Monday, July 28, 2008

पढ़े लिखे को फारसी क्या?

हिन्दी की एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?" छोटा था तो मुझे यह कहावत सुनकर बड़ा अजीब सा लगता था कि आजकल हम हिन्दी वाले जिस तरह अंग्रेजी के पीछे न्योछावर हुए जाते हैं उसी तरह सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक फारसी को पूजते थे। आख़िर अपनी भाषा के आगे विदेशी भाषा को इतना महत्व क्यों? मेरे सवाल का जवाब दिया मेरे बाबा (पितामह) ने।

बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स

इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:

सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)

इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती


ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.

आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।

Sunday, July 27, 2008

बेंगलूरू और अमदावाद - दंगा - एक कविता

पिछले दो दिनों में देश में बहुत सी जानें गयीं। हम सब के लिए दुःख का विषय है। पीडितों के दर्द और उनकी मनःस्थिति को शायद हम पूरी तरह से कभी भी न समझ सकें लेकिन हम दिल से उनके साथ हैं। हमें यह भी ध्यान रखना है कि देशविरोधी तत्वों के बहकावे में आकर आपस में ही मनमुटाव न फैले। यह घड़ी मिलजुलकर खड़े रहने की है। नफरत के बीज से नफरत का ही वृक्ष उगता है। इसी तरह, प्यार बांटने से बढ़ता है। कुछ दिनों पहले दंगों की त्रासदी पर एक कविता सरीखी कुछ लाइनें लिखी थीं। आज, आपके साथ बांटने का दिल कर रहा है - 

* दंगा * 
प्यार देते तो प्यार मिल जाता 
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता 

रहनुमा राह पर चले होते 
तो दरोगा न रौब दिखलाता 

मेरा रामू भी जी रहा होता 
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता 

सर से साया ही उठ गया जिनके 
दिल से फिर खौफ अब कहाँ जाता 

बच्चे भूखे ही सो गए थक कर 
अम्मी होती तो दूध मिल जाता 

जिनके माँ बाप छीने पिछली बार 
रहम इस बार उनको क्यों आता? 

 ईश्वर दिवंगत आत्माओं को शान्ति, पीडितों को सहनशक्ति, नेताओं को इच्छाशक्ति, सुरक्षा एजेंसियों को भरपूर शक्ति और निर्दोषों का खून बहाने वाले दरिंदों को माकूल सज़ा दे यही इच्छा है मेरी!

Friday, July 25, 2008

रैंडी पौष का अन्तिम भाषण - Really achieving your childhood dreams

जो लोग डॉक्टर रैंडी पौष (रैण्डी पॉश) से पढ़े हैं या मिले भी हैं उनकी खुशनसीबी का तो क्या कहना। जिन लोगों ने सिर्फ़ उनका "अन्तिम भाषण" ही सुना-देखा, वे भी अपने को धन्य ही समझते हैं। पिट्सबर्ग में हुआ उनका "अन्तिम भाषण" एक करोड़ से अधिक लोगों द्वारा सुनने-देखने के कारण अपने आप में एक कीर्तिमान है।

23 अक्टूबर 1960 को जन्मे पौष जी पिट्सबर्ग में कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में अध्यापन करते थे। 2006 में उन्हें पैंक्रियाज़ के कैंसर का पता लगा। बहुत अच्छा इलाज होने के बावजूद बीमारी शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैलती रही। पिछले वर्ष उनके चिकित्सकों ने उनको पाँच महीने का समय दिया। 18 सितम्बर 2007 को कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय ने उनके मान में "अन्तिम भाषण" (The Last Lecture) का आयोजन किया।

बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातों से प्रभावित होने के मामले में मेरी बुद्धि थोड़ी सी ठस है। लेकिन मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि "अन्तिम भाषण" की कोटि का कुछ भी मैंने पिछले कई सालों में तो नहीं देखा, न सुना।

"अन्तिम भाषण" ज़िंदगी से हारे हुए, किसी पिटे हुए शायर का कलाम नहीं है। न ही यह मौत से भागने के प्रयास में किया गया करुण क्रंदन है। इसके विपरीत यह एक अति-सफल व्यक्ति का अन्तिम प्रवचन है - शायद वैसा ही जैसा अपने अन्तिम क्षणों में रावण ने राम को या भीष्म पितामह ने पांडवों को दिया था।


रीयली अचीविंग योर चाइल्डहुड ड्रीम्ज़

"अन्तिम भाषण" का आधिकारिक शीर्षक था - "अपने बचपन के सपनों को सार्थक कैसे करें" (Really achieving your childhood dreams)। प्रोफ़ेसर पौष ने इसको संपन्न करते हुए कहा कि यदि आप अपना जीवन सच्चाई से गुजारते हैं तो आपके कर्म (Karma) इस बात का ध्यान रखेंगे कि आपके सपने अपने आप हकीकत बनकर आप तक पहुँचे। पतंजलि ने योगसूत्र में इसी को सिद्धि कहा है जो कि पूर्णयोग से पहले की एक अवस्था है।

उनके भाषण में सफलता के कारक जिन गुणों पर ख़ास ज़ोर दिया गया है वे निम्न हैं: सपनों की खोज, खुश रहना, खुश रखना, ईमानदारी, अपनी गलती स्वीकार करना और उसको सुधारने के लिए दूर तक जाना, कृतज्ञता, वीरता, विनम्रता, सज्जनता, सहनशीलता, दृढ़ इच्छाशक्ति, दूसरों की स्वतन्त्रता का आदर, और इन सबसे ऊपर - दे सकने की दुर्दम्य इच्छाशक्ति।

"अन्तिम भाषण" पर आधारित उनकी पुस्तक एक साल से कम समय में ही 30 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। अगर आपने "अन्तिम भाषण" का यह अविस्मरणीय अवसर अनुभव नहीं किया है तो एक बार ज़रूर देखिये। ध्यान से सुनेंगे और रोशनी को अन्दर आने से बलपूर्वक रोकेंगे नहीं तो यह भाषण आपके जीवन की दिशा बदल सकता है।

आज सुबह चार बजे रैंडी पौष इस दुनिया में नहीं रहे। मेरी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे। यूट्यूब पर उनके इस "अन्तिम भाषण" के अनेक अंश उपलब्ध है. एक यहाँ लगा रहा हूँ - यदि आप में से कोई देखना चाहें तो।


भाषण की पीडीऐफ़ फाइल डाउनलोड करने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये