Monday, July 21, 2008

पाकिस्तान में एक ब्राह्मण की आत्मा

कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।

धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।

एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"

उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।

Saturday, July 19, 2008

बाबाजी का भूत

करीम की आत्मा का ज़िक्र किया तो मुझे आत्मा का एक किस्सा याद आ गया। सोचा, आपके साथ बाँट लूँ।

स्कूल के दिनों में हमारे एक मित्र को आत्मा-परमात्मा आदि विषयों में काफी रुचि थी. इस बन्दे का नाम था... चलो छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? हम उसे बाबाजी कह कर बुलाते थे. यहाँ भी हम उसे बाबाजी ही पुकार सकते हैं. समूह के बाकी लोग भी कोई पूर्ण-नास्तिक नहीं थे. बाबाजी अक्सर कोई रोचक दास्तान लेकर आते थे. किस तरह उनके पड़ोसी ने पीपल के पेड़ से चुडैल को उतरते देखा. किस तरह भूतों के पाँव पीछे को मुड़े होते हैं. पिशाच पीछे पड़ जाए तो मुड़कर क्यों नहीं देखना चाहिए आदि किस्से हम सब बाबाजी से ही सुनते थे।

हम सब में बाबाजी सबसे समृद्ध थे. लखपति बनना हो या क्लास की सबसे सुंदर लडकी का दिल जीतना हो - बाबाजी के पास हर चीज़ का तंत्र था. मैं स्कूल में सबका चहेता था तो उनके तंत्र की वजह से. पुष्कर फर्स्ट आता था तो उनके तंत्र की वजह से. जौहरी साहब सस्पेंड हुए तो उनके तंत्र की वजह से. पांडे जी का हाथ टूटा तो उनके तंत्र की वजह से. कहने का अभिप्राय है कि हमारे स्कूल में उनके तंत्र की सहायता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. और तो और, उनके पड़ोसी की गृह कलह भी उनके तंत्र की वजह से ही थी. अफ़सोस कि उनके पास बिना पढ़े पास होने का तंत्र नहीं था, बस।

उनके पास अपना निजी कमरा था जिसे हम बैठक कहते थे. और उससे भी ज़्यादा, उनके पास अपना टेप रिकार्डर था. अक्सर शाम को हम लोग उनके घर पर इकट्ठे होते थे. हम सब उनकी बैठक में बैठकर इधर उधर की तिकड़में किया करते थे. उनकी बैठक में बैठकर ही हमने अपने प्रिंसिपल का नाम ताऊजी रखा था जो हमारे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद तक चलता रहा. उनके टेप रिकार्डर पर ही गज़लों से हमारा पहला परिचय हुआ. गुलाम अली और जगजीत सिंह तो मिले ही - अनूप जलोटा और पीनाज़ मसानी भी हम तक उनके टेप रिकार्डर द्वारा ही पहुँचे।

उस शाम को हम सब उनकी बैठक में इकट्ठे हुए तो वह हमें कुछ विशेष सुनाने वाले थे. हम सब उत्सुकता से देख रहे थे जब उन्होंने अपने काले थैले में से एक कैसेट निकाली. डरावने संगीत के साथ जब वह कैसेट चलनी शुरू हुई तो बाबाजी ने बताया कि वह एक भूत का इंटरव्यू था. काफी डरावना था. भूत ने हमें दूसरी दुनिया के बारे में बहुत सी जानकारी दी. उसने बताया कि शरीर के बिना रहना आसान नहीं होता है. चूंकि वह तीन सौ साल पहले मरा था इसलिए उसकी भाषा आज की बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग हटकर थी।

साक्षात्कारकर्ताओं के पूछने पर जब उसने अपनी मृत्यु का हाल बताना शुरू किया तो उसने उर्दू के आम शब्द इंतक़ाल का प्रयोग किया. इससे पहले मैंने इस शब्द को अनेकों बार सुना था मगर कभी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी. मगर इस भूत ने जब इस शब्द को तीन सौ साल पुराने अंदाज़ में अंत-काल कहा तो इंतक़ाल का भारतीय उद्गम एकदम स्पष्ट हो उठा. भूत के इंटरव्यू से रोमांच तो हम सभी को हुआ लेकिन मुझे और भी ज़्यादा खुशी हुई जब मैंने एक पुराने शब्द को एक बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में देखा. अगले दिन जब मैंने अपने उर्दू गुरु जावेद मामू को इस नयी जानकारी के बारे में बताया तो वे भी उस भूत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

Sunday, July 13, 2008

नसीब अपना अपना

पुराना किस्सा है। दरअसल जिंदगी में एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब पुराने किस्से नए किस्सों को पीछे छोड़ जाते हैं। तो जनाब (और मोहतरिमा), यह किस्सा है शिरवल का। शिरवल नाम है उस छोटे से कसबे का जहाँ मैंने अपनी ज़िंदगी के हसीन चार महीने गुजारे। अनजान लोग, अनजान भाषा के बीच में भी इतना अपनापन मिल सकता है मुझे शिरवल ने ही सिखाया। शिरवल में रहता था और पास के गाँव में नौकरी करता था. नई नई नौकरी थी। अकेला ही था इसलिए समय की कोई कमी न थी. दफ्तर के साथी शाम को हाइवे पर एक चाय भजिया के ठेले पर बैठ कर अड्डेबाजी करते थे. पहले दिन से ही मुझे वहां लेकर गए. चाय भजिया और हरी मिर्च तो मुझे अच्छी लगी तो मैं भी रोज़ उनके साथ वहां जाने लगा. ठेले पर बहुत भीड़ रहती थी. ठेले वाले ने आस पास बहुत सी बेंच डालकर एक पूरा होटल जैसा ही बना डाला था.

रोज़ जाता था तो आसपास नज़र डालना भी स्वाभाविक ही था, वैसे भी मेरे जानकार कहते हैं कि मुझे वह भी दिखता है जो किसी को नहीं दिख पाता. मैंने देखा कि इस ठेले के सामने ही एक पति-पत्नी भी भजिया बेचते थे. इस ठेले के विपरीत उन्होंने सड़क पर कब्ज़ा भी नहीं किया हुआ था। उनकी पक्की दुकान में बड़ा सा ढाबा था। आंधी पानी से बचाव के लिए एक छत भी थी. मगर मैंने कभी भी किसी ग्राहक को उनकी दुकान पर जाते हुए नहीं देखा. परंपरागत महाराष्ट्री वेशभूषा में दोनों पतिपत्नी रोजाना अपने ढाबे के बाहर ग्राहकों के इन्तेज़ार में खड़े रहते थे. टूरिस्ट बसें रूकती थीं मगर सभी लोग सड़क घेरकर खड़े हुए ठेलों पर ही आ जाते थे और वे दोनों बस ताकते रहते थे. शायद यह उनकी किस्मत थी या शायद उनकी वेशभूषा या फ़िर उनकी बढ़ी हुई उम्र - कुछ कहा नहीं जा सकता।

रोज़ उनकी मायूसी को देखता था मगर कभी ख़ुद भी उठकर सड़क पार नहीं कर सका. शायद उस अल्पवय में मैं कुछ ज़्यादा ही सोचता था. ठेलेवाला जो अब मेरा मित्र था बुरा मानेगा - मैं अकेला उस दुकान पर बैठा अजीब सा दिखूंगा - वे बुजुर्ग महाराष्ट्रियन दंपत्ति मेरे साथ बात ही नहीं कर पायेंगे आदि जैसे अनेकों कारण दिमाग में आते थे. सौ बात की एक बात यह कि न तो मैं ख़ुद कभी उस दुकान पर गया और न ही कभी किसी और को ही जाते देखा।

उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि फटे पुराने कपडों वाला एक मजदूर उस दुकान की और बढ़ा। यह ठेलेवाला तो शायद उस तरह के कपड़े वाले व्यक्ति को दूर से ही दुत्कार देता। उन दोनों ने उसे हाथों हाथ लिया और साफ़ सुथरी मेज पर बिठाकर उसकी आवभगत शुरू कर दी। अच्छा लगा कि कोई ग्राहक तो आया. तभी एक बस रूकी और बड़े सारे लोग उतरकर उसी दुकान की तरफ़ जाने लगे। पति पत्नी दौड़कर उन सवारियों को लेने आगे बढे तभी एक सवारी की नज़र फटे कपडों वाले ग्राहक पर पड़ी. उसने नाक भौं सिकोड़ीं और पीछे हटा। उसकी देखा देखी बाकी लोग भी रूक गए. उन्होंने इधर उधर देखा और सीधे सड़क पार कर इस ठेले पर आ गए। दो मिनट पहले जो मजदूर मुझे उनका भाग्यविधाता लग रहा था अब उसके वहाँ जाने का परिणाम देखकर मेरे मुँह से बस इतना ही निकला - नसीब अपना अपना. मेरे वहाँ प्रवास के चार महीनों में उस एक मजदूर के अलावा मैंने कभी किसी और को उस दुकान पर नहीं देखा।