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Sunday, July 27, 2008

बेंगलूरू और अमदावाद - दंगा - एक कविता

पिछले दो दिनों में देश में बहुत सी जानें गयीं। हम सब के लिए दुःख का विषय है। पीडितों के दर्द और उनकी मनःस्थिति को शायद हम पूरी तरह से कभी भी न समझ सकें लेकिन हम दिल से उनके साथ हैं। हमें यह भी ध्यान रखना है कि देशविरोधी तत्वों के बहकावे में आकर आपस में ही मनमुटाव न फैले। यह घड़ी मिलजुलकर खड़े रहने की है। नफरत के बीज से नफरत का ही वृक्ष उगता है। इसी तरह, प्यार बांटने से बढ़ता है। कुछ दिनों पहले दंगों की त्रासदी पर एक कविता सरीखी कुछ लाइनें लिखी थीं। आज, आपके साथ बांटने का दिल कर रहा है - 

* दंगा * 
प्यार देते तो प्यार मिल जाता 
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता 

रहनुमा राह पर चले होते 
तो दरोगा न रौब दिखलाता 

मेरा रामू भी जी रहा होता 
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता 

सर से साया ही उठ गया जिनके 
दिल से फिर खौफ अब कहाँ जाता 

बच्चे भूखे ही सो गए थक कर 
अम्मी होती तो दूध मिल जाता 

जिनके माँ बाप छीने पिछली बार 
रहम इस बार उनको क्यों आता? 

 ईश्वर दिवंगत आत्माओं को शान्ति, पीडितों को सहनशक्ति, नेताओं को इच्छाशक्ति, सुरक्षा एजेंसियों को भरपूर शक्ति और निर्दोषों का खून बहाने वाले दरिंदों को माकूल सज़ा दे यही इच्छा है मेरी!