Friday, August 2, 2013

कैन्टन एवेन्यू, बीचव्यू - इस्पात नगरी से [63]

बरेली में थे तो सब कुछ समतल था। बिहारीपुर का ढलान, या कुल्हाड़ापीर की चढ़ाई से आगे यदि कोई सोचता तो शायद छावनी की हिलट्रेक रोड ही थी। हाँ, नैनीताल बहुत दूर नहीं था। सैर के लिए लोग गर्मियों में अक्सर वहाँ जाते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पूर्णागिरी देवी का दर्शन पर्वत यात्रा का कारक बनाता था। इस शृंखला की पिछली कड़ी में हमने पिट्सबर्ग के हिमाच्छादित कुटिल पथों के नैसर्गिक सौन्दर्य को देखा था। आज फिर से हम पिट्सबर्ग की सैर पर निकले हैं। ऊंची, नीची, टेढ़ी मेढ़ी सड़कें। सावन के महीने में बर्फ तो नहीं है लेकिन टेढ़ापन मौसम से कहाँ बदलता है?


आपके साथ आज हम चलते हैं कैन्टन एवेन्यू (Canton Avenue) देखने जिसका ढलान (grade) 37% है। यह मामूली सी दिखने वाली संख्या किसी सड़क की चढ़ाई के लिए काफी बड़ी है, इतनी बड़ी कि सामान्यतः नज़रअंदाज़ रहने वाली मामूली सी सड़क कैन्टन एवेन्यू को आधिकारिक रूप से अमेरिका की सबसे ढलवां सड़क होने का गौरव प्राप्त है।

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स के अनुसार न्यूज़ीलैंड की बाल्डविन स्ट्रीट संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई है। लेकिन जब उसके ढलान की बात आती है तब स्पष्ट होता है कि वास्तव में कैन्टन एवेन्यू ही संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई वाली सड़क है। शुक्र है कि अमेरिका में वोट पाने के लिए इन मुद्दों की आक्रामक दूकानदारी का रिवाज नहीं है वरना ...  

कैन्टन एवेन्यू की कुल लंबाई 192 मीटर या 630 फुट है। इस पर तीन मीटर की क्षैतिज दूरी तय करने पर आप स्वतः ही 1.1 मीटर चढ़ लेते हैं। पिट्सबर्ग के लोगों को यह सड़क देखने पर कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि बहुत से घरों के घास के मैदान भी इससे अधिक ढलवां होते हैं। लेकिन (ड्राइवेबल) सड़क की बात और है। सड़क के किनारे का फुटपाथ दरअसल सीढ़ियाँ हैं।

पिट्सबर्ग की "डर्टी दजन" साइकल रेस 12 चढ़ाइयों से गुजरती है जिनमें कैन्टन एवेन्यू सबसे महत्वपूर्ण है। इसी साइकिल दौड़ के कैन्टन एवेन्यू खंड की एक वीडियो क्लिप यूट्यूब के सौजन्य से प्रस्तुत है।


सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* डर्टी दजन साइकल रेस
* कैन्टन एवेन्यू - विकीपीडिया
 

Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Saturday, June 22, 2013

चाफ़ेकर बंधु - पहले क्रांतिकारी

1857 के स्वाधीनता संग्राम को कुचले हुए अर्ध-शताब्दी नहीं गुज़री थी। कुछ लोग अंग्रेजों की उपस्थिति से संतुष्ट थे, कुछ का गुज़ारा ही भ्रष्ट साम्राज्यवाद से चल रहा था लेकिन कुछ दिलों में क्रान्ति की ज्वाला अभी भी सुलग रही थी।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की नीतियों में लूटपाट के अलावा जबरिया विश्व व्यापार के जरिये अकूत धनोत्पादन भी शामिल था। इसके लिए अनेक अवांछित करों के अलावा भारत की परंपरागत कृषि के बजाय नकदी फसलों का उत्पादन कराया जा रहा था। भोले-भाले किसानों को विदेश में गन्ने की खेती शुरू करने के उद्देश्य से बंधुआ मजदूर बनाकर जलपोतों की तलहटी में ठूँसकर निर्यात किया जा रहा था। देश में अफीम, तंबाकू, नील आदि की खेती के कारण दुर्भिक्ष और भुखमरी सामान्य हो गए थे। क्रूर जमींदारों और सामंतों को सरकारी संरक्षण था लेकिन सामान्यजन का बुरा हाल था। फैक्टरी निर्मित कपड़े को दिये जा रहे सरकारी उकसावे के कारण बुनकरों की हालत खराब थी। कमोबेश यही हाल अन्य शिल्पकारों का भी था।

सन 1897: भारत का बड़ा भाग प्लेग की चपेट में था। अंग्रेज़ शासक अपने शाही ठाठ में डूबे हुए थे। समाचार थे कि बीमारों के इलाज के बजाय, सरकारी महकमा बीमारी सीमित करने के नाम पर पीड़ित क्षेत्रों की बलपूर्वक घेराबंदी (quarantine/isolation) में जूटा था। अनेक नगरों में बीमारों के दमन के लिए सेना बुला ली गई थी। पुणे में असिस्टेंट कलेक्टर चार्ल्स वाल्टर रैंड (Charles Walter Rand, ICS) द्वारा संचालित "स्पेशल प्लेग कमिटी" के अधिकारी डरहम लाइट इनफेंटरी के गोरे सैनिकों के साथ घर-घर में घुसकर सतही लक्षणों के आधार पर परिवार की संपत्ति का नाश करके परिजनों, महिलाओं, बच्चों को पकड़कर ले जाने लगे। सामान जलाए गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं। पवित्र स्थल जूतों और संगीनों से अपवित्र किए गए। शवयात्रा और बिना आज्ञा दाह संस्कार अपराध घोषित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध भारतीय यह सब नहीं सह सके। स्पेशल प्लेग कमिटी, सैनिक दमन, सड़ती लाशों और प्लेग से आसन्न मृत्यु की आशंका के बीच पुणे की जनता तड़प रही थी। गोपाल कृष्ण गोखले ने गोरे सिपाहियों द्वारा किए गए दो बलात्कारों का ज़िक्र भी किया है जिनमें से एक की परिणति आत्महत्या में हुई।

इस दुष्काल मे भी जब अंग्रेजों ने मानव जीवन के प्रति पूरी निष्ठुरता दिखाकर रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के हीरक जयंती समारोह मनाने शुरू कर दिये तो जनता का खून खौलने लगा। चिंचवाड़ निवासी श्रीमती द्वारका और श्री हरि विनायक चाफेकर के पुत्रों ने ऐसा कुछ करने की ठानी जो दशकों में नहीं हुआ था। 22 जून 1897 को मुख्य सरकारी समारोह की शाम को दो भाई, दामोदर हरि चाफेकर और बालकृष्ण हरि चाफेकर समारोह स्थल के निकट गणेशखिंड रोड (वर्तमान: सेनापति बापट मार्ग) पर एक-एक तलवार और पिस्तौल के साथ खड़े होकर रैंड के आने का इंतज़ार करने लगे।

गाड़ी पहचानने के बाद वे भीड़ के कारण अपनी तलवारें पीछे छोडकर समारोह स्थल की भीड़, बैंड और आतिशबाज़ी के बीच होते हुए भवन के निकट रैंड की गाड़ी के वापस आने के इंतज़ार मे खड़े हुए। गाड़ी आने पर दामोदर ने संकेत दिया, "गोंड्या आला रे!" बालकृष्ण ने गोलियां चलाईं तो गाड़ी पलट गई। भाइयों को पता लगा कि गोली रैंड को नहीं बल्कि उसके अंगरक्षक लेफ्टिनेंट चार्ल्स एगर्टन अरस्ट (Lt. Charles Egerton Ayerst) को लगी थी। इस बार बालकृष्ण की गोली चली और रैंड को लगी जो कि बाद में (3 जुलाई 1897 को) ससून अस्पताल में मर गया।

दामोदर हरि चाफेकर को 18 अप्रैल 1898 को तथा अन्य बंधुओं और साथी महादेव रानाडे को बाद में फांसी दे दी गई। एक बालक विष्णु साठे को दस वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। लेकिन इस कृत्य ने विदेशी साम्राज्यवाद के सशस्त्र विद्रोह की बुझती चिंगारी को पुनरुज्ज्वलित कर दिया जो अंततः स्वतंत्र भारत के रूप में चमकी।

हुतात्माओं की जय! अमर हो स्वतन्त्रता!

संबन्धित कड़ियाँ
रामवाड़ी राम मंदिर - क्रांतिवीर चाफ़ेकर बंधु राष्ट्रीय स्मारक
* क्रांतिवीर चापेकरांचे समूहशिल्प पूर्ण होणार तरी कधी?