पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।
पिछले अंश में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
अब आगे की कहानी ...
हमारे सम्बन्धों के सिरे उस रात कुछ अजीब तरह से टूटे थे। आज इतने दिन बाद एक दूसरे से मिलकर खुश तो थे मगर यह दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात शुरू कहाँ से की जाये। वैसे तुमने मेरे गायब होने का शिकवा कर दिया था मगर वर्षों पहले टूटे हमारे सम्वाद को उससे कोई सहायता नहीं मिली।
“जिनसे रोज़ मिलते हैं उनसे कितनी बातें होती हैं कुछ दिन न मिलो तो लगता है जैसे बात करने को कुछ बचा ही न हो” कहकर मुस्कराई थीं तुम। मोतियों जैसी दंतपंक्ति आज भी वैसी ही थी। मेरे दाँत तो खराब होने लगे हैं। तुम्हारी मुस्कान के प्रत्युत्तर में खुलते मेरे मुँह को मेरे दाँतो के कारण उपजे हीनताबोध ने वापस बन्द कर दिया था। सब राजा का दोष है। वही रोज़ाना लंच के बाद मेरे मना करते करते ज़बर्दस्ती पान खिला देता है। वैसे दाँत ही अकेला कारण नहीं था। मिलने में देरी का सम्वाद से कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह मैं मान ही नहीं सकता। वार्ता के लिये कोई सूत्र तो तब मिलता जब हम बात करने के लिये मानसिक रूप से तैयार होते। मानसिक तैयारी होती तो उस रात भी सम्वाद इस बुरी तरह टूटता नहीं शायद।
आज तुम्हारे सामने बैठकर मुझे बोध हुआ था कि मैं अब तक तुम्हें भूल क्यों नहीं पाया था। मैं अभी भी उस एक घटना का एक तार्किक स्पष्टीकरण ढूंढ रहा था। तुमसे केवल एक बार मिलने की इच्छा मन में कहीं गहराई तक दबी हुई थी क्योंकि मन यह समझ ही नहीं पाता था कि उस रात अकारण ही तुम मुझसे इतनी नाराज़ कैसे हो गयी थीं। मनोवैज्ञानिक शायद इसे मेरा संज्ञानात्मक मतभेद कहेंगे। नाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह सत्य नहीं बदलेगा कि तुम्हारी याद की चील मेरे मन-मस्तिष्क के आकाश पर तब तक सदैव मंडराती रहती जब तक मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल नहीं जाता।
तुम्हारे सामने बैठा मैं तुम्हारी आँखों में देखकर सोच रहा था कि क्या आज मुझे तुम्हारी याद से मुक्ति मिलेगी? या फिर आज भी तुम मुझे किसी नये सवाल में उलझाकर मेरे जीवन से पुन: अदृश्य हो जाओगी। नहीं आज मैं तब तक जमा रहूंगा जब तक कि मुझे अपने प्रश्न का तसल्लीबख्श जवाब नहीं मिल जाता है। लेकिन तब संजय के जन्मदिन का क्या? वह बेचारा तो चुपचाप अपने घर में बैठा मेरी राह देख रहा होगा। लगता है मुझे ही बात शुरू करनी पड़ेगी।
“घर में सब कैसे हैं? बाल-बच्चे ...”
“ठीक ही हैं। इतने दिन बाद मिले हो, मैं कैसी हूँ यह नहीं पूछोगे क्या?”
“चलो, यही बता दो। तुम कैसी हो?”
“सिगरेट तो तुमने छोड़ दी थी। चाय मंगाती हूँ।”
“सिगरेट तो छोड़नी ही थी। तुम्हारा हुक़्म जो था। वैसे भी मैं कोई धुरन्धर चिलमची थोड़े ही था, बस कभी-कभार राजा ज़िद करता था तो पी लेता था।”
चाय आ गयी थी। बातचीत का वर्षों से टूटा सिलसिला भी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा था। तुमने बताया कि चुगली कर कर के सुनील आजकल यूनियन का काफी बड़ा नेता बन गया है। उसकी छत्रछाया में तुम्हें कोई डर नहीं है। बात में से बात निकलती जा रही थी। तुम राजा के अतिरिक्त सभी पुराने साथियों के बारे में उत्सुकता से पूछ रही थीं। राजा तुम्हें शुरू से ही नापसन्द था। मज़े की बात यह थी कि तुमने एक भी साथी का नाम ठीक से नहीं बोला था। सुधीर को रणधीर, नटराजन को पटवर्धन, प्रमोद को विनोद, छाया को माया ... और भी न जाने क्या-क्या? याद आया कि इतने दिनों से तुम्हारे व्यवहार का यह मासूम, लुभावना बचपना भी तो मिस करता रहा था मैं। मैं सबके नाम सही करता रहा और उनके बारे में जितना जानता था वह सब बताता भी रहा।
दोस्तों के बाद बात मेरी शादी की तरफ मुड़ी तो मैंने कभी शादी न करने के अपने निर्णय के बारे में बताया। एक ठण्डी साँस भरकर तुमने भी सहमति सी ही जताई।
“मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?” तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।
[क्रमशः]
बातचीत पटरी पर आ रही है ...
ReplyDeleteउनके ऐ जी , ओ जी के बारे में जानेंगे कब ..?
मुआफी हुजूर ,पिछले अंक पढ़ नहीं पाया -मगर इस अंक ने बहुत कुछ संभाल लिया -ये जज्बाती बातें कथोपकथन में इतनी सहजता से डाल कैसे जाते हो अनुराग भाई -सीखना है मुझे ! कब सिखायेगें ??>
ReplyDeleteमिश्रा जी, मज़ाक कर रहे हैं, राईट?
ReplyDeleteसारी बातें पटरी पर हैं, ट्रेन संभवतः सारे स्टेशनों पर रुके।
ReplyDeleteपुरानी साथी से नई मुलाकात का किस्सा रोचक होते जा रहा है ... उत्सुकता बढती जा रही है ...
ReplyDeleteवैसे सच है कि आपने यह सब बातें बड़ी सहजता से लिख दी है ... मैं तो शायद ऐसा कभी लिख ही नहीं पाता ... आपका यह बेबाकपन सचमे सराहनीय है ...
इन प्रसंग को पढ़कर ऐसा लग रहा है जैसे कि यह मेरी अपनी ही कथा हो!
ReplyDelete@ अरविन्द जी की मासूमियत पर कुर्बान हुआ जाये :)
ReplyDelete@ चिपक कर पढ़ ही रहे थे ! झटका लगा , जब कथा अगले एपिसोड तक सरक गई !
दोस्ती एक ऐसी चीज़ है जहाँ दिल लग गया फिर मत पूछिए बात त ख़त्म होने का नाम नही लेती..सारे नये-पुराने किस्से सामने आ जाते है और सब डूब जाते है...सुंदर प्रस्तुति...धन्यवाद अनुराग जी
ReplyDeleteथोडा बीच का अन्तराल लम्बा हो जाता है अतः पुरानी कथा दुबारा पढनी पढ़ती है. आप बेहतरीन ढंग से कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं.
ReplyDeleteसर, आप भी हलाल में यकीन करते हैं? कर रहे हैं जी इंतज़ार, करते रहेंगे।
ReplyDeleteरोचकता बांधे हुये है।
हे भगवान् आप भी.. ऐ जी, ओ जी ?
ReplyDeleteहे राम....चलिए आपकी भी सुन लेंगे..उत्सुकता बढती जा रही है ...
हाँ नहीं तो...!!
भाई इसे एक बैठक मे पूरी पढ़ना है .. फिरभी बधाई इस अच्छी रचना के लिये
ReplyDeleteहम तो अभी पुरी पढेगे तभी कुछ जान पायेगे... लेकिन कुछ कुछ आईडिया हो गया है देके कहां तक हम सही है, धन्यवाद
ReplyDeleteहम्म... आगे मोहतरमा के शादी की बात आने वाली है ?
ReplyDeleteबहुत रोचक और सहज भाव से चल रही है कहानी। अगली कडी के लिये उत्सुकता बढ गयी है। शुभकामनायें
ReplyDeleteटूटा सिलसिला भी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा - लग गया पढ़ कर..बढ़िया प्रवाह..
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