Wednesday, May 25, 2011

मोड़ी (मुड़िया लिपि) - एक मृतप्राय लिपि?

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फरवरी 2011 में रतलाम के माणक चौक विद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1847 से 1947 तक के 101 वर्ष की पुस्तक प्रदर्शनी एवम् अन्य समारोह किये गये। उसी दौरान विद्यालय के पुस्तकालय में जब विष्णु बैरागी जी को देवनागरी और गुजराती से मिलती-जुलती लिपि में लिखी एक दुर्लभ सी पुस्तक दिखाई दी तो उन्होंने नगर के वृद्धजनों की सहायता मांगी। गुजरातियों ने उस भाषा/लिपि के गुजराती होने से इनकार कर दिया और मराठी भाषा के जानकारों ने उसके मराठी होने को नकार दिया। तब विष्णु जी ने उस पुस्तक के दो पृष्ठ स्थानीय अखबार में छपवाने के साथ-साथ अपने ब्लॉग पर भी रख दिये। "यह कौन सी भाषा है" नामक प्रविष्टि में उन्होंने हिन्दी ब्लॉगजगत से इस बारे में जानकारी मांगी।

एक नज़र देखने पर मुझे इतना अन्दाज़ तो हो गया कि यह देवनागरी की ही कोई भगिनी है। बल्कि लिपि देवनागरी से इतना मिल रही थी कि थोडा सा ध्यान देते ही कुछ शब्द यथा "वचनसार" और "भाग तीसरा" पढने में भी आ गये। एक स्थान पर मुम्बई समझ में आया तो इतना तय सा लगने लगा कि भाषा तो हिन्दी या मराठी ही है। इतने शब्द समझ आने पर आगे का काम कुछ और आसान हुआ। कुछ और स्वतंत्र शब्दों पर दृष्टिपात करने पर एक शब्द और समझ आया "कींमत" म से पहले की बिन्दी ने यह विश्वास दिला दिया कि भाषा मराठी ही थी। अभी तक मैं नागरी के दो सीमित रूपांतरों के बीच में अटका हुआ था - कायथी और मोड़ी। एक राजकीय कामकाज की लिपि थी जोकि मुख्यतः कायस्थ जाति में प्रचलन में रही थी और दूसरी मोड़ी या मुड़िया जिसे हम अज्ञानवश वणिक वर्ग की लिपि समझते रहे थे। मैंने अपने परनानाजी द्वारा बम्बैया फॉंट की देवनागरी में लिखी हिन्दी तो देखी थी परंतु मोड़ी या कायथी का कोई उदाहरण मेरी आँख से नहीं गुज़रा था।

मोड़ी और कायथी की खोज के लिये जब इंटरनैट खोजना चालू किया तो यह तय हो गया कि है तो यह मोड़ी ही। इस जानकारी के बाद काम और आसान हो गया। इंटरनैट पर मोड़ी के अंक, स्वर और व्यंजन तो मिले परंतु मात्रायें नहीं थीं। ऊपर से मराठी मेरी मातृभाषा नहीं है। और फिर वह पुस्तक भी सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी थी। तब भाषा का स्वरूप भी भिन्न हो सकता है। इस समय तक मेरे पास इतनी जानकारी इकट्ठी हो चुकी थी कि मैं अपने सहृदय मराठीभाषी मित्र श्री हर्षद भट्टे को तकलीफ दे सकता था। रात के 11 बजे थे। पिट्सबर्ग के निवासी हम दोनों ही पिट्सबर्ग से बाहर सुदूर विभिन्न राज्यों में थे। मैंने सारे लिंक उन्हें भेजे और हम दोनों अपने अपने फोन, कम्प्यूटर, कागज़, कलम आदि लेकर काम पर जुट गये।

आरम्भ किया लेखक के नाम से तो सामान्य बुद्धि, क्रमसंचय और संयोग के सूत्र जोडकर शब्द मिलाते-मिलाते एक ब्रिटिश पुस्तकालय की सूची से इतना पता लगा कि मोड़ी लिपि सिखाने के लिये मोड़ी वचनसार नाम की पुस्तक शृंखला लिखी गयी थी। लेखक का कुलनाम "पोद्दार" हमें पता लग चुका था परंतु उनके जिस दत्तनाम को हम लोग वयतिदेव समझ रहे थे वह वसुदेव निकला। इसके बाद तो पुस्तक के उन पृष्ठों में जितने वाक्य पूरे दिखे, हमने सारे पढ़ डाले और रात के एक बजे एक दूसरे को शुभरात्रि कहकर फोन रखा। जानकारी विष्णु जी तक पहुँचा दी।

मोड़ी क्या है और अब कहाँ है?

भारतीय ज्ञान और साहित्य की परम्परा मुख्यतः श्रौत रही है फिर भी ज्ञान को लिखे जाने के विवरण हैं। खरोष्ठी, ब्राह्मी आदि से आधुनिक भारतीय लिपियों तक की यात्रा सचमुच बहुत रोचक और उतार-चढ़ाव भरी रही है। लिपियों को उन्नत करने का काम दो स्तरों पर चलता रहा। मुख्य स्तर तो लिपि को विस्तृत करके उसे भाषा के यथासम्भव निकट लाने का श्रमसाध्य काम रहा। अधिकांश भारतीय लिपियों के आपसी अंतर और अब अप्रचलित अधिकांश लिपियों की सीमायें इस वृहत कार्य के साक्षी हैं। दूसरा स्तर लेखन के माध्यम पर निर्भर रहा। यहाँ नयी लिपियाँ शायद कम जन्मीं, परंतु स्थापित लिपियों में प्रयोगानुकूल परिवर्तन हुए। उदाहरण के लिए कील से बन्धे ताड़पत्रों पर लिखी जाने वाली ग्रंथ, मलयालम या उडिया लिपि में अक्षरों की गोलाई इसका एक उदाहरण है। इसके विपरीत शिलालेख और सिक्कों की लिपियाँ अक्सर सीधी रेखाओं और स्वतंत्र अक्षरों का प्रदर्शन करती हैं। तिब्बती लिपि और उड़िया लिपि के अक्षरों के अंतर इन लिपियों के माध्यमों के अंतर को भी उजागर करते हैं।

प्राचीन काल में जब लिपियों का प्रयोग मुख्यतः धार्मिक और शासकीय कार्यों के लिये हुआ तब पत्थरों पर राजाज्ञायें लिखते समय की लिपियाँ उस कार्य के उपयुक्त रही हैं। सिक्के, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं जैसे कड़े माध्यमों की लिपियाँ उस प्रकार की रहीं। लेकिन कागज़-कलम का प्रयोग आरम्भ होने के बाद लेखन कभी भी कहीं भी तेज़ गति से किया जा सकता था। दुनिया भर में कातिब/पत्र लेखक जैसे नये व्यवसाय सामने आये। तब लिपियों के कुछ ऐसे रूपांतर हुए जिनमें गतिमान लेखन किया जा सके। इन प्रकारों को एक प्रकार से शॉर्टहैंड का पूर्ववर्ती भी कहा जा सकता है। लेखन के घसीट (कर्सिव) तरीके से एक लेखक अपनी कलम कागज़ से हटाये बिना तेज़ काम कर सकता था। नस्तालिक़/खते शिकस्ता, काइथी/कैथी और मोड़ी/मुड़िया लिपि इसी प्रकार की लिपियाँ थीं।

मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर तो नहीं है। लगभग वही अक्षर और लगभग सभी स्वर। कुछ मात्राओं में लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना अपेक्षित था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था जैसा कि मोड़ी वचन सार के मुखपृष्ठ से ही ज़ाहिर है। माना जाता है कि सन् 1600 से 1950 तक मोड़ी ही मराठी की प्रचलित लिपि रही। टाइपराइटर, शॉर्टहैंड, छापेखाने आदि साधनों के आगमन से ही कर्सिव लिपियों के पतन का काल आरम्भ हो गया था और अब कम्प्यूटर के युग में शायद इन लिपियों का भविष्य संग्रहालयों और लिपि/भाषा-विशेषज्ञों के हाथों में सुरक्षित है।

स्पष्टीकरण
टिप्पणियाँ पढने के बाद इस लिपि के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण देना ज़रूरी हो गया है अन्यथा कुछ भ्रम बने रह जायेंगे।
1. मात्रायें मोड़ी लिपि का अभिन्न अंग हैं।
2. मोड़ी और महाजनी दो अलग लिपियाँ हैं। महाजनी राजस्थान से पंजाब तक प्रचलित थी जबकि मोड़ी लिपि राजस्थान से महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि तक।
3. मोड़ी लिपि केवल व्यापार या मुनीमी तक सीमित नहीं थी। मध्य-पश्चिम भारत में राजस्थान से महाराष्ट्र तक इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होता था। मराठा साम्राज्य का बहुत सा पत्र-व्यवहार इस लिपि में है। सन 1950 तक मराठी की अधिकांश पुस्तकें मोड़ी में लिखी गयी थीं।
4. यह कूटलिपि नहीं है। इसका उद्देश्य गुप्त हिसाब-किताब या कूट संदेश नहीं था।
5. यह ऐसी संक्षिप्त लिपि भी नहीं है जैसी कि इंटरनैट चैट में प्रयुक्त होती है। हर शब्द देवनागरी जैसे ही लिखा जाता है।
6. मानक देवनागरी की तुलना में मोड़ी लिपि में लेखन अपेक्षाकृत गतिमान है परंतु लिपि की सीमायें हैं।
7. भारत के विभिन्न पुस्तकालयों और धार्मिक केन्द्रों जैसे श्रवणवेळगोला में मोड़ी लिपि के उदाहरण उपलब्ध हैं।
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* श्री मोडी वैभव
* मोड़ी - विकिपीडिया
* यह कौन सी भाषा है (विष्णु बैरागी)
* मोड़ी लिपि का इतिहास (मराठी में)
* मोड़ी = जल्दी में लिखी हुई अस्पष्ट लिपि
* श्री केशवदास अभिलेखागार
* Modi script - Wikipedia
* Modi alphabet - Omniglot
* माणकचौक विद्यालय की पुस्तक प्रदर्शनी में मोड़ी पुस्तकें
* राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ (प्रेम कुमार)

Monday, May 23, 2011

तितलियाँ [इस्पात नगरी से - 40]

तकनीक भी क्या कमाल की चीज़ है। यह आधुनिक तकनीक का ही कमाल है कि आजकल लगभग हर रोज़ ही मेरी भेंट श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय से होती है। वे अपनी सुबह की सैर पर माँ गंगा के दर्शन करते हैं और लगभग उसी समय मैं अमेरिका के किसी भाग में अपनी शाम की सैर पर पैतृक सम्पत्ति में से बचे अपने एकमात्र खेत को दो भागों में बांटती अरिल नदी को मिस कर रहा होता हूँ।

जब यह बात मैंने उन्हें कही तो उन्होंने मुझे अपनी सैर के बारे में लिखने को कहा। ब्लॉगिंग के दौरान ही थोडा बहुत पढकर उन्हें जाना है। वे अनुशासित व्यक्ति दिखते हैं। नियमित रूप से प्रातः भ्रमण करने वाले। गंगा की सफाई से लेकर ज़रूरतमन्दों में कम्बल बांटने तक के बहुत से काम भी करते रहे हैं वे। ब्लॉग पोस्ट भी प्रातः निश्चित समय पर आती है। अपना हिसाब एकदम उलट है। मैंने जीवन में बहुत तरह के काम किये हैं। इतनी तरह के कि बहुत से लोग शायद विश्वास भी न करें। मगर मैं कभी भी सातत्य रख नहीं सका। कितने नगर, निवास, विषय, व्यवसाय, प्रयास, कौशल, कभी किसी चीज़ को पकड के रख नहीं सका। [या शायद मुझे इनमें कुछ भी बान्ध नहीं सका]

मुझे पता है कि मेरी सैर भी मेरे एकाध अन्य मिस-ऐडवेंचर्स की तरह कुछ दिनों तक ही नियमित रहने वाली है। सो सैर पर नियमित तो नहीं परंतु अनियमित सैरों के बीच हुई कुछ मुठभेडों की सचित्र झलकियाँ देता रहूंगा। कैमरा सदा साथ नहीं होता है इसलिये कुछ चित्र फोन से भी आते-जाते रहेंगे।

आज चित्रों के माध्यम से मुलाकात करते हैं कुछ तितलियों से। क्लिक करके सभी चित्रों को बडा किया जा सकता है।










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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
सम्राट पतंगम - इस्पात नगरी से

Friday, May 20, 2011

इस ब्लॉग की आखिरी पोस्ट?

इस ब्लॉग का अंत, तुरंत!

जी नहीं, बात वह नहीं है जो आप नहीं समझ रहे हैं। अगर आप यह ब्लॉग पढते हैं तो आपको अच्छी तरह पता है कि, मुझे टंकी पर चढने का कोई शौक नहीं है। मैं तो चाहता हूँ कि मैं रोज़ लिखूँ, परिकल्पना वाले रोज़ मेरे लेखन को इनाम दें, विभिन्न चर्चा मंच इसे चर्चित करें, यार-दोस्त इसे फेसबुक पर मशहूर करें, सुमन जी   "सुपर नाइस" की टिप्पणी दें, आदि, आदि। मगर मेरे चाहने से क्या होता है, वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है।

... और खुदा को कुछ और ही मंज़ूर था। मुझे भी कहाँ पता था। वह तो भला हो फैमिली रेडियो का जो लगातार चीख-चीख कर यह कहता रहा। नहीं, उसने यह स्पष्ट नहीं कहा कि मैं लिखना बन्द कर दूँ। रेडियो ने तो यह भी स्पष्ट नहीं कहा कि लोग मेरे ब्लॉग को पढना और इसको प्रमोट करना रोकें। इस रेडियो ने इतना ही कहा है कि बाइबिल के वचन और गहन गणनाओं के अनुसार शनिवार 21 मई, 2011 को शाम 6 बजे संसार का अंत हो जायेगा।

फैमिलीरेडिओ की हिन्दी साइट 
खुदा के ये बन्दे न सिर्फ रेडियो पर प्रलय का प्रचार कर रहे हैं बल्कि अपनी बस लेकर सारे अमेरिका में घूम रहे हैं, भाषण दे रहे हैं, और बडे, बडे होर्डिंग लगा रहे हैं। इनके साथ चल रहे कई लोग अपना काम-धाम छोडकर निश्चिंत हो गये हैं, क्योंकि उनके हिसाब से दुनिया, बस्स ....

संसार के खात्मे की बात पुरानी संस्कृतियों में गहराई तक धंसी हुई थी। तब का मानव महाशक्तिशाली प्रकृति को नाथना सीख नहीं पाया था।  प्राकृतिक आपदाओं से जैसे-तैसे बचते-बचते शायद संसार के अचानक समापन की धारणा  काफी बलवती हुई। फिर, विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ ऐसे विचार सिर्फ कथा-कहानियों या छद्म-विज्ञान चलचित्रों तक ही सीमित रह गये।

अंतिम अंक
इस्राइल के पुनर्निर्माण ने जजमैंट डे, डूम्स डे, रैप्चर, प्रलय, आदि की परिकल्पनाओं को एक बार फिर से हवा दे दी क्योंकि बाइबिल में इन दोनों ही घटनाओं की भविष्यवाणी थी। वैसे मई 21, 2011 कोई पहली तारीख नहीं है जब प्रलय की घोषणा की गयी हो। इससे पहले भी अनेकों बार ऐसी भविष्यवाणी की गयी है, और जैसा कि हम सब जानते हैं, हर बार गलत सिद्ध हुई है। वाय2के समस्या की बात हो या हैड्रॉन कोलाइडर द्वारा ब्लैक होल निर्माण का भय हो, सभी निर्मूल सिद्ध हो चुके हैं। फैमिली रेडियो वाले संघ के प्रमुख, 89 वर्षीय हैरोल्ड कैम्पिंग ने भी इससे पहले 1994 में संसार के अंत की बात का प्रचार किया था। एक रेडियो इंटरव्यू में इस बारे में पूछे जाने पर उसने अपनी गलती स्वीकारते हुए कहा कि उसे पहले ही पता था कि तब उसकी गणना पूर्ण नहीं थी। मगर इस बार ... नो चांस!

तो भैया, जब हम ही नहीं रहेंगे तो जे बिलागिंग कैसे करैंगे?

[मेरे जैसे भोले भाले मित्रों के लिये डिस्क्लेमर: मई 21, 2011 को संसार के खात्मे की खबरें फैलाई जा रही हैं, मगर मेरा उन पर कोई विश्वास नहीं है। इस आलेख को एक व्यंग्य के रूप में लिख रहा हूँ। ]

मज़ेदार बात यह है कि प्रलय की प्रतीक्षा में बैठे फैमिली रेडियो की वैब साइट पर कॉपीराइट का नोटिस बरकरार है। क्या पता खुदा इरादा बदल ले और इन्हें अपनी किताबों के सर्वाधिकार के लिये दुनियावी अदालत में मुकद्दमा लडना पडा तो? हम तो आपसे पुनः मिलते हैं, इसी समय, इसी जगह, अगले दिन, अगले सप्ताह, हर रोज़!
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सम्बन्धित कडियाँ
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* अमरीकी अभियंता द्वारा प्रलय की गणना (अंग्रेज़ी में)
* फैमिली रेडियो (हिन्दी सहित अनेकों भाषाओं में)
* सीएनएन विडिओ क्लिप (यूट्यूब)
* Harold Camping Gets Doomsday Prediction Wrong
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अपडेट
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टिप्पणियों में आप लोगों के प्रश्नों के बाद मैने पता किया कि समय 6 बजे साँय, ईस्टर्न टाइम है (भारत में - 22 मई सुबह के 3:30) अर्थात इन लोगों का विश्वास है कि पिट्सबर्ग में 6 बजते ही यमराज जी अपना कार्यक्रम शुरू कर देंगे। भक्तजन तो उसी समय स्वर्ग पहुँचा दिये जायेंगे जबकि हम जैसे पापी 6 मास तक तडपेंगे और फिर 21 अक्टूबर में संसार का कम्प्लीट खात्मा होने पर शायद नरक में ट्रांसफर कर दिये जायेंगे।
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