Monday, June 26, 2017

ग़ज़ल?

मात्रा के गणित का शऊर नहीं, न फ़ुर्सत। अगर, बात और लय होना काफ़ी हो, तो ग़ज़ल कहिये वर्ना हज़ल या टसल, जो भी कहें, स्वीकार्य है।  
(अनुराग शर्मा)

काम अपना भी हो ही जाता मगर
कुछ करने का हमको सलीका न था

भाग इस बिल्ली के थे बिल्कुल खरे
फ़ूटने को मगर कोई छींका न था

ज़हर पीने में कुछ भी बड़प्पन नहीं
जो प्याला था पीना वो पी का न था

जिसको ताउम्र अपना सब कहते रहे
बेमुरव्वत सनम वह किसी का न था

तोड़ा है दिल मेरा कोई शिकवा नहीं
तोड़ने का यह जानम तरीका न था।

Monday, May 1, 2017

डर लगता है - कविता

सुबह-सुबह न रात-अंधेरे घर में कोई डर लगता है
बस्ती में दिन में भी उसको अंजाना सा डर लगता है

जंगल पर्वत दश्त समंदर बहुत वीराने घूम चुका है
सदा अकेला ही रहता, हो साथ कोई तो डर लगता है

कुछ दूरी भी सबसे रक्खी सबको आदर भी देता है
भिक्षुक बन दर आए रावण, पहचाने न डर लगता है

अक्खड़ और संजीदा उसकी सबसे ही निभ जाती है
भावुक लोगों से ही उसको थोड़ा-थोड़ा डर लगता है

नाग भी पूजे, गाय भी सेवी, शूकर कूकर सब पाला है
पशुओं से भी आगे है जो उस मानव से डर लगता है।
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

Sunday, April 9, 2017

असलियत - कविता

इश्क और मुश्क
छिपाए नहीं छिपते
न ही छिपते हैं
रक्तरंजित हाथ।
असलियत मिटती
नहीं है।
बहुत देर तक
नहीं छिपा सकोगे
बगल में छुरी।
भले ही
दिखावे के लिए
जपने लगो राम,
कुशलता से ढँककर
माओ, स्टालिन, पोलपोट
बारूदी सुरंग और
कलाश्निकोव को ...
अंततः टूटेंगे बुत तुम्हारे
और सुनोगे-देखोगे
सत्यमेव जयते

(अनुराग शर्मा)