नोट: उत्खनन क्षेत्र की साईट १९२.३ बी पर मिले एमु के चर्मपत्र पर लिखे इस वार्तालाप से दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप की प्राचीन मय सभ्यता के कुछ रहस्य उजागर होते हैं. इस चर्मपत्र का रहस्य अब तक उसी प्रकार से गुप्त रखा गया है जैसे कि आज तक किसी भी मानव के चन्द्रमा पर और हिमालय की एवेरेस्ट चोटी पर न पहुँच पाने का रहस्य. छद्म-वैज्ञानिकों के अनुसार इस चर्मपत्र पर इंसानी रक्त से लिखी गयी इबारत एक प्रोडिजी बालक "वंशबुद्धि अखबार पौलिसी" और एक युवक "सतर्कवीर कटहल दिलजला" का वार्तालाप है जो किसी सम्राट के गुप्तचर द्वारा छिपकर् दर्ज किया गया मालूम होता है. सुविधा के लिए हम इन्हें क्रमशः वंश और वीर के नाम से पुकारेंगे. आइये पढ़ते हैं इस दुर्लभ प्रतिलिपि का अकेला हिन्दी अनुवाद केवल आपके लिए. सरलता के उद्देश्य से अनुवाद के भाषा और सन्दर्भ सम्पादित किये गये हैं. कृपया इसे सीरियसली न लें, धन्यवाद!
वीर: यार तू हर समय क्या सोचता रहता है?
वंश: यह भारत कहाँ है?
वीर: धरती के नीचे, पाताल में.
वंश: वहां कैसे जाते हैं?
वीर: पानी से?
वंश: पानी में ज़िंदा कैसे रहते हैं?
वीर: अरे पानी के अन्दर नहीं जाते, पानी के जहाज़ से जाते हैं. सीधे चलते जाते हैं और भारत आ जाता है.
वंश: जब ज़मीन के नीचे है तो सीधे चलते जाने से कैसे आ जाता है.
वीर: अरे आजकल विज्ञान का युग है. गुरूजी कहते हैं कि अब दुनिया गोल हो गयी है. सीधे चलते रहो तो धरातल से पाताल पहुँच जाते हैं. भारत, हमारे ठीक नीचे.
वंश: यकीन नहीं होता.
वीर: Ripley's! Believe it.
वीर: आज का फ़ुटबाल का खेल बढ़िया था, खूब मज़ा आया?
वंश: फ़ुटबाल के नियमों में कभी कोई परिवर्तन होगा क्या?
वीर: तुम हमेशा परिवर्तन की बात क्यों करते हो? हमारे काट मार कमरकस बाबा के बनाए हुए नियम अपने आप में सम्पूर्ण हैं. उनमें रंचमात्र परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है.
वंश: क्या बात करते हो? गेंद...
वीर: फिर वही गेंद की बात. इतनी कड़ी क्यों होती है? खिलाड़ियों के पैर लहूलुहान हो जाते हैं. [हंसता है] अरे हम असुरवीर हैं. हमारे कपडे, भोजन, ज़मीन, झंडा सब लहू से लाल है, पैरों का क्या है?
वंश: मैं कड़ेपन की बात नहीं कर रहा हूँ.
वीर: फिर क्या बात है?
वंश: पिछले खेल में जीते हुए कप्तान के सर को गेंद की तरह प्रयोग क्यों करते हैं हम? यह मानवता के विरुद्ध है.
वीर: तुम्हें क्या हो गया है? अव्वल तो हम मानव नहीं हैं.... और फ़ुटबाल खेलना कहीं से भी मानवता के विरुद्ध नहीं है.
वंश: अच्छा यह बताओ कि हम लोग मानवों से ज़्यादा क्यों जीते हैं?
वीर: क्योंकि वे मूर्ख हैं.
वंश: मूर्खता का अल्पायु से क्या सम्बन्ध है?
वीर: सम्बन्ध है. उन मूर्खों ने अपने पंचांग में हर वर्ष ३६० दिनों का रखा है. जबकि हमारे दार्शनिकों ने साल को २०० दिन का बनाया है.
वंश: उससे क्या?
वीर: इस प्रकार ३६००० दिनों में वे केवल १०० साल ही जीते हैं जबकि हम लोग १८० साल के हो जाते हैं.
वंश: हमारा पंचांग किसने बनाया?
वीर: मयासुर बाबा ने. देखा नहीं, वे प्रस्तर शिलाओं पर कुछ खोदकर रखते जाते हैं और हमारे गुलाम उनका ढेर लगाते जाते हैं.
वंश: हाँ, देखा तो है. वे कब तक यह पंचांग लिखते रहेंगे?
वीर: जब तक जीवित हैं. उनकी गणना के अनुसार अपने देहांत से पहले वे २०१२ ईसवी तक के पंचांग लिख लेंगे.
वंश: और अगर २०१२ ईसवी के प्राणी आगे के पंचांग न पाकर यह सोचने लगे कि आगे उनका समय समाप्त हो गया है, या ब्रह्माण्ड का अंत होने वाला है, तब तो अफरातफरी मच जायेगी न?
वीर: मुझे नहीं लगता कि भविष्य के लोग ऐसे मूर्ख होंगे. लेकिन भविष्य के बारे में कुछ कहा भी नहीं जा सकता है.
वंश: Ripley's! Believe it.
[समाप्त]
The description of the Mesoamerican ballgame from Harvard museum of natural history
मय सभ्यता की कन्दुक क्रीडा का वर्णन - हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से
[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. Photo by Anurag Sharma]
आजके कमेंट्स देखने लायक होने चाहिए ! शुभकामनाएं !
ReplyDeleteमजेदार!!!
ReplyDeleteकल्पना का सफल प्रक्षेपण।
ReplyDeleteअच्छी कहानी बनाई है वार्तालाप के माध्यम से।
ReplyDeleteआभार
ग़जब भैया ग़जब! क्या क्या और कैसे लपेट दिए !!
ReplyDeleteहमलोगों के यहाँ अरबी के पत्ते की लपेटउवा पकौड़ी (रिकवँच) बनती है। बहुत जायकेदार लेकिन स्वाद और टेक्स्चर तभी आते हैं जब लपेटाई ठीक से की जाय :)
@ चर्मपत्र पर इंसानी रक्त से लिखी गयी इबारत
@ तुम हमेशा परिवर्तन की बात क्यों करते हो? हमारे काट मार बाबा के बनाए हुए नियम अपने आप में सम्पूर्ण हैं. उनमें रंचमात्र परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है.
@ Reply's! Believe it... ऑर नॉट
@उन मूर्खों ने अपने पंचांग में हर वर्ष ३६० दिनों का रखा है. जबकि हमारे दार्शनिकों ने साल को २०० दिन का बनाया है.
@ मुझे नहीं लगता कि भविष्य के लोग ऐसे मूर्ख होंगे. लेकिन भविष्य के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है.
वंश: Reply's! Believe it.
क्या ग़जब धार है !
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ReplyDeleteअविश्वसनीय !
विश्वास नहीं होता..पर आप मज़ाक भी तो नहीं करते !
धन्यवाद गिरिजेश, गलतियाँ सुधार दी हैं!
ReplyDeleteआपकी बात को हम तो सीरियसली ही लेते हैं जी,वंश और वीर की बातचीत बहुत ज्ञानवर्धक रही। आने दो जी 2012 को, देख लेंगे उसे भी।
ReplyDeleteमगर, ओ कित्थे है, पार्ट थ्री ऑफ़ ’सच मेरे यार है’?
डा० साहब,
ReplyDeleteआज की पोस्ट को मज़ाक ही समझ लीजिये. आगे की कहानी लिखने की मनस्थिति नहीं बन सकी सो यह त्वरित पोस्ट थेल दी. वैसे चित्र असली है,खेल का उद्गम भी. हाँ पाताल को भारत भूमि के नीचे मानना परम्परा में व्यक्तिगत श्रद्धा की बात है.
एक हिंदी धारावाहिक के पात्र वंश और वीर को लेकर एक काल्पनिक (?) सुन्दर वार्तालाप कथा ...
ReplyDeleteव्यग्य की धार गज़ब है ...!!
आपके पोस्ट को सीरिअसली कैसे न लें भैया ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ... मज़ाक में सीरिअस बात ... बढ़िया ...
जानकारी भी अच्छी है
मैने भी सोचा कि शायद हिन्दी धारावाहिक "उतरन" की अगली कडी आप लिख रहे हैं। हम तो कहानी की प्रतीक्षा कर रहे थे। धन्यवाद।
ReplyDeleteभारत में तो कहा जा रहा है कि 2012 के बाद भारत अपने चरमोत्कर्ष पर होगा और इन्होंने आगे का पंचाग ही नहीं बनाया। अरे बाबा हमारे यहाँ बनवा लो। बड़ी अच्छी कल्पना और बड़ा अच्छा व्यंग्य।
ReplyDeleteदीर्घ आयु का 'पंच' जबरदस्त :)
ReplyDeleteएकदम सीरियसली नहीं लिया !
ReplyDeleteपाताल लोक .... हम तो अमरीका को ही मानते है
ReplyDeleteपाताल लोक .... हम तो अमरीका को ही मानते है
ReplyDeleteचर्मपत्र लेकिन उस समय तो अमेरिका का नाम भी नही था.... वेसे कहानी मजे दार है. धन्यवाद
ReplyDeleteहा हा!! हम तो सिरियसली पढ़ रहे थे...:)
ReplyDeleteBahut majedaar ... ek baat to samajh aai vardh 365 ki jagah 200 din ka hota to aayu lambee jaroor hoti ...
ReplyDeleteBahut achhaa saadha hai ...
मजेदार । दर्शनीय एवं सुननीय ।
ReplyDeleteसिर्फ एक शब्द में कहना चाहूँ तो "लाजवाब"!!
ReplyDeleteमजेदार प्रयोंग.
ReplyDelete.
ReplyDeleteawesome !
am mesmerized !
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लगभग डेड महीने से सारी दुनिया से कटा हुआ हूँ। कुछ भी समझ नहीं पड रहा है। नदियों में बहुत पानी बह गया है। क्षमा करें, ब्लागों पर असंख्य पोस्टें बह गई हैं। धीरे-धीरे सूण् पडेगी। बहरहाल, आपकी पोस्ट केवल पढ ली। इससे अधिक और कुछ नहीं।
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