पिछली बार एक संजीदा कविता ब्लॉग पर रखी तो मित्रों ने ऐसी चकल्लस की कि कविता की गंभीरता किसी चुटकुले में बदल गयी। मगर एक बात तो साफ़ हुई - वह यह कि मेरे मित्रों का दिल बहुत बड़ा है और वे हमेशा हौसला-अफजाई करने को तय्यार रहते हैं। उन्हीं मित्रों के सम्मान में एक रचना और - नई भी है और आशा से भरी भी, ताकि आपको कोई शिकायत न रहे।
जिधर देखूँ फिजाँ में रंग मुझको दिखता तेरा है
अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।
हैं गहरी झील सी आँखें कहीं मैं डूब न जाऊं
तेरी चितवन है या डाला मदन ने अपना डेरा है।
लगे हैं हर तरफ़ दर्पण न जाने कितने रूपों में
जिधर देखूँ फिजाँ में रंग मुझको दिखता तेरा है
अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।
हैं गहरी झील सी आँखें कहीं मैं डूब न जाऊं
तेरी चितवन है या डाला मदन ने अपना डेरा है।
लगे हैं हर तरफ़ दर्पण न जाने कितने रूपों में
तू ही तू है किसी में भी न दिखता मुखड़ा मेरा है।