Thursday, May 30, 2013

माओवादी नक्सली हिंसा हिंसा न भवति*

अज्ञानी, धृष्ट और भ्रष्ट संसद तब होती है जब जनता अज्ञान, धृष्टता और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करती है ~जेम्स गरफील्ड (अमेरिका के 20वें राष्ट्रपति) जुलाई 1877
बस्तर का शेर
25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में 200 माओ-नक्सल आतंकियों द्वारा किए गए नरसँहार की घटना की खबर मिलते ही व्यापक जनविरोध की आशंका के चलते फेसबुक आदि सोशल साइटों पर आतंकवाद समर्थकों का संगठित प्रोपेगेंडा अभियान तेज़ी से चालू हो गया जिसमें इस हत्याकांड में शामिल अङ्ग्रेज़ी और तेलुगुभाषी आतंकवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने से लेकर संगठित हत्यारों के "दरअसल" भूखे-नंगे और मजबूर आदिवासी होने जैसे जुमले फिर से दोहराए गए। कई कथाकारों ने नियमित फिरौती वसूलने वाले हत्यारों को रक्तचूषक समाज की देन भी बताया।

कुछ लोग यह भी कहने लगे कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होना या उसका धरातल तक नहीं पहुँचना, हत्यारे माओवादियों के उत्थान का कारण है। यदि यह बात सच होती तो नक्सली किताबों मे विकास की हर मद पर वसूली के रेट फ़िक्स न किए गए होते। सच यह है कि दुर्गम क्षेत्रों मे होने वाले हर विकासकार्य पर माओवादी माफिया रंगदारी करता है और मनमर्जी मुताबिक अपहरण, हत्या और फिरौती भी अपने तय किए भाव पर वसूलता है। अपने अपराधी स्वार्थ के चलते सड़कमार्ग अवरुद्ध करने से लेकर उन्हें यात्रियों व वाहनों समेत बारूदी सुरंगों से उड़ा देना इन आतंकवादियों के लिए चुटकी बजाने जैसा सामान्य कर्म है। सच यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माओवाद/नक्सलवाद के नाम पर चल रहा हिंसक व्यवसाय ही है। गंदा है, खूँख्वार है, दानवी है लेकिन उनके लिए मुनाफे का धंधा है।

एक बंधु बताने लगे कि आदिवासी मूल के निहत्थे महेंद्र कर्मा के हाथ पीछे बांधकर उन पर डंडे और गोली चलाने के साथ-साथ धारदार हथियार से 78 घातक वार करने वाले "निर्मल हृदय" आतंकियों ने उसी जगह मौजूद एक डॉक्टर को मारने के बजाय मरहम पट्टी करके छोड़ दिया। यह सच है कि आम आदमी को कीड़े-मकौड़े की तरह मसलने को आतुर माओवादी अब तक सामान्यतः स्वस्थ्य कर्मियों - विशेषकर डॉक्टरों - के प्रति क्रूर नहीं दिखते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बस इस वजह से वे देवता हो जाएंगे। दुर्गम जंगलों में दिन-रात रक्तपात करने वाले गिरोहों के लिए चिकित्सकीय जानकारी रखने वाले व्यक्ति भगवान से कम नहीं होते। माओवादी जानते हैं कि जिस दिन वे स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति अपना पेटेंटेड कमीनापन दिखाएंगे उस दिन उनके आतंक की उम्र आधी रह जाएगी।
नक्सल हमले में बचे डॉक्टर संदीप दवे ने बताया कि नक्सलियों के पास बंदूकें तो थी हीं, लैपटॉप और आईपैड जैसे आधुनिक उपकरण भी थे। वो बोतलबंद पानी पी रहे थे। नक्सली आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे। इनमें महिला आतंकवादी भी शामिल थीं। ये लोग बातचीत के लिए वॉकी-टॉकी का भी इस्तेमाल कर रहे थे। पिंडारी ठगों की जघन्यता को शर्मिन्दा करने वाले इन दानवों ने शवों पर खड़े होकर डांस किया, मृत शरीरों को गोदा और आंखें निकाल कर अपने साथ ले गए।
माओवादियों को स्थानीय आदिवासी बताने वाले भूल जाते हैं कि उनके बाहर से थोपे जाने के सबूत उनकी हर कार्यवाही में मिलते रहे हैं। इस घटना में भी विद्याचरण शुक्ल के ड्राइवर द्वारा आतंकियों से तेलुगू में संवाद करके उन्हें अतिरिक्त हिंसा से बचा लेना यही दर्शाता है कि यह गिरोह स्थानीय नहीं था। इसी तरह कर्मा व अन्य लोगों द्वारा कर्मा की पहचान करने के बावजूद वे 200 आतंकवादी देर तक तय नहीं कर पा रहे थे कि नेताओं के दल में कर्मा कौन है। आदिवासी क्षेत्र में पीढ़ियों से स्थापित प्रसिद्ध आदिवासी नेता को पहचान तक न पाना इस गिरोह के बाहर से आए होने का एक और सबूत है। बाहर से आने पर भी उन लोगों को अपने निशाने की पहचान समाचार पत्रों आदि के माध्यम से कराये जाना कोई कठिन बात नहीं लगती। लेकिन तानाशाही व्यवस्थायेँ अपने दासों के हाथ में रेडियो, अखबार आदि नहीं पहुँचने देती हैं। उन्हें केवल वही खबर मिलती है जो आधिकारिक प्रोपेगेंडा मशीनरी बनाती है।

माओवाद का प्रोपेगेंडा सुनने वालों को जानना होगा कि पकड़े गए आतंकवादियों के अनुसार पिछले पांच वर्षों में माओ-नक्सली पूंजी का वार्षिक कारोबार 1400 करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग चार हजार करोड़ रुपए हो गया है। फिरौती, अपहरण और उगाही की दरें हर वर्ष बढ़ाई जाती रही हैं। माओवादियों के आश्रय तले ठेकेदार वर्ग फल-फूल रहा है और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार और शोषण में बाधक बनने वाले आदिवासियों को माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जाता रहा है। आदिवासियों को सशक्त करने का कोई भी प्रयास चाहे जन-जागृति के रूप में हो चाहे सलवा-जुड़ूम जैसे हो, माओवादियों को अपने धंधे के लिए सबसे बड़ा खतरा महसूस होता है।

निहत्थे निर्दोष आदिवासी परिवारों पर नियमित रूप से हो रही माओवादी हिंसा का जवाब था सलवा जुड़ूम जिसके तहत चुने हुए ग्रामों के आदिवासियों को सशस्त्र किया गया था और यह आंदोलन आतंकियों की आँख की किरकिरी बन गया। जिन्हें वे निर्बल समझकर जब चाहे भून डालते थे जब वे उनके सामने खड़े होकर मुक़ाबला करने लगे तो आतंकियों की बौखलाहट स्वाभाविक ही थी। मैं यह नहीं कहता कि सलवा जुड़ूम आतंकी समस्या का सम्पूर्ण हल था क्योंकि आतंकी समस्या के सम्पूर्ण हल में प्रशासनिक व्यवस्था की वह स्थिति होनी चाहिए जिसमें हर नागरिक निर्भय हो और किसी को भी व्यक्तिगत सुरक्षा की आवश्यकता न पड़े। लेकिन ऐसी स्थिति के अभाव में आदिवासियों को माओवादियों से आत्मरक्षा करने का अवसर और अधिकार मिलना ही चाहिए था, वह चाहे सलवा जूडूम के रूप में होता या किसी अन्य बेहतर रूप में। चूंकि महेंद्र कर्मा कम्युनिस्ट विचारधारा छोड़ चुके थे और अब आदिवासी सशक्तीकरण से जुड़े थे, माओवादियों की हिटलिस्ट में उनका नाम सबसे ऊपर था। उनके आदिवासी परिवार के अनेक सदस्य पहले ही माओवादियों की क्रूर जनविनाशकारी पद्धतियों के शिकार बन चुके थे।

माओवाद के कुछ लाभार्थी, स्वार्थी या/और भयभीत लोग इन आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होकर फुसफुसाते हैं कि "माओवाद एक मजबूरी है" या फिर, "नक्सली भी हमारे में से ही भटके हुए लोग हैं"। क्या ऐसे लोग यही कुतर्क अपने बीच के भटके हुए अन्य चोरों, बलात्कारियों, हत्यारों, रंगदारों, बस-ट्रेन में बम फोड़ने वाले हलकट आतंकवादियों के पक्ष में भी देते हैं? यदि हाँ, तो आप अपना भय लोभ, लाभ और स्वार्थ अपनी जेब में रखिए। सच यह है कि वर्तमान माओवाद/नक्सलवाद कोई क्रांतिकारी विचारधारा नहीं बल्कि आतंकवाद और क्रूर हिंसा के दम पर चलने वाली शोषक और निरंकुश तानाशाही है जो कि दुर्गम क्षेत्रों के निहत्थे आदिवासियों का खून चूसकर वहाँ की अराजकता, प्रशासनिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सहारा लेकर विषबेल की तरह फलफूल रही है।
लोकतन्त्र का एक ही विकल्प है - बेहतर लोकतन्त्र
माओवाद में दो धाराओं का सम्मिश्रण दिखता है, आतंकवाद और कम्यूनिज़्म। इसलिए माओवाद की हक़ीक़त पर एक नज़र डालते समय इन दोनों को ही परखना पड़ेगा।

संसार की हर समस्या के लिए पूंजीवाद की आड़ लेकर लोकतन्त्र को कोसते हुए माओवादी आतंक का समर्थन करने वाले भूल जाते हैं उधार की विचारधारा, बारूद और फिरौती के दम पर आदिवासियों को गुलाम बनाकर उनकी ज़मीन और जीवन पर जबरिया कब्जा करने वाले माओवादियों के पूंजीवाद से अधिक शोषक रूप पूंजीवाद कभी ले नहीं पाएगा। जिस लोकतन्त्र व्यवस्था को पूंजीवाद का नाम देकर माओवादी और उनके भोंपू रक्तचूषक बता रहे हैं, वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था न केवल जीवन के प्रति सम्मान, बराबरी, शिक्षा और अन्य मूल मानवाधिकारों की समर्थक है बल्कि अधिकांश जगह व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास भी करती है। जबकि माओवाद, नक्सलवाद और दूसरे सभी तरह के आतंकवाद हत्या, लूट, जमाखोरी और प्रोपेगंडा के अलावा कुछ भी रचनात्मक नहीं करते। लोकतन्त्र के मूलभूत अधिकारों का लाभ उठाते हुए कुछ लोग माओवादियों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात भी करते हैं। लेकिन ऐसी मक्कारी दिखाते समय वे यह तथ्य छिपा लेते हैं कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, जीवन और अभिव्यक्ति का सम्मान तभी तक टिकेगा जब तक लोकतन्त्र बचेगा। माओवाद सहित कम्युनिज़्म की सभी असहिष्णु विचारधाराओं में इलीट शासकवर्ग की बंदूक और टैंकों के सामने निरीह जनता को व्यक्तिगत संपत्ति और अभिव्यक्ति दोनों का ही अधिकार नहीं रहता।

यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि नेपाल के सबसे बड़े नव-धनिकों में आज सबसे ऊपर के नाम माओवादी नेताओं के ही हैं। पूंजीवाद को दिन में सौ बार गाली निकालने वाले माओवादी काठमाण्डू के सबसे महंगे आवासों में तो रहते ही हैं, देश-विदेश में उनका निवेश चल रहा है और व्यवसाय पनप रहे हैं। उनके परिजनों का भ्रष्टाचार जगज़ाहिर है। भारत में भी कम्युनिस्टों सहित अधिकांश सांसदों की पूंजी लाखों में नहीं करोड़ों में है। बेशक, भारतीय माओवाद के सबसे ऊपर के लाभान्वित वर्ग के नाम अभी भी एक रहस्य हैं, लेकिन इतना साफ है कि ये लोग जो भी हैं, इनका हित आतंक, हिंसा, दमन, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था में निहित है और ये पीड़ित क्षेत्रों में हर कीमत पर यथास्थिति बनाए रखना चाहेंगे।
माओ-नक्सल आतंकवाद के रूप में भारत के आदिवासी क्षेत्र के मजबूर नागरिक कम्यूनिज़्म के क्रूर चेहरे से रोजाना दो-चार हो रहे हैं। कम्यूनिज़्म पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप है जिसमें एक चांडाल चौकड़ी देश भर के संसाधनों की बंदरबाँट करती है और आम आदमी से व्यक्तिगत धन-संपत्ति तो क्या व्यक्तिगत विश्वास रखने का अधिकार तक छीन लिया जाता है। एक बार लोकतन्त्र का स्वाद चख चुकी जनता किसी भी तानाशाही को बर्दाश्त नहीं करेगी, चाहे वह राजतंत्र, साम्यवाद, धार्मिक, सैनिक तानाशाही या किसी अन्य रूप में हो।
येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने की जुगत में लगे रहकर लाल चश्मे से बारूदी स्वर्ग के ख्वाब देखने-दिखाने वाले खलनायक अपनी असलियत कब तक छिपाएंगे? असली कम्यूनिज़्म के चार हाथ हैं - आतंक, दमन, जमाखोरी और प्रोपेगेंडा। जनता की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, संपत्ति, विश्वास, अधिकार छीनने वाली अमानवीय (अ)व्यवस्था कभी टिक नहीं सकती। जहां-जहां भी जबरिया थोपी गई वहीं के किसान-मजदूरों ने उसे उखाड़ फेंका। आतंक के बल पर गिनती के तीन देश अभी बचे हैं, बाकी जगह माओवाद, नक्सलवाद या मार्क्सवाद के नाम पर पैसा वसूली और आतंक फैलाने का काम ज़ोरशोर से चल रहा है। वर्तमान कम्युनिस्ट शासनों की त्वरित झलकियाँ:
  • चीन - साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप, भ्रष्टाचार का बोलबाला, किसान-मजदूर के लिए दमनकारी
  • नक्सलवाद/माओवाद - क्रूर हिंसा, फिरौती, अपहरण, तस्करी, यौन-शोषण, सत्ता-मद और आतंकवाद में गले तक डूबा
  • क्यूबा - जनता के लिए गरीबी, रोग,हताशा और सत्ताधारी कम्युनिस्टों के लिए वंशवादी राजतंत्र
  • उत्तर कोरिया - कम्युनिस्ट शासकों के लिए वंशवादी राजतंत्र, पड़ोसियों के लिए गुंडागर्दी, जनता को भुखमरी व मौत
अंडरवर्ड आज नए रूपों में एवोल्व हुआ है जिसमें तस्करी और हत्या के पुराने तरीकों के साथ दास-व्यापार, यौन-शोषण, फिरौती और आतंकवाद समाहित हुआ है। कश्मीर में कार्यरत मुजाहिदीन हों या श्रीलंका के टाइगर, दक्षिण का तस्कर वीरप्पन हो या पश्चिम का दाऊद इब्रहीम, नृशंसता से मुनाफाखोरी में रत इन दानवों का किसी भी विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। विचारधाराएँ इनके लिए आड़ से अधिक महत्व नहीं रखतीं ताकि तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्ख इनके दुष्कृत्यों का समर्थन करते रहे हैं। दुर्भाग्य से देश में तात्कालिक लाभ देखने वाले स्वार्थी मूर्खों की कोई कमी नहीं है। लेकिन जिस प्रकार कश्मीर में मुजाहिदों ने हिंदुओं से अधिक हत्यायेँ मुसलमानों की की हैं और खलिस्तानियों ने सिखों को लगातार अपना निशाना बनाया उसी प्रकार माओवादी भी आदिवासियों के नाम का प्रयोग अपने आतंक की आड़ के लिए कर रहे हैं। सब जानते हैं कि उनके कुकर्मों से सबसे अधिक प्रभावित तो आदिवासी वर्ग ही हुआ है।

लाभ और लोभ के लिए कत्ल करने, इंसान खरीदने, बेचने और अपना ज़मीर खुद बेचने वाले हर देश-काल में थोक में मिलते रहे हैं। जरूरत है इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की, और उसके लिए ज़रूरत है सक्षम प्रशासन की जो कि हमारे देश में - खासकर दुर्गम क्षेत्रों में - लगभग नापैद है। आतंकवादियों के साथ तो कड़ाई ज़रूरी है ही, बारूदी सपने से सम्मोहित और लाभान्वित लोग जो आम जनता के बीच रहते हुए भी दानवी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगे हैं और आतंक को आश्रय भी दे रहे हैं। अर्थ-बल-सत्ता के इन लोभियों पर भी समुचित कार्यवाही होनी चाहिए ताकि कोई भी इन समाजविरोधी हिंसक अत्याचारों का वाहक न बने।

दरभा घाटी की घटना के बाद काँग्रेस दल की सुरक्षा में चूक के मद्देनजर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई कि खबरें आने से एक और बात साफ होती है। वह है सरकार की संकीर्ण दृष्टि और अदूरदर्शिता। यह सच है कि इन क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन का अभाव है इसलिए दल को सुरक्षा की ज़रूरत थी। लेकिन लोकतन्त्र में सरकार जनता की प्रतिनिधि होती है और हमारे नेताओं को समझना चाहिए कि यहाँ की जनता को भी प्रशासन और सुरक्षा की ज़रूरत है। जब तक आम आदमी सुरक्षित महसूस नहीं करेगा, आतंकवाद का नासूर पनपता रहेगा। अपनी प्रतिनिधि सरकार चुनते समय जनता यह अपेक्षा करती है कि वे उसके हित की बात करेंगे, उसे प्रशासन, व्यवस्था, मूल अधिकार और निर्भयता और स्वतन्त्रता से जीने का वातावरण प्रदान करेंगे न कि केवल वहाँ सुरक्षा भेजेंगे जहां नेताओं कि टोली अपना प्रचार करने निकले।

महेंद्र कर्मा की हत्या आतंकवादियों द्वारा आदिवासी समुदाय के गौरव और आत्मविश्वास पर एक गहरी चोट तो है ही, एक बड़ी प्रशासनिक असफलता को भी उजागर करती है। इसके साथ ही यह जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि आप चुनने के अधिकार पर बड़ा कुठराघात है। कम से कम इस घटना के बाद सरकारें जागें और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को अपनी प्राथमिकता मानें। यदि उनके वर्तमान कर्मचारी इस कार्य में उपायुक्त या सक्षम नहीं हैं तो अनुभवी और सक्षम सलाहकारों की नियुक्ति की जाये।

माओवाद प्रभावित राज्यों को भारत में आतंकवाद के सफल मुक़ाबले के लिए प्रसिद्ध केपीएस गिल जैसे व्यक्तियों के अनुभव का पूरा लाभ उठाना चाहिए। देश में यदि उच्चस्तरीय रणनीतिकारों की कमी है तो जैसे सरकार ने पहले सैम पित्रोड़ा जैसे विशेषज्ञों को विशिष्ट कार्यों के लिए बुलाया था उसी प्रकार इस क्षेत्र में विख्यात विशेषज्ञों को आमंत्रित करके समयबद्ध कार्यक्रम चलाया जाए। कई लोग चीन जैसी तानाशाही के क्रूर तरीके अपनाने की दुहाई देते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक परंपरा में कम्युनिस्ट देशों द्वारा अपनाई गई दमनकारी और जनविरोधी नीतियों के लिए कोई स्थान नहीं है। जब छोटा सा लोकतन्त्र श्रीलंका अपने उत्तरी क्षेत्रों में दुर्दांत एलटीटीई का सफाया कर सकता है तो भारत इन माओवादियों से क्यों नहीं निबट सकता?

केंद्रीय बलों को जंगलों के बीच वर्षों से जमे माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए निपट अनजान जगहों पर भेजने से पहले स्थानीय पुलिस को जिम्मेदार, सक्षम और चपल बनाने के गंभीर प्रयास होने चाहिए। राजनेता, पुलिस, प्रशासन, और जनता के काइयाँ वर्ग की मिलीभगत से पनप रहे भ्रष्टाचार का कड़ाई से मुक़ाबला हो और (कम से कम) आपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था को सस्ता और त्वरित बनाया जाए। ऐसी समस्याओं के पूर्णनिदान में थानों और अदालतों के नैतिक पुनर्निर्माण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है।

देखा गया है कि नरसँहार की जगहों पर माओवादी अक्सर बड़ी संख्या में मौजूद होते हैं, ऊंची पहाड़ियाँ आदि सामरिक स्थलों पर होते हैं और बारूदी सुरंगों से लेकर अन्य मारक हथियारों समेत मौजूद होते हैं। यह सारी बातें स्थानीय प्रशासन की पूर्ण अनुपस्थिति दर्शाती हैं। सैकड़ों के झुंड में माओवादी दल अपने हथियारों के साथ सामरिक स्थलों पर बार-बार कैसे इकट्ठे हो सकते हैं? इतने सालों में अब तक प्रशासन ऐसे स्थल चिन्हित करके उन पर नियंत्रण भी नहीं बना सका, इनके मूवमेंट को पकड़ नहीं सका, यह समझना कठिन है। जनता तो पहले ही माओवादी आतंक से त्राहि कर रही है। उनके खात्मे के लिए आमजन थोड़ी असुविधा सहने के लिए आराम से तैयार हो जाएँगे। जिन अपराधियों के धंधे माओवाद की सरपरस्ती में हो रहे हैं, उनकी बात और है, पर उन्हें भी चिन्हित करके कानून के हवाले किया जाना चाहिए। पीड़ित जनता को सरकार की ओर से इच्छाशक्ति की अपेक्षा है।

खूनखराबे में जीने-मरने वाले आतंकियों को मरहम-पट्टी, इलाज, अस्पताल की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती होगी। नेपाली माओवादी अपने इलाज के लिए बरेली, दिल्ली आदि आया करते थे। झारखंड के माओवादी कहाँ जाते हैं इसकी जानकारी बड़े काम की साबित हो सकती है। आतंकवाद और अन्य अपराधों की रोकथाम के लिए जिस प्रकार होटलों में क्लोज्ड सर्किट कैमरे आदि से संदिग्ध गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है उसी तरह आतंकवाद प्रभावित और निकटवर्ती क्षेत्रों के अस्पतालों की मॉनिटरिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए।
नक्सलवाद के बारे में एक आम धारणा है कि ये आदिवासियों को हक दिलाने की लड़ाई है. लेकिन आजतक ने यहां आकर पाया कि नक्सलवाद का स्वरूप बदल चुका है. नक्सलवाद के नाम पर इलाके से गुजरने वाली बसों, जंगल में काम करने वाले मजदूरों और खदान मालिकों से वसूली हो रही है. इलाके में मैगनीज और तांबे का भंडार है. लेकिन, खदान मालिकों से मोटा पैसा लेकर नक्सली आदिवासी हकों से आंख मूंदे हुए हैं. यहां बेरोजगारों की समस्या बहुत है. यहां ताम्बा की मात्रा बहुत है, यहां इंडस्ट्री लग सकती है. लेकिन नक्सली उद्योगपतियों को डरा धमका कर यहां विकास नहीं होने दे रहे हैं. यही वजह है कि एक बड़ा तबका नक्सलियों को आतंकवादी मानने लगा है. ~आज तक ब्‍यूरो
संसार के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को उसके घर में घुसकर मारने से पहले अमेरिका ने उसके धंधे की कमर तोड़ी थी। 911 की आतंकी घटना के बाद से अमेरिका ने बहुत से काम किए थे जिनमें एक था आतंकियों की अर्थव्यवस्था को तबाह करना। आतंक के व्यवसाय में आने-जाने वाले हर डॉलर की लकीर का दुनिया भर में पीछा करते हुए एक-एक कर के उसके धंधेबाजों को कानून का मार्ग दिखाया था। उनके तस्करी और हवाला रैकेट आदि अवैधानिक मार्ग तो बंद किए ही गए साथ ही गरीब देशों में जनसेवा कार्य और ज़कात आदि के बहाने से अमेरिका में पैसा इकट्ठा कर रही संस्थाओं को भी पड़ताल करके बंद किया गया और आतंकियों से किसी भी प्रकार का संबंध रखने वालों को समुचित सजाएँ दी गईं।

माओवादियों का मुक़ाबला करने के लिए भी ऐसी ही इच्छाशक्ति और योजना की ज़रूरत पड़ेगी। सत्ता की कामना और उसके लिए आतंक फैलाकर दोनों हाथ से पैसा बटोरना, माओवाद के ये दो बड़े प्रेरक तत्व "अर्थ" और "काम" है। माओवाद रोकने के लिए यह दोनों ही नसें पकड़ना ज़रूरी है। प्रभावित क्षेत्रों में व्याप्त रंगदारी रोकी जाये। देश-विदेश से एनजीओ संस्थाओं द्वारा आदिवासी सेवा, धर्मप्रचार या किसी भी बहाने से आने वाली पूंजी, वाहकों और संचालकों की पूरी जांच हो और साथ ही यह पहचान हो कि माओ-आतंकवाद का पैसा किन लोगों द्वारा कहाँ निवेश हो रहा है और अंततः किसके उपयोग में लाया जा रहा है।

पूंजी किसी भी तंत्र की रक्त-संचार व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था बंद होते ही तंत्र अपने आप टूट जाते हैं। ईमानदार जांच में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आएंगे, बहुत से मुखौटे हटेंगे लेकिन देशहित में यह खुलासे होने ही चाहिए। सौ बात की एक बात कि एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर इन अपराधियों को इनकी औकात दिखाना किसी भी गंभीर सरकार के लिए कोई असंभव कार्य नहीं है। सच ये है कि देश ने आतंकवाद पहले भी खूब देखा है और मिज़ोरम, नागालैंड जैसे दुर्गम इलाकों से लेकर पंजाब जैसी सघन बस्तियों तक सभी जगह उनका सफाया किया है। और सफाया तो इस बार भी होगा ही, ढुलमुल सरकारों के रहते राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक कुशलता और आर्थिक-पारदर्शिता की कमी के कारण कुछ देर भले ही हो जाय। क्या कहते हैं आप?

*शीर्षक के लिए आचार्य रामपलट दास का आभार
संबन्धित कड़ियाँ
* नक्सलियों ने बढ़ाई उगाही की दरें
* वे आदिवासियों के हितैषी नहीं
* Human rights of Naxals
* The rise and fall of Mahendra Karma – the Bastar Tiger
* माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!
* शेर को,घेर के करी दुर्दशा, कुत्ते करते जिंदाबाद -सतीश सक्सेना

माओवाद पर एक वृत्तचित्र (चेतावनी: कुछ चित्र आपको विचलित कर सकते हैं)

52 comments:

  1. @ क्या कहते हैं आप?

    itna kuchh hai kahne ko ki kuchh bhi nahi kah paate ...

    :(

    nice post - eye opening for many - but they want to keep their eyes shut ....

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन विश्व तंबाकू निषेध दिवस - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. दयानिधिMay 31, 2013 at 1:06 AM

    बिलकुल सही आंकलन किया है आपने।

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  4. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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  5. अब पानी सर के ऊपर से बह कर बर्दाश्त की सीमा को तोड़ने लगा है..

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    1. सच कहा अपने। देर तो हो चुकी, "दुरुस्त" आयड का इंतज़ार है।

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  6. गम्भीर और वस्तुनिष्ठ समीक्षा है लाल-आतंकवाद की!! बे-लाग पड़ताल की है आपने उद्भव कारण कार्य और परिणामों की!! सटीक समाधान भी प्रस्तुत कर चिंतन को आपने विचारणीय,अनुकरणीय बना दिया है। इस विषय पर यह इमानदार और श्रेष्ठ्त्तम आलेख है। अनंत साधुवाद!!

    सरकारों और प्रशासन को इसे समाधान का माध्यम बनाना चाहिए…

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    1. सरकार कैसे सुनेगी?

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  7. पिछले पांच वर्षों में माओ-नक्सली पूंजी का वार्षिक कारोबार 14 सौ करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग चार हजार करोड़ रुपए हो गया है।

    शायद इस नक्सलवाद की जड में भी यही पूंजी कारोबार है, आपने एक सामयिक और सधा हुआ आलेख लिखा है, बहुत आभार.

    रामराम.

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    1. गंदा है पर धंधा है ... घेंसा अब साँप बन चुका है।

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  8. काफी मेहनत से लिखा लेख बधाई !
    आप का पता नहीं किन्तु मै कर्मा जी और नक्सलवाद को निजी रूप से , करीब से नहीं जानती हूँ, जितना भी जानती हूँ वो बस खबरों के माध्यम से , हा सरकारों की असंवेदंशिलता प्रशासन में भ्रष्टाचार , उद्योगपतियों के लालच और अनपढ़ गरीबो की कम समझ, हर किसी के झासे में आ जाने की बेफकुफी , और जर जमीन के लिए हर हद तक जाने के पागलपन आदि आदि को निजी रूप से जानती हूँ सो टिप्पणी उसी आधार पर है |
    १- कम्युनिज्म से गरीबो का भला नहीं होने वाला है . सहमत , वैसे लोकतंत्र में भी कौन सा भला गरीबो का हो रहा है ६० साल में कौन सी गरीबी दूर हो गई है देश की |
    २- नक्सलवाद अब विचारधारा नहीं बल्कि फिरौती , लुट आदि से पैसा कमाने और समान्तर सरकार चलाने का जरिया है , सहमत , हमने जिन्हें वोट दे कर सरकार बनाया है वो भी तो बस पैसे कमाने का ही काम कर रहे है हमारे टैक्स के पैसे खा रहे है , एक बंदा भी बता दे तो कुर्सी पर बैठ कर देश के लिए कुछ कर रहा है पैसा नहीं कमा रहा है |
    ३- हिंसा कभी भी अपनी बात मनवाने का सही तरीका नहीं है , हिंसा कमजोर निहत्थे और मजबूरो पर ही की जाती है सहमत , पर सरकारे भी तो वही करती है नक्सलियों के कितने बड़े नेता पकडे गए वो भी आदिवासियों पर ही हिंसा ज्यादा करती है नक्सलियों पर कम |
    ४- नक्सली अपने इलाको में विकास नहीं होने देते है , सहमत किन्तु ये भी देखना होगा की खुद सरकार में कितनी इच्छा शक्ति है वहा विकास करने की , क्या हम नहीं जानते है की देश में न जाने कितने ही गांव जहा नक्सली नहीं है वहा कौन सा विकास हो गया है , कुपोषण से मुंबई से कुछ किलोमीटर दूर के बच्चे भी मर रहे है , इसलिए इस बारे में सारा दोष नक्सलियों का नहीं |
    ५-सलवा जुडूम नक्सलियों को ख़त्म करने और आदिवासियों को ससक्त करने के लिए शुरू किया गया था , ऐसा बताया तो जरुर गया , किन्तु इरादा था फुट डालो और राज करो की ,आदिवासियों को आपस में लड़ा कर ये जंग जीतो नतीजा जिन आदिवासियों के हाथ में हथियार गए वो एक नई ही शक्ति बन कर उभर गए एक और तीसरी सरकार और उन लोगो ने लोकतान्त्रिक सरकार से मिले शक्तियों का वैसे ही दुरुपयोग करने लगे जैसे हमारी सरकार और नक्सली करते है , वो भी वसूली , करने से ले कर महिलाओ से बलात्कार तक करने लगे , ये अन्दोलान अपने शुरुआत से ही असफल हो गया बल्कि उलटा परिणाम देने लगा , पुलिस की मौत की तो गिनती होती थी किन्तु आदिवासी आपस में शक्ति संघर्ष में कितने मर रहे है इसकी चिंता किसी को नहीं थी , इस आन्दोलन का बंद हो जाना ही ठीक था , आम आदमी के हाथ में हथियार दे कर आप कोई जंग नहीं जित सकते है ये बहुत ही गलत रणनीति थी , यदि ये निति सही थी तो मुझे भी एक हथियार दिया जाये , फिर देखिये मै कितनी को निपटा देती हूँ |
    कल टीवी पर देखा कर्मा जी का ही सर मुड़ा रिश्तेदार कह रहा था की हा सलवा जुडूम में बाद में बहुत कुछ गलत हुआ जो नहीं होना चाहिए था |

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  9. काफी मेहनत से लिखा लेख बधाई !
    आप का पता नहीं किन्तु मै कर्मा जी और नक्सलवाद को निजी रूप से , करीब से नहीं जानती हूँ, जितना भी जानती हूँ वो बस खबरों के माध्यम से , हा सरकारों की असंवेदंशिलता प्रशासन में भ्रष्टाचार , उद्योगपतियों के लालच और अनपढ़ गरीबो की कम समझ, हर किसी के झासे में आ जाने की बेफकुफी , और जर जमीन के लिए हर हद तक जाने के पागलपन आदि आदि को निजी रूप से जानती हूँ सो टिप्पणी उसी आधार पर है |
    १- कम्युनिज्म से गरीबो का भला नहीं होने वाला है . सहमत , वैसे लोकतंत्र में भी कौन सा भला गरीबो का हो रहा है ६० साल में कौन सी गरीबी दूर हो गई है देश की |
    २- नक्सलवाद अब विचारधारा नहीं बल्कि फिरौती , लुट आदि से पैसा कमाने और समान्तर सरकार चलाने का जरिया है , सहमत , हमने जिन्हें वोट दे कर सरकार बनाया है वो भी तो बस पैसे कमाने का ही काम कर रहे है हमारे टैक्स के पैसे खा रहे है , एक बंदा भी बता दे तो कुर्सी पर बैठ कर देश के लिए कुछ कर रहा है पैसा नहीं कमा रहा है |
    ३- हिंसा कभी भी अपनी बात मनवाने का सही तरीका नहीं है , हिंसा कमजोर निहत्थे और मजबूरो पर ही की जाती है सहमत , पर सरकारे भी तो वही करती है नक्सलियों के कितने बड़े नेता पकडे गए वो भी आदिवासियों पर ही हिंसा ज्यादा करती है नक्सलियों पर कम |
    ४- नक्सली अपने इलाको में विकास नहीं होने देते है , सहमत किन्तु ये भी देखना होगा की खुद सरकार में कितनी इच्छा शक्ति है वहा विकास करने की , क्या हम नहीं जानते है की देश में न जाने कितने ही गांव जहा नक्सली नहीं है वहा कौन सा विकास हो गया है , कुपोषण से मुंबई से कुछ किलोमीटर दूर के बच्चे भी मर रहे है , इसलिए इस बारे में सारा दोष नक्सलियों का नहीं |
    ५-सलवा जुडूम नक्सलियों को ख़त्म करने और आदिवासियों को ससक्त करने के लिए शुरू किया गया था , ऐसा बताया तो जरुर गया , किन्तु इरादा था फुट डालो और राज करो की ,आदिवासियों को आपस में लड़ा कर ये जंग जीतो नतीजा जिन आदिवासियों के हाथ में हथियार गए वो एक नई ही शक्ति बन कर उभर गए एक और तीसरी सरकार और उन लोगो ने लोकतान्त्रिक सरकार से मिले शक्तियों का वैसे ही दुरुपयोग करने लगे जैसे हमारी सरकार और नक्सली करते है , वो भी वसूली , करने से ले कर महिलाओ से बलात्कार तक करने लगे , ये अन्दोलान अपने शुरुआत से ही असफल हो गया बल्कि उलटा परिणाम देने लगा , पुलिस की मौत की तो गिनती होती थी किन्तु आदिवासी आपस में शक्ति संघर्ष में कितने मर रहे है इसकी चिंता किसी को नहीं थी , इस आन्दोलन का बंद हो जाना ही ठीक था , आम आदमी के हाथ में हथियार दे कर आप कोई जंग नहीं जित सकते है ये बहुत ही गलत रणनीति थी , यदि ये निति सही थी तो मुझे भी एक हथियार दिया जाये , फिर देखिये मै कितनी को निपटा देती हूँ |
    कल टीवी पर देखा कर्मा जी का ही सर मुड़ा रिश्तेदार कह रहा था की हा सलवा जुडूम में बाद में बहुत कुछ गलत हुआ जो नहीं होना चाहिए था |

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    1. @मेहनत
      - जी नहीं, आलेख में बिलकुल साफ दिखने वाली बातें सहजता से कही गई हैं, मेरे अन्य आलखों जितनी मेहनत की ज़रूरत नहीं पड़ी। हाँ, आपकी टिप्पणी सचमुच मेहनत से की गई लगती है, उसके लिए बधाई, धन्यवाद और आभार!

      @ १- कम्यूनिज़्म, लोकतन्त्र, ६० साल में गरीबी
      - सत्य को आप डिनाई नहीं कर सकतीं। लोकतन्त्र के 6 दशकों में न केवल अधिक प्रतिशत का जीवन स्तर सुधारा है, स्वास्थ्य, परिवहन एवं अन्य सभी सुविधाएं बेहतर हुई हैं। कुपोषण, बालमृत्यु, लाइफ-एक्सपेक्टेनसी, महामारियाँ, शिक्षा, सिंचाई, बिजली आदि हर क्षेत्र में टरकी हुई है। हम आज भी वहाँ भले न हों जहां होना चाहिए था उसके लिए लेकिन चीन,पाकिस्तान से युद्ध के साथ-साथ माओवाद, जिहाद आदि जैसे आंतरिक विध्वंसों का भी बड़ा हाथ है। पड़ोसी चीन में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा थोपे गए मानव-निर्मित अकाल में छह करोड़ से अधिक लोग भूखे मार दिये गए थे। इतना ही नहीं, वहाँ आज भी इस अकाल का ज़िक्र करना अक्षम्य अपराध है। यह लोकतन्त्र ही है जहां लोग देशद्रोहियों की तारीफ में भी कसीदे पढ़ सकते हैं और इस खूबी के बावजूद भी लोकतन्त्र की ही बुराई कराते हैं, कैसी सोच है यह?

      @ २ व ३- नक्सलवाद, विचारधारा, फिरौती, सरकार, टैक्स, आदिवासियों हिंसा ...
      - सचमुच माओवाद/नक्सलवाद फिरौती, लूट, बलात्कार, हत्या और आतंक का ही दूसरा नाम है। यह भी सच है कि सरकार में लाख कमियाँ हैं, वे न होतीं तो इस लेख की ज़रूरत ही नहीं थी। लेकिन माओवादी दानवता की कोई भी तुलना लोकतान्त्रिक सरकार से करना सफ़ेद झूठ से कम नहीं है। माओवादियों की तरह सरकार बच्चों को स्कूल से खींच-खींच कर हथियार थामकर अपनी सेना या पुलिस में भर्ती नहीं करती है न ही मुकाबलों के समय उन्हें दीवार बनाकर नृशंसता से इस्तेमाल करती है, माओवादी ऐसा अक्सर करते हैं और खुद भाग जाते हैं, काश आप कभी इस मुखरता से उनके इस दानवी व्यवहार के बारे में लिख पातीं। लोकतन्त्र है, संपत्ति है तो टैक्स भी होगा, शिकायत कैसी। एक बार कम्यूनिज़्म में रहकर देखिये, व्यक्तिगत संपत्ति के साथ व्यक्तिगत अभिव्यक्ति (ब्लॉग और टिप्पणी भी) का असफल प्रयास भी लेबर कैंप भेजकर देशसेवा करवा देगा।

      @ ४- नक्सली, विकास, कुपोषण, मुंबई ...
      - सरकार को बहुत कुछ करना है। लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता के साथ रह रही संसार की सबसे बड़ी जनसंख्या को संभालना खानदानी दुकान चलाने के मुक़ाबले थोड़ा जटिल होता है। आप नक्सलियों की हत्याओं की तुलना इस कुपोषण से कर रही हैं तो इतना भी ध्यान दीजिये कि यह नक्सली उन कुपोषित बच्चों के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं बल्कि जहां खुद प्रभाव में हैं वहाँ भी सड़कें और स्कूल तोड़कर कुपोषित बच्चों का मानसिक, शारीरिक शोषण ही कर रहे हैं। माओ-नक्सल-आतंकवाद की इस बुराई का कोई भी जस्टीफ़िकेशन सही नहीं है।

      @५ - सलवा जूडूम ... मुझे भी एक हथियार दिया जाये , फिर देखिये मै कितनी को निपटा देती हूँ |
      - सलवा जूडूम परफेक्ट नहीं था यह मैंने लेख में कहा ही है, लेकिन देशवासियों को आत्मरक्षा का पूर्ण अधिकार है। आप उत्तर कोरिया में नहीं रहतीं। लोकतन्त्र में आप को हथियार रखने का पूरा प्रिविलेज है। मैं क्या, सरकार और माओ-नक्सल-आतंकवादी भी आपको नहीं रोक सकते। उठाइए एक हथियार और निबटा दीजिये कुपोषण की वह समस्या जिसे आपने लोकतन्त्र की कमी के एक उदाहरण के रूप में अभी पेश किया है।

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    2. टाइपो सुधार: टरकी हुई है = तरक्की हुई है।

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    3. टाइपो सुधार: छह करोड़ = तीन करोड़

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  10. ६- कम्युनिजम पूंजीवाद में बदल चुका है , सहमत लोकतन्त्र हमेसा से ही पूंजीवादी रहा है ये सच नहीं झुठलाया जा सकता है |
    ७- नक्सली निरंकुश जैसा व्यवहार करते है , सहमत , एक बार वोट देने के बाद लोकतंत्र में भी सरकारे निरंकुश जैसा ही व्यवहार करती है |
    ८-आप और हम जंगल आदिवासियों की जमीन नहीं खरीद सकते है किन्तु सरकारे जंगल क्या हमारे घर जमीन को भी जब चाहे ले कर खनन के लिए परमाणु पावर प्रोजेक्ट , सेज आदि आदि के लिए उद्योगपतियों को दे सकती है और हम उनका कुछ भी नहीं कर सकते है , कुछ किसान अदालत गए तो उनकी जमीन बची या कुछ जीने लायक मुआवजा मिला , आदिवासी किसके पास जाये , वो मात्र जंगल जमीन नहीं है वो उनकी संभ्यता संस्कृति , परम्परा सभी का विनाश है , ये बात कम से कम उन लोगो को जरुर समझनी चाहिए जो बात बात में भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करते है और बाहरी संस्कृतियों को कोसते है , मुझे इस मामले में "अवतार" फिल्म बहुत ही सही लगी थी |
    @ माओवाद प्रभावित राज्यों को भारत में आतंकवाद के सफल मुक़ाबले के लिए प्रसिद्ध केपीएस गिल जैसे व्यक्तियों के अनुभव का पूरा लाभ उठाना चाहिए।
    वो पहले से ही वहा के सलाहकार है , जिस देश में कोस कोस में पानी बदल जाता है आप को लगता है की वहा समस्याए और उनका समाधान एक जैसा होगा , जी नहीं , कहा जाता है कि जहा काम सुई का है वहा तलवार कुछ नहीं कर सकती है , आप को पता होगा की तलवार और सुई विपरीत काम करते है |
    @ देश में यदि उच्चस्तरीय रणनीतिकारों की कमी है तो जैसे सरकार ने पहले सैम पित्रोड़ा जैसे विशेषज्ञों को विशिष्ट कार्यों के लिए बुलाया था उसी प्रकार इस क्षेत्र में विख्यात विशेषज्ञों को आमंत्रित करके समयबद्ध कार्यक्रम चलाया जाए।
    शानदार ५ स्टार होटलों के कमरों में बैठ कर जब आदिवासियों के लिए कार्यक्रम बनेगे तो उनका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है |
    @श्रीलंका अपने उत्तरी क्षेत्रों में एलटीटीई का सफाया कर सकता है तो भारत इन माओवादियों से क्यों नहीं निबट सकता?
    हा बिलकुल करना चाहिए हा जंगलो में टैंक घुस देना चाहिए नहीं तो विमानों से बम गिरा कर पुरे जंगल को ही उड़ा देना चाहिए , लेकिन ऐसा करने से पहले सरकारों को उन बड़ी बड़ी कम्पनितो उद्योगपतियों से इजाजत लेनी होगी जो वहा खनन का काम कर रहे है , या कोई पवार प्रोजेक्ट लगा रहे है ( इसे सिर्फ छत्तीसगढ तक सिमित मत कीजिये उड़ीसा , महाराष्ट्र , बंगाल, बिहार , मध्यप्रदेश सभी को लीजिये ) और हर दल को मोटी रकम चंदे के रूप में दे रहे है , ये नहीं हो रहा है इसलिए नहीं की गरीबो की चिंता है इसलिए की फिर जगह खनन के लायक पैसा कमाने के लायक होगा की नहीं |
    और भी बाते है फिर से आती हूँ |
    इस टिप्पणी के बाद आप खुद तय कर ले की मै नक्सलियों से लाभार्थी हूँ , स्वार्थी हूँ या भयभीत हूँ , बस मुझे बता दीजिएगा ताकि अपने बारे में तो मुझे पता रहे :)

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    1. हे भगवान...... बहस तो बहरहाल अपनी जगह, हम तो यही कहेंगे कि Rs. 5100/- वाली तीन सारवान टिप्पणियां अंशुमाला जी ने की हैं जो कि इस विषय और बहस को विशेष गरिमा प्रदान कर रोचक बना रही हैं.

      ताऊ अदालत फ़र्मान जारी करती है कि अनुराग जी आप इन्हें Rs.15,300/- का बैक ट्रांसफ़र तुरंत भिजवायें.:)

      रामराम.

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    2. @ ६- कम्युनिजम, पूंजीवाद, लोकतन्त्र, झुठलाना
      - अपने सही कहा कि कम्युनिजम पूंजीवाद में बदल चुका है। लेकिन लोकतन्त्र को केवल पूंजीवाद कहना इतना बड़ा झूठ है कि उसे केवल अज्ञान कहकर इगनोर नहीं किया जा सकता। लोकतन्त्र जनता का शासन है। उसमें पूंजी भी होगी, श्रम भी होगा, और व्यक्तिगत संपत्ति और अभिव्यक्ति के साथ हर प्रकार की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता बह होगी। कम्युनिस्ट देशों में लोकतन्त्र की बात करने का मतलब है मौत लेकिन लोकतन्त्र में कम्यूनिज़्म के झंडेबरदार आराम से रहते भी हैं बल्कि साम्यवाद एक मूलसिद्धांतों के विरुद्ध जाकर चुनाव भी लड़ते हैं। जहां साम्यवाद एक संकीर्ण, हिंसक, भेदभावपरक, नियंत्रणात्मक और असहिष्णु विचार है, लोकतन्त्र लगातार सुधार की प्रक्रिया है। साम्यवाद एक तालाब है तो लोकतन्त्र एक सागर है जो स्वतन्त्रता और विविधता का पूर्ण आदर करता है।

      @ ७- नक्सली, निरंकुश, सरकार
      - नक्सली-माओवादी-कम्यूनिज़्म-तानाशाही विचारधारा में जनता को कुचलना स्वीकार्य है, लोकतन्त्र में नहीं। सच है कि सीमित रूप से ऐसी कोशिशें हुई हैं, लेकिन जनता ने उन्हें उठा पताका है क्योंकि लोकतन्त्र जनता को इसकी गारंटी देता है, माओ-नक्सल-आतंकवाद कभी नहीं।

      @ ८-आप, हम, जंगल, आदिवासियों की जमीन, सरकार ...
      - लोकतन्त्र में आपको नियम बदलने का अधिकार है, पूछिए अपने जन प्रतिनिधियों से और बदलवाइए नियम। लोकतन्त्र का एक विकल्प है, बेहतर लोकतन्त्र - माओ-नक्सल-कम्युनिस्ट-तानाशाही और बारूद के दमन की ओर वापस जाने से क्या अधिग्रहण का कारी बंद हो जाएगा? लोकतन्त्र में व्यक्तिगत संपत्ति आपका अधिकार है, साम्यवाद में उसकी कोई जगह नहीं है। सबसे पहले आपने लिखा है कि आप अपने निजी अनुभव से लिख रही हैं। अगर आपकी ज़मीन पर सरकार ने नाजायज कब्जा किया है और समुचित मुआवजा नहीं दिया है और आप स्वहित को देशहित से ऊपर रखकर यह ज़मीन नहीं छोडना चाहती हैं तो याद रखिए इसी देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां जनता ने अपनी मांगें मनवाई हैं: बिशनोई, चिपको आंदोलन से लेकर हाल का मध्यप्रदेश के ग्राम का उदाहरण। लोकतन्त्र में सब कुछ संभव है, कम्यूनिज़्म में दमन और माओवाद में केवल मौत।

      @ केपीएस गिल, समाधान एक जैसा, तलवार और सुई ...
      - बात विशेषज्ञों की सहायता की थी और गिल का नाम उदाहरणार्थ था। यदि आपको लगता है कि कोई अन्य व्यक्ति इस कार्य में अधिक निपुण सिद्ध होगा तो आप उनका नाम प्रस्तावित कर सकती हैं, मेरे दिमाग में ऐसा कोई दूसरा नाम नहीं आया। जहां तक समस्या की विविधता की बात है, पंजाब में गिल के हाथ में कोई जादू का चिराग नहीं बल्कि उनका सन 1956 से 1984 के २८ साल तक पूर्वोत्तर राज्यों के घने जंगलों में विद्रोही गुटों के मुक़ाबले का अनुभव काम में आया था। पंजाब के मुक़ाबले छत्तीसगढ़ की परिस्थिति उन पूर्वोत्तर राज्यों से अधिक मिलती है। वैसे भी समस्या के इतना लंबा चलाने में कमी सुरक्षा बलों की कम और राजनीतिक इच्छाशक्ति की अधिक है इसीलिए मेरा सुझाव था कि गिल जैसे विशेषज्ञों की बात सुनी जाये, उनके सुझाव माने जाएँ और सुरक्षा बलों को मरने के लिए झोंकने के बजाय सहयोग दिया जाय। सुई और तलवार की मेरे जानकारी के बारे में आपका अंदाज़ सही है। सुई के बारे में जानता हूँ, तलवार बहुत अच्छी तरह चला लेता हूँ, छोटी सी ज़िंदगी में और भी बहुत कुछ सीखा और किया है।

      @ उच्चस्तरीय रणनीतिकारों, सैम पित्रोड़ा, ५ स्टार
      - मेरा सुझाव विशेषज्ञों की सहायता लेने का था। ५ स्टार का आपका सुझाव मुझे नामंज़ूर है। वैसे सरकार के वर्तमान नीति-नियंता ही नहीं, माओ-नक्सल-आतंकवाद के करोड़ों के धंधे के मालिक लोग भी ५-स्टार से कम की सुविधाओं में नहीं बैठते होंगे।

      @ जंगलो में टैंक ...
      - फिर वही बात, भारत कम्युनिस्ट, लेनिनवादी, माओवादी देश नहीं है, इसलिए आपके अतिवादी सुझाव यहाँ नहीं चलाने वाले। लेकिन यह तय है कि माओवाद की हिंसा को मिटाना ज़रूरी है, भले ही उसका सही हल आपके और मेरे दिमाग से आगे की बात हो।

      @ और भी बाते है फिर से आती हूँ |
      - स्वागत है। याद रहे कि जो जनता एक बार लोकतन्त्र की स्वतन्त्रता का स्वाद चख चुकी है वह अतिवादी कम्युनिस्ट (या सैनिक, धार्मिक कोई भी तानाशाही ) नियंत्रण की सज़ा कभी मंजूर नहीं करेगी। संस्कृति के विकास का मार्ग आगे की ओर चलता है, पीछे की ओर नहीं ...

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    3. @ ताऊ रामपुरिया
      - यो कोण सी फिरोती सै?

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    4. अफसोस है की मै अपनी बात आप को ठीक से समझा नहीं सकी , मै भी नक्सलियों की उतनी ही विरोधी हूँ जितने की आप है, मै उनका किसी भी मुद्दे पर समर्थन नहीं करती हूँ , मैंने आप की ऐसी सभी बातो का सहमत कह कर समर्थन ही किया है ।
      १- मैंने भारत में आज के लोकतंत्र पर सवाल उठाया है न की उसकी साम्यवाद से तुलना की है २-आज भारत में जो लोकतंत्र है वो पूरी तरह से पूंजीवाद ही है , सब के सब पूंजी का ही खेल है सरकारे बनती भी है पैसे के बल पर और काम भी पूंजीपतियों के लिए करती है ।
      ३- गरीबो के लिए योजनाए गरीबी दूर करने के लिए नहीं उस बहाने सरकारी खजाने से पैसे निकालने के लिए किया जता है ।
      ४- नक्सली बच्चो को युद्ध में खीच रहे थे वो गलत है किन्तु सलवा जुडूम में सरकार भी यही काम कर रही थी आम लोगो को हथियार दे कर उन्हें युद्ध में खीच रही थी ।
      ५- दोनों की तुलना हो ही नहीं सकती है क्योकि सरकारों को तो और जिम्मेदार होना था जो वो नहीं बना रही है ।
      ६- चाहे देश के किसी भी क्षेत्र में अलगाव की समस्या हो उसका करना आप को ये लोकतान्त्रिक सरकारे ही है , जो अपने निजी स्वार्थो के लिए कभी इन अलगाव वादियों को बढ़ावा देती है तो कभी इनके खिलाफ काम करती है , अब तो खबरे भी आ रही है की खुद कांग्रस के लोग ही मिले हुए थे नक्सलियों से , हर जगह ये लोकतान्त्रिक सरकारे ऐसे अलगावादियों , और विद्रोहियों का प्रयोग खुद को जिताने के लिए समय समय पर करती है ।
      ७- जहा तक विकास की बात है तो मेरा कहना था की सरकार में इच्छा शक्ति नहीं है विकास करने की यदि उसमे होती तो नक्सली कोई बड़ी समस्या नहीं थे जिनसे निपटा न जा सके , सरकार अपने कमजोरी को नक्सली समस्या के निचे दबाने का प्रयास कर रही है , इसलिए लिए मैंने कहा की जहा नक्सली समस्या नहीं है सरकारे वहा विकास क्यों नहीं कर लेती है ।
      ८- हथियार मुझे देने की बात का ये अर्थ था की हथियार से किसी समस्या का हल नहीं होने वाला है जैसा आप ने कहा ही हथियार से कुपोषण नहीं ख़त्म होगा , हथियार के बल पर आप किसी विद्रोह या लगावावाद भी नहीं दबा सकते है , यदि ये हो सकता तो हम आज आजाद नहीं होते । \
      ९- लोकतंत्र का अर्थ बस ये नहीं है की हमें बोलने का अधिकार मिल गया है इसका अर्थ तो ये होना चाहिए की जब हम मिल कर बोलते है तो सुनने वालो को उसे सुनना भी चाहिए और उस पर काम भी होना चाहिए , किन्तु हमरे देश में ये नहीं हो रहा है आज से ही नहीं बल्कि हमेसा से आम लोगो की सुनी ही नहीं गई , आज का हॉल तो आप देख ही रहे है इतने बड़े आन्दोलन के बाद की लोकपाल बिल का क्या हुआ , चाहे ये नक्सली समस्या हो या कोई और पहले दिन ही कोई हथियार नहीं उठाता है पहले बोला ही जाता है जब सुनाने वाले बहरे हो जाते है तो उसके बाद हथियार उठाया जता है या , कुछ अपने स्वार्थो के लिए लोगो की हथियार उठाने के लिए उकसा देते है । ऐसे बोलने के अधिकार से कितना फायदा होगा जहा सुनाने के लिए कोई तैयार ही नहीं है ।
      १० -@लोकतन्त्र का एक विकल्प है, बेहतर लोकतन्त्र -
      यही मई भी कहा रही हूँ की आज देश में जो लोकतंत्र है वो किसी भी काम का नहीं है अब बदलाव की जरुरत है ।
      ११ - ५ सितारा और टैंक वाली बात मैंने व्यग्य की है , की लोग जंगल में गरीबी में रह रहे लोगो के लिए योजनाए ५ सिअर में बैठ कर बनाते है उस संस्कृति और समाज में रहने वाले क्या जमीं के लोगो की समस्याओ को समझ सकते है , और जंगल में टैंक , क्या हमें अपने ही लोगो को मार देना चाहिए क्या ये सही होगा , जैसा की आप उदाहर्ण दे रहे है श्रीलंका का ।

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  11. हिंसा को जो लोग महिमामंडित कर रहे हैं वे भयंकर भूल कर रहे हैं!

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  12. @लोकतन्त्र का एक ही विकल्प है - बेहतर लोकतन्त्र


    क्या आपको लगता है कि ये 'बेहतर' कहीं मिलेगा.

    @ माओ-नक्सली पूंजी का वार्षिक कारोबार 14 सौ करोड़ रुपए से बढ़कर लगभग चार हजार करोड़ रुपए हो गया है।
    सरकार के पास भी ये आंकड़े होंगे.

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    1. - जी, यह बेहतर यहीं है, आगे भी मिलेगा। तमसो मा ज्योतिर्गमय। आरटीआई, वोट में उम्मीदवार रिजेक्ट करने का अधिकार, तिरंगा फहराने का अधिकार, ये सब परिवर्तन और क्या हैं? सूची बनाकर और अपने क्षेत्र के दलों और जनप्रतिनिधियों के साथ मिल बैठकर चिंतन करना होगा।

      - जी, ज़रूर हैं - तभी तो कहा कि नेताओं को इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने गिल से कहा था कि वे अपनी तंख्वाह लेकर आराम करें। नेता लोग विकास के नाम पर और पैसे लेने की बात कर रहे हैं जबकि सर्वज्ञात है कि इस विकास फंड से निर्माण कम और वसूली ज़्यादा होती है। सही हल के लिए पैसा कम और मुक़ाबले की रणनीति पर अधिक ज़ोर देना होगा।

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  13. कुछ (कु/वि/सु)तर्को पर इतना कहूँगा कि .... "ये ही कौन सा ठीक है" जैसे तर्क हो तो बेहतर विकल्प चुनना चाहिए न कि और बुरे ! और जो ठीक नहीं उसे सुधारने की कोशिश करनी चहिये.

    माओवाद और नक्सल - राक्षसी और दानवी प्रवृति है उनका विनाश होना ही चहिये।

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  14. साफ़ सुथरा निर्विकार विश्लेषण गहन चिंतन को प्रेरित करती

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  15. अनुराग जी, आपने इस विषय पर गहरी समीक्षा की है और इसे पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति जो मानवता के हित में सोचता है नक्सलवाद के साथ नहीं खड़ा होगा लेकिन दुख की बात है कि क्रूरता के इस भीषण क्षण में भी कुछ लोगों को केवल नक्सलवाद का मानवीय चेहरा नजर आता है। बस्तर के युवा जिनके लिए उज्जवल भविष्य इंतजार कर रहा है उन्हें आतंक के रास्ते में ढकेलने वाले इन लोगों से जिन लोग सहानुभूति रखते हैं दरअसल बहुत बुरे लोग हैं वे घमंडी भी हैं और सचमुच भारतीय परिवेश से पृथक हिंसक लोग हैं। हमारी या आपकी आपत्ति से इन्हें फर्क नहीं पड़ता हाँ जब एक समवेत आवाज उठेगी तो यह जरूर पाला बदल देंगे।

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    1. सौरभ जी, आप सही कह रहे हैं। आतंकवादी अपना धंधा तभी छोड़ेंगे जब यह या तो उनके लिए खतरनाक हो जाये या घाटे का सौदा हो जाय। और यह दोनों ही हो सकते हैं, राजनीतिज्ञों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए। जाँनिसार जवानों की कोई कमी नहीं है इस देश में, लेकिन एक भी जीवन व्यर्थ नहीं जाना चाहिए।

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  16. बहुत गूढ़ विश्‍लेषण किया है आपने सर ...पर इनका विनाश होना ही चहिये।

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  17. गहन संवेदना और अन्तर्दृष्टि से निष्पक्ष विश्लेषण।

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  18. इस समस्या के बारे में जितना पढ़ता हूँ उलझता ही जाता हूँ। बस इतना जानता हूँ कि किसी भी सभ्य समाज में लोकतंत्र से श्रेष्ठ कोई भी दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। शेष कभी फुर्सत में...

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    1. लोकतन्त्र सागर है जिसमें साम्यवाद जैसे करोड़ों तालाबों की कीचड़ को नकारकर केवल अच्छाइयों को आत्मसात करने की क्षमता है।

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  19. क्रूर और कुटिल मानसिकता भरी स्वछंद हिंसा, और राज्य की व्यवस्थापरक हिंसा की कोई तुलना नहीं है। लोकतंत्र की व्यवस्था में कितने भी विकार आए, हिंसक समाधान वाली व्यवस्था से लाख गुना श्रेष्ठ विकल्प है।

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    1. जी सहमत हूँ। साम्यवाद में यदि दो-चार खूबियाँ हों भी तो लोकतन्त्र को उन्हें अपनाने में कोई परहेज नहीं है। बल्कि साम्यवाद की अधिकांश प्रचारित खूबियाँ लोकतन्त्र में पहले से ही हैं। व्यक्तिगत संपत्ति स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत श्रद्धा आदि के दमन आदि जैसी जिन कमियों को साम्यवादी जतन से छिपाते फिरते हैं, लोकतन्त्र उनसे पूर्णतया मुक्त है।

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  20. कुछ दिन पहले ही आदरणीय दलाई लामा की आत्मकथा पढ़ी थी। तिब्बतियों की अध्यात्म और शांति की शानदार विरासत के बावजूद एक पूरे देश और जाति को माओ की नीतियों का शिकार होना पड़ा। अत्याचार, शोषण और खबरों के सेंसर करने की विस्तारवादी चीनी नीति का खुला वर्णन उस आत्मकथा में है। इस सबके बावजूद दलाई लामा ने अतिशय सदाशयता का सहारा लेते हुये हर तरह से चीन को सहयोग देने का प्रात्न किया, उद्देश्य यही था कि आक्रांताओं का हदय परिवर्तन हो सके और निर्वासित तिब्बती संप्रभुता का सहारा लेकर अपने देश लौट सकें लेकिन ऐसा नहीं हो सका। समय से कड़े कदम न उठाये गये तो अपने देश में भी ऐसा ही होना है।
    ताजा हमला हर तरह से निंदनीय है, उतना ही निंदनीय जितने अन्य नरसंहार रहे हैं। सिर्फ़ किसी जन प्रतिनिधि की हत्या होने को ही गंभीरता से लेने की बजाय एक भी आम निर्दोष नागरिक के साथ अत्याचार होने को ’war with state' माना जाना चाहिये। शोषण करने वाले पर भी सख्त कार्यवाही होनी चाहिये और ऐसी नृशंसता करने वालों पर भी।

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    1. बिलकुल सही। कोंग्रेसी दस्ते की सुरक्षा की चूक के आरोप में पुलिस निलंबन की बात पर मैंने भी यही लिखा है कि सुरक्षा हर नागरिक का अधिकार है। और सच यह है कि केंद्रीय बालों की नियुक्ति से लेकर सलवा जुड़ूम तक सभी कदमों का उद्देश्य वही रहा है। देश को माओवाद या किसी अन्य किस्म के आतंकवाद के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

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  21. ’बाई द वे’ ये लिंक भी देखिये -
    http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/45665-2013-05-28-08-28-32

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    1. अगर भारत में कानून व्यवस्था की अनुपस्थिति ऐसी ही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब हर अपराध करने के बाद हत्यारे, बलात्कारी, चोर, डाकू, अंडरवर्ड, सभी के द्वारा आत्मप्रशंसा की प्रेस विज्ञप्ति छोड़ना कानूनन ज़रूरी हो जाय।

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  22. यह विश्लेषण जो स्थिति सामने रख रहा है उसकी परिणति बड़ी भयावह है .जिन्हें उत्तरदायित्व सौंपा गया है उन्हें समझना होगा कि उनकी विवेकहीनता का कितना भारी मूल्य चुकाना पड़ सकता है.
    काश कि जनता जाग्रत हो जाए !

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    1. प्रतिभा जी, हम लोग ज़्यादा कुछ न भी कर सकें तो दानवी प्रचार के फैलाव को तो रोक ही सकते हैं।

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  23. समस्या का विस्तृत विश्लेषण ... और एक मात्र रास्ता लोकतंत्र .... पर स्वास्थ लोकतंत्र न की जैसा अपने देश में है ... हर कोई अपना कार्ड खेलना चाहता है ... मूल समस्या को जिन्दा रखना जिससे की स्वार्थ पूरा हो सके ...

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  24. किसी की हिंसा दूसरे की समस्या हो सकती है, बहुत हल्के से लिया जा रहा है इस संवेदनशील विषय को।

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  25. देखती हूँ कि अब भी आँखों पर पट्टियां हैं।
    लोकतांत्रिक सरकार में अनेकों खामियां हो सकती हैं। लेकिन सुधार की बदलाव की गुंजाईश होतीहै। दुर्भाग्य से (?) हम लोकतंत्र को ही गलत साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। जिस सिस्टम को बुरा कहा जा रहा है वही बुरा कह पाने का अधिकार दे रहा है। इन लोगों को कम्युनिज्म का एक एक्ष्पिरिएन्स अवश्य होना चाहिए था।

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    1. जी, कई लोगों की हालत वही है:
      घर का जोगी जोगड़ा, ठग बाहर का सिद्ध

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  26. ''नक्सल हमले में बचे डॉक्टर संदीप दवे ने बताया...'' संभवतः डॉक्टर संदीप दवे ने घायलों का इलाज किया न कि वे मौके पर थे.

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    1. राहुल जी,

      आपका आश्चर्य स्वाभाविक है लेकिन जैसा कि लेख मे उल्लिखित है, अपने फायदे के लिए माओवादी अभी डॉक्टरों की हत्या करने से बच रहे हैं।

      डॉ. संदीप दवे मौके पर थे, घायल हुए थे, गोली और गाली दोनों खाये थे, और डॉ होने के कारण आतंकवादियों द्वारा जीवित छोड़ दिये गए थे। यह समाचार वीडियो देखिये:
      http://khabar.ibnlive.in.com/news/99964/1

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  27. आज़ादी के बाद कलम की एक नोंच से तय कर दिया गया कि सारी अनरजिस्टर्ड ज़मीन सरकार की मिल्कियत है. यानी हज़ारों सालों से रहने वाले आदिवासी कानुनी तौर पर बेघर हो गए. अभी जो हो रहा है उसको समर्थन नहीं है, मगर हिंसा की ज़मीन तो वहीं बनी.

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  28. सटीक और लाजवाब विश्‍लेषण ।

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