Thursday, December 18, 2008

जूताकार की तारीफ़ में...

वैसे जूताकार जैसा कोई शब्द पहले से है या नहीं, मुझे नहीं पता। जिस तरह श्रम करने वाले कामगार होते हैं, (समाचार) पत्र में लिखने वाले पत्रकार होते हैं उसी तरह एक सम्माननीय अतिथि पर जूता फेंककर मारने वाले को जूताकार कहा जा सकता है। आजकल एक वीर-शिरोमणि जूताकार की चर्चा हर तरफ़ धड़ल्ले से हो रही है। आश्चर्य नहीं है कि उसकी तारीफ़ में कसीदे पश्चिमी सरहद के पार ज़्यादा पढ़े जा रहे है। मगर सरहद के इस तरफ़ भी तारीफ़ में कोई कमी नहीं है। तारीफ़ शायद और भी ज़्यादा होती अगर यह जूताकार महोदय जूते की जगह बम आदि फैंकने का साहस जुटा पाते। मगर साहस की कमी सिर्फ़ इराक में ही नहीं बल्कि समस्त अरब जगत में है। सच कहूं तो वहाँ डर और कमजोरी भी उतने ही इफरात में हैं जितना कि बंजर भूमि और तानाशाही। वरना ओसामा-बिन-लादेन के अरब और पाकिस्तानी जल्लादों को सउदी अरब के सुल्तानों का विरोध प्रकट करने के लिए अमेरिका की खुली हवा में रहकर, वहाँ का नमक खाकर वहीं के हजारों निर्दोष नागरिकों की हत्या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे लोग अपनी दुश्मनी अपनी ज़मीन पर ही निबटा सकते थे।

सच यह है कि भारत से लेकर इस्राइल तक के दो प्रजातंत्रों के बीच के भूभाग में पनप रहे अरब-ईरान-तालेबान-पाकिस्तान जैसे जनतंत्र विरोधी (और जनविरोधी) क्षेत्रों, समुदायों की जनता में अपने हत्यारे और बलात्कारी तानाशाहों का मुकाबला करने का बिल्कुल भी दम नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपने आप में अनोखे दो जनतंत्रों से घिरा इतना बड़ा क्षेत्र किस्म-किस्म के जल्लादों द्वारा शासित नहीं होता। राजे-सुलतान-जनरल-तालेबान-आतंकवादी-मुल्ले जिसके हाथ में भी बन्दूक हो और मन में मानव जीवन के प्रति घृणा - वह यहाँ आराम से शासन कर सकता है।

उस इलाके में जूताकारों का जूता भी तब ही चल पाता है जब बुश महाशय की कृपा से लाखों निरीह मुसलमानों को गैस-चेंबर और गोलियों का निशाना बनाने वाला पिशाच सद्दाम हुसेन दोजख-नशीं हो चुका है। मेरे मन में सिर्फ़ एक ही सवाल उठता है कि कहाँ थे यह जूताकार महोदय जब सद्दाम ने उनके जैसे ५०० पत्रकारों को क़त्ल किया था? बेहतर होगा कि अपने को पत्रकार कहने वाले मौके का फायदा उठाकर नेता बनने की लालसा में जूतामार शहीद बनने के बजाय वीरगति को प्राप्त होकर (जान देकर) शहीद बनना सीखें और भारत, इस्रायल और अमेरिका जैसे लोकतंत्रों से सबक लेकर अपनी जनता को आज़ादी, इज्ज़त और दूसरे मूलभूत अधिकार देने की दिशा में काम करें। कम से कम इस सस्ती और घटिया जूतामार प्रसिद्धि के लालच से तो बचें।

जो भी हो इतना तय है की यह जूताकार महोदय कुछेक साल पहले के तानाशाह सद्दाम मामू को जूता दिखाने की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे गलती से अगर सद्दाम मामू के बुत (अरब देशों में तानाशाहों के बुत और बुत-परस्ती के बारे में विस्तार से फ़िर कभी) को भी जूता दिखा देते तो शायद वह ज़िंदा ही जंगली कुत्तों की खुराक बना दिए जाते।

दुखद है कि "संतोष: परमो धर्मः" के देश भारत में भी आजकल जूताकारी की असंतोषधर्मी प्रवृत्ति को बढावा दिया जा रहा है। जनता को इस दिशा में उकसाने वाले नेताओं को यह ध्यान रखना चाहिये कि पाकिस्तान के नाम पर अपना सब कुछ बर्बाद कर देने वालों की अगली पीढियों को कर्मों का फल बांगलादेश या बलूचिस्तान के नाम पर मिलता है। जो जूताकारों को चुनावी टिकट बांटेंगे, उनके खुद के ऊपर भी जूते पडने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। 

Wednesday, December 17, 2008

मर्म - कविता

जीवन का जो मर्म समझते
लम्बी तान सदा सोते न

दुनियादारी अपनाते तो
हम भी ऐसे हम होते न

तत्व एक कोयले हीरे में
रख कोयला हीरा खोते न

फल ज़हरीले दिख पाते तो
बीज कनक के यूँ बोते न

यदि सार्थक कर पाते दिन तो
रातों को उठकर रोते न।
(अनुराग शर्मा)

Sunday, December 14, 2008

काश - कविता

.
एकाकीपन के निर्मम मरु में
मैं असहाय खड़ा पछताता
कोई आता

दुःख के सागर में डूबा
मैं ज्यों ही ऊपर उतराता
कोई आता

घोर व्यथा अवसाद में डूबे
पीड़ित हिय को वृथा आस दिखलाता
कोई आता

आँसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता*
कोई आता

मेरा जीवन रक्षक बन जाता
कोई आता।

==========================
==========================