सर्वेषाम् देवानाम् आत्मा यद् यज्ञः (शतपथ ब्राह्मण)
सब देवों की आत्मा यज्ञ (मिलकर कार्य करना) में बसती है
हम यह भी देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी, शक्तिशाली, सहनशील, और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। देव उत्साह से भरे हैं, उनके चरण धरती नहीं छूते। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि सुर, असुर दोनों शक्तिशाली हैं, परंतु असुरत्व में अधिकार है, जबकि देवत्व में दान है। असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। यह भी स्पष्ट है कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। उनके अतिरिक्त मित्र, अग्नि, अर्यमन, पूषा, पर्जन्य आदि देव भी असुर हैं। अर्थ यह कि पूर्वकाल के देव भी असुर ही हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। पहले के देव असुर इसलिये हैं कि उस समय तक वे सुर व्यवस्था को फलीभूत नहीं कर सके हैं। सुर सभ्यता की पूर्ववर्ती असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन उसे सुसंस्कृत होना शेष है। वह अभी भी कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में आधिपत्य है, एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। अपनी विचारधारा से इतर मान्यताओं को बलपूर्वक नष्ट करना वे अपना अधिकार समझते हैं। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।
आस्था की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरिक्त सुर-व्यवस्था में असुरों की तुलना में एक और बड़ा अन्तर आया है। जहाँ असुर व्यवस्था एकाधिकारवादी है, एक राजा और हद से हद उसके एकाध भाई-बंधु सेनापति के अलावा अन्य सभी एक-समान स्तर में रहकर शासन के सेवकमात्र रहने को अभिशप्त हैं, वहीं सुर व्यवस्था संघीय है। हर विभाग के लिये एक सक्षम देवता उपस्थित है। जल, वायु, बुद्धि, कला, धन, स्वास्थ्य, रक्षा, आदि, सभी के अपने-अपने विभाग हैं और अपने-अपने देवता। सभी के बीच समन्वय, सहयोग, और सम्वाद का दायित्व इंद्र का है। महत्वपूर्ण होते हुये भी वे सबसे ख्यात नहीं हैं, न ही अन्य देवताओं के नियंत्रक ही।
इतना ही नहीं देवताओं के संघ के अध्यक्ष का पद हस्तांतरण योग्य है। इंद्र के पद को कोई भी चुनौती दे सकता है, और अपनी पात्रता का प्रस्ताव रख सकता है। इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके होने पर पौराणिक भाषा में, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।
एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। लेकिन इसके साथ ही दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।
असुरराज के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। समुद्र मंथन के समय असुर-राज शक्तिशाली था। जबकि सुर एक नयी व्यवस्था स्थापित कर रहे थे। लम्बे समय से स्थापित राजसी असुर शक्ति इस नई प्रबंधन व्यवस्था को जन्मते ही मिटाने को आतुर थी। समुद्र-मंथन युद्ध के बाद मिल-बैठकर चिंतन, मनन, और सहयोग से भविष्य चुनने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी। विचारवान मनुष्य को किसी विचारधारा का रोबोट नहीं बनाया जा सकता। पाश बनाम अभय! तानाशाही कितनी भी शक्तिशाली हो जाये, मानवता कभी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छोड़ेगी।
[क्रमशः]
सब देवों की आत्मा यज्ञ (मिलकर कार्य करना) में बसती है
पिछली कड़ियों में हमने सुर, असुर, देव, दैत्य, दानव, भूत, पिशाच, राक्षस आदि शब्दों पर दृष्टिपात किया है।
हम यह भी देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी, शक्तिशाली, सहनशील, और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। देव उत्साह से भरे हैं, उनके चरण धरती नहीं छूते। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि सुर, असुर दोनों शक्तिशाली हैं, परंतु असुरत्व में अधिकार है, जबकि देवत्व में दान है। असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। यह भी स्पष्ट है कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। उनके अतिरिक्त मित्र, अग्नि, अर्यमन, पूषा, पर्जन्य आदि देव भी असुर हैं। अर्थ यह कि पूर्वकाल के देव भी असुर ही हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। पहले के देव असुर इसलिये हैं कि उस समय तक वे सुर व्यवस्था को फलीभूत नहीं कर सके हैं। सुर सभ्यता की पूर्ववर्ती असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन उसे सुसंस्कृत होना शेष है। वह अभी भी कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में आधिपत्य है, एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। अपनी विचारधारा से इतर मान्यताओं को बलपूर्वक नष्ट करना वे अपना अधिकार समझते हैं। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।
इतना ही नहीं देवताओं के संघ के अध्यक्ष का पद हस्तांतरण योग्य है। इंद्र के पद को कोई भी चुनौती दे सकता है, और अपनी पात्रता का प्रस्ताव रख सकता है। इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके होने पर पौराणिक भाषा में, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।
एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। लेकिन इसके साथ ही दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।
असुरराज के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। समुद्र मंथन के समय असुर-राज शक्तिशाली था। जबकि सुर एक नयी व्यवस्था स्थापित कर रहे थे। लम्बे समय से स्थापित राजसी असुर शक्ति इस नई प्रबंधन व्यवस्था को जन्मते ही मिटाने को आतुर थी। समुद्र-मंथन युद्ध के बाद मिल-बैठकर चिंतन, मनन, और सहयोग से भविष्य चुनने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी। विचारवान मनुष्य को किसी विचारधारा का रोबोट नहीं बनाया जा सकता। पाश बनाम अभय! तानाशाही कितनी भी शक्तिशाली हो जाये, मानवता कभी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छोड़ेगी।
[क्रमशः]