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Sunday, October 17, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 6

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अब तक की कथा:
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अनुरागी मन - 1
अनुरागी मन - 2
अनुरागी मन - 3
अनुरागी मन - 4
अनुरागी मन - 5
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रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
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“क्या पढ़ रहे हैं आप? देखें, कौन सी किताब पसन्द आयी अपको?”

कहते हुए परी उनके निकट आ गयी। जब तक वे बताते कि अजब लिपि में लिखी इन किताबों के बारे में वे बिल्कुल अज्ञानी हैं, किताब को निकट से देखने के प्रयास में परी उनसे सटकर खड़ी थी। इतना निकट कि वे उसकी साँसों के आवागमन के साथ-साथ उसके शरीर का रक्त प्रवाह भी महसूस कर सकते थे। क्या परियों के शरीर में इंसानों की तरह रक्त ही बहता है या कोई दैवी द्रव? सुरा? वारुणी? यह कैसा प्रश्न है? उन्हें लगा जैसे वे दीवाने होते जा रहे हैं। भला कोई अप्सरा उनसे निकटता बढ़ाना क्यों चाहेगी? कुछ तो है जो वे देख नहीं पा रहे हैं। कन्धे से एड़ी तक हो रहे उस सम्मोहक स्पर्श से उनके शरीर में एक अभूतपूर्व सनसनी हो रही थी। उनके हृदय की बेचैनी अवर्णनातीत थी। अगर वे दो पल भी उस अवस्था में और रहते तो शायद अपने-आप पर नियंत्रण खो देते। कुशलता से अपने अंतर के भावों पर काबू पाकर उन्होंने पुस्तक को मेज़ पर फ़ेंका और पास पड़े सोफे में धँस से गये।

बाहर गली में कोई ज़ोर से रेडियो बजा रहा था शायद:

बाहर से पायल बजा के बुलाऊँ
अंदर से बाँहों की साँकल लगाऊँ
तुझको ही ओढूँ तुझी को बिछाऊँ
तोहे आँचल सा SSS
तोहे आँचल सा कस लूँ कमरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में

एक रहस्यपूर्ण मुस्कान लिये अप्सरा कुछ देर उन्हें देखती रही फिर साथ ही बैठ गयी। उसने चाय का प्याला उठाकर वीरसिंह के हाथ में कुछ इस तरह उंगलियाँ स्पर्श करते हुए थमाया कि वीरसिंह के दिल के तार फिर से झनझना उठे। वीरसिंह चाय पीते जा रहे थे, आस पास का नज़ारा भी कर रहे थे और बीच-बीच में चोर नज़रों से अपनी परी के दर्शन भी कर लेते थे। वे मन ही मन विधि के इस खेल पर आश्चर्य कर रहे थे, परंतु साथ ही अपने भाग्य को सराह भी रहे थे। हवेली के अन्दर झरना के साथ के वे क्षण निसन्देह उनके जीवन के सबसे सुखद क्षण थे।

तभी वासिफ की माँ अन्दर आ गयीं। उन्होंने बताया कि वासिफ अपने दादाजी के साथ कुछ दूर तक गया है और वापस आने तक वीर को वहीं रुकने को कहा है। सामने बैठकर माँ वीर के घर-परिवार दादा-दादी आदि के बारे में पूछती रहीं और प्याला हाथ में थामे वीर विनम्रता से हर सवाल का जवाब देते हुए अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करते रहे। हाँ, माँ की नज़रें बचाकर बीच-बीच अप्सरा-दर्शन भी कर लेते थे। अफसोस कि उनकी चोरी हर बार ही पकड़ी जाती क्योंकि झरना उन्हें अपलक देख रही थी। नज़रें मिलने पर दोनों के चेहरे खिल उठते थे। न मालूम क्या था उन कंटीले नयनों में, ऐसा लगता था मानो उनके हृदय को बीन्धे जा रहे हों।

इसी बीच बाहर से एक आवाज़ सुनाई दी, “ज़रीना, ओ ज़रीना बेटी ... ज़रा हमारे कने अइयो”।

आवाज़ सुनते ही अप्सरा “अभी आयी” कहकर बाहर दौड़ी। अब वीर सिंह का सर चकराने लगा। क्या परी ने अपना नाम उन्हें जानबूझकर ग़लत बताया था या फिर वे सचमुच दीवाने हो गये हैं जो उन्होंने ज़रीना की जगह झरना सुना। उन्हें क्या होता जा रहा है। चाय में कुछ मिला है क्या? या इस पुरानी हवेली की हवा में ही ...?

“बहुत पसीना आ रहा है बेटा, तबीयत तो ठीक है न?” वासिफ की माँ ने प्यार से दायीं हथेली के पार्श्व से उनका माथा छूकर पूछा।

[क्रमशः]

Thursday, September 16, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 5

चित्र अनुराग शर्मा

अनुरागी मन
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भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
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परी की मुस्कान के उत्तर में वीरसिंह भी मुस्कराये और फिर एक जम्हाई लेकर सोने के लिये जाने का उपक्रम करने लगे। रात वाकई गहराने लगी थी। आगे का किस्सा सुनने की उत्सुकता ईर और फत्ते दोनों को ही थी मगर अगले दिन तीनों को काम पर भी जाना था। सोने से पहले अगले दिन कहानी पूरा करने का वचन वीरसिंह से ले लिया गया। जैसे तैसे अगला दिन कटा। फत्ते घर आते समय शाम का खाना होटल से ले आया ताकि समय बर्बाद किये बिना कथा आगे बढ़ाई जा सके। जल्दी-जल्दी खाना निबटाकर, थाली हटाकर तीनों कथा-कार्यक्रम में बैठ गये।

एक पुरानी हवेली अन्दर से इतनी शानदार हो सकती है इसका वीर को आभास भी नहीं था। वासिफ ने वीर को अपनी दादी और माँ से मिलाया। दोनों ही सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति। वासिफ शायद अपने पिता पर गया होगा। उसके पिता और दादा शायद घर में नहीं थे। माँ चाय बनाने चली गयीं और वासिफ वीर को अन्दर एक कमरे में ले गया। कुछ पल तो वे चौंक कर उस कमरे की शान को बारीकी से देखते रहे जैसे कि सब कुछ आंखों में भर लेना चाहते हों। उसके बाद वे उस ओर चले जिधर पूरी दीवार किताबों से भरी आबनूस की अल्मारी के पीछे छिपी हुई थी। अधिकांश किताबें उर्दू या शायद अरबी-फारसी में थीं और चमड़े की ज़िल्द में मढ़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक पुस्तक छूने ही वाले थे कि एक कर्णप्रिय स्वरलहरी गूंजी, “चाय ले लीजिये।”

उन्होंने मुड़कर देखा और जैसी आशा थी, वही अप्सरा वासिफ के ठीक सामने पड़ी सैकडों साल पुरानी शाही मेज़ पर चाय और न जाने क्या-क्या लगा रही थी। रंग-रूप में वह और वासिफ़ एक दूसरे के ध्रुव-विपरीत लग रहे थे। वासिफ वीर की ओर देखकर हँसते हुए बोला, “इतना सब क्या इसके लिये लाई है? देव समझ रखा है क्या?”

“खायेंगे न आप? ... वरना आपके घर आ जाऊंगी खिलाने” अप्सरा वीर की ओर उन्मुख थी। बीच की मांग के दोनों ओर सुनहरे बालों ने उसका माथा ढँक लिया। उसकी हँसी देखकर वीर को मिलियन डॉलर स्माइल का अर्थ पहली बार समझ में आया।

“देव और अप्सरा, क्या संयोग है?” वीरसिंह सोच रहे थे, “नियति बार-बार उन दोनों को मिलाने का यह संयोग क्यों कर रही है?” वे अप्सरा की बात के जवाब में कुछ अच्छा कहना चाहते थे मगर ज़ुबान जैसे तालू से चिपक सी गयी थी। देव और अप्सरा, स्वर्गलोक, इन्द्रसभा। उनके मन में यूँ ही एक ख्याल आया जैसे उस कमरे में वासिफ नहीं था। उसी क्षण बाहर से एक भारी सी आवाज़ सुनाई दी, “वासिफ बेटा... ज़रा इधर को अइयो...”

“बच्चे को बोर मत करना, मैं बाद में आता हूँ ...” कहकर वासिफ तेज़ी से बाहर निकल गया।

“आइ वोंट, यू बैट!” अप्सरा ने उल्लसित होकर कहा, “टेक योर ओन टाइम!”

वासिफ ने कुछ सुना या नहीं, पता नहीं परंतु इतना सुन्दर उच्चारण सुनकर वीर के अन्दर हीन भावना सी आ गयी। ऑक्सफ़ोर्ड उच्चारण की बहुत तारीफ सुनी थी, शायद वही रहा होगा।

“इधर आ जाइये, उधर क्यों खड़े हैं?” परी की मनुहार से पहले ही वीरसिंह उसके सामने विराजमान थे। किताब अभी भी उनके हाथ में थी।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?” वीर ने लगभग हकलाते हुए पूछा।

“नहीँ” फूल झरे।

“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।

“नहीँ” फूल फिर झरे।

“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”


“झरना... और आपका?”

“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”

“नहीं बतायेंगे अपना नाम? आपकी मर्ज़ी। वैसे आपकी ज़िम्मेदारी मुझे देकर गए हैं वासिफ भाई।

“मैं वीर, वीरसिंह!”

[क्रमशः]

Saturday, September 11, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 4


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अनुरागी मन - भाग 1
अनुरागी मन - भाग 2
अनुरागी मन - भाग 3
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सुबह उठने पर भी वीरसिंह कल वाली परी के बारे में सोचते रहे। जब तक वे नहा धो कर नाश्ते के लिये बैठे, दादाजी अपना अखबार लिये पहले से ही उपस्थित थे। दादी भी रोज़ की तरह अपनी छात्राओं की संगीत की कक्षा सम्पन्न कर के आ चुकी थीं। दादाजी ने हमेशा की तरह अखबार को कोसा और दादी ने उनके पोहे में ढेर सा घी उड़ेल दिया। वीरसिंह खा-पीकर इन्द्रजाल कॉमिक का नया अंक लेने विरामपुरे की इकलौती “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” पहुँच गये। परी का ख्याल अभी भी उनके दिमाग से चिमटा हुआ था। किताबें ढूँढते समय, दुकानदार सक्सेना से बात करते समय उनके मन का एक हिस्सा लगातार यह मना रहा था कि वह अप्सरा सचमुच उन्हें अभी फिर दिख जाये। फिर सोचते कि यदि मनचाहा होता रहता तो कल्पवृक्ष जैसी कल्पनाओं की आवश्यकता ही नहीं होती।

अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।

उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।

दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।

वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।


[क्रमशः]

Monday, September 6, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 3

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]

हर शाम की तरह वीरसिंह गुरुद्वारे से दादाजी के घर की ओर आ रहे थे। नई सराय के नारकीय वातावरण से अपने को निर्लिप्त करने के पूर्ण प्रयास करते हुए सायास अपने आपको भैंसों की दुम, आवारा कुत्तों की भौंक और गधों की लीद से कुशलतापूर्वक बचाते हुए चल रहे थे। अचानक एक जादू सा हुआ। मानो आसपास की सारी गन्दगी किसी चमत्कार की तरह अचानक मिट गयी हो। नई सराय की बासी गन्ध की जगह वातावरण में मलयाचल की सुगन्धि भर गयी। लगा जैसे क्षण भर में नई सराय का पूर्ण कायाकल्प हो गया । सौन्दर्य का झरना सा बहने लगा। उन्होंने नज़रें क्या उठाईं कि फिर हटा न सके।

उनके ठीक सामने एक अप्रतिम सौन्दर्य की मूरत दिखाई दी। उस एक अप्सरा के अतिरिक्त सब कुछ विलुप्त हो गया। और यह अप्सरा बचपन में सुनी दादी की कहानियों की रम्भा और उर्वशी जैसी त्रिलोकसुन्दरी होकर भी उनसे एकदम उलट थी। गर्दन तक कटे हुए आधुनिक बाल उसके स्कर्ट टॉप के एकदम अनुकूल थे। कुन्दन सी त्वचा और नीलम सी आंखें उस कोमलांगी को ऐसी अनोखी रंगत प्रदान कर रहे थे मानो किसी श्वेत-श्याम चित्र में अचानक ही रंग भर गये हों। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि वे कितनी देर तक अपने आसपास से बिल्कुल बेखबर होकर उस अप्सरा को अपलक देखते रहे थे। वे चौंककर होश में तब आये जब उनके कान में किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। देखा कि एक 6-7 वर्षीय बालक ने उस अप्सरा का हाथ खींचकर कहा, “क्या हुआ दीदी?”

अप्सरा का मुँह आश्चर्य से खुला हुआ था। उसके चेहरे पर छपे हुए अविश्वास के भाव देखकर उन्हें लगा कि शायद वह भी उन्हीं की तरह स्तम्भित रह गयी थी। उसने मिस्रीघुली वाणी में बच्चे से कहा, “कुछ भी तो नहीं।” और वीरसिंह की ओर एक मुस्कान बिखेरती हुई चली गयी। कुछ देर ठगे से खडे रहने के बाद वीरसिंह ने कनखियों से इधर-उधर का जायज़ा लिया तो पाया कि नई सराय का कारोबार हमेशा की तरह बेरोकटोक चल रहा था। किसी ने भी उन्हें वशीकृत होते हुए नहीं देखा था। वे घर आये तो दादी ने पूछा, “सब ठीक तो है न बेटा?”

“मुझे क्या हुआ है?” उन्होंने यूँ कहा मानो कुछ हुआ ही न हो। मगर तब तक दादी अन्दर चली गयी थीं, नज़र उतारने की सामग्री लेने के लिये।

रात का खाना खाकर सब सोने चले गये मगर वीरसिंह की आंखों में नीन्द कहाँ। सोचते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी आज देखा था क्या वह सच था या केवल एक भ्रम। उनका ग्वाला कलुआ कहता है कि आसपास के गांवों के कुछ नौजवानों को किसी परी की आत्मा ने नियंत्रित कर लिया था। दिन ब दिन कमज़ोर होते गये और फिर पागल होकर मर गये। वीरसिंह को परी, आत्मा आदि के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। लेकिन तब यह लड़की कौन थी? उस पर वह अनोखी रंगत, अनोखी आँखें और अनोखी आवाज़! इस लोक की तो नहीं हो सकती है वह। और उसकी वह अलौकिक स्मिति? सत्य का पता कैसे लगेगा?

दूर किसी रेडियो पर एक मधुर लोकगीत हवा में तैर रहा था। वीरसिंह उस अप्सरा के बारे में सोचते हुए गीत की सुन्दर शब्द-रचना के झरने में डूबने उतराने लगे।

छल बल दिखाके न कोई रिझा ले
पल्लू गिराके न कोई बुला ले
निकला करो न अन्धेरे उजाले
लाखों सौतन फिरत हैं नगरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में


[क्रमशः]

Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी

अनुरागी मन - कहानी भाग 1

चित्र: अनुराग शर्मा
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सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।

लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।

ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।

[क्रमशः]