Showing posts with label communism. Show all posts
Showing posts with label communism. Show all posts

Thursday, July 7, 2011

न्यूयॉर्क नगरिया [इस्पात नगरी से 43]

.
पिट्सबर्ग में चार जुलाई के समारोह के अगले दिन ही अचानक ही न्यूयॉर्क जाने का संयोग बन गया। वैसे तो वहाँ इतनी बार जाना होता है मानो मेरा एक घर वहीं हो परंतु हर बार समय इतना कम होता है कि जब तक किसी को बताने की सोचूँ, तब तक वापस आ चुका होता हूँ। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। घर से निकलते ही अपने न्यूयॉर्क के कुछ मित्रों को पूर्वसूचना दे दी। एक मित्र के साथ एक पूरा दिन रहा। ग्राउण्ड ज़ीरो से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की दौड के बीच में कुछ देर तफ़रीह का समय भी मिला।

इस यात्रा के कुछ चित्र प्रस्तुत हैं, शायद आपको पसन्द आयें।

हैम्सली भवन

प्रमुख डाकघर
आतंकवादियों द्वारा गिराये गये जुडवाँ स्तम्भों के स्थल पर कार्य जारी है

आतंकियों द्वारा गिराये स्तम्भ के स्थल पर आकार लेता एक नया भवन

गतिमान पुलिस का तिपहिया वाहन 

नगर के एक मुख्य मार्ग पर घुडसवार पुलिस अधिकारी

संयुक्त राष्ट्र परिसर में एक कलाकृति  

स्वर्णमण्डित स्वातंत्र्य की देवी

ग्रैंड सेंट्रल स्टेशन

यहाँ के सिगार कास्त्रो नहीं खरीद सकता - एक पुरानी दुकान

न्यूयॉर्क ने मात्र 18 मास में एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग खडी कर दी थी 

विश्व की व्यापार राजधानी के लिये - भारत में बना हुआ 

ज़मीन कब्ज़ियाने के लिये शंघाई नागरिकों पर हो रहे कम्युनिस्ट अत्याचारों की कहानी सुनाने संयुक्त राष्ट्र कार्यालय आये चीनी शरणार्थी

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी 2011 में भी अपनी जनता को दोज़ख भेज रही है

अधिकांश चीनी पीछे छूटे अपने परिवार के डर से कैमरा के सामने नहीं आये परंतु यह दो निडर प्रस्तुत हैं

बन्दूक द्वारा जनता को कुचलने वालों का दुनिया भर में वही हाल होगा जो इस पिस्तौल का हुआ है

वापसी से पहले युवा और विद्वान ब्लॉगर अभिषेक ओझा के दर्शन हुए, यात्रा सफल रही।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

===========================================
सम्बन्धित कड़ियाँ
===========================================
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्टेटस ऑफ चाइनीज़ पीपल (अंग्रेज़ी)
* संयुक्त राष्ट्र (विकीपीडिया)
* न्यूयॉर्क में हिंदी

Saturday, September 25, 2010

कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?

सोवियत संघ का दिवाला पिटने के समय से अब तक लगभग सारी दुनिया में कम्युनिज़्म की हवा कुछ इस तरह निकलती रही है जैसे पिन चुभा गुब्बारा। लेकिन विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के पड़ोस में कम्युनिज़म की बन्दूक, मेरा मतलब है, पर्चम अभी भी फहर रही है। वह बात अलग है कि कम्युनिज़्म के इन दोनों ही रूपों में तानाशाही के सर्वाधिकार और जन-सामान्य के दमन के अतिरिक्त अन्य समानतायें न्यूनतम हैं। कम्युनिज़्म के पुराने साम्राज्य से तुलना करें तो आज बहुत कुछ बदल गया है। क्या कम्युनिज़्म भी समय के साथ सुधर रहा है? क्या यह एक दिन इतना सुधर जायेगा कि लोकतंत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने लगेगा? शायद सन 2030 के बाद ऐसा हो जाये। मगर 2030 के बाद ही क्यों? क्योंकि, चीन के एक प्रांत ने ऐसा सन्देश दिया है कि आज से बीस वर्ष बाद वहाँ के परिवारों को दूसरा बच्चा पैदा करने का अधिकार दिया जा सकता है। मतलब यह कि आगे के बीस साल तक वहाँ की जनता ऐसे किसी पूंजीवादी अधिकार की उम्मीद न करे। मगर चीन के आका यह भूल गये कि अगर जनता 2030 से पहले ही जाग गयी तो वहाँ के तानाशाहों का क्या हाल करेगी।

ऐसा नहीं है कि चीन में इतने वर्षों में कोई सुधार न हुआ हो। कुछ वर्ष पहले तक चीन की जनता अपने बच्चों का नामकरण तो कर सकती थी परंतु उन्हें उपनाम चुनने की आज़ादी नहीं थी। चीनी कानून के अनुसार श्रीमान ब्रूस ली और श्रीमती फेंग चू के बच्चे का उपनाम ली या चू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। उस देश में होने वाले बहुत से सुधारों के बावज़ूद जनता की व्यक्तिगत पहचान पर कसे सरकारी शिकंजे की मजबूती बनाये रखने के उद्देश्य से कुलनाम के नियम में कोई छूट गवारा नहीं की गयी थी। मगर कुछ साल पहले जनता को एक बडी आज़ादी देते हुए उपनाम में माता-पिता दोनों के नाम का संयोग एक साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता दी गयी है। मतलब यह कि अब ली और चू को अपने बच्चे के उपनाम के लिये चार विकल्प हैं: चू, ली, ली-चू और चू-ली।

चीन से दूर कम्युनिज़्म के दूसरे मजबूत किले क्यूबा की दीवारें भी दरकनी शुरू हो गयी हैं। वहाँ के 84-साला तानाशाह फिडेल कास्त्रो के भाई वर्तमान तानाशाह राउल कास्त्रो ने देश की पतली हालत के मद्देनज़र पाँच लाख सरकारी नौकरों को बेरोज़गार करने का आदेश दिया है। मतलब यह है मज़दूरों के तथाकथित मसीहा हर सौ में से दस सरकारी कर्मचारी को निकाल बाहर कर देंगे। क्या इन बेरोज़गारों के समर्थन में हमारे करोड़पति कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति जैसा किताबी कार्यक्रम न सही, आमरण अनशन जैसा कुछ अहिंसक करेंगे?