बड़े दिनों के बाद सूरज इतना तेज़ चमका था। सब कुछ ठीक-ठाक था। सही मुहूर्त में बिस्मिल्लाह किया था। और गाडी वास्तुशास्त्र के हिसाब से एकदम सही दिशा में दौड़ने लगी थी। शुरूआत में यह कब सोचा था कि चार कदम चलकर गाड़ी पटरी से उतर जायेगी। माना कि ज़मीन थोड़ी ऊँची-नीची थी और हमारी ट्रेनिंग में थोड़ी कमी थी। मगर दिल में जोश होना चाहिए और वह भरपूर था।
सुनयना साथ ही बैठी थी। हमेशा की तरह बिफर उठी, "तुमसे तो कोई भी काम ठीक से नहीं होता है आजकल के बच्चे भी तुमसे बेहतर हैं। जो काम करने बैठते हो वही बिगाड़ देते हो... पिछले साल संगीत सम्राट तानसेन बनने का भूत सवार हुआ था। दो गिटार तोड़ डाले, एक तबला फाड़ दिया, और रहे वही बेसुरे के बेसुरे। उससे पहले कराते सीखने चले थे, पहले ही दिन टांग पर पलस्तर बंध गया। तैरने चले तो डूबते-डूबते बचे।"
"अरे मैंने जानबूझ कर तो ये सब नहीं किया न, थोड़ा अनगढ़ हूँ गलती हो जाती है" मैंने मायूस होकर कहा, "चलो इस बार आचार्य जी अचार वालों से सीख लेता हूँ।"
"अचार जी का ज़माना लद गया अब, किसी और को पकड़ो।"
"दुर दुर शौ डफर के बारे में क्या ख्याल है? काफी नाम सुना है उनका"
"रहे न वही बदाऊँ के लल्ला! कोई ग़दर थोड़े ही करानी है। अब तो कोई मोडर्न गुरु ढूंढना पडेगा।"
"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा, तुम ही कोई सुझाव दो।"
"परजीवी दो कान के बारे में क्या ख्याल है? पीएचडी हैं। काफी कनेक्शन भी बिठाए हुए हैं उन्होंने।"
"कनेक्शन से हमें क्या?"
"समझा करो, बाद में कनेक्शन ही काम आते हैं - टीवी इंटरव्यू से लेकर पद्मश्री तक सब मिल जाती है कनेक्शन की बदौलत"
"बात तो सही है, मगर वे बेमतलब हमें शिष्य नहीं बनायेंगे. हर बार सोगवार जी कैसे रहेंगे?"
"सोगवार जी!!!" वह इतनी जोर से उछली मानो साक्षात भगवान् सामने आ गए हों, "उन्हें जानते हो क्या?"
"कब की जान पहचान है हमारी, रोज़ मेरे पास आकर कहते थे कि कविता में उनकी जान बसती है। एक दिन जब फूट-फूटकर रोने लगे तो आखिर तंग आकर एक महफ़िल में मैंने कविता से उनका परिचय करा दिया।"
"अच्छा, फिर क्या हुआ।"
"होना क्या था, अन्ताक्षरी चल रही थी, सोगवार जी कविता को देखकर तरन्नुम में आ गए और गुनगुनाने लगे - होठों से छू लो तुम... कविता ने कहा - न बाबा न, दूर से ही सिगरेट की बास आती है - बात दिल को लग गयी। तुरंत छोड़ दी।"
"क्या? सिगरेट?"
"अरे सिगरेट नहीं, कविता की उम्मीद छोड़ दी। बस बन गए आलोचक। और तब से कवियों की छाती पर मूंग दल रहे हैं।"
"यह तो बहुत बुरा हुआ। दुर्घटनाग्रस्त होकर सड़क पर उल्टी पडी गाड़ी जैसी आपकी इस बेबहर ग़ज़ल की मरम्मत कौन करेगा अब?"
"अरे छोड़ो भी, एक से बढ़कर एक कवि बैठे हैं हिन्दी ब्लॉग-जगत में, हम भी बस उन्हें पढ़कर आनंदित हो लेंगे।"
"हाँ यही ठीक रहेगा" वह चहकी, "...रस-भंग होने से बच जाएगा।"
उसने चैन की साँस ली और हमारी कविताओं (?) की डायरी अंगीठी में झोंककर हाथ तापने लगी।
Saturday, January 30, 2010
Saturday, January 23, 2010
आत्महत्या क्यों?
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥
ईशोपनिषद के इस वचन में आत्महनन करने वालों के गहन अन्धकार में जाने की बात कही गयी है। संस्कृत में लिखे भारतीय ग्रन्थ काव्य के प्राचीनतम सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण हैं। (संस्कृत, संस्कृति, सुसंस्कृत)
अब काव्य है तो प्रतीक भी होंगे और अर्थ गूढ़ होने के कारण उसके हाथ से फिसल जाने का ख़तरा भी बना रहता है। हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई दूर का इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो वह उसका यही अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था। हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का। यहाँ तक भी ठीक है मगर जब हम पहले से निकाले गए एक झूठे निष्कर्ष का प्रचार करने को बैठे हों तब तो कोढ़ में खाज ही समझो।
पिछले दिनों में हिन्दी ब्लॉग में प्राचीन संस्कृति के रहस्य ढूँढने का प्रयास शुरू हुआ है और इसके साथ ही उसे ऐसी विचारधाराओं द्वारा हाइजैक करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं जो न तो इस भूमि पर पनपीं और न ही उनमें अपने से इतर विचारधाराओं को जांचने परखने की सहिष्णुता या धैर्य है। याद दिलाना चाहूंगा कि विचारधाराएँ ज्ञान, सत्य, उपयोगिता आदि पर टिकती हैं असत्य प्रचार और स्वार्थ पर नहीं। इसीलिये अंततः वही सत्य जीता है जिसमें और बेहतर सत्य पैदा करने की क्षमता होती है (असतो मा सद्गमय और चरैवेति चरैवेति)। मेरा यह स्पष्ट विचार है कि सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी किताबें पढ़कर सांख्य दर्शन के बारे में सत्य जानना उतना आसान नहीं है जितना सांख्य को उसके दार्शनिकों जैसे जीकर और उन्हीं की भाषा में पढ़कर जाना जा सकता है।
काफी कुछ लिखना है परन्तु समय नहीं है। अगले कुछ सप्ताह तक भी काफी व्यस्त रहूँगा मगर इस पोस्ट को मैं आगे की कुछ पोस्ट की भूमिका मान सकता हूँ। हाँ इस बीच में आत्महत्या के बारे में किसी की एक पोस्ट "आत्महत्या करने से बेहतर हैं लड़ कर मरो" पढी। बचपन में मैं भी कुछ-कुछ वैसा ही सोचता था जैसा उन्होंने लिखा है मगर आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।
ईशोपनिषद का उपरोक्त श्लोक भी उस पोस्ट की वजह से ही याद आया था। बीच में थोड़ा विषय-परिवर्तन हो गया मगर वह भी शायद ज़रूरी था।
और हाँ, पूर्व में कुछ मित्रों ने "पतझड़ सावन वसंत बहार" के बारे में पूछताछ की थी. यह पुस्तक 19वें विश्व पुस्तक मेला के दौरान प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी 2010 से 7 फरवरी 2010 तक, हिन्द-युग्म के स्टॉल नं॰- 285 (हॉल नं॰ 12A) पर उपलब्ध है।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥
ईशोपनिषद के इस वचन में आत्महनन करने वालों के गहन अन्धकार में जाने की बात कही गयी है। संस्कृत में लिखे भारतीय ग्रन्थ काव्य के प्राचीनतम सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण हैं। (संस्कृत, संस्कृति, सुसंस्कृत)
अब काव्य है तो प्रतीक भी होंगे और अर्थ गूढ़ होने के कारण उसके हाथ से फिसल जाने का ख़तरा भी बना रहता है। हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई दूर का इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो वह उसका यही अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था। हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का। यहाँ तक भी ठीक है मगर जब हम पहले से निकाले गए एक झूठे निष्कर्ष का प्रचार करने को बैठे हों तब तो कोढ़ में खाज ही समझो।
पिछले दिनों में हिन्दी ब्लॉग में प्राचीन संस्कृति के रहस्य ढूँढने का प्रयास शुरू हुआ है और इसके साथ ही उसे ऐसी विचारधाराओं द्वारा हाइजैक करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं जो न तो इस भूमि पर पनपीं और न ही उनमें अपने से इतर विचारधाराओं को जांचने परखने की सहिष्णुता या धैर्य है। याद दिलाना चाहूंगा कि विचारधाराएँ ज्ञान, सत्य, उपयोगिता आदि पर टिकती हैं असत्य प्रचार और स्वार्थ पर नहीं। इसीलिये अंततः वही सत्य जीता है जिसमें और बेहतर सत्य पैदा करने की क्षमता होती है (असतो मा सद्गमय और चरैवेति चरैवेति)। मेरा यह स्पष्ट विचार है कि सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी किताबें पढ़कर सांख्य दर्शन के बारे में सत्य जानना उतना आसान नहीं है जितना सांख्य को उसके दार्शनिकों जैसे जीकर और उन्हीं की भाषा में पढ़कर जाना जा सकता है।
काफी कुछ लिखना है परन्तु समय नहीं है। अगले कुछ सप्ताह तक भी काफी व्यस्त रहूँगा मगर इस पोस्ट को मैं आगे की कुछ पोस्ट की भूमिका मान सकता हूँ। हाँ इस बीच में आत्महत्या के बारे में किसी की एक पोस्ट "आत्महत्या करने से बेहतर हैं लड़ कर मरो" पढी। बचपन में मैं भी कुछ-कुछ वैसा ही सोचता था जैसा उन्होंने लिखा है मगर आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।
ईशोपनिषद का उपरोक्त श्लोक भी उस पोस्ट की वजह से ही याद आया था। बीच में थोड़ा विषय-परिवर्तन हो गया मगर वह भी शायद ज़रूरी था।
Tuesday, January 12, 2010
सत्य के टुकड़े
निर्मल आनंद वाले भाई अभय तिवारी कम लिखते हैं मगर जो भी लिखते हैं उसमें दम होता है. हमारी तो उनसे अक्सर असहमति ही रहती है मगर एक विचारवान मौलिक चिन्तक से असहमत होने में भी मज़ा आता है. निर्मल आनंद उन कुछ ब्लोग्स में से है जिन्हें मैं नियमित पढता हूँ. हाँ, टिप्पणी कम करता हूँ असहमति को अपने तक ही रखने के उद्देश्य से. अभी उनकी कविता बँटा हुआ सत्य पढी और उसके विचार ने ही इस कविता को जन्म दिया. कई बार कुछ पढ़कर पूरक विचार पर ध्यान जाता है. इसे भी उस कविता की पूरक कविता ही समझिये.
(अनुराग शर्मा)
सत्य पहले भी बँटा हुआ था
फर्क बस इतना था कि
तब टुकड़े जोड़कर सीने की
कोशिश होती थी
पञ्च परमेश्वर करता था
सत्यमेव जयते
पाँच अलग-अलग सत्य जोड़कर
विषम संख्या का विशेष महत्त्व था
ताकि सत्य को टांगा न जा सके
हंग पार्लियामेंट की सूली पर
सत्य के टुकड़े मिलाकर
निर्माण करते थे ऋषि
अपौरुषेय वेद का
टुकड़े मिलकर बना था
सत्य का षड-दर्शन
देवासुर में बँटा सत्य
एकत्र हुआ था
समुद्र मंथन के लिए
और उससे निकले थे
रत्न भांति-भांति के
सत्य
हमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे
(अनुराग शर्मा)
सत्य पहले भी बँटा हुआ था
फर्क बस इतना था कि
तब टुकड़े जोड़कर सीने की
कोशिश होती थी
पञ्च परमेश्वर करता था
सत्यमेव जयते
पाँच अलग-अलग सत्य जोड़कर
विषम संख्या का विशेष महत्त्व था
ताकि सत्य को टांगा न जा सके
हंग पार्लियामेंट की सूली पर
सत्य के टुकड़े मिलाकर
निर्माण करते थे ऋषि
अपौरुषेय वेद का
टुकड़े मिलकर बना था
सत्य का षड-दर्शन
देवासुर में बँटा सत्य
एकत्र हुआ था
समुद्र मंथन के लिए
और उससे निकले थे
रत्न भांति-भांति के
सत्य
हमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे
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