण कई बड़े-बड़े लोगों के छोटे छोटे कृत्यों से स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिये, कुछ लोग एक तरफ तो भगवान् राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगायेंगे मगर उसके साथ ही जान-बूझकर राम और सीता जी के भाई बहन होने या फिर उनके घोर मांसाहारी होने जैसी ऊल-जलूल बातें उछल-उछलकर फैलायेंगे। जो लोग शायद कभी मंदिर न गए हों मगर सिर्फ दूसरे लोगों को भड़काकर मज़ा लेने के लिए देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बार-बार बनाएँ तो यह तय है कि वे जानबूझकर एक परिपक्व नागरिक की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़कर जन-सामान्य की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

विषय से भटकाव ज़रूरी नहीं था इसलिए मुद्दे पर वापस आते हैं। मेरे ख्याल से एक लेखक के लिए - भले ही वह सिर्फ ब्लॉग-लेखक ही क्यों न हो - लेखक होने से पहले अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।

जिस तीसरी बात का ध्यान मैं हमेशा रखता हूँ वह है विषय के प्रति ईमानदारी। यह काम मेरे लिए उतना मुश्किल नहीं है जितने कि पहले दोनों। एक आसानी तो यह है कि मैंने अंधी स्वामिभक्ति को सद्गुण नहीं बल्कि दुर्गुण ही समझा है। पहली निष्ठा सत्य के प्रति हो और निस्वार्थ हो तो आपके ज्ञानचक्षु खुले रहने की संभावना बढ़ जाती है। मुझे यह भी फायदा है कि मैं किसी एक देश, धर्म या राजनैतिक विचारधारा से बंधा हुआ नहीं हूँ। जो कहता हूँ वह करने की भी कोशिश करता हूँ तो कोई द्वंद्व पैदा ही नहीं होता। नास्तिक हूँ परन्तु नास्तिक और धर्म-विरोधी का अंतर देख सकता हूँ। इसलिये मुझे दूसरों के धर्म या आस्था को गाली देने की कोई ज़रुरत नहीं लगती है। विषय के प्रति ईमानदारी के मामले में बहुत से लोग मेरे जैसे भाग्यशाली नहीं होते हैं। परिवार, जाति, देश, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, राजनैतिक स्वार्थ आदि के बंधनों से छूटना कठिन है।

संक्षेप में, मेरे लेखन के तीन प्रमुख सूत्र:

1. पात्रों की गोपनीयता
2. पाठकों के प्रति संवेदनशीलता
3. विषय के प्रति सत्यनिष्ठा

क्या कहा, एक महत्वपूर्ण सूत्र छूट गया है? बताइये न वह क्या है?

Monday, May 31, 2010

मनचाहे डाक टिकट

डाक टिकट इकट्ठा करने का शौक तो हम में से बहुत से लोगों को रहा होगा. थोड़ा बहुत मुझे भी है. बहुत से भारतीय टिकट और प्रथम दिवस आवरण अभी भी रखे हुए है. फ्रैंकिंग मशीन, ईमेल, कुरियर आदि सेवाओं के आ जाने से आजकल डाक टिकटों की ज़रुरत कम होती जा रही है. फिर भी कभी-कभी डाकघर का चक्कर लगा ही लेता हूँ. पिछले दिनों गया तो स्टंप्स.कॉम की और से बेचा जा रहा यह डब्बा उठा लाया. यह आपको अपने कम्प्युटर से अपनी मन-मर्जी के फोटो उपलोड करके उन्हें २० टिकटों की शीट पर छपने की सहूलियत देता है. छपे हुए टिकट स्टंप्स.कॉम द्वारा आपके घर भेज दिए जाते हैं. यह टिकट अमेरिका में डाक सेवा विभाग (USPS) द्वारा बनाए गए टिकटों के सामान ही स्वीकृत हैं. चाहे अपने परिवार के फोटो छापिये चाहे अपने इष्टदेव के. कुछ टिकट हमने भी बनाए. एक बानगी देखिये.


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा
Photos by Anurag Sharma]

Friday, May 28, 2010

NRI अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था

सर्व साधारण को सूचित किया जाता है कि जनता की बेहद मांग पर इत्तेफाक से कल हमारे इहाँ हमने खुद ही अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था जनहित में बना ली है. कांग्रेस बनी तो बाद में कांग्रेस आई (इंदिरा), कांग्रेस भाई (कामराज) और कांग्रेस देसाई (मोरारजी) में टूटी. जनता दल बना तो आजतक इतना टूटा कि पता ही नहीं चलता साबुत कब था. कम्युनिस्ट पार्टी तो मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्टालिनवाद, कास्त्रोवाद से लेकर नक्सलवाद, माओवाद, जिहादवाद और आतंकवाद तक हर रोज़ ही टूटती है.

इसी तरह जब अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लोगर संस्था टूटेगी तो पहले RI और NRI का भेद आयेगा. RI वाले गुट में तो वैसे भी प्रतियोगिता इतनी कड़ी है कि ढपोरशंख का नंबर भले ही आ जाय, अपना नंबर तो नहीं आ सकता है. इस मर्म को समझते हुए हम NRI वाले धड़े में शामिल हो गए हैं. अब संस्था बनी है तो पदाधिकारी भी चुने जायेंगे सो आप सब पर अति कृपा करते हुए किसी अन्य निरीह ब्लोगर को तकलीफ देने के बजाय हम खुद ही पूर्ण बहुमत से निर्विरोध उसके अध्यक्ष, संरक्षक, खजांची और अकेले कार्यकारी सदस्य चुन लिए गए हैं.

हम खुद ही सम्मलेन करेंगे, खुद ही उसमें भाग लेंगे. खुद ही उसमें सुझाव और भाषण देंगे और खुद ही उसकी रिपोर्ट और प्रेस विज्ञप्ति जारी करेंगे. पढेंगे भी खुद ही... नहीं यह ठीक नहीं है, पढने का काम मिलजुलकर करते हैं. रिपोर्ट लिखेंगे हम, पढ़ना आपको पड़ेगी. बल्कि अपने-अपने ब्लॉग पर लगानी भी पड़ेगी. चूंकि प्रश्न हिन्दी और हिन्दुस्तान की ब्लोगिंग का है इसलिए हिन्दुस्तान से बाहर करना पड़ेगा ताकि आपका विदेश भ्रमण भी हो जाय और आप माओवादियों के निर्दोष-मारण रेड-हंट अभियान की फ़िक्र किये बिना सम्मलेन में निर्भीक भागीदारी भी कर सकें.

हमारे सलाहकारों ने बताया है कि ब्लॉगर संस्था की एक ज़िम्मेदारी जनजागृति की होती है. और जनजागृति के लिए रेवड़ी बाँटने... नहीं-नहीं, पुरस्कार बाँटने की परम्परा भी होती है. हम भी बाँटेंगे. जितने लोग इस पोस्ट पर टिप्पणी लिखेंगे उन्हें टिप्पणी शिरोमणि पुरस्कार और जितने पसंद का चटका लगायेंगे उन्हें ब्लोग्वानी चटक चटका पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा. माफ़ कीजिये, इनाम में हम कुछ नकदी नहीं देंगे, अपनी लिखी बिना बिकी किताबों के बण्डल मुफ्त देंगे. आपको केवल अग्रिम डाक खर्च संस्था के खजाने में पहले से जमा कराना पडेगा.

हम अच्छी ब्लॉग रचनाओं को पुस्तकों का रूप देकर प्रकाशित भी करायेंगे. अब जैसा कि आप को पता है कि हर अच्छी ब्लॉग रचना हमारी ही होती है सो किताब पर नाम हमारा ही होगा. क्या कहा? आप मुकदमा करेंगे? तो भैय्या हमने पहले ही वकील रख लिए हैं. आप क्या समझते थे कि आपका दिया हुआ चन्दा हम सारा का सारा खुद खा जायेंगे? वकीलों को भी देना पड़ता है और सिक्योरिटी को भी.

अब इतनी बड़ी संस्था चलाने के लिए कुछ पैसा भी चाहिए न, सो वसूली का काम चौराहे के अनुभवी ट्रैफिक सिपाहियों को दे दिया गया है - अच्छी उगाही की उम्मीद है. हमारी एकल संस्था का नारा है - सारे ब्लॉगर एक हो - संगठन में शक्ति है! सबको एक होना ही पड़ेगा और एक होकर हमें ही वोट देना पडेगा. जितने नहीं देंगे उनके DNS सर्वर की पहुँच गूगल तक बंद करा दी जायेगी. फिर लिखें खुदी, पढ़ें खुदी और टिप्पणी करें खुदी.

जोर जुल्म की टक्कर पर ब्लॉगर हड़ताल करायेंगे!
कोई आये चाहे न आये सम्मलेन अवश्य सजायेंगे!

तो ब्लॉगर समाज, देर किस बात की है, फॉर्म बनाओ, छापो और भेज दो, टिप्पणी की फॉर्म में.