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चारिहु जुग को महातम, कहि के जनायो नाथ।
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ॥
(संत कबीर)
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भारत में ज्ञान श्रुति के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुँचाया जाता रहा है। इसलिये ज्ञानी होने के लिये लिपिज्ञान की आवश्यकता ही नहीं थी। परंतु लिखे बिना अक्षर अक्षर कैसे रहेंगे? लिपियाँ बनायी गईं और फिर शिलालेख, चर्म आदि से होकर भोजपत्र, ताड़पत्र आदि तक पहुँचे। और फिर मिस्र और चीन का कागज़ और उसके बाद पी-शेंग के छपाई के अक्षर - न जाने क्या क्या होता रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में जब योहान गटैनबर्ग (1395-1468) ने छापेखाने का आविष्कार किया तब से अब तक दुनिया ही बदल गयी है। पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकें पढ़कर बड़ी हुई मेरी पीढी तो शायद ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकती है जिसमें कागज़ पर मुद्रित अक्षर न हों। 31 दिसम्बर 1999 के अंक (Y2K किसे याद है?) में टाइम पत्रिका ने रेडियो, फ़ोन, कम्प्यूटर, इंटरनैट आदि जैसे आविष्कारों को दरकिनार करते हुए जब गटैनबर्ग को "मैन ओफ द मिलेनियम" कहा तो मेरे जैसे एकाध लोगों को छोड़कर किसी को आश्चर्य (या आपत्ति) नहीं हुई। चारिहु जुग को महातम, कहि के जनायो नाथ।
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ॥
(संत कबीर)
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बॉस्टन जन पुस्तकालय का मुखडा
मुद्रित शब्द बहुत समय तक आम आदमी की पहुँच से बाहर रहे हैं। सारे विश्व में एक समय ऐसा भी था जब पुस्तक एक विलासिता की वस्तु थी जिसे अति-धनाढ्य वर्ग ही रख सकता था। ऐसे ही समय अमेरिकी नगर बॉस्टन में कुछ लोगों को विचार आया कि क्यों न एक ऐसी संस्था बनाई जाये जो उन लोगों को किताबें छूने, देखने और पढ़ने का अवसर प्रदान करे जिनमें इन्हें खरीदने की सामर्थ्य नहीं है। सन 1848 में बॉस्टन की नगर पालिका के सौजन्य से अमेरिका का पहला जन-पुस्तकालय बना जिसमें से पुस्तक निशुल्क उधार लेने का अधिकार हर वयस्क को था। लगभग सवा दो करोड़ पुस्तकों/दृश्य/श्रव्य माध्यम के साथ यह पुस्तकालय आज भी अमेरिका के विशालतम पुस्तकालयों में से एक है।
मुद्रित शब्दों के इसी गर्वोन्मत्त संग्रहालय के बाहर मुझे मुद्रित शब्दों की एक और गति के दर्शन हुए। एक पंक्ति में लगे हुए धातु और प्लास्टिक के यह बूथ विभिन्न मुद्रित संस्करणों को निशुल्क बाँट रहे हैं। वैसे अमेरिका में समाचार पत्र और पत्रिकाएँ अभी भी आ रहे हैं परंतु कई बन्द होने के कगार पर हैं और कई ऑनलाइन संस्करणों की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं। पिछले वर्ष एक पत्रिका ने कागज़ों के साथ एक विडियो विज्ञापन लगाने का अनोखा प्रयोग भी किया था। सोचता हूँ कि टाइम पत्रिका के सम्पादकों ने आज के समय को 10 साल पहले चुनौती देना शुरू किया था मगर हम अक्सर भूल जाते हैं कि जब रस्साकशी काल के साथ होती हो तो जीत किसकी होगी?
बॉस्टन जन पुस्तकालय की बगल में निशुल्क पत्रों के खोखे
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]
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'जब रस्साकशी काल के साथ होती हो तो जीत किसकी होगी?' यह 'काल' का ही प्रभाव है कि जो पुस्तकें कल तक 'विलासिता की वस्तु'थीं, आज वे 'अजूबा' बन गई हैं।
ReplyDeleteइस पोस्ट को पढ़कर किताबों का ....इन मुद्रित अनमोल शब्दों का ...और मान करने का मन कर रहा है... अच्छी जानकारी
ReplyDeleteईबुक के प्रादुर्भाव के बाद पता नहीं पुस्तकों की स्थिति क्या होगी?
ReplyDeleteआह... सामयिक प्रविष्टि है पर...बदलाव बस ऐसे ही होते हैं !
ReplyDeleteइस जानकारी को देने के लिए आभार!
ReplyDeleteदौर खराब कहा जा सकता है, लेकिन पेड़ बहुत काटे जाते हैं. जो मजा किताब पढ़ने में है, वह कम्प्यूटर स्क्रीन में कहां..... बोस्टन की बनी हुई एक मशीन गीता प्रेस में भी रखी है, जो पैर से चलाई जाती थी...
ReplyDeleteकिताब और कागज़ का ही सम्बन्ध है . ई बुक अपनी तो सम्झ से बाहर है
ReplyDeleteबदलाब कितना भी आ जाये लेकिन किताबे फ़िर से अपना स्थान पायेगी,क्योकि किताब की अपनी शान हे, बहुत सुंदर ग्याण बर्धक लेख, धन्यवाद
ReplyDeleteवेसे हमारे यहां जन पुस्तकालय वाले पढाई की मंहगी महंगी पुसतके भी रखते हे, ओर बच्चो को फ़्रि पोस्ट से घर भेजते हे, मेरे बच्चे घर पर बिलकुल मुफ़त मगवांते हे, ओर वापिस भेजने के लिये भी मुफ़त,
गाँव में बैठा यह टिप्पणी कर रहा हूँ। बिजली महरानी भगवान भरोसे हैं लेकिन यहाँ मैं कोई भी ई बुक ऐक्सेस कर सकता हूँ।
ReplyDeleteउसी पुस्तक का प्रिंट संस्करण लेना हो तो कम से कम 60 किमी. दूर गोरखपुर जाना पड़ेगा। वहाँ भी मिलने की कोई गारंटी नहीं।
अब इसके बहुतेरे अर्थ लगाए जा सकते हैं।
शायद इसका जवाब भविष्य के गर्भ में ही छुपा है.
ReplyDeleteदुर्गा नवमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.
रामराम.
दुर्गा नवमी और दशहरे की शुभकामनायें.
ReplyDeleteपिछले ३० साल में विग्यान नें जो तरक्की की है, उसके कारण पढने पर काफ़ी असर हुआ है इसमें कोई शक नही.
फ़ेसबूक और ट्विटर का चलन अभी शैशव अवस्था पर है, पर कहना सुना भी अब कम हो चला है.मुख्तसर से फ़ार्मेट में मुख्तसर सी बौनी बौनी बातें....
दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteदशहरे की शुभकामनायें !
ReplyDeleteवैसे लिखने की व्यवस्था हमारे यहाँ तो रामायण और महाभारत काल से रही है , इस पर कुछ प्रकाश डालेंगे ?
हम लोग सचमुच एक बहुत बडे परिवर्तन के गवाह हैं।
ReplyDeleteसत्य कहा...