.
* पहली कड़ी में -
मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था। सोचा कि उसके बहाने तुमसे भी मिल लूंगा।
* दूसरी कड़ी में -
जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
* तीसरी कड़ी में -
"मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।
* पिछले अंश में -
तुम्हारी रामकहानी सुनने के बाद मैं संजय का जन्मदिन मनाने निकला।
अब आगे की कहानी ...
=========================
घंटी बजाने से पहले दो कदम पीछे हटकर मैंने घर को अच्छी प्रकार देखा। घर बहुत सुन्दर था। दरवाज़ा संजय ने खोला। बिल्कुल पहले जैसा ही था। कनपटी पर एकाध बाल सफेद हो गये थे। चश्मा तो वह पहले भी लगाता था। चिर-परिचित निश्छल मुस्कान। देखते ही मन निर्मल और चित्त शीतल हो गया। लगा जैसे हम कभी अलग हुए ही नहीं थे। संजय फोन पर था। बात करते-करते ही उसने उत्साह से मुझे गले लगाया और फोन मुझे पकड़ा दिया।
“आशीष बेटा, कैसे हो?” आंटी की ममतामयी वाणी सुनकर तो मैं निहाल ही हो गया, “जन्मदिन की शुभकामनायें।”
“आपको याद है कि मेरा जन्मदिन भी आज ही होता है?” मैं भाव-विह्वल हो गया।
“तुम भी तो मेरे बेटे हो, ये भी आशीर्वाद दे रहे हैं।”
संजय के माता-पिता से बात पूरी होने पर मैंने फोन वापस किया और थैले में से मिठाई निकालकर उसे दी। हम दोनों ने एक दूसरे को शुभकामनायें दीं। संजय चाय नाश्ता लेकर आया और हम लोग बातें करने लगे। घर अन्दर से भी उतना ही सुन्दर था जैसे कि बाहर से था। हर ओर सम्पन्नता और सुरुचि झलक रही थी। बैठक में लगी कलाकृतियों को ध्यान से देखने के उपक्रम में जब मैं उठा तो देखा कि मेरे ठीक पीछे की दीवार पर एक तस्वीर में संजय एक नन्हे से बच्चे को गोद में लिये था। बिल्कुल वैसी ही सूरत, शहद सी आँखें और हल्के बाल। लगता था जैसे वर्तमान की गोद में भविष्य अठखेलियाँ कर रहा हो। चित्र देखने पर संजय के बच्चे और उसकी माँ को साक्षात देखने की इच्छा ने सिर उठाया।
“आज के दिन भी अकेला बैठा है? सब कहाँ हैं?”
संजय को शुरू से ही जन्मदिन मनाने से विरक्ति सी थी। हमेशा कहता था कि जन्म लेकर हमने कौन सा तीर मार लिया है जो उसका उत्सव मनाया जाये?
“तुझे तो पता है मेरे लिये हर दिन एक सा ही होता है। तेरी भाभी तो टुन्नू को साथ लेकर मायके गयी है। उनके पिताजी बीमार हैं।”
“आज के दिन तो बुला लेता, हम भी भाभी के पाँव छू लेते इसी बहाने।” मैंने शरारत से कहा तो वह भी मुस्कराया।
“अरे शाम को तो आ ही जायेगी, मगर तब तक तेरी ट्रेन छूट जायेगी।”
संजय ने स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई, मानो हमारे पुराने दिन वापस आ गये हों। खाते-खाते हम दोनों ने अलग होने के बाद से अब तक की ज़िन्दगी के बारे में जाना। बचपन के बचपने की बातें याद कर-कर के खूब हँसे। संजय ने कुछ रसीले गीत भी सुनाये। उसे बचपन से ही गाने का शौक था। भगवान ने गला भी खूब सुरीला दिया है। "कांची" से लेकर "सपनों की रानी" तक सबसे मुलाकात हो गयी। मन प्रफुल्लित हुआ। कुल मिलाकर आना सफल हो गया।
पता ही न चला कब मेरे निकलने का समय हो गया। संजय के कहने पर मैं चलने से पहले एक कप चाय पीने को तैयार हो गया। उसे याद था कि चाय के लिये मैं कभी न नहीं कहता हूँ। चाय पीकर मैंने अपना थैला उठाकर चलने का उपक्रम किया कि दरवाज़े की घंटी बजी।
“लकी है, तेरी भाभी शायद जल्दी आ गयीं आज” संजय ने खुशी से उछलते हुए कहा। थैला कंधे पर डाले-डाले ही आगे बढ़कर मैंने दरवाज़ा खोल दिया।
“नमस्ते भाभी! अच्छा हुआ चलने से पहले आपके दर्शन हो गये। इजाज़त दीजिये।” कहकर मैंने हाथ जोड़े और निकल पड़ा। ऑटोरिक्शा में बैठते हुए मुड़कर देखा, मुझे विदा करने के लिये अभी भी संजय और तुम देहरी पर खड़े थे।
[समाप्त]
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मेरी कुछ और कहानियाँ
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* पहली कड़ी में -
मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था। सोचा कि उसके बहाने तुमसे भी मिल लूंगा।
* दूसरी कड़ी में -
जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
* तीसरी कड़ी में -
"मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।
* पिछले अंश में -
तुम्हारी रामकहानी सुनने के बाद मैं संजय का जन्मदिन मनाने निकला।
अब आगे की कहानी ...
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घंटी बजाने से पहले दो कदम पीछे हटकर मैंने घर को अच्छी प्रकार देखा। घर बहुत सुन्दर था। दरवाज़ा संजय ने खोला। बिल्कुल पहले जैसा ही था। कनपटी पर एकाध बाल सफेद हो गये थे। चश्मा तो वह पहले भी लगाता था। चिर-परिचित निश्छल मुस्कान। देखते ही मन निर्मल और चित्त शीतल हो गया। लगा जैसे हम कभी अलग हुए ही नहीं थे। संजय फोन पर था। बात करते-करते ही उसने उत्साह से मुझे गले लगाया और फोन मुझे पकड़ा दिया।
“आशीष बेटा, कैसे हो?” आंटी की ममतामयी वाणी सुनकर तो मैं निहाल ही हो गया, “जन्मदिन की शुभकामनायें।”
“आपको याद है कि मेरा जन्मदिन भी आज ही होता है?” मैं भाव-विह्वल हो गया।
“तुम भी तो मेरे बेटे हो, ये भी आशीर्वाद दे रहे हैं।”
संजय के माता-पिता से बात पूरी होने पर मैंने फोन वापस किया और थैले में से मिठाई निकालकर उसे दी। हम दोनों ने एक दूसरे को शुभकामनायें दीं। संजय चाय नाश्ता लेकर आया और हम लोग बातें करने लगे। घर अन्दर से भी उतना ही सुन्दर था जैसे कि बाहर से था। हर ओर सम्पन्नता और सुरुचि झलक रही थी। बैठक में लगी कलाकृतियों को ध्यान से देखने के उपक्रम में जब मैं उठा तो देखा कि मेरे ठीक पीछे की दीवार पर एक तस्वीर में संजय एक नन्हे से बच्चे को गोद में लिये था। बिल्कुल वैसी ही सूरत, शहद सी आँखें और हल्के बाल। लगता था जैसे वर्तमान की गोद में भविष्य अठखेलियाँ कर रहा हो। चित्र देखने पर संजय के बच्चे और उसकी माँ को साक्षात देखने की इच्छा ने सिर उठाया।
“आज के दिन भी अकेला बैठा है? सब कहाँ हैं?”
संजय को शुरू से ही जन्मदिन मनाने से विरक्ति सी थी। हमेशा कहता था कि जन्म लेकर हमने कौन सा तीर मार लिया है जो उसका उत्सव मनाया जाये?
“तुझे तो पता है मेरे लिये हर दिन एक सा ही होता है। तेरी भाभी तो टुन्नू को साथ लेकर मायके गयी है। उनके पिताजी बीमार हैं।”
“आज के दिन तो बुला लेता, हम भी भाभी के पाँव छू लेते इसी बहाने।” मैंने शरारत से कहा तो वह भी मुस्कराया।
“अरे शाम को तो आ ही जायेगी, मगर तब तक तेरी ट्रेन छूट जायेगी।”
संजय ने स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई, मानो हमारे पुराने दिन वापस आ गये हों। खाते-खाते हम दोनों ने अलग होने के बाद से अब तक की ज़िन्दगी के बारे में जाना। बचपन के बचपने की बातें याद कर-कर के खूब हँसे। संजय ने कुछ रसीले गीत भी सुनाये। उसे बचपन से ही गाने का शौक था। भगवान ने गला भी खूब सुरीला दिया है। "कांची" से लेकर "सपनों की रानी" तक सबसे मुलाकात हो गयी। मन प्रफुल्लित हुआ। कुल मिलाकर आना सफल हो गया।
पता ही न चला कब मेरे निकलने का समय हो गया। संजय के कहने पर मैं चलने से पहले एक कप चाय पीने को तैयार हो गया। उसे याद था कि चाय के लिये मैं कभी न नहीं कहता हूँ। चाय पीकर मैंने अपना थैला उठाकर चलने का उपक्रम किया कि दरवाज़े की घंटी बजी।
“लकी है, तेरी भाभी शायद जल्दी आ गयीं आज” संजय ने खुशी से उछलते हुए कहा। थैला कंधे पर डाले-डाले ही आगे बढ़कर मैंने दरवाज़ा खोल दिया।
“नमस्ते भाभी! अच्छा हुआ चलने से पहले आपके दर्शन हो गये। इजाज़त दीजिये।” कहकर मैंने हाथ जोड़े और निकल पड़ा। ऑटोरिक्शा में बैठते हुए मुड़कर देखा, मुझे विदा करने के लिये अभी भी संजय और तुम देहरी पर खड़े थे।
[समाप्त]
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मेरी कुछ और कहानियाँ
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बड़ा प्यारा लिखते हो ...एक बार शुरू करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteपूरी कहानी आज ही पढी। दिल के रिश्तों की अजीब दास्तां। नई तकनीक ने कब से बिछुडे लोगों को फिर से मिला दिया। लेकिन इस कहानी मे कहीं कुछ कमी खटकती है तो इस का उद्देश्य़ इसका सन्देश । या फिर ये एक संस्मरन है। अन्यथा न लें। जिग्यासा सी है मन मे। शुभकामनायें।
ReplyDelete@निर्मला जी,
ReplyDeleteसच कहूँ तो मेरी हर कहानी की तरह यह भी एक तरह से संस्मरण ही है (श्श्श्श, किसी से कहियेगा नहीं!) जहाँ तक उद्देश्य या सन्देश की बात है, तो कुछ भी कहने से पहले मैं अन्य पाठकों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करूंगा क्योंकि मैं इस कहानी के प्रति उनकी दृष्टि को अपने कथन से प्रभावित नहीं करना चाहता हूँ।
कहानी है या संस्मरण, जो भी है मुझे दुखी कर रहा है...
ReplyDeleteअच्छी लगी आपकी कहानी
ReplyDeleteशुभकामनाये
kahani hai ya sansmaran -dono hi roopon me safal v sarthak prastuti hai .bahut achchha likhte hain aap .badhai .
ReplyDeleteदोस्ती की तरंग हो तो खिचड़ी भी फाइव स्टार का आनन्द देती है।
ReplyDeleteइस तकनीक के निश्चित ही अनेकों फ़ायदे हुये हैं, जिन लोगों से सपने में भी मिलने की उम्मीद नही थी वो भी आज जुड चुके हैं. वैसे आप निर्मला जी को भले ही बताने के लिये मना करें पर हम जानते हैं कि आपकी कहानियां क्या होती हैं?:)
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि कि बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
इस तकनीक के निश्चित ही अनेकों फ़ायदे हुये हैं, जिन लोगों से सपने में भी मिलने की उम्मीद नही थी वो भी आज जुड चुके हैं. वैसे आप निर्मला जी को भले ही बताने के लिये मना करें पर हम जानते हैं कि आपकी कहानियां क्या होती हैं?:)
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि कि बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
संजय और तुम अभी भी दरवाजे पर खड़े थे ...
ReplyDeleteकहानी समाप्त !
एक खराब आदत है कहानी में अंतिम कड़ी के बाद ही पढ़ना शुरू करती हूँ क्या करे रहस्य मार डालता है ...संस्मरण हो या कहानी ..मज़ा आया पढ़कर
ReplyDeleteगाड़ी में कुछ लोग बात कर रहे थे कि ज्यादातर रेल दुर्घटनाओं में आखिरी डिब्बों को ज्यादा नुकसान पहुंचता है। अपनी टिप्पणी ये थी कि आखिरी डिब्बा होना ही नहीं चाहिये:)
ReplyDeleteभैया,इस सीरिज़ की आखिरी पंक्ति गज़ब की है। आप तो निकल लिये आटो में बैठकर, इस संजय के दिमाग में कई सवाल रह गये:))
जून से इंतजार चल रहा था, कीमत वसूल पायी।
आदि से अन्त तक पाठक में जिज्ञासा जगाती हुई रोचक कहानी।
ReplyDeleteअच्छी लगी...
शुभकामनाएं.
बहुत अच्छी लगी आप की यह कहानी धन्यवाद
ReplyDeleteसारा कुछ एक बार में पढ़ डाला..जबरदस्त!!
ReplyDelete@ इस संजय के दिमाग में कई सवाल रह गये:))
ReplyDeleteपूछ लो जी सारे सवाल। आपको तो टॉप प्रायरिटी मिलेगी कथानायक की नामाराशि वाले हैं।
विवाह योग्य होने और विवाह हो चुकने के मध्य समय का लंबा अंतराल है तो यह अस्वाभाविक नहीं है कि प्रेम सम्बन्ध विकसित हों पर यह ज़रुरी नहीं है कि सभी के प्रेम संबंधों की परिणति विवाह ही हो ! आशय ये है कि विवाह पूर्व के प्रेम को अपवाद / असहज नहीं कहा जा सकता यद्यपि असहजता तब होगी जब उसे विवाहेतर संबंधों की शक्ल में ढ़ोया जाए !
ReplyDeleteइस कथा को पढते वक्त अंतिम विदाई वाले दृश्य का अनुमान बस ऐसे ही कारण से था और यह भी सोचा कि विवाह सम्बन्ध परिचितों के संसार में ही होते हैं तो विवाह पूर्व के प्रेम से इस शक्ल में मिलन का संयोग भी हो सकता है !
प्रेमिका ने अपने पति के साथ सामंजस्य की जो तकनीक विकसित की है वो हमारे नज़रिए से तकलीफदेह /अनुचित तो है पर प्रेमिका के पास इसका कोई तर्कसंगत कारण / आधार भी ज़रूर होगा मिसाल के तौर पर प्रथम प्रेम की असफलता जन्य अनुभूति या फिर पुरुषों से प्रतिकार जैसा या अन्य कोई !
पूर्व प्रेमी से मिलते वक़्त नायिका के व्यवहार और बोलचाल का आकलन भी कमोबेश गुजरे वक़्त और गुज़र रहे वक़्त में सामंजस्य बिठाने की रौशनी में ही कर रहा हूं बस इसलिए नायिका को वैम्पिश नहीं देख पाया !
देहयष्टि में बदलाव अथवा किन्ही अन्य व्यवहारिक कारणों से यदि प्रेमी का नायिका से मोहभंग हुआ तो यह बेहतर ही है वर्ना अलगाव की पीड़ा झेलना संभव नहीं रह जाता ! माना यह जाए कि बदलाव अतीत के दुःख को मद्धम करते हैं ! मोह /आसक्ति / कुछ खो गये , के अहसास की शिद्दत को कम करते हैं !
बहरहाल संस्मरण कहूं या प्रेम कथा मुझे सहज और नितांत परिचित सी लगी !
bahut dino ke baad aana sarthak ho gaya....katha achhi lagi
ReplyDeletesadhuwaad...
मैंने पहले की कोई कड़ी नहीं पढी थी। वैसे ये अच्छा ही है वरना ६ महीने का इन्तजार कुछ अधिक ही था मेरे लिए तो। सारे भाग पढ़ के अभी लौटा हूँ, और लगभग सभी भागों में दी गई सभी टिप्पणियों से सहमत हूँ।
ReplyDeleteसंस्मरण या कहानी जो भी हो, बाँध के रखा है इसने। वाक्यों के बीच का अनलिखा सम्मोहन शानदार है।
आभार!
अनुराग, यह कहानी कुछ अलग थी। नायक का नायिका से मोहभंग बहुत स्वाभाविक तरीके से हुआ। वैसे जीवन बचपन से बुढ़ापे तक मोहभंग की ही तो कहानी है।
ReplyDeleteमैंने सारी कड़ियाँ आज ही पढ़ीं। प्रतीक्षा मुझे पसन्द नहीं। इकट्ठे पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है।
बधाई।
घुघूती बासूती
कथानायक? अच्छा जी..
ReplyDeleteनहीं पूछते फ़िर. एक सवाल और बढ़ गया:))
संस्मरण की तरह लिखी कहानी ... नाजुक रिश्तों की कई परतों को खोलती है ...
ReplyDeleteआपका लिखने का अंदाज़ तो बहुत ही रोचक है अनुराग जी ...
आशा है आप सकुशल होंगे ..
sundar kahani...jyada bolne ki condition me hi nahi hu kyunki aaj aapki saari kahaniyan ek sath padh rahi hu
ReplyDelete