Saturday, October 24, 2009

चौथी का जोडा (खंड २): इस्मत चुगताई

आज उर्दू की क्रांतिकारी लेखिका इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी एक मार्मिक कहानी का लेख यहाँ प्रस्तुत है. यदि आप सुनना चाहें तो आवाज़ के सौजन्य से यह कहानी यहाँ सुनी जा सकती है: सुनो कहानी

चौथी का जोडा: इस्मत चुगताई
[अब तक की कहानी यहाँ है]
और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम-तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन-भादों की घटाओं से मचल-मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी-झुकी, सहमी-सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।

अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुँह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी। और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है।
मगर बी-अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज-रोज दोपहर को सहदरी में रंग-बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं।

कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी-अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुँहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुँह देखो जो इस घड़ी न आओ।

और फिर दोनों में खुसर-पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।

उसी वक्त बी-अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुँहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे-तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा-सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड-पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।

"अल्लाह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल तेरी दरगाह में पढूंग़ी।" हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी।

सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे-धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये।

"लाओ मैं धो दूं बी आपा।" हमीदा ने शरारत से कहा।
"नहीं।" वो शर्म से झुक गयीं।
हमीदा छेडती रही, बी-अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं।

जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो-दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी-सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।

"जमाना बडा खराब है बेटी!" वो हमीदा को मुँह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती-हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी-आपा सुबह-सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहारमुँह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?

फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुँह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी-आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे-परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी-अम्मां की मुँहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर-पुसर करतीं।

"बडा शर्मीला है बेचारा!" बी-अम्मां तौलिये पेश करतीं।
"हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग-ढंग से, कुछ आंखों से।"
"ए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने।" बी-अम्मां फख्र से कहतीं।
"ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है!" बी-आपा के पके मुँहासों को देखकर उन्हें बी-अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती।
"ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी?" वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं, "अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी-मजाक! उंह अरे चल दिवानी!"
"ऐ, तो मैं क्या करूं खाला?"
"राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती?"
"भइया हमें तो शर्म आती है।"
"ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न?" बी अम्मां चिढा कर बोलतीं।
"नहीं तो मगर" मैं लाजवाब हो गयी।
और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच-विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी-आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, " देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।"
"नहीं हंसूंगी।" मैं ने वादा किया।

"खाना खा लीजिये।" मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं!
"जा निगोड़ी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुँह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा।"
आपा-बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी।

राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो!" मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो।

बी-अम्मां ने मुझे जलकर वापस बुला लिया और मुँह ही मुँह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त!
"राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी-अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा।
जवाब नदारद।
"बताइये न?"
"अरी ठीक से जाकर पूछ!" बी-अम्मां ने टहोका दिया।
"आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे।"
"अरे वाह रे जंगली!" बी-अम्मां से न रहा गया।
"तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये!"
"खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।"

बी-अम्मां का मुँह उतर गया। बी-अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी-आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले-
"कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है।"
"क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता?" मैं ने जलकर कहा।
"ये बात नहीं, कुछ अजीब-सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।"
मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकते परांठे ठुसाएं। मेरी बी-आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

बी-अम्मां की मुँहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी-आपा तो चूल्हे में जुटी रहतीं, बी-अम्मां चौथी के जोड़े सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात-बेबात छेड़ना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभी नमक के बहाने। और साथ-साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी-आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना-घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी-आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उडती हुई राख नहीं सफेदी! मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा।
"उंह!" मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा।
"आप हमसे खफा हो गयीं?" राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर।
"क्या कह रहे थे?" बी-आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुँह ताकने लगी।
"कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह-वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं।" मैं ने जल्दी-जल्दी कहना शुरु किया और बी-आपा का खुरदरा, हल्दी-धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा?
क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

"और क्या कह रहे थे? " बी-आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज ऌतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था!
"और कह रहे थे, अपनी बी-आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें।"
"चल झूठी!"
"अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो"
"अरे, चुप मुरदार!" उन्होंने मेरा मुँह बन्द कर दिया।
"देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो।"
"नहीं बी-आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी।
"आपा-बी, तुम खुद क्या पहनोगी?"
"अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।"

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई-ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा, "क्या ये स्वेटर आपने बुना है?"
"नहीं तो।"
"तो भई हम नहीं पहनेंगे।"
मेरा जी चाहा कि उसका मुँह नोच लूं। कमीने, मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते-जागते गुलाम हैं। इसके एक-एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

मगर मैं चुप रही। बी-अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नयी-नयी सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नयी-नयी बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धडक़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।

"ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है!"
जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुँह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी-आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी-जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं।
"वो बोले? " उनसे न रहा गया तो धडक़ते हुए दिल से पूछा।
"बी-आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं।" मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी।
"क्यों?" वो मुस्कुरायी।
"मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं!" मैं ने कांपते हुए कहा।
"बडे शरीर हैं!" उन्होंने रोमान्टिक आवाज में शर्मा कर कहा।
"बी-आपा सुनो बी-आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं।" मैं ने सुलग कर कहा।
"आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी।"
"क्या हुआ? "बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा।
"देखिये मेरी चूडियां बी-अम्मां!"
"राहत ने तोड ड़ालीं?" बी-अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं।
"हां!"
"खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है। ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं!" फिर चुमकार कर बोलीं, "खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी!" ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुँहबोली बहन से फिर कांफ्रेंस हुयी और मामले को उम्मीद-अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

"ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे।" और वो मुझे बहनोइयों से छेड छाड क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेडछाड क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे। जहां बेचारे को लडक़ियां-बालियां छेडतीं, शरमाने लगते और शरमाते-शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पडने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लडक़ियां छेडना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।

"ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान-पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, "किसी से भी करा दो।" और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी।"
"हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लडक़ा मिलते देर लगती है?" बी-अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा।
"ये बात नहीं है बहन। आजकल लडक़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।"

मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा-खासा पहाड है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाडक़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी-कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

मगर इशारों-कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुँह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी-अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले-टोले की लडक़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी-आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी-अम्मां कमजाेरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी-आपा की सहेलियां उनको छेड रही थीं और वो खून की बची-खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी।

"इस पर मौलवी साहब ने दम किया है।" उनकी बुखार से दहकती हुई गरम-गरम सांसें मेरे कान में लगीं।

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी-मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी-भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुँह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है।

चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता-आहिस्ता कदम तोलती हुई बी-आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी-अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी-आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है।
"ये सब तेरी मेहनत का फल है।" बी-आपा कह रही हैं।

हमीदा का गला भर आया
"जाओ न मेरी बहनो!" बी-आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी।
"ये मलीदा," उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड ख़िसका और मुँह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर उसने राहत के मुँह की तरफ बढ़ा दिया।

एक झटके से उसका हाथ पहाड क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू-बेटियां मुश्किलकुशा (हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।

सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी-आपा की ताक में भागी पीछे-पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।

और फिर उसी सहदरी में साफ-सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू-बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद-सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी-अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई-ब्रो फडक़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय-भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा-भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।

एकदम सहदरी में बैठी लडक़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी-अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड लिया। दो मोटे-मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।

[समाप्त]

14 comments:

  1. कहानी डाउनलोड कर ली है आभार।

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  2. आज के पढ़ने का जुगाड़ हो गया..आपका आभार. :)

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  3. पहला पार्ट भी पढा और दूसरा भी भाषा और मुहावरों का अच्छा प्रयोग

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  4. उफ़ कैसी रवानगी है भाषा और लहजे की कमबख्त !
    शुक्रिया इस सशक्त रचना के लिए !

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  5. इस्मत जी को बहुत पढ़ा है..... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार..

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  6. क्रांतिकारी लेखिका इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि के अवसर पर उनको हार्दिक नमन. यह कहानी पहले पढी थी आज फ़िर पढना बहुत अच्छा लगा. इसका पाडकास्ट का लिण्क सहेज लिया है. आपकी अवाज मे सुनना बहुत सुहायेगा.

    रामराम.

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  7. सच कहूं तो उर्दू लेखकों/लेखिकाओं का लिखा बहुत नहीं पढ़ा, केवल इस लिये कि अतिरिक्त शब्द सीखने की पेशेंस नहीं थी।
    अब भी मौका है। शायद कर पाऊं।

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  8. anuragji, donon bhag poore padh liye, bahut achhi kahani hai. dhanyawad.

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  9. शुक्रिया ......... कमाल की कहानी के लिए ..... मज़ा आ गया पढ़ कर ..

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  10. बेहद सुन्दर प्रयास - अभी सुनी नहीं कहानी ...

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  11. आभार इसे पढ़वाने के लिए. फोंट्स थोड़े छोटे हैं. पहले पढने में दिक्कत आ रही थी बाद में अपने ब्राउजर के फोंट्स बड़े करने पड़े.

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  12. इस्मत जी को यहां देख ख़ुशी हुई....हालांकि उनकी "लिहाफ" को मै बहुत उंचा दर्जा देता हूँ ..कहानी पहले पढ़ी हुई है .पर नेट पर इसे चीजे संजो कर रखने जैसी होती है .सुशील ने भी रेनू जी वाइफ का संस्मरण दिया है .ओर अनुराग वत्स ने भी एक अनुवाद दिया ....ऐसे ब्लॉग के पेज बुकमार्क करने जैसे है

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  13. पोस्ट बुकमार्क कर ली है सुविधानुसार पढ लूँगी धन्यवाद्

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  14. आंसुओं का सैलाब रोक पाना असंभव हो गया अंत तक आते आते.....

    आपका बहुत बहुत बहुत आभार.....यह कहानी पढी न थी आज तक.....

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