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Wednesday, August 21, 2019

माण्डूक्योपनिषद

माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेद का एक उपनिषद है। मात्र बारह मंत्रों का माण्डूक्योपनिषद सबसे छोटा उपनिषद होने पर भी अति महत्वपूर्ण समझा जाता है। इस अथर्ववेदीय उपनिषद में परमेश्वर के प्रतीक ॐ (प्रणवाक्षर) की व्याख्या के साथ-साथ ब्रह्म की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन है।

परम्परा में “ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ...” के शांतिपाठ के बाद माण्डूक्योपनिषद का आरम्भ होता है। ॐ अक्षर की महिमा से आरम्भ करके इस उपनिषद के सातवें मंत्र तक आत्मा के चार पादों का वर्णन है। इसके अनुसार, परम अक्षर ॐ त्रिकालातीत, अनादि-अनंत, और सम्पूर्ण जगत का मूल है। विश्व ब्रह्म से आच्छादित है और यह ब्रह्म चतुष्पद है। ब्रह्म के चार पदों की विशेषताएँ निम्न हैं:


  • प्रथम पाद, यानि जाग्रत अवस्था में ब्रह्म वैश्वानर कहलाता है और वह सात लोक तथा 19 मुखों से स्थूल विषयों का भोक्ता है।
  • द्वितीय पाद में स्वप्नमय निद्रा जैसे सूक्ष्मजगत में ब्रह्म तेजस कहलाता है।
  • ब्रह्म की स्वप्नहीन प्रगाढ़ निद्रा जैसी ज्ञानमय, आनंदमय, प्रलय अवस्था सुषुप्ति कहलाती है।
  • आत्मा का चौथा वास्तविक स्वरूप उसकी तुरीय अवस्था है जिसकी अभिव्यक्ति सरल नहीं क्योंकि यह तुरीयावस्था अन्तःप्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ, प्रज्ञानघन, प्रज्ञ, अप्रज्ञ कुछ भी नहीं, बल्कि शांत, शिव और अद्वैत रूप है। वही आत्मा है और वही साक्षात ब्रह्म का चौथा पद है। 


माण्डूक्योपनिषद में प्रणवाक्षर ॐ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ऊँकार  देश-काल से परे, कालातीत, आद्यंतहीन और सर्वव्यापी है। , , तथा , इन तीन मात्राओं से युक्त में ब्रह्मनाद है, ईश्वर की आराधना है।

ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है। सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।

वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।

॥ अथ माण्डूक्योपनिषद ॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
   स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥
   स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
   स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ओमित्येतदक्षरमिदँसर्वं तस्योपव्याख्यानभूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥1॥

सर्वं ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥2॥

जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥3॥

स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥4॥

यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥5॥

एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥6॥

नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययासारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥7॥

सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्करोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥8॥

जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥9॥

स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात् उभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्याऽब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥10॥

सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥11॥

अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद ॥12॥
       
॥ अथर्ववेदीय माण्डूक्योपनिषद समाप्त ॥

Saturday, August 9, 2008

भविष्य अब भूत हुआ

भविष्य अगर भूत हो जाय तो उसे क्या कहेंगे - विज्ञान कथा (साइंस फिक्शन)? शायद! मेरी नज़र में उसे कहेंगे - पुराना भविष्य या भविष्य पुराण। भविष्य पुराण की गिनती प्रमुख १८ पुराणों में होती है। अरब लेखक अल बरूनी की किताब-उल-हिंद में इस पुराण का ज़िक्र भी अठारह पुराणों की सूची में है।

भविष्य पुराण की एक खूबी है जो उसे अन्य समकक्ष साहित्य से अलग करती है। यह पुराण भविष्य में लिखा गया है। अर्थात, इसमें उन घटनाओं का वर्णन है जो कि भविष्य में होनी हैं। खुशकिस्मती से हम भविष्य में इतना आगे चले आए हैं कि इसमें वर्णित बहुत सा भविष्य अब भूत हो चुका है।

भारत में भविष्य में अवतीर्ण होने वाले विभिन्न आचार्यों व गुरुओं यथा शंकराचार्य, नानक, सूरदास आदि का ज़िक्र तो है ही, भारत से बाहर ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद से लेकर तैमूर लंग तक का विवरण इस ग्रन्थ में मिलता है।

इस पुराण के अधिष्ठाता देव भगवान् सूर्य हैं। श्रावण मास में नाग-पंचमी के व्रत की कथा एवं रक्षा-बंधन की महिमा इस पुराण से ही आयी है। कुछ लोग सोचते हैं कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सिर्फ़ परलोक की बातें हैं। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात शायद ही कोई हो। इस पुराण में जगह जगह जनोपयोग के लिए कुँए, तालाब आदि खुदवाने का आग्रह है। वृक्षारोपण और उद्यान बनाने पर जितना ज़ोर इस ग्रन्थ में है उतना किसी आधुनिक पुस्तक में मिलना कठिन है।

पुत्र-जन्म के लिए हर तरह के टोटके करने वाले तथाकथित धार्मिक लोगों को तो इस ग्रन्थ से ज़रूर ही कुछ सीखना चाहिए। यहाँ कहा गया है कि वृक्षारोपण, पुत्र को जन्म देने से कहीं बड़ा है क्योंकि एक नालायक पुत्र (आपके जीवनकाल में ही) कितने ही नरक दिखा सकता है जबकि आपका रोपा हुआ एक-एक पौधा (आपके दुनिया छोड़ने की बाद भी) दूसरों के काम आता रहता है।

अब आप कौन सा पौधा लगाते हैं इसका चयन तो आपको स्वयं ही करना पडेगा। संत कबीर के शब्दों में:
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥

और हाँ, पेड़ लगाने के बहाने गली पर कब्ज़ा न करें तो अच्छा है।

Wednesday, August 6, 2008

आपके मुँह में घी-शक्कर

पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः।।
भारत की ख्याति तो आज भी कम नहीं है मगर पश्चिमी सभ्यता के उत्थान से पहले की बात ही कुछ और थी। सारी दुनिया से छात्र और विद्वान् भारत आते थे ताकि कुछ नया सीखने को मिले। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की ख्याति दूर-दूर तक थी। ऐसा नहीं कि विदेशी यहाँ सिर्फ़ शिक्षा की खोज में ही आते थे। हमलावर यहाँ सोने और हीरे के लालच में आते थे। ज्ञातव्य है कि दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील में हीरे मिलने से पहले हीरे सिर्फ़ भारत में ही ज्ञात थे और अठारहवीं शती तक शेष विश्व को हीरे के उद्गम के बारे में ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था। व्यापारी आते थे मसालों और धन के लिए और धर्मांध जुनूनी हमलावरों के आने का उद्देश्य धन के अलावा हमारी कला एवं संस्कृति का नाश भी था।

बहुत से लेखक भी भारत में आए। कुछ हमलावरों के साथ आए तो कुछ अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए और कुछ अन्य भारतीय संस्कृति एवं धर्म का ज्ञान पाने के लिए। ग्रीक विद्वान् मेगास्थनीज़ भी एक ऐसा ही लेखक था। उसकी पुस्तक "इंडिका" में उस समय के रहस्यमय भारत का वर्णन है। बहुत सी बातें तो साफ़ ही कल्पना और अतिशयोक्ति लगती हैं मगर बहुत सी बातों से पता लगता है कि उस समय का भारत अन्य समकालीन सभ्यताओं से कहीं आगे था।

मेगास्थनीज़ ने लिखा है कि भारतीय लोग मधुमक्खियों के बिना ही डंडों पर शहद उगाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर लेखक गन्ने की बात कर रहा है। चूंकि उसके उन्नत देश को मीठे के लिए शहद से बेहतर किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं था, शक्कर को शहद समझने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कहते हैं कि यह शक्कर सिकंदर के सैनिकों के साथ ही भारत से बाहर गयी।

हिन्दी/फारसी/उर्दू का शक्कर बना है संस्कृत के मूल शब्द शर्करा से। मराठी का साखर और अन्य भारतीय भाषाओं के मिलते-जुलते शब्दों का मूल भी समान ही है। इरान से आगे पहुँचकर हमारी मिठास अरब में सुक्कर और यूरोप में सक्कैरम हो गयी। इस प्रकार अंग्रेजी के शब्द शुगर व सैकरीन दोनों ही संस्कृत शर्करा से जन्मे।
हमसे पंगे मत लेना मेरे यार ... मीठे से निबटा देंगे संसार ...
आज जिस शक्कर से सारी दुनिया त्रस्त है, उसकी जड़ में हम भारतीय हैं - हमारी खाण्ड  कब कैंडी बनकर दुनिया भर के बच्चों की पसंद बन गई, पता ही न चला। बनाई हुई शर्करा के टुकडों को खण्ड (टुकड़े - pieces) कहा जाता था जिससे खांड और अन्य सम्बंधित शब्द जैसे खंडसाल आदि बने हैं। फारसी में पहुँचते-पहुँचते खण्ड बदल गया कन्द में और यूरोप तक जाते-जाते यह कैंडी में तब्दील हो गया।
वैसे शर्करा या गन्ने की बात आए तो अपने गिरमिटिया बंधुओं को याद करना भी बनता है जिनकी वजह से साखर संसार को सुलभ हो सकी। हाँ गन्ने के रस के आनंद से वंचित ही रहे विदेशी।
गन्ने के खेत आज भी मॉरिशस की पहचान हैं।
अब एक सवाल: खाण्ड और शक्कर तक तो ठीक है - गुड़, मिश्री और चीनी के बारे में क्या?

Thursday, July 31, 2008

सम्प्रति वार्ताः श्रूयन्ताम - संस्कृत इज डैड

संस्कृत के बारे में अक्सर - विशेषकर भारत में - एक मृत भाषा का ठप्पा लगाने की कोशिश होती रहती है। अक्सर लोगों को कहते सुना है - "संस्कृत इज अ डैड लैंग्वेज।" कुछेक वार्ताओं में मैंने इस बहस को कड़वाहट में बदलते हुए भी देखा है मगर इसमें संस्कृत का दोष नहीं है। उन भागीदारों की तो हर बहस ही कड़वाहट पर ख़त्म होती है।

संस्कृत को मृत घोषित करने में कुछ लोगों का पूर्वाग्रह भी होता है मगर शायद अधिकाँश भोले-भाले लोग सिर्फ़ सुनी-सुनाई बात को ही दोहरा रहे होते हैं। १९९१ की जनगणना में भारत के ४९,७३६ लोगों की मातृभाषा संस्कृत थी जबकि २००१ की जनगणना में यह घटकर १४,००० रह गयी। मगर रूकिये, इस संख्या से भ्रमित न हों। संस्कृत पढने-बोलने वाले भारत के बाहर भी हैं - सिर्फ़ नेपाल या श्रीलंका में ही नहीं वरन पाकिस्तान और अमेरिका में भी। इन विदेशी संस्कृतज्ञों की संख्या कभी भी गिनी नहीं जाती है शायद।

मेरे जीवन की जो सबसे पुरानी यादें मेरे साथ हैं उनमें हिन्दी के कथन नहीं बल्कि संस्कृत के श्लोक जुड़े हैं। हिन्दी मेरी मातृभाषा सही, मैं बचपन से ही संस्कृत पढता, सुनता और बोलता रहा हूँ - भले ही बहुत सीमित रूप से -प्रार्थना आदि के रूप में। और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, विभिन्न भाषायें बोलने वाले मेरे अनेकों मित्र, परिचित और सहकर्मी रोजाना ही शुद्ध संस्कृत से दो-चार होते रहे हैं। अंग्रेज़ी का "अ" (E) भी ठीक से न बोल सकने वाले लोग भी अंग्रेजी को अपनी दूसरी भाषा समझते हैं परन्तु संस्कृत तो रोज़ ही पढने सुनने के बावजूद भी हम उसे मृत ही कहते हैं। ऐसी जनगणना में हमारे-आपके जैसे लोगों का कोई ज़िक्र नहीं है, कोई बात नहीं। संस्कृत पढाने वाले हजारों शिक्षकों का भी कोई ज़िक्र नहीं है क्योंकि उनकी मातृभाषा भी हिन्दी, मलयालम, मराठी या तेलुगु कुछ भी हो सकती है मगर संस्कृत नहीं। और इसी कारण से एक तीसरी (या दूसरी) भाषा के रूप में संस्कृत पढने और अच्छी तरह बोलने वाले लाखों छात्रों का भी कोई ज़िक्र नहीं है।

भारत और उसके बाहर दुनिया भर के मंदिरों में आपको संस्कृत सुनाई दे जायेगी. संगीत बेचने वाली दुकानों पर अगर एक भाषा मुझे सारे भारत में अविवादित रूप से मिली तो वह संस्कृत ही थी। तमिलनाड के गाँव में आपको हिन्दी की किताब या सीडी मुश्किल से मिलेगी। इसी तरह यूपी के कसबे में तामिल मिलना नामुमकिन है। अंग्रेजी न मिले मगर संस्कृत की किताबें व संगीत आपको इन दोनों जगह मिल जायेगा। जम्मू, इम्फाल, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई या बंगलूरु ही नहीं वरन छोटे से कसबे शिर्वल में भी मैं संस्कृत भजन खरीद सकता था। क्या यह एक मृतभाषा के लक्षण हैं?

संस्कृत में आज भी किताबें छपती हैं, संगीत बनता है, फिल्में भी बनी हैं, रेडियो-टीवी पर कार्यक्रम और समाचार भी आते हैं। शायद पत्रिकाएं भी आती हैं मगर मुझे उस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हाँ इतना याद है कि कि संस्कृत की चंदामामा एक तेलुगुभाषी प्रकाशक द्वारा चेन्नई से प्रकाशित होती थी। वैसे तो संस्कृत में सैकडों वेबसाइट हैं मगर गजेन्द्र जी का एक संस्कृत ब्लॉग भी मैंने हाल ही में देखा है।

एक पिछली पोस्ट "हज़ार साल छोटी बहन" के अंत में मैंने एक सवाल पूछा था: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था? जगत- ताऊ श्री रामपुरिया जी के अलावा किसी ने भी सवाल का कोई ज़िक्र अपनी टिप्पणी में नहीं किया है। मुझे लग रहा था कि कुछेक और लोग उत्तर के साथ सामने आयेंगे - खैर जवाब हाज़िर है - पहला नियमित संस्कृत प्रसारण कोलोन (Cologne) नगर से दोएचे वेले (Deutsche Welle = जर्मनी की वाणी) ने १९६६ में शुरू किया था।

Tuesday, July 29, 2008

हज़ार साल छोटी बहन

संस्कृत व फारसी की समानता पर लिखी मेरी पोस्ट "पढ़े लिखे को फारसी क्या?" आपने ध्यान से पढी इसका धन्यवाद। सभी टिप्पणीकारों का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे लेखन को किसी लायक समझा। एकाध कमेंट्स पढ़कर ऐसा लगा जैसे भाषाओं की समानता से हटकर हम कौन किसकी जननी या बहन है पर आ गए। दो-एक बातें स्पष्ट कर दूँ - भाषायें कोई जीवित प्राणी नहीं हैं और वे इंसानों जैसे दृढ़ अर्थ में माँ-बेटी या बहनें नहीं हो सकती हैं। बाबा ने शायद काल का हिसाब रखते हुए संस्कृत को माँ कहा था। याद रहे कि उनका कथन महत्वपूर्ण है क्योंकि वे दोनों भाषायें जानते थे। फिर भी, अब जब हमारे एक प्रिय बन्धु ने नया मुद्दा उठा ही दिया है तो इस पर बात करके इसे भी तय कर लिया जाय। जितने संशय मिटते चलें उतना ही अच्छा है। जब तक संशय रहेंगे हम मूल विषय से किनाराकशी ही करते रह जायेंगे। भाषाविदों के अनुसार संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) परिवार के भारत-ईरान (इंडो-इरानियन) कुल में आती हैं। संस्कृत इस परिवार की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है और सबसे कड़े अनुमानों के अनुसार भी ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व में थी। अधिकाँश लोगों का विश्वास है कि बोली (वाक्) के रूप में इसका अस्तित्व बहुत पहले से है। इसके विपरीत ईरानी भाषा का प्राचीनतम रूप ईसा से लगभग ५०० वर्ष पहले अस्तित्व में आया। स्पष्ट कर दूँ कि यह रूप आज की फारसी नहीं है। आज प्रचलन में रही फारसी भाषा लगभग ८०० ईसवी में पैदा हुई। इन दोनों के बीच के समय में अवेस्ता की भाषा चलती थी. अगर इन तथ्यों को भारतीय सन्दर्भ में देखें तो फारसी का प्राचीनतम रूप भी महात्मा बुद्ध के काल में या उसके बाद अस्तित्व में आया. भाषाविदों में इस विषय पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीय-ईरानी परिवार में संस्कृत से पुरानी कोई भाषा नहीं है जो संस्कृत हम आज बोलते, सुनते और पढ़ते हैं, उसको पाणिनिकृत व्याकरण द्वारा ४०० ईसा पूर्व में बांधा गया। ध्यान रहे कि यह आधुनिक संस्कृत है और भाषा एवं व्याकरण इससे पहले भी अस्तित्व में था। भाषाविद मानते हैं कि फारसी/पहलवी/अवेस्ता से पहले भी इरान में कोई भाषा बोली जाती थी। क्या अवेस्ता की संस्कृत से निकटता ऐसी किसी भाषा की तरफ़ इशारा करती है? ज्ञानदत्त जी के गुस्से को मैं समझ सकता हूँ और बहुत हद तक उनकी बात "फारसी को बराबरी पर ठेलने की क्या जरूरत थी" से सहमत भी हूँ। मगर सिर्फ़ इतना ही निवेदन करूंगा कि कई बार निरर्थक प्रश्नों में से भी सार्थक उत्तर निकल आते हैं। चिंता न करें, पुरखों की गाय पर भी चर्चा होगी, कभी न कभी। याद दिलाने का धन्यवाद। हमारे बड़े भाई अशोक जी ने आर्यों के मध्य एशिया से दुनिया भर में बिखरने का ज़िक्र किया है, आगे कभी मौका मिला तो इस पर भी बात करेंगे। लेकिन तब तक संस्कृत फ़ारसी की बहन है या माँ - इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ। हाँ अगर बहन है तो दोनों बहनों में कम-स-कम एक हज़ार साल का अन्तर ज़रूर है। इसके अलावा फारसी में संस्कृत के अनेकों शब्द हैं जबकि इसका उलटा उदाहरण नहीं मिलता है। चलते चलते एक सवाल: क्या आप बता सकते हैं कि पहला संस्कृत रेडियो प्रसारण किस स्टेशन ने और कब शुरू किया था?

Monday, July 28, 2008

पढ़े लिखे को फारसी क्या?

हिन्दी की एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?" छोटा था तो मुझे यह कहावत सुनकर बड़ा अजीब सा लगता था कि आजकल हम हिन्दी वाले जिस तरह अंग्रेजी के पीछे न्योछावर हुए जाते हैं उसी तरह सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक फारसी को पूजते थे। आख़िर अपनी भाषा के आगे विदेशी भाषा को इतना महत्व क्यों? मेरे सवाल का जवाब दिया मेरे बाबा (पितामह) ने।

बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स

इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:

सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)

इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती


ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.

आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।